ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 32
दोस्तों, क्या आप ने कभी सोचा है कि हिन्दी फिल्म संगीत के इस लोकप्रियता का कारण क्या है? क्यूँ यह इतना लोकप्रिय माध्यम है मनोरंजन का? मुझे ऐसा लगता है कि फिल्म संगीत आम लोगों का संगीत है, उनकी ज़ुबान है, उनके जीवन से ही जुडा हुआ है, उनके जीवन की ही कहानी का बयान करते हैं. ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं जिससे फिल्म संगीत वाक़िफ़ ना हो, ऐसा कोई जज़्बात या भाव नहीं जिससे फिल्म संगीत अंजान रह गया हो. और यही वजह है कि लोग फिल्म संगीत को सर-आँखों पर बिठाते हैं, उन्हे अपने सुख दुख का साथी मानते हैं. सिर्फ़ खुशी, दर्द, प्यार मोहब्बत, और जुदाई ही फिल्म संगीत का आधार नहीं है, बल्कि समय समय पर हमारे फिल्मकारों ने ऐसे ऐसे 'सिचुयेशन्स' अपने फिल्मों में पैदा किये हैं जिनपर गीतकारों ने भी अपनी पूरी लगन और ताक़त से जानदार और शानदार गीत लिखे हैं. किसी के ज़िंदगी में जब कोई उलझन आ जाती है, जब अपने ही पराए बन जाते हैं, तो बाहरवालों से भला क्या कहा जाए! तो दिल से शायद कुछ ऐसी ही पुकार निकलती है कि "अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं, अपनों ने जो दर्द दिए हैं कैसे मैं बतलाऊं".
1975 में बनी फिल्म "उलझन" को संजीव कुमार और सुलक्षणा पंडित की बेहतरीन अदाकारी के लिए याद किया जाता है. और याद किया जाता है इस फिल्म के शीर्षक गीत की वजह से भी. इस गीत के दो संस्करण हैं, एक लता मंगेशकर का गाया हुआ और दूसरा किशोर कुमार की आवाज़ में. इस फिल्म के संगीतकार थे कल्याणजी आनंदजी और गीतकार थे एम् जी हशमत. हशमत साहब ने फिल्म संगीत में बहुत लंबी पारी तो नहीं खेली लेकिन थोडे से समय में कुछ अच्छे गीत ज़रूर दे गए हैं. एम् जी हशमत के गीत उस छतरी की तरह है जिसके नीचे हर दुख दर्द समा जाते है. उनके शब्दों का चयन कुछ ऐसा होता था कि आम लोगों को उनके गीत अपनी ही आवाज़ जान पड्ती. यह तो भाग्य की बात है कि उन्हे गाने लिखने का ज़्यादा मौका नहीं मिला, उनके दिल का दर्द बयां हुआ उनकी कलम से निकले गीतों के ज़रिए, शायद कुछ इसी तरह से जैसा कि प्रस्तुत गीत में कहा गया है.
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. टीम है भरत व्यास और बसंत देसाई की.
२. राजेंदर कुमार अभिनीत इस फिल्म का हर एक गीत इतना मधुर है कि हम क्या कहें.
३. इस दोगाने में "गीत" "मीत", "जीत" आदि काफिये इस्तेमाल हुए हैं.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
लग रहा था कि ये पारुल के लिए ज़रा मुश्किल होगा, पर क्या करें भाई जबरदस्त फॉर्म हैं आजकल....बधाई स्वीकारें... मनु जी और नीरज जी हजारी लगते रहिएगा. शन्नो जी इन गीतों की मिठास आपके जीवन में रस घोल रही है ये जानकार बहुत ख़ुशी हुई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
दोस्तों, क्या आप ने कभी सोचा है कि हिन्दी फिल्म संगीत के इस लोकप्रियता का कारण क्या है? क्यूँ यह इतना लोकप्रिय माध्यम है मनोरंजन का? मुझे ऐसा लगता है कि फिल्म संगीत आम लोगों का संगीत है, उनकी ज़ुबान है, उनके जीवन से ही जुडा हुआ है, उनके जीवन की ही कहानी का बयान करते हैं. ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं जिससे फिल्म संगीत वाक़िफ़ ना हो, ऐसा कोई जज़्बात या भाव नहीं जिससे फिल्म संगीत अंजान रह गया हो. और यही वजह है कि लोग फिल्म संगीत को सर-आँखों पर बिठाते हैं, उन्हे अपने सुख दुख का साथी मानते हैं. सिर्फ़ खुशी, दर्द, प्यार मोहब्बत, और जुदाई ही फिल्म संगीत का आधार नहीं है, बल्कि समय समय पर हमारे फिल्मकारों ने ऐसे ऐसे 'सिचुयेशन्स' अपने फिल्मों में पैदा किये हैं जिनपर गीतकारों ने भी अपनी पूरी लगन और ताक़त से जानदार और शानदार गीत लिखे हैं. किसी के ज़िंदगी में जब कोई उलझन आ जाती है, जब अपने ही पराए बन जाते हैं, तो बाहरवालों से भला क्या कहा जाए! तो दिल से शायद कुछ ऐसी ही पुकार निकलती है कि "अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं, अपनों ने जो दर्द दिए हैं कैसे मैं बतलाऊं".
1975 में बनी फिल्म "उलझन" को संजीव कुमार और सुलक्षणा पंडित की बेहतरीन अदाकारी के लिए याद किया जाता है. और याद किया जाता है इस फिल्म के शीर्षक गीत की वजह से भी. इस गीत के दो संस्करण हैं, एक लता मंगेशकर का गाया हुआ और दूसरा किशोर कुमार की आवाज़ में. इस फिल्म के संगीतकार थे कल्याणजी आनंदजी और गीतकार थे एम् जी हशमत. हशमत साहब ने फिल्म संगीत में बहुत लंबी पारी तो नहीं खेली लेकिन थोडे से समय में कुछ अच्छे गीत ज़रूर दे गए हैं. एम् जी हशमत के गीत उस छतरी की तरह है जिसके नीचे हर दुख दर्द समा जाते है. उनके शब्दों का चयन कुछ ऐसा होता था कि आम लोगों को उनके गीत अपनी ही आवाज़ जान पड्ती. यह तो भाग्य की बात है कि उन्हे गाने लिखने का ज़्यादा मौका नहीं मिला, उनके दिल का दर्द बयां हुआ उनकी कलम से निकले गीतों के ज़रिए, शायद कुछ इसी तरह से जैसा कि प्रस्तुत गीत में कहा गया है.
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. टीम है भरत व्यास और बसंत देसाई की.
२. राजेंदर कुमार अभिनीत इस फिल्म का हर एक गीत इतना मधुर है कि हम क्या कहें.
३. इस दोगाने में "गीत" "मीत", "जीत" आदि काफिये इस्तेमाल हुए हैं.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
लग रहा था कि ये पारुल के लिए ज़रा मुश्किल होगा, पर क्या करें भाई जबरदस्त फॉर्म हैं आजकल....बधाई स्वीकारें... मनु जी और नीरज जी हजारी लगते रहिएगा. शन्नो जी इन गीतों की मिठास आपके जीवन में रस घोल रही है ये जानकार बहुत ख़ुशी हुई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
अपने जीवन की उलझन को मै कैसे सुलाझाऊ . आनंद गया . धन्यवाद्. कभी समयचक्र पर दस्तक दें . धन्यवाद.
फ़िल्म: गूँज उठी शहनाई
इस बार हम अलार्म लगाकर जल्दी उठे थे जिससे इस पोस्ट को पढ सकें, :-)
तेरे सुर और मेरे गीत भी बहुत ही बढियां गीत है.
एक जबरदस्त इत्तेफाक बताऊँ,,,,,
एकदम अच्मभा,,,,,,,
जिस गीत के लिए आप ने अलार्म लगाया था,,
हमारे मोबाइल की "अलार्म-टोन" ही ये गीत है,,,,,
सुबह की शुरआत ही इसी से होती है,,,,
"तेरे सुर और मेरे गीत,,,"
बिस्मिल्लाह खान की शानदार शहनाई,,,,
वाह