Skip to main content

Posts

Showing posts with the label d n madhok

सावन के बादलों उनसे जा कहो...रिमझिम फुहारों के बीच विरह के दर्द में भींगे जोहरा बाई और करण दीवान के स्वर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 702/2011/142 "ओ श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की दूसरी कड़ी में आपका पुनः स्वागत है| कल की कड़ी में आपने वर्षा ऋतु के आगमन की सार्थक अनुभूति कराने वाले राग "मेघ मल्हार" पर आधारित गीत का रसास्वादन किया था| आज हम जिस वर्षाकालीन राग और उस पर आधारित फ़िल्मी गीत सुनने जा रहे हैं, वह "मल्हार" के किसी प्रकार के अन्तर्गत नहीं आता; बल्कि "सारंग" के अन्तर्गत आता है| परन्तु इसका स्वर संयोजन ऐसा है कि इसके गायन-वादन से वर्षाकालीन परिवेश सहज रूप में उपस्थित हो जाता है| दोस्तों, आज का राग है- "वृन्दावनी सारंग"| कल के अंक में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि मल्हार अंग के रागों के अलावा "वृन्दावनी सारंग", "देस" और "जयजयवन्ती" भी ऐसे राग हैं; जो स्वतंत्र रूप से और "मल्हार" के मेल से भी वर्षा ऋतु के परिवेश की सृष्टि करने में सक्षम हैं| मल्हार के मिश्र रागों पर आधारित गीत हम आपको श्रृंखला की अगली कड़ियों में सुनवाएँगे; परन्तु आज हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" का संक्षिप्त परिचय

मोहब्बत में कभी ऐसी भी हालत पायी जाती है.....और मोहब्बत के भेद बताते बताते यूं हीं एक दिन अचानक सहगल साहब अलविदा कह गए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 630/2010/330 सु र-सम्राट कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की अंतिम कड़ी में आप सभी का स्वागत है। कल हमारी बातचीत १९४६ की यादगार फ़िल्म 'शाहजहाँ' पर आकर रुकी थी। इसी साल लाल मोहम्मद के संगीत में मुरारी पिक्चर्स की फ़िल्म आयी 'ओमर ख़ैयाम', जिसमें सहगल साहब एक बार फिर सुरैया के साथ नज़र आये। और फिर आया भारत के इतिहास का सुनहरा वर्ष १९४७। हालाँकि यह सुनहरा दिन १५ अगस्त को आया, इस साल की शुरुआत एक ऐसी क्षति से हुई जिसकी फिर कभी भरपाई नहीं हो सकी। १८ जनवरी को सहगल साहब चल बसे। पूरा देश ग़म के सागर में डूब गया। एक युग जैसे समाप्त हो गया। आपको शायद पता होगा कि उस दौरान लता मंगेशकर संघर्ष कर रही थीं और फ़िल्मों में अभिनय किया करती थीं अपने परिवार को चलाने के लिए। लता ने अपनी कमाई में से कुछ पैसे बचाकर एक रेडिओ ख़रीदा और घर लौट कर उसे 'ऒन' किया और आराम से बिस्तर पर लेट गईं। और तभी रेडियो पर सहगल साहब के इंतकाल की ख़बर आई। लता इतनी हताश हुईं कि उस रेडियो को जाकर वापस कर आईं। लता के उस व

मधुकर श्याम हमारे चोर.....आज उनकी जयंती पर हम याद कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग स्टार के एल सहगल को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 627/2010/327 आ ज है ४ अप्रैल २०११। आज ही के दिन १०७ साल पहले जन्म हुआ था सुर-गंधर्व कुंदन लाल सहगल का। उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की सातवीं कड़ी में आज हम उनकी जयंती पर उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करते हुए उनकी संगीत सफ़र की दास्तान को आगे बढ़ाते हैं। आज की कड़ी में हम क़दम रख रहे हैं ४० के दशक में। १९४० में सहगल साहब के अभिनय और गायन से सजी फ़िल्म आयी 'ज़िंदगी', जिसके गीतों नें एक बार फिर सिद्ध किया कि इस नये दशक के सरताज भी सहगल साहब ही हैं। "सो जा राजकुमारी सो जा", 'ज़िंदगी' की इस कालजयी लोरी को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर 'प्योर गोल्ड' शृंखला में हम सुनवा चुके हैं। १९४० में न्यु थिएटर्स में भीषण आग लगी जिससे इस स्टुडिओ को माली नुकसान पहुँचा। लेकिन अपने आप को संभालते हुए १९४१ में इस कंपनी ने दो फ़िल्में प्रदर्शित कीं - 'लगन' और 'डॊक्टर'। 'लगन' में कानन देवी और सहगल साहब की जोड़ी थी जबकि 'डॊक्टर' में कानन देवी का साथ दिया पंकज मल्लिक नें। आरज़ू लखनवी के लिखे और आर

हम इश्क़ के मारों को दो दिल जो दिए होते....एक और खूबसूरत ख्याल सुर्रैय्या की खनकती आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 587/2010/287 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध सिंगिंग् स्टार सुरैया पर केन्द्रित लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा'। दोस्तों, हमने इस शृंखला में आपको बताया था कि सुरैया ने फ़िल्मों में बाल कलाकार के रूप में क़दम रख था। बतौर बालकलाकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'उसने क्या सोचा', जो बनी थी १९३७ में। जब वो १२ साल की थीं, उन्होंने फ़िल्म 'ताज महल' में अभिनय किया था जिसका श्रेय उनके मामाजी को जाता है। आइए आज इसी वाक्या के बारे में जान लेते हैं सुरैया के जुबाँ से जो उन्होंने शमिम अब्बास के उसी इंटरव्यु में कहा था। "इसमें भी एक इत्तफ़ाक़ है, मेरा कोई इरादा नहीं था फ़िल्म जॊयन करने का। लेकिन मेरे एक अंकल हैं जो फ़िल्मों में काम किया करते थे, 'ऐज़ ए विलन'। He was a very popular actor of his time। तो मैं स्कूल में पढ़ा करती थी, उस वक़्त छुट्टियाँ थी, वकेशन था, तो मैं उनके साथ शूटिंग् देखने चली गई। तो मोहन स्टुडियो में उनकी शूटिंग् थी। वहाँ एक डिरेक्टर थे नानुभाई वकील। तो वो उस

पंछी जा पीछे रहा बचपन मेरा....एक कोशिश ओल्ड इस गोल्ड की अमर गायिका सुर्रैया की यादों को ताज़ा करने की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 581/2010/281 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज ३० जनवरी, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का शहीदी दिवस है। आज के इस दिन का हम शहीदी दिवस के रूप में पालन करते हैं। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस मातृभूमि पर अपने प्राण न्योचावर करने वाले हर जाँबाज़ वीर को। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर न केवल एक नई सप्ताह का आग़ाज़ हो रहा है, बल्कि आज से एक नई लघु शृंखला भी शुरु हो रही है। हिंदी फ़िल्मों के पहले और दूसरे दौर में गायक-अभिनेताओं का रिवाज़ हुआ करता था। बहुत से ऐसे सिंगिंग स्टार्स हुए हैं जो न केवल अपने अभिनय से बल्कि अपने गायन से भी पूरी दुनिया पर छा गये। ऐसी ही एक गायिका-अभिनेत्री जिन्होंने जनसाधारण के दिलों पर राज किया, अपने सौंदर्य और सुरीली आवाज़ से लोगों के मनमोर को मतवाला बनाया, जिनके नैनों ने लोगों के छोटे छोटे जिया को चोरी किया, और जिनके गाये गीतों को सुनकर लोगों ने भी स्वीकारा कि उनकी गायकी में एक उम्र तक असर होनेवाली बात है। जी हाँ, हम उसी गायिका अभिनेत्री की बात कर रहे हैं जो ३१ जनवरी २००४ को हम

तारे वो ही हैं, चाँद वही है, हाये मगर वो रात नहीं है....दर्द जुदाई का और लता की आवाज़, और क्या चाहिए रोने को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 485/2010/185 ल ता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे सुमधुर गीतों से इन दिनों महक रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का बग़ीचा। ये फ़िल्म संगीत के धरोहर के वो अनमोल रतन हैं जिन्हें दुनिया भुला चुकी है। ये गानें आज मौजूद हैं केवल उन लोगों के पास जिन्हें मालूम है इन दुर्लभ गीतों की कीमत। कहते हैं सुन्हार ही सोने को पहचानता है, तो यहाँ भी वही बात लागू होती है। और ऐसे ही एक सुन्हार हैं नागपुर के श्री अजय देशपाण्डेय, जो लता जी के पुराने गीतों के इस क़दर दीवाने हैं कि एक लम्बे समय से उनके रेयर गीतों को संग्रहित करते चले आए हैं और हाल ही में उन्होंने इस क्षेत्र में अपने काम को आगे बढ़ाते हुए www.rarelatasongs.com नाम की वेबसाइट भी लौंच की है। इस वेबसाइट में आपको क्या मिलेगा, यह आप इस वेबसाइट के नाम से ही अंदाज़ा लगा सकते हैं। तो आज की कड़ी के लिए अजय जी ने चुना है सन् १९५० की फ़िल्म 'अनमोल रतन' का एक अनमोल रतन। जी हाँ, लता जी के गाए गुज़रे ज़माने का यह अनमोल नग़मा है "तारे वो ही हैं, चाँद वही है, हाये मगर वो रात नहीं है"। एक विदाई गीत और उसके ब

अखियाँ मिलके जिया भरमा के चले नहीं जाना...जोहराबाई अंबालेवाली की आवाज़ थी जैसे कोई जादू

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 345/2010/45 १९४४ का साल फ़िल्म संगीत के इतिहास का एक और महत्वपूर्ण साल रहा, लेकिन इस साल की शुरुआत भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह दादा साहब फाल्के के निधन से हुआ था। दिन था १६ फ़रवरी। दादा साहब ने पहली भारतीय फ़िल्म 'दि बर्थ ऒफ़ ए पी प्लाण्ट' का निर्माण किया था जिसमें एक बीज के एक पौधे में परिनत होते हुए दिखाया गया था। देश की पहला कहानी केन्द्रित फ़िल्म 'राजा हरीशचन्द्र' का निर्माण भी दादा साहब ने ही किया था जिसका प्रदर्शन २१ अप्रैल १९१३ को बम्बई के कोरोनेशन सिनेमा में किया गया था। उनके उल्लेखनीय फ़िल्मों में शामिल हैं 'लंका दहन' ('१९१६), 'हाउ फ़िल्म्स कैन मेड' (१९१७), 'श्री कृष्ण जनम' (१९१८), 'कालिया दमन' (१९१९), और 'भक्त प्रह्लाद' (१९२६)। ये सब मूक फ़िल्में थीं। दादा साहब को सम्मान स्वरूप उनके नाम पर भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की स्थापना की गई और इसका पहला पुरस्कार १९७० में देवीका रानी को दिया गया था। ख़ैर, वापस आते हैं १९४४ के साल पर। यह साल नौशाद साहब के कर