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वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर..... महफ़िल-ए-अथाह और "बाबा बुल्ले शाह"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२३

क शख्स जिसे उसकी लीक से हटकर धारणाओं और भावनाओं के कारण गैर-इस्लामिक करार दिया गया और जिसे कज़ा के बाद भी अपने समुदाय का कब्रिस्तान नसीब न हुआ,क्योंकि आसपास के मुल्लाओं को उसकी बातों में "काफ़िर" होने की बू आती थी, नियति का यह खेल देखिए कि आज उसे पूरी दुनिया में इबादत के शिखर पर स्थान दिया जाता है और उसके दर्शन और लेखन की तुलना "रूमि" और "शम्स-ए-तबरिज़" से की जाती है। जन्म से मुसलमान होने के बावजूद उसकी प्रसिद्धि सारे धर्मों में एक-सी है, दरवेश और बुद्धिजीवी उसे "दोनों दुनिया का शेख","खुदा का बंदा" कहकर संबोधित करते हैं और न सिर्फ़ पंजाब बल्कि पूरे मुल्क या कहिए पूरी दुनिया में "पराभौतिक/रहस्यवादी" कविता का जानकार उससे अच्छा नहीं मिलता। उसे "सूफी-साहित्य का शिखर-पुरूष" कहने वाले भी कम नहीं है। "क़सुर" में उसके कब्र के पास की ज़मीन आज भी इंसानियत का दम भरती है और आज भी उस जगह पर बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं होता, वहाँ जो भी जाता है कुछ न कुछ हासिल करके हीं आता है। उसका जन्म कब हुआ, इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है, लेकिन ज्यादातर विद्वानों का यह मत है कि उसने १६८० से १७५८ तक इस दुनिया को अपने होने का अनुभव दिया था। जन्म से छ: महीने तक की अवधि उसने "बहावलपुर" के "उच" नामक जगह पर बिताई,जोकि अब पाकिस्तान में है और उसके बाद उसका परिवार "मलकवल" चला गया। पिता "शाह मोहम्मद दरवेश" गाँव की हीं मस्जिद में "ज़ाहिद" थे और "शिक्षक" भी। "मलकवल" में कुछ दिन बिताने के बाद उसे अपने परिवार के साथ "पंडोके" जाना पड़ा, जोकि "क़सुर" से ५० मील दक्षिण-पूर्व की ओर था । वैसे कुछ लोगों का यह भी मानना है कि उसका जन्म "पंडोके" में हीं हुआ था। हज़ार लोग,हज़ार बातें,इसलिए पक्के से यह कहा नहीं जा सकता कि सच्चाई किस में है, वैसे सच्चाई जो भी है,यह तो तय है कि "काफ़ी/कफ़ी"(पंजाबी साहित्य का एक रूप) का जानकार उस-सा दूसरा कोई न हुआ।

"अब्दुल्लाह शाह" या फिर "मीर बुल्ले शाह क़ादिरी शतरी" के पिता अरबी, फ़ारसी और "पाक़ क़ुरान" के बहुत बड़े जानकार थे। उनका आध्यात्म की तरफ़ भी गहरा झुकाव था,इसी झुकाव और नेकदिली के कारण लोगों ने उन्हें दरवेश की उपाधि से नवाज़ा था। कहा जाता है कि पूरे परिवार में "बुल्ले शाह" की बहन उन्हें सबसे ज्यादा चाहती थी और उसने "बुल्ले शाह" की तरह हीं ता-ज़िंदगी शादी नहीं की। "पंडोके भटियाँ" में अब भी उनका (बुल्ले शाह के पिता का) मकबरा है, जहाँ हर साल "उर्स"(एक तरह का मेला) आयोजित किया जाता है और बड़े हीं जोश-औ-जुनूँ के साथ "बुल्ले शाह" के कफ़िये गाए जाते हैं। इस तरह एक हीं साथ पिता-पुत्र दोनों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। यह तो हुई बुल्ले शाह और उनके पिता की बात, लेकिन अगर हम इनकी पीढी में पीछे की ओर जाए तो यह पता चलता है कि "शाह मोहम्मद दरवेश" और "बुल्ले शाह" के होने से लगभग ३०० साल पहले इन्हीं के वंश के "सैयद जलालुद्दीन बुखारी" "सुरख-बुखारा" से "मुल्तान" आए थे। "मुल्तान" अब पाकिस्तान में है और "सुरख-बुखारा" "उजबेकिस्तान" में। यह भी कहा जाता है कि "हज़रत मोहम्मद" इन्हीं के पूर्वज थे। इस तरह एक तरफ़ "बुल्ले शाह" "सैय्यद" वंश के होने के कारण "हज़रत मोहम्मद" से जुड़े थे तो दूसरी तरफ़ "सूफ़ी विचारो" के कारण ये न सिर्फ़ खुदा को मानते थे, बल्कि हर ज़र्रे में "खुदा" के अंश की भी मंजूरी देते थे। वैसे भी "सूफ़ियों" के अनुसार "निर्वाण" पाने की चार शर्ते हैं:

१) शरियत: इस्लाम में कहे मुताबिक एक अनुशासित ज़िंदगी जीना
२) तरिक़त: मुर्शिद या गुरू की आज्ञा का पालन करना
३) हक़ीक़त: उस खुदा के नूर से दो-चार होना
४) मार्फ़त: सच से सामना होने के बाद उसी एक सच्चाई(उस एक खुदा) में खुद को डुबो देना

"बुल्ले शाह" ने अपनी ज़िंदगी का एक बहुमूल्य समय "मुर्शिद" यानी कि "गुरू" की खोज में बीता दिया। और अंत में जिस गुरू की शरण ली, वह न तो ओहदे में उनके स्तर का था और न हीं भेष-भूषा में किसी गुरू की तरह जान पड़ता था। यूँ तो "मिस्टिसिज़्म"(पराभौतिकवाद/रहस्यवाद) पर उस इंसान ने फ़ारसी में कई सारी किताबें लिखी थीं,जिनमें "दस्तूर-उल-अमल","इस्लाह-उल-अमल","लताइफ़-इ-ग़ैब्या", "इशरतुल तालिबिन" प्रमुख हैं, लेकिन पेशे से वह इंसान एक "माली" था और इसी कारण "बुल्ले शाह" के कई सारे शुभचिंतकों ने उनसे अपनी यह राय ज़ाहिर की थी कि "आप पैगम्बर मोहम्मद के वंशज हैं और आप कई सारी तिलिस्मी शक्तियों के मालिक हैं,फिर क्या यह आपको शोभा देता है कि आप एक नीच जाति के माली के शागिर्द बन जाएँ। क्या यह शर्मनाक नहीं है?" इतना सब कुछ होने के बावजूद "बुल्ले शाह" को अपने मुर्शिद "इनायत शाह क़ादरी" के प्रति बहुत हीं ज्यादा निष्ठा थी। उनका अपने गुरू के प्रति प्रेम के कई सारे किस्से मशहूर हैं। "प्रोफ़ेसर पुर्ण सिंह" एक ऐसी हीं घटना का हवाला देते हुए लिखते हैं: "एक बार बुल्ले शाह ने एक लड़की को अपने पति का इंतज़ार करते हुए देखा और पाया कि उसी इंतज़ार में वह सज-सँवर रही है,बालों में गाँठ और जुड़ा बाँध रही है। न जाने बुल्ले शाह को क्या सूझा और उन्होंने भी अपने गुरू से मिलने जाने से पहले एक लड़की की तरह का भेष बना लिया,बालों में उसी तरह के गांठ बाँध लिए और चल पड़े गुरू रहमत से मिलने। " तो इस तरह की थी बुल्ले शाह की भक्ति और जिसकी अपने गुरू के लिए इतनी भक्ति हो ,उसके दिल में खुदा के लिए कैसा अनुराग होगा, यह अनकहे हीं स्पष्ट है। "बुल्ले शाह" को लोग प्यार से "बाबा बुल्ले शाह" भी कहते हैं। "बाबा" के समकालीन कई सारे जानेमाने सूफ़ी और उर्दू कवि थे, जिनमें "वारिश शाह"(हीर-रांझा के रचयिता), सचल सरमस्त(वास्तविक नाम- अब्दुल वहद) और "मीर तकी मीर" के नाम सबसे ऊपर आते हैं। वैसे तो "बाबा" का लिखा सबकुछ संभाले जाने और गुनने योग्य है, लेकिन एक कलाम जो खासा प्रसिद्ध हुआ और जिसने हर किसी को अपने दिल में झांकने को मजबूर कर दिया,वो कुछ यूँ है:

बुल्ला कि जाणां मैं कौन?

न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी
न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रहंदा विच नदौन।

इस कलाम को "रब्बी शेरगिल" ने एक अलग हीं चेहरा दे दिया है। वैसे आज हम इसकी बात नहीं कर रहे। आज हम "बेगम" आबिदा परवीन की आवाज़ में लयबद्ध "बाबा बुल्ले शाह" एलबम से "वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर" लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं। अब चूँकि रचना "पंजाबी" भाषा में है,इसलिए मुझे इसका अर्थ नहीं मालूम। मैं आप सबसे यह दरख्वास्त करूँगा कि जितना हो सके,उतना हीं "तर्ज़ुमा" हमारे लिए कर दें। तो लीजिए कलाम पेश है:

वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर!

कोठे चढकर देवान होका
इश्क़ विहाजो कोई ना लोकां
इस सा मूल ना खाना धोखा
जंगल बस्ती मिले ना ठौर।

दे दीदार होया जद राही
अच्नाचेत प्यी गल विच फ़ाही
अनहदी कीति बेपरवाही
मैनु मिल्या ठग लाहौर।

आशिक़ फिरदे छुप-छुपाते
जैसे मूरत साडा मदमाते
दामे ज़ुल्फ़ दे अंदर फ़ाते
ओथे चल्ले वश ना जोर।

बुल्या शाह नु कोई ना देखे
जो देखे सो किसे ना लेखे
उस दा रंग ना रूप ना रेखे
ओही होवे होके चोर।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

वो फिराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन,
वो गुलाब बनके खिलेगा क्या, जो ___ बनके जला न हो...

आपके विकल्प हैं -
a) चिराग, b) मशाल, c) आफ़ताब, d) माहताब

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था -"आवारा" और सही शेर कुछ यूँ था -

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं,
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं...

स्वप्न मंजूषा जी बधाई सही जवाब के लिए, आपने जो शेर फ़रमाया वो कुछ ऐसा था -

वो जो अभी इस राह गुजर से चाक गिरेबाँ गुजरा है,
उसी आवारा दीवाने को "जालिब जालिब" कहते हैं...

नीलम जी ने अर्ज किया -

आवारा हूँ गलियों में, मैं और मेरी तन्हाई,
जाये तो कहाँ जाएँ, हर मोड़ पर रुसवाई ...

रचना जी बहुत दिनों बाद लौटी इस शेर के साथ -

आवारा सा फिरता है वो
इश्क की धुन में रहता है वो...

इश्क की इस धुन में जीने का मज़ा ही कुछ और है....सभी रसिक श्रोताओं को बधाई.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

'अदा' said…
वो फिराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन,
वो गुलाब बनके खिलेगा क्या, जो ___ बनके जला न हो...

a) चिराग
'अदा' said…
Chirag Dil Ka Jalaayo
Bahut Andhera Hai
Kahin se Laut ke aayo
Bahut Andhera Hai
Disha said…
वो फिराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन,
वो गुलाब बनके खिलेगा क्या, जो ___ बनके जला न हो...

a) चिराग

जलते है चिराग राह में करने को उजियारा
प्रकाश की हुई जय पराजित हुआ अँधियारा

वो चिराग ही तो है जो रोशन करे हर अँधेरे को
वरना जुगनू तो ना जाने कितने टिमटिमाते हैं
सही उत्तर तो आ ही गया है मैं तो दुष्यन्त कुमार का शे’र पेश करना चाहता हूँ ।
’कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’|
महफ़िल-ए-ग़ज़ल आने का भी क्या कोई निश्चित समय है जिससे हम तैयार रह सकेंं ।
जी शरद जी!
महफ़िल-ए-गज़ल हर मंगलवार और शुक्रवार को सुबह ९:३०(9:30) बजे प्रकाशित हो जाता है।

-विश्व दीपक
sumit said…
सही शब्द चिराग लग रहा है
शेर - चिराग दिल का जलाओ बहुत अँधेरा है,
कहीं से लौट के आओ बहुत अँधेरा है
sumit said…
ये शेर तो पहले ही आ गया
नया शेर- चिरागों ने जब अंधेरो से दोस्ती की है
जला कर अपना घर हमने रौशनी की है
sumit said…
ये शेर तो पहले ही आ गया
नया शेर- चिरागों ने जब अंधेरो से दोस्ती की है
जला कर अपना घर हमने रौशनी की है
manu said…
सही शब्द है चिराग,,,,,,
रचना जी की ही तरह
हम भी लौटे कई दिन बाद,,,,क्योंकि,,,,

आ ही जायेंगे वो चिराग ढले,
और उनके कहाँ ठिकाने हैं,,,
Shamikh Faraz said…
सही शब्द चिराग लग रहा है
pooja said…
तनहा जी,
बहुत ही मस्त कलाम सुनवाया आपने, शुक्रिया.
इसका तर्जुमा करने का थोडा बहुत प्रयास किया है, शायद कुछ सही हो....

वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर!

कोठे चढकर देवान होका
इश्क़ विहाजो कोई ना लोकां
इस सा मूल ना खाना धोखा
जंगल बस्ती मिले ना ठौर।

छत पर चढ़ कर हांक लगाऊं
लोगों , इश्क जैसा कुछ नहीं है
इस धोखेबाज से धोखा मत खाना
फिर जंगल या बस्ती में इसका कोई पता नहीं मिलेगा

दे दीदार होया जद राही
अच्नाचेत प्यी गल विच फ़ाही
अनहदी कीति बेपरवाही
मैनु मिल्या ठग लाहौर।

जब उनका दीदार/ दर्शन हुआ तो
अचानक गले में फांसी सी लग गयी
कितनी भी दूर जाने की कोशिश की
पर मुझे लाहौर का ठग मिल गया था.

आशिक़ फिरदे छुप-छुपाते
जैसे मूरत साडा मदमाते
दामे ज़ुल्फ़ दे अंदर फ़ाते
ओथे चल्ले वश ना जोर।

आशिक छिपते छिपाते फिरते हैं,
मूरत के जैसे रहते हैं,
अपने महबूब की जुल्फों के अन्दर फंसे हों जैसे
और खुद पर अपना कोई वश नहीं चलता.

बुल्या शाह नु कोई ना देखे
जो देखे सो किसे ना लेखे
उस दा रंग ना रूप ना रेखे
ओही होवे होके चोर।

बुल्ले शाह को कोई नहीं देखता,
जो एक बार देख लेता है फिर वो और किसी को नहीं पहचानता
जिस से सच्चा प्यार हो उसका रंग रूप नहीं देखा जाता,
और सच्चा प्यार करने वाले चोर होते हैं.
manu said…
वाह ,
आपको तो पंजाबी भी आती है,,
कमाल है,,

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