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पत्थर सही ये वक्त, गुजर जाएगा कभी...... महफ़िल-ए-दिलनवाज़ और "पिनाज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२०

कीं मानिए, आज की महफ़िल का अंदाज हीं कुछ अलग-सा होने वाला है। यूँ तो हम गज़ल के बहाने किसी न किसी फ़नकार की जीवनी आपके सामने लाते रहते हैं,लेकिन ऐसा मौका कम हीं होता है, जब किसी गज़ल से जुड़े तीनों हीं फ़नकारों (शायर,संगीतकार और गायक) की जानकारी आपको मिल जाए। यह अंतर्जाल की दुआ का असर है कि आज हम अपने इस मिशन में कामयाब होने वाले हैं। तो चलिए जानकारियों का दौर शुरू करते हैं आज की फ़नकारा से जिन्होंने अपने सुमधुर आवाज़ की बदौलत इस गज़ल में चार चाँद लगा दिये हैं। एक पुरानी कहावत है कि "शक्ल पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ", वही कहावत इन फ़नकार पर सटीक बैठती है। यूँ तो पारसी परिवार से होने के कारण हीं कोई यह नहीं सोच सकता कि इन्हें उर्दू का अच्छा खासा ज्ञान होगा या फिर इनके उर्दू का उच्चारण काबिल-ए-तारीफ़ होगा और उसपर सितम यह कि इनका हाल-औ-अंदाज़ भी गज़ल-गायकों जैसा नहीं है। फिर भी इनकी मखमली आवाज़ में गज़ल को सुनना एक अलग हीं अनुभव देता है। अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो १९८०-९० के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले उनके कार्यक्रम के दीवाने रहे हैं। गज़ल-गायकी के क्षेत्र में ऐसे कम हीं लोग हैं, जिन्हें "गोल्ड डिस्क" (स्वर्ण-तश्तरी) से नवाज़ा गया है। लेकिन इन फ़नकारा का जादू देखिए कि न सिर्फ़ इनके खाते में तीन स्वर्ण तश्तरियाँ हैं, बल्कि एक प्लेटिनम तश्तरी भी इनकी शख्सियत को शोभायमान करने के लिए मौजूद है। इनके बारे में और क्या कहूँ, क्या इतना कहना काफी न होगा कि १९९६ में उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हें "शहजादी तरन्नुम" की पदवी दी थी, जो इनकी प्रसिद्धि और इनकी प्रतिभा का एक सबूत है। तो आखिर कौन हैं वो..... बस अपने दिल पर हाथ रखिए और दिल से पूछिए ...जवाब खुद-ब-खुद उभर आएगा और अगर न भी आए तो हम किस मर्ज की दवा हैं।

उस्ताद फैयाज़ खानसाहब के शागिर्द और आगरा घराने के मशहूर क्लासिकल सिंगर "डोली मसानी" के घर जन्मी मोहतरमा "पिनाज़ मसानी" अपने लुक के कारण हमेशा हीं सूर्खियों में रही हैं। खुद उनका कहना है कि "जिस तरह का मेरा व्यक्तित्व है, उसे देखकर लोग मुझे गज़ल सिंगर नहीं, बल्कि पॉप सिंगर कहते हैं।" वैसी उनकी छवि कैसी भी हो, लेकिन उनका ज्ञान किसी भी मामले में बाकी के गज़ल-गायकों से कमतर नहीं है। "पिनाज़" ने गायकी की पहली सीढी उस्ताद अमानत हुसैन खान की उंगली पकड़कर चढी थी और बाद में गज़ल-साम्राज्ञी "मधुरानी" के यहाँ उनकी दीक्षा हुई। वैसे उन्होंने प्रसिद्धि का पहला स्वाद तब चखा जब १९७८ में "सुर श्रृंगार शमसाद" पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया और इस पुरस्कार से खुद चार बार नवाज़े जा चुके प्रख्यात संगीतकार "जयदेव" की उन पर नज़र गई। एक वो दिन था और एक आज का दिन है, "पिनाज़" ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। लगभग पचास फिल्मों और २५ से भी ज्यादा एलबमों में गा चुकी पिनाज़ पहली फ़नकारा हैं, जिन्होंने भारत में ५०० से भी ज्यादा "सोलो" कार्यक्रम दिए हैं। वैसे आजकल कुछ लोगों की यह शिकायत है कि वे "पैसों" के कारण "गज़लों" से दूर भाग रही हैं और बिना सिर-पैर के गानों में अपना वक्त और अपनी गायकी बर्बाद करने पर तुली हैं। इसमें कुछ तो सच्चाई है और इसलिए मैं यह दुआ करता हूँ कि वो वापस अपने पहले प्यार की ओर लौट जाएँ! आमीन!

चलिए अब हम "गायिका" से "गज़लगो" की और रूख करते हैं। "आज भी हैं मेरे कदमों के निशां आवारा", "दर्द की बारिश सही मद्धम ज़रा आहिस्ता चल", "घर छोड़ के भी ज़िंदगी हैरानियों में है", "हश्र जैसी वो घड़ी होती है", "मुझ से मेरा क्या रिश्ता है हर इक रिश्ता भूल गया", "पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पा न था", "कहीं तारे कहीं शबनम कहीं जुगनू निकले" - न जाने ऐसी कितनी हीं गज़लों को तराशने वाले जनाब "मुमताज़ राशिद" ने हीं आज की गज़ल की तख्लीक की है। मुशायरों में उनका जोश से भरा अंदाज और एक गज़ल के खत्म होते-होते दूसरे गज़ल की पेशगी उन्हें औरों से मुख्तलिफ़ करती है। भले हीं आज हम उनके अंदाज-ए-बयाँ का लुत्फ़ न ले पाएँ, लेकिन उनका बयाँ तो हमारे सामने है। अरे ठहरिये अभी कहाँ,उससे पहले गज़ल के "संगीतकार" की भी बातें होनी भी तो जरूरी हैं। पंडित पन्नालाल घोष के शिष्य मशहूर बाँसुरी-वादक "पंडित रघुनाथ सेठ" की मकबूलियत भले हीं आज की पीढी के दरम्यान न हो,लेकिन शास्त्रीय संगीत से जुड़े लोग "बाँसुरी वादन" और "बाँसुरी" के सुधार में उनका योगदान कतई नहीं भूल सकते। "पंडित" जी ने बाँस से बने एक ऐसे यंत्र का ईजाद किया है, जिससे सारे हीं राग एक-सी मेहनत से प्ले किए जा सकते हैं, यहाँ तक कि सबसे नीचले नोट से सबसे ऊँचे नोट तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। इतना सब सुनकर शायद आपको यह लगे कि पंडित जी बस शास्त्रीय संगीत तक हीं अपने आप को सीमित रखे हुए हैं, लेकिन यह बात नहीं है। उन्होंने कई सारे फिल्मी और गैर-फिल्मी गानों के लिए संगीत दिया है। जैसे आज की हीं गज़ल ले लीजिए ...इस गज़ल को संगीतबद्ध करके उन्होंने अपनी "बहुमुखी" प्रतिभा का एक नमूना पेश किया है। "तू वो नशा नहीं जो उतर जाएगा कभी"- आह! यादों की ऐसी पेशकश, यादों का ऐसा दीवानापन कि याद बस याद हीं न रह जाए, बल्कि रोजमर्रे की ज़िंदगी का एक हिस्सा हो जाए तो फिर उस याद को भूलाना क्या और अगर भूलाना चाहो तो भी भूलाना कैसे!! इन्हीं बातों को जनाब "मुमताज़" साहब अपनी प्रेमिका, अपनी हबीबा के बहाने से समझाने की कोशिश कर रहे हैं। उन बहानों,उन दास्तानों की तरफ़ बढने से पहले "मुमताज़" साहब के हीं एक शेर की तरफ़ नज़र करते हैं:

शिद्दते-गमींए-अहसास से जल जाऊंगा
बर्फ़ हूं, हाथ लगाया तो पिघल जाऊँगा


मालूम होता है कि "मुमताज़" साहब ग़म के शायर हैं, तभी तो ग़म की कारस्तानी को बड़े हीं आराम से समझा जाते हैं। १९९१ में रीलिज हुई एलबम "दिलरूबा" में भी "मुमताज़" साहब कुछ ऐसा हीं फ़रमा रहे हैं।मुलाहजा फ़रमाईयेगा :

हल्का कभी पड़ेगा, उभर जाएगा कभी,
तू वो नशा नहीं जो उतर जाएगा कभी।

मैं उसका आईना हूँ तो देखेगा वो ज़रूर,
वो मेरा अक्स है तो संवर जाएगा कभी।

जीना पड़ेगा अपनी खामोशियों के साथ,
वो शख्स तो कदा है बिखर जाएगा कभी।

कितना हसीन है ये मेरी तिश्नगी का ख्वाब,
दरिया जो बह रहा है ठहर जाएगा कभी।

"राशिद" न खत्म हो कभी सीसों की आरजू,
पत्थर सही ये वक्त, गुजर जाएगा कभी।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो,
मेरे इन हाथों में ___ के सिवा कुछ भी नहीं.

आपके विकल्प हैं -
a) तकदीरों, b) जजीरों, c) लकीरों, d) सपनों

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था - बारिशें, और शेर कुछ यूँ था -

कहीं आँसूओं की है दास्ताँ, कहीं मुस्कुराहटों का बयां,
कहीं बरकतों की है बारिशें, कहीं तिशनगी बेहिसाब है...

ओल्ड इस गोल्ड में रंग जमा रहे शरद तैलंग जी ने अब महफिल- ए-ग़ज़ल में भी जौहर दिखा रहे हैं. न सिर्फ सही जवाब दिया बल्कि खुद का लिखा एक शेर भी अर्ज किया कुछ यूँ -

आंसू ही मेरी आंख के बारिश से कम नहीं थे
बस इसलिए बरसात में घर में छुपा रहा...

सही जवाब के साथ हाज़िर हुई मंजू जी भी और रजिया राज जी ने ऐसा शेर या कहें एक ऐसी ग़ज़ल याद दिला दी जो बारिश शब्द सुनते ही सबके जेहन में अंगडाई लेने लगती है -

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो।
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी।
मगर मुज़को लौटादो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो "बारिश" का पानी।

शमिख फ़राज़ जी इस महफिल में चुप बैठना गुनाह है, कुछ फरमाया भी कीजिये :)

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

सही शब्द ’लकीरों’ है ।
एक शे’र अर्ज़ है :
हाथों की लकीरों का भी विश्वास क्य़ा करें
जो खुद उलझ रहीं हैं उनसे आस क्य़ा करें (स्वरचित)
लकीरों

हाथों की चंद लकीरों का, ये खेल है बस तकदीरों का...
शोभा said…
pinaz ji ki avaaj main aur bhi gazals sunvayiye.
जी लकीरों सही शब्द है
"कहीं मुझसे जुदा न कर दे उसे कोई लकीर , इस वजह से वो हाथ मेरा देखता न था "
जी लकीरों सही शब्द है
"कहीं मुझसे जुदा न कर दे उसे कोई लकीर , इस वजह से वो हाथ मेरा देखता न था "
sumit said…
ये सच मे बहुत सुन्दर गजल है, रेडियो पर ये एक या दो बार ही सुनने को मिली, सुनकर बहुत अच्छा लगा

सही शब्द लकीर लग रहा है
शे'र- जिन के हाथो मे लकीर नही होती,
जरूरी तो नही उनकी तकदीर नही होती?
sumit said…
ये सच मे बहुत सुन्दर गजल है, रेडियो पर ये एक या दो बार ही सुनने को मिली, सुनकर बहुत अच्छा लगा

सही शब्द लकीर लग रहा है
शे'र- जिन के हाथो मे लकीर नही होती,
जरूरी तो नही उनकी तकदीर नही होती?
sumit said…
पिछले महफिल ए गज़ल मे जो गज़ल थी, वो पढने मे अच्छी लगी पर सुनने मे ज्यादा मजा नही आया, net बार बार disconnect हो रहा था इसलिए टिप्पणी नही कर पाया
लेकिन ये बहुत अच्छी लगी, बहुत बहुत शुक्रिया, इस गज़ल को सुनवाने के लिए
sumit said…
जीना पड़ेगा अपनी खामोशियों के साथ,
वो शख्स तो कदा है बिखर जाएगा कभी।

कदा शब्द का अर्थ क्या होता है और
,
शिद्दते-गमींए-अहसास से जल जाऊंगा
बर्फ़ हूं, हाथ लगाया तो पिघल जाऊँगा

शिद्दते-गमींए-अहसास का क्या अर्थ होता है
Manju Gupta said…
सही शब्द ’लकीरों’ है ।
एक शे’र अर्ज़ है :
Are!mere hathon ki lakiro ki kya dasha huie hai.
Jab se mein tum se bichud gayi.
स्वरचित)


Manju Gupta.
manu said…
लकीरों,,,,,,,,

सुमित भाई,,, माफ़ कीजिये ,, नेट काम नहीं कर रहा है आजकल,,
गर्मी से तो आप वाकिफ ही होंगे,,,( आज कल तो सब हैं...)
एहसास ,,,,,यानी के,, ख्याल करना,,ध्यान देना,,,
और शिद्दत,,,,,
जैसे के पूरी शिद्दत से,,,,,, मतलब पूरा दम लगा कर,,,या पूरे जोर ( केवल दम या जोर नहीं,,)
पूरा दम या पूरा जोर लगा कर,,,,,

और कदा का मतलब तो हम मकान या बिल्डिंग से लेते हैं,,,, मयकदा...ग़म कदा ...आदि तो शायद ये ही हो....
::))
rachana said…
इस बार लकीरों लगरहा है

लकीरों की तंग गलियों से गुजरता है
वो शख्स जो मेरा होने से मुकरता है
rachana
Shamikh Faraz said…
सही शब्द लकीरों है.
sumit said…
धन्यवाद मनु भाई

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