महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१८
मुमकिन है कि मेरी इस बात पर कईयों की भौंहें तन जाएँ, कई सारे लोग मुझे देशभक्ति का सबक सिखाने को आतुर हो जाएँ तो कई सारे लोग इस पंक्ति से आगे हीं न पढें, लेकिन आज मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ, वह कई दिनों से मेरे सीने में दबा था और मुझे लगा कि आज का दिन हीं सबसे सटीक दिन है जिस दिन इस बात की चर्चा की जा सकती है। चूँकि हम सब संगीत के पुजारी हैं, संगीत के भक्त हैं और संगीत के देवी-देवताओं की खोज में रहा करते हैं,इसलिए जिस ओर भी हमें सुर और ताल की भनक लगती है, उसी ओर रूख कर लेते हैं। इसी संगीत की आराधना के लिए हमने महफ़िल-ए-गज़ल के इस अंक को भी सजाया है। अब इसे संयोग कहिए या फिर ऊपर वाले की कोई जानी-पहचानी साजिश कि आज की गज़ल से जो दो फ़नकार जुड़े हुए हैं,उनका हमारे मुल्क और हमारे पड़ोसी मुल्क से बड़ा हीं गहरा नाता है। और यही कारण है कि मैं कुछ लीक से हटकर कहने पर आमादा हुआ जा रहा हूँ। जब भी मैं गुलाम अली, मेहदी हसन जैसे फ़नकारों को सुनता हूँ या फिर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,अहमद फ़राज़ जैसे शायरों को पढता हूँ तो मेरे दिल से यह आह उठती है कि काश हिन्दुस्तान का बँटवारा न हुआ होता, काश दोनों मुल्क एक होते तो फिर हम बड़े हीं फ़ख्र से कहते हैं कि नु्सरत फ़तेह अली खान साहब हिन्दुस्तान की शान हैं। बँटवारे का दर्द तब और भी गहरा हो जाता है जब हमें यह मालूम हो कि अमूक शख्स को बँटवारे के दौरान या फिर उसी इर्द-गिर्द अपना सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान की ओर रूख करना पड़ा था। उस ओर से हिन्दुस्तान आने वालों पर भी यही बात लागू होती है। आज हम जिन दो फ़नकारों की बात करने जा रहे हैं, उन दोनों में एक बात खास है और वह यह कि दोनों ने हीं बँटवारे के दर्द को महसूस किया है। पहली शख्सियत एक फ़नकारा हैं जिनका जन्म पंजाब के रोहतक में हुआ था तो दूसरे शख्स एक फ़नकार, एक शायर हैं जिनका जन्म पंजाब के हीं होशियारपुर में हुआ था और दोनों ने हीं पाकिस्तान में अपनी अंतिम साँसें लीं। चलिए उनके बारे में विस्तार से जानकारी लेते हैं।
आज से महज़ ४४ दिन पहले यानी कि २१ अप्रैल को हीं वह बदकिस्मत घड़ी आई थी, जब हमें उस फ़नकारा को अंतिम विदाई देनी पड़ी। हम जिन फ़नकारा की बात कर रहे हैं,उन्हें कुछ लोग पाकिस्तान की "बेग़म अख्तर" भी कहा करते हैं। तो कुछ लोगों का यह भी कहना है कि "अगर नूरजहाँ ने ’मुझसे पहली-सी मोहब्बत’, मेहदी हसन ने ’गुलों में रंग भरे’ और इन फ़नकारा ने ’लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ न गाया होता " तो ’फ़ैज़’ को उतना फ़ैज़ नसीब न होता"। इन फ़नकारा ने "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" को जितना गाया है, उतना शायद हीं किसी और ने गाया होगा। "फ़ैज़" साहब के अलावा "अहमद फ़राज़" की गज़लों को मक़बूल करने में भी इनका बड़ा हाथ था। न जाने ऐसी कितनी हीं गज़लें हैं जो प्रसिद्धि की मुकाम पर तब हीं पहुँचीं जब उन्हें इनकी आवाज़ का सहारा मिला। ये जब तक ज़िंदा रहीं, तब तक इनका इक़बाल बुलंद रहा और हो भी क्यों न हो जब इनका नाम हीं "इक़बाल" था। जी हाँ , हम गज़ल-गायकी की अज़ीम-उस-शान शख्सियत "इक़बाल बानो" की बात कर रहे हैं और यह भी बता दें कि इनका इक़बाल हमेशा हीं बुलंद रहने वाला है। "इक़बाल" साहिबा,जिन्होंने संगीत की तालीम दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खान से ली थी, को अपने फ़न का प्रदर्शन करने का पहला मौका "आल इंडिया रेडियो" के दिल्ली स्टेशन में मिला था। यह सन् ५० के भी पहले की बात है। तब तक वह एक स्टार हो चुकी थीं। कुछ हीं महीनों में उन्हें पाकिस्तान की ओर पलायन करना पड़ा, जहाँ महज सतरह साल की उम्र में उनकी शादी एक जमींदार से कर दी गई। इसे उन्हें चाहने वालों की दुआ कहिये या फिर खुशकिस्मती कि शादी के बाद भी उनका अंदाज कमतर न हुआ और उन्होंने गाना जारी रखा। ५४ से ५९ के बीच उन्होंने लगभग छह उर्दू फिल्मों में गाने गाए, जिनमें "गुमनाम", "क़ातिल", "सरफ़रोश" प्रमुख हैं। पाकिस्तानी संगीत में बेशकिमती योगदान देने के कारण १९७४ में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें तमगा-ए-इम्तियाज़ से नवाजा। "इक़बाल" साहिबा के लिए नवाजिश और अवाम में अवाम का ओहदा ज्यादा बड़ा था और इसीलिए १९८० में जब पाकिस्तान की गद्दी पर फ़ौज़ काबिज थी और जनरल ज़िया उल हक़ का उत्पात चरम पर था, तब उन्होंने लोगों को जगाने के लिए "फ़ैज़" के क्रांतिकारी कलाम गाने शुरू कर दिए। सरकार की कठोर नीतियों और उनके गाने पर लगी पाबंदी का भी उन पर कोई असर न हुआ। ऐसी जिगर वाली थीं हमारी आज की फ़नकारा। उस पुर-असर आवाज़ की मल्लिका ने अपने पति की मौत के बाद लाहौर को अपनी कर्मभूमि की तौर पर चुना और अपनी अंतिम साँस भी वहीं ली। यह तो हुई पहली फ़नकारा की बात, अब हम आज के दूसरे फ़नकार की और रूख करते हैं।
१९१२ में "पंजाब" के होशियारपुर में जन्मे "अब्दुल हाफ़िज़ सलीम" के बारे में अंतर्जाल पर बमुश्किल हीं कोई जानकारी मौजूद है। जिससे भी पूछो, वह आपको उनकी गज़लों की फ़ेहरिश्त थमाकर खुश हो जाता है और आपको भी उतने से हीं संतुष्ट होना होता है। मेरी खुशकिस्मती है कि मैं उनके बारे में इससे ज्यादा कुछ पता कर पाया हूँ। एक तो यह कि "इक़बाल" साहिबा की तरह उन्हें भी बँटवारे में पाकिस्तान जाना पड़ा था। इसके अलावा यह कि सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर को उन्होंने अपनी कर्मभूमि की तौर पर स्वीकार किया था। वहाँ पर "रेडियो पाकिस्तान" में वे "पत्रकार" और "उद्धोषक" का फ़र्ज़ अदा करते रहे और जब "रिटायर" होने का निश्चय किया तब वे "डिप्टी डायरेक्टर जनरल" के पद को सुशोभित कर रहे थे। शायरी के शौक ने उन्हें एक तखल्लुस भी दिया था। और मेरी मानें तो शायद हीं कोई होगा, जो उन्हें उनके मूल नाम से जानता होगा। जी हाँ, शायर और शायरी के प्रशंसक उन्हें "हाफ़िज़ होशियारपुरी" के नाम से जानते हैं। अपनी जन्मस्थली से इस तरह प्यार करने के उदाहरण आज कल कम हीं मिलते हैं। "हाफ़िज़" साहब का तखल्लुस जानने के बाद शायद अब आपने भी उन्हें पहचान लिया होगा। बरसों तक "हैदराबाद" में रहने वाले "हाफ़िज़" साहब ने ६१ साल की उम्र में अपनी अंतिम साँस "कराची" में ली। उनकी गज़लें जो बेहद मक़बूल हुईं, उनमें से कुछ हैं: १)तेरी तलाश में हम जब कभी निकलते हैं, २)कुछ इस तरह से नज़र से गुजर गया कोई , ३)कहीं देखी है शायद तेरी सूरत इससे पहले भी , ४)आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोलकर देखा किए , ५)दीपक राग है चाहत अपनी काहे सुनाए तुम्हें। सारी गज़लें एक से बढकर एक हैं और उन गज़लों की तरह हीं एक और गज़ल है, जो हम आपको आज सुनाने जा रहे हैं। लेकिन उस गज़ल को सुनाने से पहले हम "हाफ़िज़" साहब का हीं एक शेर आपके सामने अर्ज करना चाहते हैं। मुलाहजा फ़रामाईयेगा:
मेरी किस्मत कि मैं इस दौर में बदनाम हुआ वरना,
वफ़ादारी थी शर्त्त-ए-आदमियत इससे पहले भी।
मुआफ़ कीजिएगा, आज कुछ ज्यादा हीं इंतज़ार करा दिया आपको। क्या करें, फ़नकार हीं कुछ ऐसे थे। वैसे आज की गज़ल के बारे में तो कुछ भी नहीं कहा। कहूँ क्या? छोड़िये, ज्यादा कहूँगा तो मज़ा चला जाएगा, इसलिए आप खुद हीं इसका लुत्फ़ उठाईये:
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे,
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे।
ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म,
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे।
दिलों की उलझने बढती रहेंगी,
अगर कुछ मशवरे बा-हम न होंगे।
अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए,
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे।
"हाफ़िज़" उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ,
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
इसीलिए तो ___ है मैकदे में बहुत,
यहाँ घरों को जला कर शराब पीते हैं...
आपके विकल्प हैं -
a) बसेरा, b) अँधेरा, c) सवेरा, d) उजाला
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफ़िल का शब्द था -"तबस्सुम" और शेर कुछ यूं था -
मुझे गुस्सा दिखाया जा रहा है,
तबस्सुम को चबाया जा रहा है..
सही जवाब देकर मैदान जीता स्वप्न मंजूषा शैल जी ने, और देखिये क्या खूब शेर भी अर्ज किया उन्होंने -
वो तबस्सुम से अपना ग़म दबाये जाए है
ये कैसी ख़लिश कि सुकूँ मुझे आये जाए है...
सुमित जी और मनु जी भी आये सही जवाब के साथ और दोनों को ही याद हो आये कुछ यादगार फ़िल्मी गीत. मनु जी ने एक शेर भी फरमाया पर जहाँ बात होनी थी तबस्सुम की वहां दर्द का जिक्र क्यों मनु जी :) कुलदीप अंजुम साहब भी आये कुछ यूं फरमाते हुए -
चुरायेंगे किसी का दिल, हम शेर को चुराएं क्या
चुरायेंगे एक खुशी मुफलिसी के दरमियाँ |
मुस्कुरा रहे हैं सब, हम अभी से मुस्कुराएं क्या
मुस्कुरायेंगे कभी खुदखुशी के दरमियाँ ||
वाह वाह.....वैसे आप अपनी सामग्री हमें hindyugm@gmail.com पर भेज सकते हैं. शमिक फ़राज़ जी आपका भी जवाब जाहिर है सही है पर यहाँ की परंपरा है आप अपना या किसी अन्य शायर का कोई शेर भी याद दिलायें जिसमें वो ख़ास शब्द आता हो. अब आप सब आज की महफ़िल का आनंद लें.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
मुमकिन है कि मेरी इस बात पर कईयों की भौंहें तन जाएँ, कई सारे लोग मुझे देशभक्ति का सबक सिखाने को आतुर हो जाएँ तो कई सारे लोग इस पंक्ति से आगे हीं न पढें, लेकिन आज मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ, वह कई दिनों से मेरे सीने में दबा था और मुझे लगा कि आज का दिन हीं सबसे सटीक दिन है जिस दिन इस बात की चर्चा की जा सकती है। चूँकि हम सब संगीत के पुजारी हैं, संगीत के भक्त हैं और संगीत के देवी-देवताओं की खोज में रहा करते हैं,इसलिए जिस ओर भी हमें सुर और ताल की भनक लगती है, उसी ओर रूख कर लेते हैं। इसी संगीत की आराधना के लिए हमने महफ़िल-ए-गज़ल के इस अंक को भी सजाया है। अब इसे संयोग कहिए या फिर ऊपर वाले की कोई जानी-पहचानी साजिश कि आज की गज़ल से जो दो फ़नकार जुड़े हुए हैं,उनका हमारे मुल्क और हमारे पड़ोसी मुल्क से बड़ा हीं गहरा नाता है। और यही कारण है कि मैं कुछ लीक से हटकर कहने पर आमादा हुआ जा रहा हूँ। जब भी मैं गुलाम अली, मेहदी हसन जैसे फ़नकारों को सुनता हूँ या फिर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,अहमद फ़राज़ जैसे शायरों को पढता हूँ तो मेरे दिल से यह आह उठती है कि काश हिन्दुस्तान का बँटवारा न हुआ होता, काश दोनों मुल्क एक होते तो फिर हम बड़े हीं फ़ख्र से कहते हैं कि नु्सरत फ़तेह अली खान साहब हिन्दुस्तान की शान हैं। बँटवारे का दर्द तब और भी गहरा हो जाता है जब हमें यह मालूम हो कि अमूक शख्स को बँटवारे के दौरान या फिर उसी इर्द-गिर्द अपना सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान की ओर रूख करना पड़ा था। उस ओर से हिन्दुस्तान आने वालों पर भी यही बात लागू होती है। आज हम जिन दो फ़नकारों की बात करने जा रहे हैं, उन दोनों में एक बात खास है और वह यह कि दोनों ने हीं बँटवारे के दर्द को महसूस किया है। पहली शख्सियत एक फ़नकारा हैं जिनका जन्म पंजाब के रोहतक में हुआ था तो दूसरे शख्स एक फ़नकार, एक शायर हैं जिनका जन्म पंजाब के हीं होशियारपुर में हुआ था और दोनों ने हीं पाकिस्तान में अपनी अंतिम साँसें लीं। चलिए उनके बारे में विस्तार से जानकारी लेते हैं।
आज से महज़ ४४ दिन पहले यानी कि २१ अप्रैल को हीं वह बदकिस्मत घड़ी आई थी, जब हमें उस फ़नकारा को अंतिम विदाई देनी पड़ी। हम जिन फ़नकारा की बात कर रहे हैं,उन्हें कुछ लोग पाकिस्तान की "बेग़म अख्तर" भी कहा करते हैं। तो कुछ लोगों का यह भी कहना है कि "अगर नूरजहाँ ने ’मुझसे पहली-सी मोहब्बत’, मेहदी हसन ने ’गुलों में रंग भरे’ और इन फ़नकारा ने ’लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ न गाया होता " तो ’फ़ैज़’ को उतना फ़ैज़ नसीब न होता"। इन फ़नकारा ने "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" को जितना गाया है, उतना शायद हीं किसी और ने गाया होगा। "फ़ैज़" साहब के अलावा "अहमद फ़राज़" की गज़लों को मक़बूल करने में भी इनका बड़ा हाथ था। न जाने ऐसी कितनी हीं गज़लें हैं जो प्रसिद्धि की मुकाम पर तब हीं पहुँचीं जब उन्हें इनकी आवाज़ का सहारा मिला। ये जब तक ज़िंदा रहीं, तब तक इनका इक़बाल बुलंद रहा और हो भी क्यों न हो जब इनका नाम हीं "इक़बाल" था। जी हाँ , हम गज़ल-गायकी की अज़ीम-उस-शान शख्सियत "इक़बाल बानो" की बात कर रहे हैं और यह भी बता दें कि इनका इक़बाल हमेशा हीं बुलंद रहने वाला है। "इक़बाल" साहिबा,जिन्होंने संगीत की तालीम दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खान से ली थी, को अपने फ़न का प्रदर्शन करने का पहला मौका "आल इंडिया रेडियो" के दिल्ली स्टेशन में मिला था। यह सन् ५० के भी पहले की बात है। तब तक वह एक स्टार हो चुकी थीं। कुछ हीं महीनों में उन्हें पाकिस्तान की ओर पलायन करना पड़ा, जहाँ महज सतरह साल की उम्र में उनकी शादी एक जमींदार से कर दी गई। इसे उन्हें चाहने वालों की दुआ कहिये या फिर खुशकिस्मती कि शादी के बाद भी उनका अंदाज कमतर न हुआ और उन्होंने गाना जारी रखा। ५४ से ५९ के बीच उन्होंने लगभग छह उर्दू फिल्मों में गाने गाए, जिनमें "गुमनाम", "क़ातिल", "सरफ़रोश" प्रमुख हैं। पाकिस्तानी संगीत में बेशकिमती योगदान देने के कारण १९७४ में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें तमगा-ए-इम्तियाज़ से नवाजा। "इक़बाल" साहिबा के लिए नवाजिश और अवाम में अवाम का ओहदा ज्यादा बड़ा था और इसीलिए १९८० में जब पाकिस्तान की गद्दी पर फ़ौज़ काबिज थी और जनरल ज़िया उल हक़ का उत्पात चरम पर था, तब उन्होंने लोगों को जगाने के लिए "फ़ैज़" के क्रांतिकारी कलाम गाने शुरू कर दिए। सरकार की कठोर नीतियों और उनके गाने पर लगी पाबंदी का भी उन पर कोई असर न हुआ। ऐसी जिगर वाली थीं हमारी आज की फ़नकारा। उस पुर-असर आवाज़ की मल्लिका ने अपने पति की मौत के बाद लाहौर को अपनी कर्मभूमि की तौर पर चुना और अपनी अंतिम साँस भी वहीं ली। यह तो हुई पहली फ़नकारा की बात, अब हम आज के दूसरे फ़नकार की और रूख करते हैं।
१९१२ में "पंजाब" के होशियारपुर में जन्मे "अब्दुल हाफ़िज़ सलीम" के बारे में अंतर्जाल पर बमुश्किल हीं कोई जानकारी मौजूद है। जिससे भी पूछो, वह आपको उनकी गज़लों की फ़ेहरिश्त थमाकर खुश हो जाता है और आपको भी उतने से हीं संतुष्ट होना होता है। मेरी खुशकिस्मती है कि मैं उनके बारे में इससे ज्यादा कुछ पता कर पाया हूँ। एक तो यह कि "इक़बाल" साहिबा की तरह उन्हें भी बँटवारे में पाकिस्तान जाना पड़ा था। इसके अलावा यह कि सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर को उन्होंने अपनी कर्मभूमि की तौर पर स्वीकार किया था। वहाँ पर "रेडियो पाकिस्तान" में वे "पत्रकार" और "उद्धोषक" का फ़र्ज़ अदा करते रहे और जब "रिटायर" होने का निश्चय किया तब वे "डिप्टी डायरेक्टर जनरल" के पद को सुशोभित कर रहे थे। शायरी के शौक ने उन्हें एक तखल्लुस भी दिया था। और मेरी मानें तो शायद हीं कोई होगा, जो उन्हें उनके मूल नाम से जानता होगा। जी हाँ, शायर और शायरी के प्रशंसक उन्हें "हाफ़िज़ होशियारपुरी" के नाम से जानते हैं। अपनी जन्मस्थली से इस तरह प्यार करने के उदाहरण आज कल कम हीं मिलते हैं। "हाफ़िज़" साहब का तखल्लुस जानने के बाद शायद अब आपने भी उन्हें पहचान लिया होगा। बरसों तक "हैदराबाद" में रहने वाले "हाफ़िज़" साहब ने ६१ साल की उम्र में अपनी अंतिम साँस "कराची" में ली। उनकी गज़लें जो बेहद मक़बूल हुईं, उनमें से कुछ हैं: १)तेरी तलाश में हम जब कभी निकलते हैं, २)कुछ इस तरह से नज़र से गुजर गया कोई , ३)कहीं देखी है शायद तेरी सूरत इससे पहले भी , ४)आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोलकर देखा किए , ५)दीपक राग है चाहत अपनी काहे सुनाए तुम्हें। सारी गज़लें एक से बढकर एक हैं और उन गज़लों की तरह हीं एक और गज़ल है, जो हम आपको आज सुनाने जा रहे हैं। लेकिन उस गज़ल को सुनाने से पहले हम "हाफ़िज़" साहब का हीं एक शेर आपके सामने अर्ज करना चाहते हैं। मुलाहजा फ़रामाईयेगा:
मेरी किस्मत कि मैं इस दौर में बदनाम हुआ वरना,
वफ़ादारी थी शर्त्त-ए-आदमियत इससे पहले भी।
मुआफ़ कीजिएगा, आज कुछ ज्यादा हीं इंतज़ार करा दिया आपको। क्या करें, फ़नकार हीं कुछ ऐसे थे। वैसे आज की गज़ल के बारे में तो कुछ भी नहीं कहा। कहूँ क्या? छोड़िये, ज्यादा कहूँगा तो मज़ा चला जाएगा, इसलिए आप खुद हीं इसका लुत्फ़ उठाईये:
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे,
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे।
ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म,
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे।
दिलों की उलझने बढती रहेंगी,
अगर कुछ मशवरे बा-हम न होंगे।
अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए,
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे।
"हाफ़िज़" उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ,
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
इसीलिए तो ___ है मैकदे में बहुत,
यहाँ घरों को जला कर शराब पीते हैं...
आपके विकल्प हैं -
a) बसेरा, b) अँधेरा, c) सवेरा, d) उजाला
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफ़िल का शब्द था -"तबस्सुम" और शेर कुछ यूं था -
मुझे गुस्सा दिखाया जा रहा है,
तबस्सुम को चबाया जा रहा है..
सही जवाब देकर मैदान जीता स्वप्न मंजूषा शैल जी ने, और देखिये क्या खूब शेर भी अर्ज किया उन्होंने -
वो तबस्सुम से अपना ग़म दबाये जाए है
ये कैसी ख़लिश कि सुकूँ मुझे आये जाए है...
सुमित जी और मनु जी भी आये सही जवाब के साथ और दोनों को ही याद हो आये कुछ यादगार फ़िल्मी गीत. मनु जी ने एक शेर भी फरमाया पर जहाँ बात होनी थी तबस्सुम की वहां दर्द का जिक्र क्यों मनु जी :) कुलदीप अंजुम साहब भी आये कुछ यूं फरमाते हुए -
चुरायेंगे किसी का दिल, हम शेर को चुराएं क्या
चुरायेंगे एक खुशी मुफलिसी के दरमियाँ |
मुस्कुरा रहे हैं सब, हम अभी से मुस्कुराएं क्या
मुस्कुरायेंगे कभी खुदखुशी के दरमियाँ ||
वाह वाह.....वैसे आप अपनी सामग्री हमें hindyugm@gmail.com पर भेज सकते हैं. शमिक फ़राज़ जी आपका भी जवाब जाहिर है सही है पर यहाँ की परंपरा है आप अपना या किसी अन्य शायर का कोई शेर भी याद दिलायें जिसमें वो ख़ास शब्द आता हो. अब आप सब आज की महफ़िल का आनंद लें.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे।..."
Madhur sangeetmaya ghazal suni, ghar ka kam karne ka mann nahi hua aur rasoi mein gas par rakhi chai jalkar khak ho gayi! Sangeet ke madhyam se kalakar humare aaspas hi jeevit hai. Inki awazein sarhadon ko todti hai. Yeh peshkash lajawab hai, badhayi.
Manju Gupta.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
उजाला है राहों में पर देता कुछ दिखाई नहीं
है ये तकदीर का फैसला तेरी बेवफाई नहीं
पता नहीं सही है या नहीं
रचना
तन्हा जी, बा हम और बदगुमा शब्द का अर्थ समझ क्या होता है
तन्हा जी, बा हम और बदगुमा शब्द का अर्थ समझ क्या होता है
शे'र- चिरागो ने जब अंधेरो से दोस्ती की है,
जला के अपना घर हमने रोशनी की है। शायर का नाम याद नही
आज का शब्द उजाला ही लग रहा है
कुछ शेर अर्ज़ है
1.उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए
2. मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे
-बशीर बद्र
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही
-निदा फाजली
----------आशीष
पोस्ट बा में पढेंगे,,,,
पर ये जो शे'र है ....बदनाम हुआ वरना,,,,
इसे रुसवा हुआ वरना कीजिये,,,,,
या तो प्रिंटिंग-मिस्टेक है या गलत शे;र..तो खैर नहीं होना चाहिए....
अगर गलत हो भी तो मेरे हिसाब से रुसवा शब्द डालने से वजन भी सही हो रहा है और बात भी वहीं है,,,
सुमित जी,
बा हम....का मतलब शायद है हमारे साथ...
मैं हाफिज़ उन से जितना बाद गुमां हूँ / वो मुझ से इस कदर बरहम होंगे
ये शायद यूं होगा,,,
जी सुमित जी ,,, बरहम माने गुस्सा या खफा ही होता है,,,,
बद गुमान ..... गलत धारणा या गलत राय बना लेना,,,
आप जिन दो जगहों पर बदलाव करने के लिए कह रहे हैं, वह मैं इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि वे शेर मेरे नहीं है, बल्कि "हाफ़िज़" साहब के हैं। "बरहम" वाला शेर तो टंकण की अशुद्धि भी नहीं कह सकते क्योंकि "इकबाल बानो" ने जो गाया है, उसमें भी "बरहम न होंगे" हीं है। रही बात "बदनाम" की तो मैंने कई जगह देखा और हर जगह लिखा है , अब यह मेरा शेर होता तो मैं बदल भी देता। बड़े-बुजुर्गों के शेर के साथ मैं खिलवाड़ नहीं करता :)
सुमित जी!
मनु जी से आपको अपने सवाल का जवाब मिल गया ना। दर-असल मनु जी हमारे शब्दकोष हैं, इसलिए मैं भी बेफ़िक्र रहता हूँ, जानता हूँ कि अर्थ तो वो बता हीं देंगे। :)
-विश्व दीपक
कल practical की वजह से दिमाग घूम रहा था मैने शे'र गलत लिख दिया उसमे उजाला शब्द तो है ही नही, फिलहाल तो उजाला से कोई शे'र याद नही आ रहा
जी सही शब्द "उजाला " है
इसलिए तो उजाला है मयकदे में बहुत
लोग यहाँ घरो को जलाकर शराब पीते हैं
अँधेरे में कोई बाहर जाने नहीं देता
hahah hahhaa
हैं कितने दीवाने लोग
दैर-ओ-हरम में चैन जो मिलता
क्यों जाते मैखाने लोग
-कुवर महेंद्र सिंह बेदी "सहर"
बोलो तुम को गैर लिखें या अपना मीत लिखें
- डॉ राही मासूम रजा
akele na hi hindustan ke shayar mukkammal hain na hi pakistan ke
humare kuch hindustani shayar pakistan mein yahan se bhi jada lokpriya the jaise khumar sahab,wasim barelavi sahab...........
aur iqwal bano ji ki awaz ki dilkashika kya kehna
"hum dekhenge hum dekhenge ,lazim hai ki hum bhi dekhenge........."
koi ise bhula nahi sakta
bahut bahut abhar
क्या तसव्वुर भी लुटाने वाला है
-जनाब खुमार बाराबंकवी
" हफीज " उनसे मैं जितना बद गुमां हूँ,,, (हफिजुनसे मैं जितना बद गुमां हूँ,,)
एक दम सही है...
लेकिन अगर ...( हाफिज़ ) शब्द का प्रयोग किया जाता तो ये गाया जाना असंभव था..
उस सूरत में होना था,,,,,,,,,,,,,
( मैं "हाफिज़" उन से जितना बद गुमां हूँ,,,,,,,, )