Skip to main content

सुन मेरे बन्धू रे, सुन मेरे मितवा....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 31

किसी सुदूर अनजाने गाँव की धरती से गुज़रती हुई नदी, उसकी कलकल करती धारा, दूर दिखाई देती है एक नाव, और कानो में गूंजने लगते हैं उस नाव पर बैठे किसी मांझी के सुर. अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए वो अपनी ही धुन में गाता चला जाता है. दोस्तों, शहरों में अपने 'कॉंक्रीट' के 'अपार्टमेंट' में रहकर शायद हम ऐसे दृश्य का नज़ारा ना कर सके, लेकिन एक गीत ऐसा है जिसे सुनकर आप उसी नज़ारे को ज़रूर महसूस कर पाएँगे, वही नदी, वही नाव और उसी मांझी की तस्वीर आपकी आँखों के सामने आ जाएँगे, यह हमारा विश्वास है. और वही गीत लेकर आज हम हाज़िर हुए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' की इस महफ़िल में.

भटियाली संगीत, यानी कि बंगाल के नाविकों का संगीत. नाव चलाते वक़्त वो जिस अंदाज़ में और सुर में गाते हैं उसी को भटियाली संगीत कहा जाता है. और बंगाल के लोक संगीत के इसी अंदाज़ में सचिन देव बर्मन ने इस क़दर महारत हासिल की है कि उनकी आवाज़ में इस तरह का गीत जैसे जीवंत कर देता है उसी मांझी को हमारी आँखों के सामने. 1959 में फिल्म "सुजाता" में बर्मन दादा ने ऐसा ही एक गीत गाया था. संख्या के हिसाब से अगर हम देखें तो भले ही दादा ने कम गीत गाए हैं, पर अदायगी और भाव सम्प्रेषणता की दृष्टि से देखें तो ऐसी गायिकी शायद ही किसी और गायक की आवाज़ में सुनने को मिले. और यही कारण है कि एस डी बर्मन के गाए गीत 'कवर वर्ज़न' के शिकार नहीं हुए. बर्मन दादा भले ही संगीतकार के रूप में विख्यात हुए हों लेकिन क्या आपको पता है कि उन्होने फिल्मजगत में अपनी शुरुआत बतौर गायक ही की थी. सन 1941 में संगीतकार मधुलल दामोदर मास्टर के लिए फिल्म "ताज महल" में पहली बार उन्होने गीत गाया था. तो लीजिए आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में दादा बर्मन की गायिकी को सलाम करते हुए सुनते हैं उन्ही की आवाज़ में यह भटियाली सुर, फिल्म "सुजाता" से. फिल्म में यह एक पार्श्व-संगीत की तरह बजता है. सुनील दत्त और नूतन नदी के घाट पर खडे हैं और दूर किसी नाव में कोई मांझी यह गीत गा रहा है. तो सुन मेरे बंधु रे...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. संजीव कुमार और सुलक्षणा पंडित अभिनीत इस फिल्म का ये शीर्षक गीत है.
२. एम् जी हशमत और कल्याण जी आनंद जी की टीम.
३. अंतरे में पंक्ति आती है "चैन मेरा क्यों लूटे..."

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पारुल ने एक बार फिर रंग जमा दिया. मनु जी और नीरज जी भी बधाई स्वीकारें. ये शायद बहुत आसान था आप सब धुरंधरों के लिए :). नीरज जी तलत साहब पर हमारा आलेख और उनके कुछ ख़ास गीत आप यहाँ सुनें. धुरंधरों की सूची में ममता भी शामिल हो चुकी हैं।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




Comments

अपने जीवन की उलझन को कैसे mai सुलझाऊं -film-उलझन
manu said…
apni to bas ab haajiri hi hai,,,,
ek dam sahi,,,,
Neeraj Rohilla said…
हम भी हाजिरी ही लगा रहे हैं, इस टाईम डिफ़्रेन्स के चक्कर में लेट हो जाते हैं। दूसरा पारूलजी देर रात में आकर उत्तर दे जाती हैं और हम सोते रह जाते हैं, :-)
shanno said…
सजीव जी,
पहेलियों के उत्तर ढूँढने में दिमाग नहीं लगाती हूँ, बस 'ओल्ड इज गोल्ड' के गाने सुनना अच्छा लगता है मुझे. और अगर घर में काम करते हुए सुनो तो आँखें काम पर और कान आवाज़ पर रहते हैं तो एक पंथ दो काज सा हो जाता है......काम भी और गाने सुनना भी. हिन्दयुग्म से गाने सुनना एक नयी चीज़ शामिल हो गयी है मेरे जीवन में. हिन्दयुग्म में इधर-उधर ताक-झांक करते हुए बीच-बीच में इसके गाने भी सुनती हूँ. अच्छा लगता है. इन गानों के लिए शुक्रिया.
जीवन की उलझन यही, हो जाती है देर.
पारुल जी हैं सुलक्षणा, बूझें बिना अबेर.
shanno said…
सजीव जी,
आपसे एक गुजारिश है वह यह कि एक गाना मुझे बहुत पसंद है और वह 'कर्मा' फिल्म से है जिसमे नूतन जी और दिलीप कुमार जी हैं. और वह गाना है ' दिल दिया है जां भी देंगे ये वतन तेरे लिए'. यह गाना बहुत ही अच्छा लगता है मुझे, ना जाने क्यों. हिन्दयुग्म के संग बिताये पलों के दौरान मैं यह गाना मन भर कर खूब सुन सकती हूँ. इस गाने को कई-कई बार सुनकर भी मन नहीं भरता मेरा. इसे अपने गानों की list में शामिल कर लीजिये, please. धन्यबाद.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...