महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२२
यह कोई फ़िल्मी किस्सा नहीं है, ना हीं किसी लैला-मजनू, हीर-रांझा की दास्तां, लेकिन जो भी है, इन-सा होकर भी इनसे अलहदा है। सुदूर पश्चिम का "मुंडा" और हजारों कोस दूर पूरब की एक "कुड़ी" , वैसे "कुड़ी" तो नहीं कहना चाहिए क्योंकि यह एक पंजाबी शब्द है और लड़की ठहरी बंगाली, लेकिन क्या करूँ मेरा "बांग्ला" का अल्प-ज्ञान मुझे सही शब्द मुहैया नहीं करा रहा, इसलिए सोचा कि जिस तरह उस फ़नकारा ने शादी के बाद अपना "बंगाली उपनाम" त्याग कर "पंजाबी उपनाम" स्वीकार कर लिया, उसी तरह उसने "कुड़ी" होना भी स्वीकार कर लिया होगा, इसलिए "कुड़ी" कहने में कोई बुराई नहीं है।हाँ तो बात की शुरूआत "पंजाब" से करते हैं। "गेहूँ और धान" की लहलहाती फ़सलों के बीच ६ फ़रवरी १९४० में अमृतसर में जन्मे इस फ़नकार की शुरूआती तालीम अपने पिता प्रोफ़ेसर नाथा सिंह से हुई थी, जो खुद एक प्रशिक्षित गायक और संगीतकार थे। वहीं हमारी फ़नकारा ने "बांग्लादेश" की एक संगीतमय परिवार में जन्म लिया था, जन्म से थी तो वो "मुखर्जी" लेकिन आगे चलकर इन्हें "सिंह" होना पड़ा। इन्होंने पाँच साल की कच्ची उम्र से हीं संगीत की साधना शुरू कर दी थी। कहते हैं कि संगीत की सच्ची साधना तब हीं हो सकती है, जब आप अपने दिन के पूरे २४ घंटे बस उसी पर न्योछावर कर दें। लेकिन कुछ लोगों में ऐसी लगन होती है कि वे "संगीत" के साथ-साथ और भी कुछ "साध" लेते है। हमारी फ़नकारा की कहानी भी कुछ ऐसी हैं है। इन्होंने मुंबई के एस०एन०डी०टी० महाविद्यालय से "एम०फिल०" की डिग्री हासिल की है, जो अपने आप में एक मुकाम है।
१९७७ में रीलिज हुई "गुलज़ार" की फ़िल्म "किनारा" में एक गाना है "नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ हीं पहचान है, ग़र याद रहे"। यूँ तो इस गाने के बोल हीं ऐसे हैं कि हर फ़नकार की ज़िंदगी और प्रतिभा का सही परिचय मिल जाता है, लेकिन हमारे आज के फ़नकार के लिए इस गाने का कुछ अलग हीं महत्व है। स्वर-कोकिला "लता मंगेशकर" के साथ पंचम दा की धुनों पर इस फ़नकार की मखमली आवाज़ जब गूँजती है तो संगीत को एक अलग हीं नशा और बोलों को एक अलग हीं अर्थ मिल जाता है। अपनी गायकी के प्रारंभिक दिनों में इन्होंने "आल इंडिया रेडिया, दिल्ली" में कई सारे कार्यक्रम दिए....इसके साथ-साथ ये "दिल्ली दूरदर्शन" से भी जुड़े थे। १९६४ में इनकी किस्मत तब चमकी , जब संगीतकार "मदन मोहन" ने इन्हें रेडियो पर सुना और तुरंत हीं मुंबई (तब कि बंबई) आने की फ़रमाईश कर दी। इनकी आवाज़ से "मदन मोहन" साहब इतने प्रभावित हुए कि इन्हें "चेतन आनंद" की आने वाली फ़िल्म "हक़ीकत" में "मोहम्मद रफ़ी" साहब के साथ "होके मज़बूर मुझे उसने बुलाया होगा" गाने का न्यौता मिल गया। किसी भी फ़नकार के लिए इससे बड़ी शुरूआत क्या हो सकती है कि पहले हैं गाने में आप "गायकी के ध्रुवतारा" के साथ माइक्रोफ़ोन शेयर करें।इतना बड़ा प्लेटफ़ार्म मिलने के बावजूद बाकी के फ़नकार्रों की तरह इनकी किस्मत में भी संघर्ष करना लिखा था। "हक़ीकत" के बाद कई सारी छोटी-मोटी फ़िल्मों मे इनके गाने आए लेकिन किसी भी गाने ने सुल्युलायड पर अपना असर नहीं छोड़ा। इसलिए इन्होंने सोचा कि कुछ नया हीं क्यों न किया जाए। इन्होंने पंचम दा का आर्केस्ट्रा ज्वाईन कर लिया और उनके कई सारे गानों में गिटार पर धुन छेड़ी। "दम मारो दम", "चुरा लिया है", "एक हीं ख्वाब"- न जाने ऐसे कितने हीं गिटार-बेस्ड गाने थे, जो इनकी ऊँगलियों के कमाल से शिखर तक पहुँच गए। अब जब इन्होंने वाद्य-यंत्रों के सहारे संगीत की दुनिया में कदम रख हीं लिया था तो फिर "संगीतकार" बनने में क्या देर थी। "अर्ज़ किया है", "एक हसीं शाम" जैसी सुमधुर गीतों को संगीतबद्ध करके इन्होंने इस क्षेत्र में भी अपने कदम जमा लिए।
"गुलज़ार" की हीं फ़िल्म "परिचय" के गानों "बीती ना बिताए रैना" और "मितवा न बोले" से इन्होंने "गायकी" की सुरीली राहों पर रि-इंट्री की। फिर तो पुरस्कारों और सराहनाओं का दौरा शुरू हो गया। "गुलज़ार" के तो ये इतने प्रिय हो गए कि लगभर हर फ़िल्म में इनका गाना होना लाज़िमी था। "दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन", "एक अकेला इस शहर मे" ,"हुज़ूर इस कदर भी न इतराके चलिए" ,"एक हीं ख्वाब कई बार देखा है मैने", "बादलों से काट-काट के", "आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं" ,"मचल कर जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू", "फूले दाना दाना फूले बालियाँ" -जैसे गीत न सिर्फ़ "गुलज़ार" को अमर करते हैं,बल्कि इन गीतों को गाने वाले इस शख्स की भी मकबूलियत और "अमरत्व" में बढोतरी करते है। जब इनकी इतनी बात हो हीं गई तो क्यों ना इनके नाम पर पड़े पर्दे को हटा दिया जाए। हम गज़ल-गायकी के उस सितारे की बात कर रहे हैं,जिन्हें कुछ लोग "भुपिन्दर" कहते हैं तो कुछ "भुपि"। "गुलज़ार" के "चाँद परोसा है" को संगीतबद्ध करने वाले "भूपिन्दर सिंह" साहब की गायकी को संबल देने वाली आज की फ़नकारा का जिक्र भी तो लाजिमी है। भला कौन होगा जिसने "भूपिन्दर-मिताली" की जोड़ी का नाम न सुना हो। न जाने कितनी हीं गज़लों और गीतों की फ़ेहरिश्त इनके नाम से आबाद है। इनकी गूँजती-सी आवाज़ "साहिल","शबनम","शरमाते-शरमाते", "आप के नाम", "अर्ज़ किया है" ,"एक आरज़ू", "कुछ इंतज़ार है", "तू साथ चल", "नशेमन", "गुलमोहर", "रात गुलाबी" और न जाने ऐसी कितनी हीं एलबमों में सुनी जा सकती हैं। चूँकि गुलज़ार इनके प्रिय रहे हैं इसलिए "वो जो शायर था" और "चाँद परोसा है" में कुछ अलग-सी हीं बात है। वैसे भी "गुलज़ार" साहब का नाम आते हीं मुझे न जाने क्या हो जाता है। य़ूँ तो आज की गज़ल किसी और एलबम से है,लेकिन मैं "चाँद परोसा है" से कुछ पंक्तियाँ आपसे शेयर करना चाहता हूँ। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
कोसा-कोसा लगता है,
तेरा भरोसा लगता है।
रात ने अपनी थाली में,
चाँद परोसा लगता है।
कभी यह गज़ल भी आपको सुनाएँगे, आज एक अलग हीं गज़ल की बारी है। "द ग्रेट गज़ल्स: भुपिन्दर एंड मिताली" एलबम से ली गई इस गज़ल में प्यार-मोहब्बत की बड़ी हीं दिलचस्प बातें कहीं गई हैं,कहीं एक गुजारिश है तो कहीं फिर एक अपनापन। आप खुद देखिए और गज़ल में छुपी भावनाओं का लुत्फ़ उठाईये:
अपना कोई मिले तो गले से लगाईये,
क्या-क्या कहेंगे लोग उसे भूल जाईये।
पहले नज़र मिलाईये फिर दिल मिलाईये,
मिल जाए दिल से दिल तो गले से लगाईये।
दिल एक फूल है इसे खिलने भी दीजिये,
आए अगर हँसी तो ज़रा मुस्कुराईये।
सावन की रूत नहीं है तो आ जाएगी अभी,
बाहों में आके आप ज़रा झूल जाईये।
दमभर में पास दिल के चले आएँगे मगर,
खुद को भी ऐतबार के काबिल बनाईये।
हँसकर मिले कोई तो मिलो उससे टूटकर,
ऐसी घड़ी में दिल न किसी का दुखाईये।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
एक हमें ___ कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं,
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं...
आपके विकल्प हैं -
a) आशिक, b) परवाना, c) आवारा, d) बंजारा
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली पहेली का सही शब्द था -आँख. और शेर कुछ यूँ था -
कहकहा आँख का बरताव बदल देता है,
हंसने वाले तुझे आंसू नज़र आये कैसे...
शरद जी ने के बार फिर सही जवाब दिया सबसे पहले और जो शेर अर्ज किया वो कुछ यूं था -
कभी आँखों से अश्कों का खज़ाना कम नहीं होता
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं
रजिया राज जी महफ़िल में आई पर सही जवाब नहीं दे पायीं इस बार...कोई बात नहीं...पर सुमित जी इस बार नहीं चूके, एक शेर भी याद दिला गए -
अगर आँखे मेरी पुरनम नही है
तो तुम ये ना समझना गम नही है
आशीष जी ने न सिर्फ सही जवाब दिया बल्कि उपरोक्त शेर के ग़ज़लकार का नाम भी बता दिया. जी हाँ वसीम बरेलवी, और शुक्रिया जनाब उनके इन दो शेरों को हम सब के साथ बाँटने का, आप भी गौर फरमायें -
क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा
मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा
वाह जनाब समां बांध दिया आपने, पूजा जी आपने सही कहा, सलमा जी ने उन दिनों जैसे सब पर जादू सा कर दिया था. रचना जी भूल चूक मुआफ...आपका जवाब एकदम सही है और आपका शेर भी बहुत बढ़िया -
आँखों से बह के ख्वाब तेरी हथेली सजा गए
लिखा है गैर का नाम वहां चुपके से बता गए
तपन जी, निर्मला कपिला जी, और शामिख फ़राज़ जी आप सब का भी महफिल में आना अच्छा लगा, मनु जी नियमित रहते हैं पर इस बार नहीं दिखे, आचार्य सलिल जी भी काफी दिनों से नदारद हैं, नीलम जी और शन्नो जी की खट्टी मीठी नोंक झोंक भी बहुत दिनों से नहीं हुई, कहाँ हैं आप सब ? महफ़िल का हाजरी रजिस्टर आप सब की खोज में निकल चुका है. स्वप्न मंजूषा जी देखिये इस बार आप छूटते छूटते बची, आपने भी इस बेहद मशहूर शेर की याद दिला कर "ऑंखें" नम से कर दी-
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा,
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा...
जी हाँ दोस्तों वक़्त गुजरता है गुजर जायेगा, बस ऐसे ही कुछ पल याद रह जायेंगें, जो हमने और आपने प्यार से बाँटे हैं. ये प्यार यूहीं बना रहे इसी उम्मीद के साथ अगली महफिल तक के लिए इजाज़त.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
यह कोई फ़िल्मी किस्सा नहीं है, ना हीं किसी लैला-मजनू, हीर-रांझा की दास्तां, लेकिन जो भी है, इन-सा होकर भी इनसे अलहदा है। सुदूर पश्चिम का "मुंडा" और हजारों कोस दूर पूरब की एक "कुड़ी" , वैसे "कुड़ी" तो नहीं कहना चाहिए क्योंकि यह एक पंजाबी शब्द है और लड़की ठहरी बंगाली, लेकिन क्या करूँ मेरा "बांग्ला" का अल्प-ज्ञान मुझे सही शब्द मुहैया नहीं करा रहा, इसलिए सोचा कि जिस तरह उस फ़नकारा ने शादी के बाद अपना "बंगाली उपनाम" त्याग कर "पंजाबी उपनाम" स्वीकार कर लिया, उसी तरह उसने "कुड़ी" होना भी स्वीकार कर लिया होगा, इसलिए "कुड़ी" कहने में कोई बुराई नहीं है।हाँ तो बात की शुरूआत "पंजाब" से करते हैं। "गेहूँ और धान" की लहलहाती फ़सलों के बीच ६ फ़रवरी १९४० में अमृतसर में जन्मे इस फ़नकार की शुरूआती तालीम अपने पिता प्रोफ़ेसर नाथा सिंह से हुई थी, जो खुद एक प्रशिक्षित गायक और संगीतकार थे। वहीं हमारी फ़नकारा ने "बांग्लादेश" की एक संगीतमय परिवार में जन्म लिया था, जन्म से थी तो वो "मुखर्जी" लेकिन आगे चलकर इन्हें "सिंह" होना पड़ा। इन्होंने पाँच साल की कच्ची उम्र से हीं संगीत की साधना शुरू कर दी थी। कहते हैं कि संगीत की सच्ची साधना तब हीं हो सकती है, जब आप अपने दिन के पूरे २४ घंटे बस उसी पर न्योछावर कर दें। लेकिन कुछ लोगों में ऐसी लगन होती है कि वे "संगीत" के साथ-साथ और भी कुछ "साध" लेते है। हमारी फ़नकारा की कहानी भी कुछ ऐसी हैं है। इन्होंने मुंबई के एस०एन०डी०टी० महाविद्यालय से "एम०फिल०" की डिग्री हासिल की है, जो अपने आप में एक मुकाम है।
१९७७ में रीलिज हुई "गुलज़ार" की फ़िल्म "किनारा" में एक गाना है "नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ हीं पहचान है, ग़र याद रहे"। यूँ तो इस गाने के बोल हीं ऐसे हैं कि हर फ़नकार की ज़िंदगी और प्रतिभा का सही परिचय मिल जाता है, लेकिन हमारे आज के फ़नकार के लिए इस गाने का कुछ अलग हीं महत्व है। स्वर-कोकिला "लता मंगेशकर" के साथ पंचम दा की धुनों पर इस फ़नकार की मखमली आवाज़ जब गूँजती है तो संगीत को एक अलग हीं नशा और बोलों को एक अलग हीं अर्थ मिल जाता है। अपनी गायकी के प्रारंभिक दिनों में इन्होंने "आल इंडिया रेडिया, दिल्ली" में कई सारे कार्यक्रम दिए....इसके साथ-साथ ये "दिल्ली दूरदर्शन" से भी जुड़े थे। १९६४ में इनकी किस्मत तब चमकी , जब संगीतकार "मदन मोहन" ने इन्हें रेडियो पर सुना और तुरंत हीं मुंबई (तब कि बंबई) आने की फ़रमाईश कर दी। इनकी आवाज़ से "मदन मोहन" साहब इतने प्रभावित हुए कि इन्हें "चेतन आनंद" की आने वाली फ़िल्म "हक़ीकत" में "मोहम्मद रफ़ी" साहब के साथ "होके मज़बूर मुझे उसने बुलाया होगा" गाने का न्यौता मिल गया। किसी भी फ़नकार के लिए इससे बड़ी शुरूआत क्या हो सकती है कि पहले हैं गाने में आप "गायकी के ध्रुवतारा" के साथ माइक्रोफ़ोन शेयर करें।इतना बड़ा प्लेटफ़ार्म मिलने के बावजूद बाकी के फ़नकार्रों की तरह इनकी किस्मत में भी संघर्ष करना लिखा था। "हक़ीकत" के बाद कई सारी छोटी-मोटी फ़िल्मों मे इनके गाने आए लेकिन किसी भी गाने ने सुल्युलायड पर अपना असर नहीं छोड़ा। इसलिए इन्होंने सोचा कि कुछ नया हीं क्यों न किया जाए। इन्होंने पंचम दा का आर्केस्ट्रा ज्वाईन कर लिया और उनके कई सारे गानों में गिटार पर धुन छेड़ी। "दम मारो दम", "चुरा लिया है", "एक हीं ख्वाब"- न जाने ऐसे कितने हीं गिटार-बेस्ड गाने थे, जो इनकी ऊँगलियों के कमाल से शिखर तक पहुँच गए। अब जब इन्होंने वाद्य-यंत्रों के सहारे संगीत की दुनिया में कदम रख हीं लिया था तो फिर "संगीतकार" बनने में क्या देर थी। "अर्ज़ किया है", "एक हसीं शाम" जैसी सुमधुर गीतों को संगीतबद्ध करके इन्होंने इस क्षेत्र में भी अपने कदम जमा लिए।
"गुलज़ार" की हीं फ़िल्म "परिचय" के गानों "बीती ना बिताए रैना" और "मितवा न बोले" से इन्होंने "गायकी" की सुरीली राहों पर रि-इंट्री की। फिर तो पुरस्कारों और सराहनाओं का दौरा शुरू हो गया। "गुलज़ार" के तो ये इतने प्रिय हो गए कि लगभर हर फ़िल्म में इनका गाना होना लाज़िमी था। "दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन", "एक अकेला इस शहर मे" ,"हुज़ूर इस कदर भी न इतराके चलिए" ,"एक हीं ख्वाब कई बार देखा है मैने", "बादलों से काट-काट के", "आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं" ,"मचल कर जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू", "फूले दाना दाना फूले बालियाँ" -जैसे गीत न सिर्फ़ "गुलज़ार" को अमर करते हैं,बल्कि इन गीतों को गाने वाले इस शख्स की भी मकबूलियत और "अमरत्व" में बढोतरी करते है। जब इनकी इतनी बात हो हीं गई तो क्यों ना इनके नाम पर पड़े पर्दे को हटा दिया जाए। हम गज़ल-गायकी के उस सितारे की बात कर रहे हैं,जिन्हें कुछ लोग "भुपिन्दर" कहते हैं तो कुछ "भुपि"। "गुलज़ार" के "चाँद परोसा है" को संगीतबद्ध करने वाले "भूपिन्दर सिंह" साहब की गायकी को संबल देने वाली आज की फ़नकारा का जिक्र भी तो लाजिमी है। भला कौन होगा जिसने "भूपिन्दर-मिताली" की जोड़ी का नाम न सुना हो। न जाने कितनी हीं गज़लों और गीतों की फ़ेहरिश्त इनके नाम से आबाद है। इनकी गूँजती-सी आवाज़ "साहिल","शबनम","शरमाते-शरमाते", "आप के नाम", "अर्ज़ किया है" ,"एक आरज़ू", "कुछ इंतज़ार है", "तू साथ चल", "नशेमन", "गुलमोहर", "रात गुलाबी" और न जाने ऐसी कितनी हीं एलबमों में सुनी जा सकती हैं। चूँकि गुलज़ार इनके प्रिय रहे हैं इसलिए "वो जो शायर था" और "चाँद परोसा है" में कुछ अलग-सी हीं बात है। वैसे भी "गुलज़ार" साहब का नाम आते हीं मुझे न जाने क्या हो जाता है। य़ूँ तो आज की गज़ल किसी और एलबम से है,लेकिन मैं "चाँद परोसा है" से कुछ पंक्तियाँ आपसे शेयर करना चाहता हूँ। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
कोसा-कोसा लगता है,
तेरा भरोसा लगता है।
रात ने अपनी थाली में,
चाँद परोसा लगता है।
कभी यह गज़ल भी आपको सुनाएँगे, आज एक अलग हीं गज़ल की बारी है। "द ग्रेट गज़ल्स: भुपिन्दर एंड मिताली" एलबम से ली गई इस गज़ल में प्यार-मोहब्बत की बड़ी हीं दिलचस्प बातें कहीं गई हैं,कहीं एक गुजारिश है तो कहीं फिर एक अपनापन। आप खुद देखिए और गज़ल में छुपी भावनाओं का लुत्फ़ उठाईये:
अपना कोई मिले तो गले से लगाईये,
क्या-क्या कहेंगे लोग उसे भूल जाईये।
पहले नज़र मिलाईये फिर दिल मिलाईये,
मिल जाए दिल से दिल तो गले से लगाईये।
दिल एक फूल है इसे खिलने भी दीजिये,
आए अगर हँसी तो ज़रा मुस्कुराईये।
सावन की रूत नहीं है तो आ जाएगी अभी,
बाहों में आके आप ज़रा झूल जाईये।
दमभर में पास दिल के चले आएँगे मगर,
खुद को भी ऐतबार के काबिल बनाईये।
हँसकर मिले कोई तो मिलो उससे टूटकर,
ऐसी घड़ी में दिल न किसी का दुखाईये।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
एक हमें ___ कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं,
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं...
आपके विकल्प हैं -
a) आशिक, b) परवाना, c) आवारा, d) बंजारा
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली पहेली का सही शब्द था -आँख. और शेर कुछ यूँ था -
कहकहा आँख का बरताव बदल देता है,
हंसने वाले तुझे आंसू नज़र आये कैसे...
शरद जी ने के बार फिर सही जवाब दिया सबसे पहले और जो शेर अर्ज किया वो कुछ यूं था -
कभी आँखों से अश्कों का खज़ाना कम नहीं होता
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं
रजिया राज जी महफ़िल में आई पर सही जवाब नहीं दे पायीं इस बार...कोई बात नहीं...पर सुमित जी इस बार नहीं चूके, एक शेर भी याद दिला गए -
अगर आँखे मेरी पुरनम नही है
तो तुम ये ना समझना गम नही है
आशीष जी ने न सिर्फ सही जवाब दिया बल्कि उपरोक्त शेर के ग़ज़लकार का नाम भी बता दिया. जी हाँ वसीम बरेलवी, और शुक्रिया जनाब उनके इन दो शेरों को हम सब के साथ बाँटने का, आप भी गौर फरमायें -
क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा
मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा
वाह जनाब समां बांध दिया आपने, पूजा जी आपने सही कहा, सलमा जी ने उन दिनों जैसे सब पर जादू सा कर दिया था. रचना जी भूल चूक मुआफ...आपका जवाब एकदम सही है और आपका शेर भी बहुत बढ़िया -
आँखों से बह के ख्वाब तेरी हथेली सजा गए
लिखा है गैर का नाम वहां चुपके से बता गए
तपन जी, निर्मला कपिला जी, और शामिख फ़राज़ जी आप सब का भी महफिल में आना अच्छा लगा, मनु जी नियमित रहते हैं पर इस बार नहीं दिखे, आचार्य सलिल जी भी काफी दिनों से नदारद हैं, नीलम जी और शन्नो जी की खट्टी मीठी नोंक झोंक भी बहुत दिनों से नहीं हुई, कहाँ हैं आप सब ? महफ़िल का हाजरी रजिस्टर आप सब की खोज में निकल चुका है. स्वप्न मंजूषा जी देखिये इस बार आप छूटते छूटते बची, आपने भी इस बेहद मशहूर शेर की याद दिला कर "ऑंखें" नम से कर दी-
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा,
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा...
जी हाँ दोस्तों वक़्त गुजरता है गुजर जायेगा, बस ऐसे ही कुछ पल याद रह जायेंगें, जो हमने और आपने प्यार से बाँटे हैं. ये प्यार यूहीं बना रहे इसी उम्मीद के साथ अगली महफिल तक के लिए इजाज़त.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं...
c) आवारा
usee awaara diwane ko 'jaalib jaalib' kehatein hain
jaayen to kahaan jaayen har mod par ruswaai .
bhupindar ji ka behad pyaara geet jo aaj bhi dil ke kareeb hai ,"jindgi mere ghar aana "
aur in dono ki aawaj me wo gajal raahon par nazar rakhna ,aa jaaye koi shaayad darwaaja khula rakhna .
kya baat hai achchi post vd ji ,badhaai sweekaaren .
आवारा सा फिरता है वो
इश्क की धुन में रहता है वो
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आवारा कहो या कहो परवाना
बंजारों की जात का कहाँ कोई ठिकाना
यदि शब्द आवारा सही होगा तो ही दूसरे वाले शेर पर ध्यान दीजियेगा
सादर
रचना