दिल्ली की इन "बदनाम गलियों" पर गुप्त कैमरे से शूट हुई मनुज मेहता की लघु फ़िल्म का प्रीमिअर, आज आवाज़ पर ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवाँ जिंदगी के, कहाँ है कहाँ है मुहाफिज़ खुदी के, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक कहाँ हैं. ये पुरपेच गलियां, ये बेख्वाब बाज़ार, ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार, ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक कहाँ हैं. ताअफ़्फ़ुन से पुरनीम रोशन ये गलियां, ये मसली हुई अधखिली जर्द कलियाँ, ये बिकती हुई खोखली रंग रलियाँ, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक कहाँ हैं. मदद चाहती हैं ये हव्वा की बेटी, यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी, पयम्बर की उस्मत, जुलेखा की बेटी, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक कहाँ हैं. बुलाओ, खुदयाने-दी को बुलाओ, ये कूचे ये गलियां ये मंज़र दिखाओ, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक को लाओ, सना- ख्वाने- तकदीसे- मशरिक कहाँ हैं. साहिर लुधिअनावी की इन पंक्तियों में जिन गलियों का दर्द सिमटा है, उनसे हम सब वाकिफ हैं. इन्हीं पंक्तियों को जब रफी साहब ने अपनी आवाज़ दी फ़िल्म "प्यासा" के लिए (जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं.....