महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२५
गज़लों की यह महफ़िल अपने पहले पड़ाव तक पहुँच चुकी है। आज हम आपके सामने महफ़िल-ए-गज़ल का २५वाँ अंक लेकर हाज़िर हुए हैं। आगे बढने से पहले हम इस बात से मुतमईन होना चाहेंगे कि जिस तरह इस महफ़िल को आपके सामने लाने पर हमने फ़ख्र महसूस किया है, उसी तरह आपने भी बराबर चाव से इस महफ़िल की हर पेशकश को अपने सीने से लगाया है। ऐसा करने के पीछे हमारी यह मंशा नहीं है कि आपका इम्तिहान लिया जाए, बल्कि हम यह चाहते हैं कि अब तक जितने भी फ़नकारों को हमने इस महफ़िल के बहाने याद किया है, उनकी यादों का असर थोड़ा-सा भी कम न हो। वैसे भी बस आगे बढते रहने का नाम हीं ज़िंदगी नहीं है, राह में चलते-चलते कभी-कभी हमें पीछे छूट चुके अपने साथियों को भी याद कर लेना चाहिए। और इसी कारण आज से २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है।तो दोस्तों! कमर कस लीजिए इस अनोखी प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के लिए । ये रहे आज के सवाल: -
१) "मक़दूम मोहिउद्दीन" की लिखी एक गज़ल "आपकी याद आती रही रात भर" गाकर इन्होंने अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरूआत की थी।
२) २००५ में रीलिज हुई "सावन की रिमझिम में" में से ली गई एक नज़्म , जिसे कलमबद्ध किया था योगेश ने और संगीत से सजाया था श्याम शर्मा ने।
चलिए अब ,बाकी के दिनों की तरह हीं आज की गज़ल और उससे जुड़े फ़नकारों की बात करते हैं। आज हम जो गज़ल/गीत/नज़्म लेकर आपके सामने हाज़िर हुए हैं, उसकी खासियत यह है कि ना सिर्फ़ उसके शायर की मक़बूलियत का लोहा माना जाता है, बल्कि उसे गाने वाली फ़नकारा का भी कोई जवाब नहीं है और सबसे बढकर वह नज़्म खुद अपनी प्रसिद्धि की जीती-जागती एक मिसाल है। जहां में ऐसा कौन होगा जिसने "अभी तो मैं जवान हूँ" का कम से कम एकबार भी लुत्फ़ न लिया हो। यह शब्द-समूह, यह "मिसरा" सुनने में बड़ा हीं साधारण महसूस होता है,लेकिन मेरा दावा है कि अगर एक बार भी आपने पूरी नज़्म को सही से सुन लिया तो आप खुद को इसका मुरीद होने से नहीं रोक पाएँगे। "हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनाख़ेज़ हो, हवाएं इत्रबेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?"- वल्लाह! शायर ने कितने आराम से इश्क और हुस्न की अदाओं का जिक्र किया है, पढो तो एक-एक हर्फ़ इत्र में डूबा नज़र आता है सुनो तो आवाज़ में एक शोखी-सी घुली लगती है। वैसे शायर के लफ़्ज़ों में ऐसा असर हो क्यूँ ना, जोकि शायर का नाम "हाफ़िज़ जालंधरी" हो। मुल्के-पाकिस्तान का क़ौमी तराना "पाक सरजमीं शद बद" लिखने वाले इस शायर के खाते में पाकिस्तान का सबसे बड़ा तमगा "हिलाल-ए-इम्तियाज़" और "प्राइड आफ़ परफ़ारमेंश" दर्ज़ है। इस शायर ने "फिरदौसी" के "शाहनामा" के तर्ज़ पर "शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना की है। "दीन-ए-इस्लाम" की इज्जत करने वाले इस शख्स की सोच का कमाल देखिए कि जो नज़्म एक तरफ़ किसी की अदाओं और शोखियों को बयान करती है, वहीं दूसरी तरफ़ बड़ी हीं खामोशी से "दर्शन" की भी बात करती है। जरा इस मिसरे पर गौर फ़रमाईयेगा: "न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का, न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का। " अर्थात - "मुझे अपनी ज़िंदगी के न तो बंद किस्से का ग़म है और न हीं किसी खुली दास्तां का। मैं सफ़र में आई न किसी ऊँचाई की फ़िक्र करता हूँ और न हीं किसी गहराई की। मुझे न अपने होने की चिंता है और न हीं अपने रूतबे की। और न हीं मैं संसार की उत्पत्ति के समय किए गए किसी वादे से इत्तेफ़ाक रखता हूँ।"
जानकारी के लिए बता दूँ कि "अलस्त" का शाब्दिक अर्थ है "नहीं हूँ" ,लेकिन इसका भावार्थ बड़ा हीं व्यापक है। कहा जाता है कि जब खुदा ने इस कुदरत की तख्लीक की थी तो उस समय उन्होंने इसी शब्द का उच्चारण किया था। "अलस्त" कहकर उन्होंने अपने पहले बंदे से यह सवाल किया था कि "क्या मैं तुम्हारा खुदा नहीं हूँ?" और उस बंदे ने जवाब दिया था कि "हाँ, आप हीं मेरे खुदा हैं।" किसी के भी द्वारा उठाई गई संसार में यह सबसे पहली कसम है। और जब कोई इंसान इस कसम को झुठलाने को तैयार हो जाए तो या तो वह इश्क में डूबा है या फिर वह काफ़िर है। वैसे भी कहते हैं कि आशिक और दार्शनिक में फ़र्क नहीं होता। इसलिए यहाँ पर इंसान का इश्क हीं ज़ाहिर होता है। इस नज़्म में और भी ऐसी बातें हैं,जिसपर तहरीरें लिखी जा सकती हैं। लेकिन कुछ लिखने से अच्छा है कि उसे महसूस किया जाए। इसलिए हम यही चाहेंगे कि आप इस नज़्म का एक-एक हर्फ़ खुद में उतार लें, एक-एक हर्फ़ जियें, फिर देखिए..जवानी कहीं भी हो,आपके पास न आ जाए तो कहिएगा। इस नज़्म को जिन फ़नकारा ने अपनी आवाज़ के जादू से सराबोर किया है, उनकी बात किए बिना इस महफ़िल की शमा को बुझाना तो एक गुस्ताखी होगी। "मजज़ूब" बाबा मोती राम ने इन्हें "मल्लिका" कहा था तो इनकी चाची ने इन्हें खुशबू से भरा "पुखराज"। महज़ "नौ" साल की उम्र में "कश्मीर" के राजा "महाराज हरि सिंह" को इन्होंने अपनी आवाज़ का दीवाना बना दिया था। फिर तो ये उस दरबार की शान हो गईं। "अठारह" साल की उम्र तक इन्होंने वहीं गुजर किया, लेकिन जब इन्हें इस बात की भनक पड़ी कि राजा की नियत इन्हें अपने हरम में डालने की है तो ये वहाँ से भाग निकली। अपनी आवाज़ और अपने हुस्ने के लिए जानी जाने वाली इस मल्लिका ने "घुड़सवारी" का ऐसा नज़ारा पेश किया कि देखने और सुनने वाले दंग रह गए। "मल्लिका पुखराज" एक ऐसी शख्सियत थीं,जिन्हें एक आलेख में समेटा नहीं जा सकता। इसलिए इनके बारे में आगे कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
अभी तो मैं जवान हूँ!
हवा भी ख़ुशगवार है, गुलों पे भी निखार है
तरन्नुमें हज़ार हैं, बहार पुरबहार है
कहाँ चला है साक़िया, इधर तो लौट इधर तो आ
अरे, यह देखता है क्या? उठा सुबू, सुबू उठा
सुबू उठा, पियाला भर पियाला भर के दे इधर
चमन की सिम्त कर नज़र, समा तो देख बेख़बर
वो काली-काली बदलियाँ ,उफ़क़ पे हो गई अयां
वो इक हजूम-ए-मैकशां, है सू-ए-मैकदा रवां
ये क्या गुमां है बदगुमां, समझ न मुझको नातवां
ख़याल-ए-ज़ोह्द अभी कहाँ? अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ!
इबादतों का ज़िक्र है, निजात की भी फ़िक्र है
जुनून है सबाब का, ख़याल है अज़ाब का
मगर सुनो तो शेख़ जी, अजीब शय हैं आप भी
भला शबाब-ओ-आशिक़ी, अलग हुए भी हैं कभी
हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनाख़ेज़ हो
हवाएं इत्र्बेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?
निगारहा-ए-फ़ितनागर , कोई इधर कोई उधर
उभारते हो ऐश पर, तो क्या करे कोई बशर
चलो जी क़िस्सा मुख़्तसर, तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दुरुस्त है तो हो मगर, अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ!
ये ग़श्त कोहसार की, ये सैर जू-ए-वार की
ये बुलबुलों के चहचहे, ये गुलरुख़ों के क़हक़हे
किसी से मेल हो गया, तो रंज-ओ-फ़िक्र खो गया
कभी जो वक़्त सो गया, ये हँस गया वो रो गया
ये इश्क़ की कहानियाँ, ये रस भरी जवानियाँ
उधर से महरबानियाँ, इधर से लन्तरानियाँ
ये आस्मान ये ज़मीं, नज़्ज़राहा-ए-दिलनशीं
उन्हें हयात आफ़रीं, भला मैं छोड़ दूँ यहीं
है मौत इस क़दर बरीं, मुझे न आएगा यक़ीं
नहीं-नहीं अभी नहीं, नहीं-नहीं अभी नहीं
अभी तो मैं जवान हूँ!
न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का
न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का
उम्मीद और यास गुम, हवास गुम क़यास गुम
नज़र से आस-पास गुम, हमन बजुज़ गिलास गुम
न मय में कुछ कमी रहे, कदा से हमदमी रहे
नशिस्त ये जमी रहे, यही हमा-हमी रहे
वो राग छेड़ मुतरिबा, तरवफ़िज़ा आलमरुबा
असर सदा-ए-साज़ का, जिग़र में आग दे लगा
हर इक लब पे हो सदा, न हाथ रोक साक़िया
पिलाए जा पिलाए जा, पिलाए जा पिलाए जा
अभी तो मैं जवान हूँ !
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
इस __ में किस से मिलें हम से तो छूटी महिफ़लें,
हर शख्स तेरा नाम ले हर शख्स दीवाना तेरा|
आपके विकल्प हैं -
a) गली, b) बाज़ार, c) शहर, d) महफिल
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था -"फुर्सत" और सही शेर कुछ यूं था -
हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत,
रोने को यहाँ वैसे भी फुर्सत नहीं मिलती...
निदा फाजली के इस शेर को सबसे पहले सही पकडा एक बार फिर शरद जी ने, बधाई जनाब -
तुम्हें गैरों से कब फ़ुर्सत और हम ग़म से कब खाली
चलो अब हो चुका मिलना न तुम खाली न हम खाली
हा हा हा....वाह शरद जी, दिशा जी खूब रंग जमाया आपने भी महफिल में इन शेरों से -
वो कहते हैं कि दर्द झलकता है चेहरे पर मेरे
ग़मों ने फुर्सत ही कहाँ दी मुस्कराने की
ललक बची ही नहीं जीने की मेरे अंदर
वज़ह कहाँ से लाऊँ मुस्कराने की
कभी फु़र्सत मिले तो सोचें क्या मिला जिन्दगी से
अभी तो यूँ ही जिन्दगी जिये जाते हैं
वो दर्द बयाँ करें ना करें अपना उनकी मर्जी
चेहरे के भाव सारी दास्ताँ कह जाते हैं...
पूजा जी का ख्याल एकदम सही लगा, और शैलेश जी सही कहा आपने इंशा जी की वो ग़ज़ल वाकई नायाब है.
शबे फुरकत का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो
कभी फुर्सत मे कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
सुमित जी बहुत खूब....नीलम जी, शमिख जी, जरा आप भी रचना जी का ये शेर मुलाहजा फरमाएं -
दर्द मेरा था जो तेरे बहाने निकला
चन्द लम्हे फुर्सत के कमाने निकला
संघ हर शख्स ने उस पर बरसाए
जो दिल की दुनिया बसाने निकला
आशीष जी ने निदा साहब की याद किया इस शेर के साथ -
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूं तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |
दिलीप जी आपका आना बहुत सुखद लगा. मंजू जी आपका शेर भी खूब रहा, और मनु साहब का ये शेर, जो हमें बहुत पसंद आया...वजह ??? बताते हैं, पहले शेर पढें -
रहने दो अपनी जल्दबाज नजर
मुझ को पढना है तो फुर्सत से पढो...
भई हम भी बस यही चाहते हैं की आप भी इस महफिल में ज़रा फुर्सत से बैठें और पढें /सुनें. यही तो चंद लम्हें हैं जिंदगी के सुकून से भरे.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
गज़लों की यह महफ़िल अपने पहले पड़ाव तक पहुँच चुकी है। आज हम आपके सामने महफ़िल-ए-गज़ल का २५वाँ अंक लेकर हाज़िर हुए हैं। आगे बढने से पहले हम इस बात से मुतमईन होना चाहेंगे कि जिस तरह इस महफ़िल को आपके सामने लाने पर हमने फ़ख्र महसूस किया है, उसी तरह आपने भी बराबर चाव से इस महफ़िल की हर पेशकश को अपने सीने से लगाया है। ऐसा करने के पीछे हमारी यह मंशा नहीं है कि आपका इम्तिहान लिया जाए, बल्कि हम यह चाहते हैं कि अब तक जितने भी फ़नकारों को हमने इस महफ़िल के बहाने याद किया है, उनकी यादों का असर थोड़ा-सा भी कम न हो। वैसे भी बस आगे बढते रहने का नाम हीं ज़िंदगी नहीं है, राह में चलते-चलते कभी-कभी हमें पीछे छूट चुके अपने साथियों को भी याद कर लेना चाहिए। और इसी कारण आज से २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है।तो दोस्तों! कमर कस लीजिए इस अनोखी प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के लिए । ये रहे आज के सवाल: -
१) "मक़दूम मोहिउद्दीन" की लिखी एक गज़ल "आपकी याद आती रही रात भर" गाकर इन्होंने अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरूआत की थी।
२) २००५ में रीलिज हुई "सावन की रिमझिम में" में से ली गई एक नज़्म , जिसे कलमबद्ध किया था योगेश ने और संगीत से सजाया था श्याम शर्मा ने।
चलिए अब ,बाकी के दिनों की तरह हीं आज की गज़ल और उससे जुड़े फ़नकारों की बात करते हैं। आज हम जो गज़ल/गीत/नज़्म लेकर आपके सामने हाज़िर हुए हैं, उसकी खासियत यह है कि ना सिर्फ़ उसके शायर की मक़बूलियत का लोहा माना जाता है, बल्कि उसे गाने वाली फ़नकारा का भी कोई जवाब नहीं है और सबसे बढकर वह नज़्म खुद अपनी प्रसिद्धि की जीती-जागती एक मिसाल है। जहां में ऐसा कौन होगा जिसने "अभी तो मैं जवान हूँ" का कम से कम एकबार भी लुत्फ़ न लिया हो। यह शब्द-समूह, यह "मिसरा" सुनने में बड़ा हीं साधारण महसूस होता है,लेकिन मेरा दावा है कि अगर एक बार भी आपने पूरी नज़्म को सही से सुन लिया तो आप खुद को इसका मुरीद होने से नहीं रोक पाएँगे। "हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनाख़ेज़ हो, हवाएं इत्रबेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?"- वल्लाह! शायर ने कितने आराम से इश्क और हुस्न की अदाओं का जिक्र किया है, पढो तो एक-एक हर्फ़ इत्र में डूबा नज़र आता है सुनो तो आवाज़ में एक शोखी-सी घुली लगती है। वैसे शायर के लफ़्ज़ों में ऐसा असर हो क्यूँ ना, जोकि शायर का नाम "हाफ़िज़ जालंधरी" हो। मुल्के-पाकिस्तान का क़ौमी तराना "पाक सरजमीं शद बद" लिखने वाले इस शायर के खाते में पाकिस्तान का सबसे बड़ा तमगा "हिलाल-ए-इम्तियाज़" और "प्राइड आफ़ परफ़ारमेंश" दर्ज़ है। इस शायर ने "फिरदौसी" के "शाहनामा" के तर्ज़ पर "शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना की है। "दीन-ए-इस्लाम" की इज्जत करने वाले इस शख्स की सोच का कमाल देखिए कि जो नज़्म एक तरफ़ किसी की अदाओं और शोखियों को बयान करती है, वहीं दूसरी तरफ़ बड़ी हीं खामोशी से "दर्शन" की भी बात करती है। जरा इस मिसरे पर गौर फ़रमाईयेगा: "न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का, न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का। " अर्थात - "मुझे अपनी ज़िंदगी के न तो बंद किस्से का ग़म है और न हीं किसी खुली दास्तां का। मैं सफ़र में आई न किसी ऊँचाई की फ़िक्र करता हूँ और न हीं किसी गहराई की। मुझे न अपने होने की चिंता है और न हीं अपने रूतबे की। और न हीं मैं संसार की उत्पत्ति के समय किए गए किसी वादे से इत्तेफ़ाक रखता हूँ।"
जानकारी के लिए बता दूँ कि "अलस्त" का शाब्दिक अर्थ है "नहीं हूँ" ,लेकिन इसका भावार्थ बड़ा हीं व्यापक है। कहा जाता है कि जब खुदा ने इस कुदरत की तख्लीक की थी तो उस समय उन्होंने इसी शब्द का उच्चारण किया था। "अलस्त" कहकर उन्होंने अपने पहले बंदे से यह सवाल किया था कि "क्या मैं तुम्हारा खुदा नहीं हूँ?" और उस बंदे ने जवाब दिया था कि "हाँ, आप हीं मेरे खुदा हैं।" किसी के भी द्वारा उठाई गई संसार में यह सबसे पहली कसम है। और जब कोई इंसान इस कसम को झुठलाने को तैयार हो जाए तो या तो वह इश्क में डूबा है या फिर वह काफ़िर है। वैसे भी कहते हैं कि आशिक और दार्शनिक में फ़र्क नहीं होता। इसलिए यहाँ पर इंसान का इश्क हीं ज़ाहिर होता है। इस नज़्म में और भी ऐसी बातें हैं,जिसपर तहरीरें लिखी जा सकती हैं। लेकिन कुछ लिखने से अच्छा है कि उसे महसूस किया जाए। इसलिए हम यही चाहेंगे कि आप इस नज़्म का एक-एक हर्फ़ खुद में उतार लें, एक-एक हर्फ़ जियें, फिर देखिए..जवानी कहीं भी हो,आपके पास न आ जाए तो कहिएगा। इस नज़्म को जिन फ़नकारा ने अपनी आवाज़ के जादू से सराबोर किया है, उनकी बात किए बिना इस महफ़िल की शमा को बुझाना तो एक गुस्ताखी होगी। "मजज़ूब" बाबा मोती राम ने इन्हें "मल्लिका" कहा था तो इनकी चाची ने इन्हें खुशबू से भरा "पुखराज"। महज़ "नौ" साल की उम्र में "कश्मीर" के राजा "महाराज हरि सिंह" को इन्होंने अपनी आवाज़ का दीवाना बना दिया था। फिर तो ये उस दरबार की शान हो गईं। "अठारह" साल की उम्र तक इन्होंने वहीं गुजर किया, लेकिन जब इन्हें इस बात की भनक पड़ी कि राजा की नियत इन्हें अपने हरम में डालने की है तो ये वहाँ से भाग निकली। अपनी आवाज़ और अपने हुस्ने के लिए जानी जाने वाली इस मल्लिका ने "घुड़सवारी" का ऐसा नज़ारा पेश किया कि देखने और सुनने वाले दंग रह गए। "मल्लिका पुखराज" एक ऐसी शख्सियत थीं,जिन्हें एक आलेख में समेटा नहीं जा सकता। इसलिए इनके बारे में आगे कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
अभी तो मैं जवान हूँ!
हवा भी ख़ुशगवार है, गुलों पे भी निखार है
तरन्नुमें हज़ार हैं, बहार पुरबहार है
कहाँ चला है साक़िया, इधर तो लौट इधर तो आ
अरे, यह देखता है क्या? उठा सुबू, सुबू उठा
सुबू उठा, पियाला भर पियाला भर के दे इधर
चमन की सिम्त कर नज़र, समा तो देख बेख़बर
वो काली-काली बदलियाँ ,उफ़क़ पे हो गई अयां
वो इक हजूम-ए-मैकशां, है सू-ए-मैकदा रवां
ये क्या गुमां है बदगुमां, समझ न मुझको नातवां
ख़याल-ए-ज़ोह्द अभी कहाँ? अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ!
इबादतों का ज़िक्र है, निजात की भी फ़िक्र है
जुनून है सबाब का, ख़याल है अज़ाब का
मगर सुनो तो शेख़ जी, अजीब शय हैं आप भी
भला शबाब-ओ-आशिक़ी, अलग हुए भी हैं कभी
हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनाख़ेज़ हो
हवाएं इत्र्बेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?
निगारहा-ए-फ़ितनागर , कोई इधर कोई उधर
उभारते हो ऐश पर, तो क्या करे कोई बशर
चलो जी क़िस्सा मुख़्तसर, तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दुरुस्त है तो हो मगर, अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ!
ये ग़श्त कोहसार की, ये सैर जू-ए-वार की
ये बुलबुलों के चहचहे, ये गुलरुख़ों के क़हक़हे
किसी से मेल हो गया, तो रंज-ओ-फ़िक्र खो गया
कभी जो वक़्त सो गया, ये हँस गया वो रो गया
ये इश्क़ की कहानियाँ, ये रस भरी जवानियाँ
उधर से महरबानियाँ, इधर से लन्तरानियाँ
ये आस्मान ये ज़मीं, नज़्ज़राहा-ए-दिलनशीं
उन्हें हयात आफ़रीं, भला मैं छोड़ दूँ यहीं
है मौत इस क़दर बरीं, मुझे न आएगा यक़ीं
नहीं-नहीं अभी नहीं, नहीं-नहीं अभी नहीं
अभी तो मैं जवान हूँ!
न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का
न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का
उम्मीद और यास गुम, हवास गुम क़यास गुम
नज़र से आस-पास गुम, हमन बजुज़ गिलास गुम
न मय में कुछ कमी रहे, कदा से हमदमी रहे
नशिस्त ये जमी रहे, यही हमा-हमी रहे
वो राग छेड़ मुतरिबा, तरवफ़िज़ा आलमरुबा
असर सदा-ए-साज़ का, जिग़र में आग दे लगा
हर इक लब पे हो सदा, न हाथ रोक साक़िया
पिलाए जा पिलाए जा, पिलाए जा पिलाए जा
अभी तो मैं जवान हूँ !
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
इस __ में किस से मिलें हम से तो छूटी महिफ़लें,
हर शख्स तेरा नाम ले हर शख्स दीवाना तेरा|
आपके विकल्प हैं -
a) गली, b) बाज़ार, c) शहर, d) महफिल
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था -"फुर्सत" और सही शेर कुछ यूं था -
हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत,
रोने को यहाँ वैसे भी फुर्सत नहीं मिलती...
निदा फाजली के इस शेर को सबसे पहले सही पकडा एक बार फिर शरद जी ने, बधाई जनाब -
तुम्हें गैरों से कब फ़ुर्सत और हम ग़म से कब खाली
चलो अब हो चुका मिलना न तुम खाली न हम खाली
हा हा हा....वाह शरद जी, दिशा जी खूब रंग जमाया आपने भी महफिल में इन शेरों से -
वो कहते हैं कि दर्द झलकता है चेहरे पर मेरे
ग़मों ने फुर्सत ही कहाँ दी मुस्कराने की
ललक बची ही नहीं जीने की मेरे अंदर
वज़ह कहाँ से लाऊँ मुस्कराने की
कभी फु़र्सत मिले तो सोचें क्या मिला जिन्दगी से
अभी तो यूँ ही जिन्दगी जिये जाते हैं
वो दर्द बयाँ करें ना करें अपना उनकी मर्जी
चेहरे के भाव सारी दास्ताँ कह जाते हैं...
पूजा जी का ख्याल एकदम सही लगा, और शैलेश जी सही कहा आपने इंशा जी की वो ग़ज़ल वाकई नायाब है.
शबे फुरकत का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो
कभी फुर्सत मे कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
सुमित जी बहुत खूब....नीलम जी, शमिख जी, जरा आप भी रचना जी का ये शेर मुलाहजा फरमाएं -
दर्द मेरा था जो तेरे बहाने निकला
चन्द लम्हे फुर्सत के कमाने निकला
संघ हर शख्स ने उस पर बरसाए
जो दिल की दुनिया बसाने निकला
आशीष जी ने निदा साहब की याद किया इस शेर के साथ -
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूं तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |
दिलीप जी आपका आना बहुत सुखद लगा. मंजू जी आपका शेर भी खूब रहा, और मनु साहब का ये शेर, जो हमें बहुत पसंद आया...वजह ??? बताते हैं, पहले शेर पढें -
रहने दो अपनी जल्दबाज नजर
मुझ को पढना है तो फुर्सत से पढो...
भई हम भी बस यही चाहते हैं की आप भी इस महफिल में ज़रा फुर्सत से बैठें और पढें /सुनें. यही तो चंद लम्हें हैं जिंदगी के सुकून से भरे.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
गुलाम अली की गज़ल
शे’र अर्ज़ है :
अब नए शहरों के जब नक्शे बनाए जाएंगे
हर गली बस्ती में कुछ मरघट दिखाए जाएंगे ।
गैर मुमकिन ये कि हम फुटपाथ पर भी चल सकें
क्योंकि हर फुटपाथ पर बिस्तर बिछाए जाएंगे ।
(स्वरचित)
यूँ तो रंग जमाये हैं कई महफिलों में
महफिले गज़ल की बात कुछ और है
कभी अर्ज होते हैं शेरों पे शेर
तो कभी लोगों की दाद को दौर है
Deepali Pant Tiwari Disha
(२) दूसरे का जवाब है : ओ रंगरेजवा .. तथा कुछ ऐसे भी पल होते है
"एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है।"
एपिसोड नंबर बताए बिना कोई भी जवाब सही नहीं माना जाएगा। इसलिए शरद जी फूर्त्ति दिखाएँ और जल्द हीं अगले कमेंट में एपिसोड नंबर भी डाल दें।
-विश्व दीपक
सही शब्द है ’शहर’
इस शब्द का प्रयोग जिसमें हुआ है ऐसा एक शेर है:
"सीने में जलन, आँखों में तूफ़ानसा क्यों है ?
इस शहर में हर शक्स परेशानसा क्यों है?"
- मिलिंद फणसे
"इस शहर में हर कोइ अज़नबी लगता है
भीड़ में भी हर मंजर सूना दिखता है
कहूँ तो कहूँ किससे बात अपनी
मुझे हर शख्स यहाँ बहरा लगता है"
यूँ तो रंग जमाये हैं कई महफिलों में
महफिले गज़ल की बात कुछ और है
कभी अर्ज होते हैं शेरों पे शेर
तो कभी लोगों की दाद को दौर है
मैं इस पहेली की बात नहीं कर रहा था :)
दर-असल आज से लेकर २९वें एपिसोड तक हम हर बार जो दो सवाल पूछने वाले हैं, मैं उसकी बात कर रहा था। हर सवाल के जवाब के साथ यह भी लिखना लाज़िमी है कि वह सवाल किस एपिसोड से लिया गया है। अधिक जानकारी के लिए आज के आलेख का पहला पैराग्राफ़ पढें जो बोल्ड में लिखा हुआ है।
धन्यवाद सहित,
विश्व दीपक
१. छाया गांगुली
२. ओ रंगरेजवा .. कुछ ऐसे भी पल होते है
Jawab hai -shahar
Shahar ab mujhe katta hai,
Hava,pani nahi milta hai.
Mandi,mahgayi ne kiya paresan
Har din-rat aasuoo mein dalta hai.
(स्वरचित
लगता है आप मेरी बात नहीं समझे।
मान लीजिए कि किसी सवाल का जवाब "इब्न-ए-इंशा" हो या "अमानत अली खान" या फिर "इंशा जी उठो अब कूच करो" तो जवाब के साथ आपको "एपिसोड २४" लिखना होगा,क्योंकि इनके बार में जानकारी हमने एपिसोड २४ में दी थी।
और एपिसोड की जानकारी बस उन्हीं सवालों के लिए है, ना कि नीचे दिए गए शेर के लिए।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
शेर -कोई दोस्त है न रकीब है ,
तेरा शहर कितना अजीब है
शेर -कोई दोस्त है न रकीब है ,
तेरा शहर कितना अजीब है
हर शख्स तेरा नाम ले हर शख्स दीवाना तेरा|
ये इंशा जी की ग़ज़ल का शेर है, बहुत ही प्यारी ग़ज़ल है ये
पर ये फुर्सत वाला शे'र जाने हम ने कब कह दिया..
और क्यूं कह दिया..
याद ही नहीं आ रहा....
पर शहर में तेरे बहुत आराम मिला है..
अलग शहर में था दिन भर, अलग-अलग सा रहा..
प्रश्न २ " कडी 5
महफ़िल की पच्चीसवीं कड़ी प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत बधाई और आने वाले अन्य आलेखों के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं.
इस नज़्म को हमेशा से सुनते रहे थे, पर आज शब्दों को भी देख कर इस से अच्छी वाकफियत हुई. फिर भी बहुत से लफ्ज़ हमें समझ नहीं आये. अगर आप इनका अर्थ बता सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी. -- लन्तरानियाँ, नातवां, कोहसार , जू-ए-वार , यास ,
बजुज़, नशिस्त, मुतरिबा, तरवफ़िज़ा .
शुक्रिया ( इस का अर्थ नहीं बताना है) :)
इस वक़्त दिमाग कहाँ चलता है,,,???
पर..
१.-------????
२.------नात्वा...कमजोर...
३.-----कोहसार------पहाड़...
४.---जू-इ-वार.......????? (कई मतलब लग रहे हैं...बाद में,,)
५.----यास.......नाउम्मीदी,,,निराशा,,,
६...बजुज....शायद एक्स्ट्रा....या फालतू...या सिवा...
७....नशिस्त...बज्म...महफ़िल,,मुशायरा जैसा,,,:)
मुतरिबा,,,,,जाना पहचाना सा है पर ...शायद...जाना पहचाना...पर इस में शक है,,
बाकी के भी पता कर के बाताने की कोशिश करूंगा....
http://www.rahuldas.com/Abhi%20to%20main%20jawaan%20hoon.htm
यहाँ पर जनाब राहुल दास ने हरेक शब्द और हरेक मिसरे को बहुत हीं बढिया तरीके से समझाया है।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
तन्हा जी,
आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद, नज़्म का सम्पूर्ण अनुवाद पढना , बेहद सुखद अनुभूति दे रहा है :).