ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 26
दोस्तों, गीत केवल वो नहीं जो एक गीतकार लिखे, संगीतकार उसको स्वरबद्ध करे, और गायक उसे संगीतकार के कहे मुताबिक गा दे. अमर गीत वो कहलाता है जब गायक गीतकार के विचारों को खुद महसूस करे, बाकी हर एक चीज़ को भुलाकर, उसमें खुद को पूरी तरह से डूबो दे, और संगीतकार की धुन को अपने जज़्बातों के साथ एक ही रंग में ढाल दे और उसे तह-ए-दिल से पेश करे. गुज़रे ज़माने के गायकों पर अगर हम ध्यान दें तो पाएँगे कि ऐसी महारत और किसी गायक को हो ना हो, मोहम्मद रफ़ी साहब को ज़रूर हासिल थी. उनका गाया हुआ एक एक नग्मा इस बात का गवाह है. गीत चाहे कैसा भी हो, हर एक गीत वो इस क़दर गा जाते थे कि उनके गाने के बाद और किसी की आवाज़ में उस गीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. ऐसी ही एक ग़ज़ल है 1958 की फिल्म "कालापानी" में जो आज आपकी सेवा में हम लेकर आए हैं - "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये, सागर में ज़िंदगी को उतारे चले गये".
दोस्तों, मैने पिछले कुछ सालों में विविध भारती के कई नायाब 'interviews' को लिपीबद्ध किया है और आज मेरे इस ख़ज़ाने में 600 से ज़्यादा 'रेडियो' कार्यक्रम दर्ज हो चुके हैं. कालापानी फिल्म के इस गीत से संबंधित खोज-बीन के दौरान प्रख्यात सारंगी वादक पंडित राम नारायण का एक 'इंटरव्यू' मेरे हाथ लगा मेरे उसी ख़ज़ाने से जिसमें पंडित-जी ने इस गीत के बारे में उल्लेख किया था. ज़रा आप भी तो पढिये की उन्होने क्या कहा था - "एस डी बर्मन, बहुत रंगीन आदमी हैं, वो जान-बूझकर मेरे साथ ग़लत हिन्दी में बात करते थे. बहुत मज़ा आया उनके साथ काम करके. वो मेरे अच्छे दोस्तों में से एक थे. उन्हे पता था कि किस 'म्युज़ीशियन' से क्या काम करवाना है. एक गाना था "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये", इसकी धुन मैने ही 'सजेस्ट' की थी, इसके 'ओरिजिनल' बोल थे "ले रसूल से जो मुसलमान बदल गया", यह एक पारंपरिक रचना है जो मैने मुहर्रम के मौके पर किसी ज़माने में लहौर में सुना था. बर्मन दादा को धुन पसंद आयी और उन्होने मजरूह सुल्तानपुरी साहब से बोल लिखवा लिए." तो दोस्तों, यह है इस गीत के बनने की कहानी. इस गीत को सुनने से पहले एक और दिलचस्प बात आपको बता दें कि फिल्म में इसी गज़ल का एक और शेर शामिल किया गया है बतौर संवाद, जिसे मुकरी अर्ज़ करते हैं अपनी ही आवाज़ में, और यह शेर था "कश्ती पलट के हाल्क़-ए-तूफान में आ गयी, मौजों के साथ साथ किनारे चले गये". तो पेश है "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये".
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. लता की आवाज़ में रवि के संगीत निर्देशन का एक "मास्टरपीस" गीत.
२. वहीदा रहमान इस फिल्म की नायिका थी और नायक थे गुरु दत्त.
३. मुखड़े में शब्द है - "आसार".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी क्या बात है कमाल कर दिया....एक बार फिर बधाई. आचार्य जी आपका प्यार सलामत रहे...आजकल लगता है हमारे दिग्गज पिछड़ रहे हैं और "डार्क होर्स" बाजी मार रहे हैं. मनु जी, एकदम सही उत्तर, आपको भी बधाई। लेकिन आप तो पहले होते थे पहले बूझने वाले।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
दोस्तों, गीत केवल वो नहीं जो एक गीतकार लिखे, संगीतकार उसको स्वरबद्ध करे, और गायक उसे संगीतकार के कहे मुताबिक गा दे. अमर गीत वो कहलाता है जब गायक गीतकार के विचारों को खुद महसूस करे, बाकी हर एक चीज़ को भुलाकर, उसमें खुद को पूरी तरह से डूबो दे, और संगीतकार की धुन को अपने जज़्बातों के साथ एक ही रंग में ढाल दे और उसे तह-ए-दिल से पेश करे. गुज़रे ज़माने के गायकों पर अगर हम ध्यान दें तो पाएँगे कि ऐसी महारत और किसी गायक को हो ना हो, मोहम्मद रफ़ी साहब को ज़रूर हासिल थी. उनका गाया हुआ एक एक नग्मा इस बात का गवाह है. गीत चाहे कैसा भी हो, हर एक गीत वो इस क़दर गा जाते थे कि उनके गाने के बाद और किसी की आवाज़ में उस गीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. ऐसी ही एक ग़ज़ल है 1958 की फिल्म "कालापानी" में जो आज आपकी सेवा में हम लेकर आए हैं - "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये, सागर में ज़िंदगी को उतारे चले गये".
दोस्तों, मैने पिछले कुछ सालों में विविध भारती के कई नायाब 'interviews' को लिपीबद्ध किया है और आज मेरे इस ख़ज़ाने में 600 से ज़्यादा 'रेडियो' कार्यक्रम दर्ज हो चुके हैं. कालापानी फिल्म के इस गीत से संबंधित खोज-बीन के दौरान प्रख्यात सारंगी वादक पंडित राम नारायण का एक 'इंटरव्यू' मेरे हाथ लगा मेरे उसी ख़ज़ाने से जिसमें पंडित-जी ने इस गीत के बारे में उल्लेख किया था. ज़रा आप भी तो पढिये की उन्होने क्या कहा था - "एस डी बर्मन, बहुत रंगीन आदमी हैं, वो जान-बूझकर मेरे साथ ग़लत हिन्दी में बात करते थे. बहुत मज़ा आया उनके साथ काम करके. वो मेरे अच्छे दोस्तों में से एक थे. उन्हे पता था कि किस 'म्युज़ीशियन' से क्या काम करवाना है. एक गाना था "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये", इसकी धुन मैने ही 'सजेस्ट' की थी, इसके 'ओरिजिनल' बोल थे "ले रसूल से जो मुसलमान बदल गया", यह एक पारंपरिक रचना है जो मैने मुहर्रम के मौके पर किसी ज़माने में लहौर में सुना था. बर्मन दादा को धुन पसंद आयी और उन्होने मजरूह सुल्तानपुरी साहब से बोल लिखवा लिए." तो दोस्तों, यह है इस गीत के बनने की कहानी. इस गीत को सुनने से पहले एक और दिलचस्प बात आपको बता दें कि फिल्म में इसी गज़ल का एक और शेर शामिल किया गया है बतौर संवाद, जिसे मुकरी अर्ज़ करते हैं अपनी ही आवाज़ में, और यह शेर था "कश्ती पलट के हाल्क़-ए-तूफान में आ गयी, मौजों के साथ साथ किनारे चले गये". तो पेश है "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये".
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. लता की आवाज़ में रवि के संगीत निर्देशन का एक "मास्टरपीस" गीत.
२. वहीदा रहमान इस फिल्म की नायिका थी और नायक थे गुरु दत्त.
३. मुखड़े में शब्द है - "आसार".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी क्या बात है कमाल कर दिया....एक बार फिर बधाई. आचार्य जी आपका प्यार सलामत रहे...आजकल लगता है हमारे दिग्गज पिछड़ रहे हैं और "डार्क होर्स" बाजी मार रहे हैं. मनु जी, एकदम सही उत्तर, आपको भी बधाई। लेकिन आप तो पहले होते थे पहले बूझने वाले।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
बदले बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं। और कोई लता, गुरूदत्त, वहीदा रहमान का गीत याद नहीं आता जिसमें "आसार" आता हो। यही गीत है, लाक किया जाये, :-)
सही पहचाना नीरज जी,
सुमित भारद्वाज
सुमित भारद्वाज