ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 106
'राज कपूर विशेष' मे आज गीतकार शैलेन्द्र और राज कपूर के साथ की बात। शैलेन्द्र एक ऐसे रोशन सितारे हैं जो अपने बहुत छोटे से संगीत सफ़र में ही न जाने कितने अमर गीत हमें दे गये हैं। उनके ये अमर गीत दुनिया के होंठों पर सदियों तक थिरकते रहेंगे। शैलेन्द्र भाषा और साहित्य के विद्वान थे। रूसी साहित्य जानने के लिए उन्होने रूसी भाषा सीखा। रबींद्रनाथ टैगोर की नोबल जयी कृति 'गीतांजली' को समझने के लिए उन्होने बंगला भी सीखा। राज कपूर उन्हे पुश्किन कहा करते थे। सन् १९६६ मे शैलेन्द्र निर्माता बने और फणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी 'मारे गये गुलफ़ाम' को सेल्युलायड के परदे पर उतारा 'तीसरी क़सम' के शीर्षक से। यह फ़िल्म 'सेल्युलायड' के परदे पर लिखी गयी एक कविता है। आज इस फ़िल्म को फ़िल्म इतिहास का एक सुनहरा अध्याय के रूप मे भले ही स्वीकारा जाये, उस समय यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी थी और इस फ़िल्म से निर्माता शैलेन्द्र को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। कई कड़वे अनुभवों से उन्हे गुज़रना पड़ा था। कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उन्ही लोगों ने उनको पहुँचाया भारी नुकसान। शैलेन्द्र की इस महत्वाकांशी फ़िल्म को बाद मे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन अफ़सोस, वह दिन देखने के लिए शैलेन्द्र जीवित नहीं थे। बासु भट्टाचार्य निर्देशित और राज कपूर - वहीदा रहमान अभिनीत इस फ़िल्म का एक गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। आशा भोंसले और साथियों की आवाज़ों में यह गीत आपको सुदूर किसी गाँव मे हो गयी किसी के बिटिया की शादी मे ले जायेगा। लोक रंग मे रंगा यह गीत बेहद सुरीला है, मिट्टी की ख़ुशबू लिए हुए है जिसकी महक आज भी वैसी भी बरकरार है। संगीतकार और कोई नहीं, शंकर जयकिशन ही हैं।
दोस्तों, ३० अगस्त २००६ को शैलेन्द्र के जन्मदिवस के उपलक्ष पर दुबई स्थित '१०४.४ आवाज़ FM' रेडियो चैनल पर शैलेन्द्र के बेटे मनोज शैलेन्द्र से एक मुलाक़ात प्रसारित हुआ था, जिसका एक अंश मैं यहाँ पर प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जिसे पढ़कर आप को शैलेन्द्र, राज कपूर और 'तीसरी क़सम' से जुड़ी कई बातें जानने को मिलेंगी।
प्रश्न: अच्छा मनोज साहब, मैं आपसे यह सवाल करना चाहूँगा कि फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बाबा (शैलेन्द्र) की ज़िंदगी में एक अजीब मोड़ लेकर आयी और यही फ़िल्म कारण बनी उनके इस दुनिया से जाने का, बल्कि मैने यहाँ तक पढ़ा है कि जब यह फ़िल्म 'रिलीज़' हुई तो उसके 'प्रिमीयर' मे भी बाबा नहीं गये थे।
मनोज: जी हाँ, यह सच है। बाबा तो एक कलाकार थे और जज्बातों में बह जाया करते थे। उनको हरदम यह था कि जब फ़िल्म बनने लगी, तो काफ़ी परेशानियाँ झेलनी पड़ी। राज कपूर अपनी फ़िल्मों में काफ़ी बिज़ी थे, पहले 'संगम', फिर 'मेरा नाम जोकर', इसलिए उनसे डेट्स मिलना मुश्किल हो रहा था। और ख़ास तौर से इसी वजह से फ़िल्म मे देर होती चली गयी। और बाबा ठहरे कलाकार आदमी, दूसरे निर्मातायों की तरह उन्होने किसी फ़िल्म वितरक से पैसे नहीं लिए अपनी फ़िल्म को प्रायोजित करने के लिए। बल्कि उन्होने अपना जमा पूंजी लगा दी और ख़ुद पैसे उधार लिए अधिक ब्याज पर। जितनी फ़िल्म देर होती चली गयी, ब्याज और बढ़ता चला गया। जैसे जैसे फ़िल्म बनती गयी, उन्होने देखा कि उनके सारे दोस्त उन्हे हतोत्साहित करने मे लगे हैं। बाबा ने हमें बताया था कि जब फ़िल्म पूरी बन गयी तब राज कपूर ने उन्हे फ़िल्म के क्लाइमैक्स को बदलने का सुझाव दिया क्योंकि उन्हे लगा कि एक दुखद अंत फ़िल्म को कामयाब नहीं बना सकती। राज साहब ने अपनी फ़िल्म 'आह' का उदाहरण भी दिया जो दुखद अंत की वजह से फ्लॉप हो गयी थी। लेकिन बाबा कहानी मे कोई फेर बदल नहीं करना चाहते थे। राज साहब ने फिर उनसे उस फ़िल्म को 'आर.के' बैनर तले रिलीज़ करने का सुझाव दिया ताकी फ़िल्म वितरक जुटाने मे सुविधा हो। बाबा इस बात को भी नहीं माने और 'इमेज मेकर्स' के साथ ही बने रहे। यह बहुत ग़लत धारणा लोगों में फैली है कि 'तीसरी क़सम' के फ़्लाप हो जाने से जो आर्थिक क्षति हुई थी, उसने बाबा की जान ले ली। यह ग़लत है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त मै १५ साल का था और एक दिन बाबा अपने कमरे मे अकेले बैठे थे। मैं उनके कमरे मे गया और मालूम नहीं क्यों उन्होने मुझसे कहा कि 'देखो, मैं अपने हर गीत के लिए बहुत बड़ा पारिश्रमिक लेता हूँ, आज शंकर जयकिशन के हाथ ५० फ़िल्में हैं, और उनमें हर फ़िल्म मे अगर मैं एक गीत भी लिखूँ तो इतना कमा सकता हूँ कि सारा कर्ज़ अदा हो जाये।' इससे यह साबित होता है कि आर्थिक कारण नहीं था बाबा के गुजर जाने का।"
दोस्तों, इस इंटरव्यू का पूरा आलेख मेरे पास उपलब्ध है जिसे हम 'हिन्द-युग्म' पर ज़रूर प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे, फिलहाल 'तीसरी क़सम' की याद ताज़ा कीजिये यह गीत सुनकर।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. "दा शो मस्ट गो ऑन" यही नारा था इस अमर फिल्म का.
२. मुकेश की आवाज़ में राज का दर्द.
३. दूसरे अंतरे की अंतिम पंक्ति में ये शब्द है -"साया".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह शरद जी पूरे दस अंकों के लिए बधाई आपको और भूल सुधार के लिए धन्यवाद. जी हाँ ये एक कहानी ही है, लिखते समय उपन्यास लिखा गया गलती से. पराग जी आपने सही कहा, ये गीत अन्य गीतों के मुकाबले कम ही सुना गया है पर जैसा मनु ने कहा मधुर धुन, शब्द और फिल्मांकन के कारण वाकई ये गीत बेहद मीठा और प्यारा लगता है. रचना जी और निर्मला जी आप भी बने रहिये इस महफिल में.
राजकुमार जी ने शरद तैलंग जी को सही पदवी दी और एक पहेली उन्होंने भी पूछ डाली। हम तो राज जी को होस्ट के तौर पर लायेंगे और चाहेंगे कि प्रस्तुतिकरण को और दिलकश बनायें।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
'राज कपूर विशेष' मे आज गीतकार शैलेन्द्र और राज कपूर के साथ की बात। शैलेन्द्र एक ऐसे रोशन सितारे हैं जो अपने बहुत छोटे से संगीत सफ़र में ही न जाने कितने अमर गीत हमें दे गये हैं। उनके ये अमर गीत दुनिया के होंठों पर सदियों तक थिरकते रहेंगे। शैलेन्द्र भाषा और साहित्य के विद्वान थे। रूसी साहित्य जानने के लिए उन्होने रूसी भाषा सीखा। रबींद्रनाथ टैगोर की नोबल जयी कृति 'गीतांजली' को समझने के लिए उन्होने बंगला भी सीखा। राज कपूर उन्हे पुश्किन कहा करते थे। सन् १९६६ मे शैलेन्द्र निर्माता बने और फणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी 'मारे गये गुलफ़ाम' को सेल्युलायड के परदे पर उतारा 'तीसरी क़सम' के शीर्षक से। यह फ़िल्म 'सेल्युलायड' के परदे पर लिखी गयी एक कविता है। आज इस फ़िल्म को फ़िल्म इतिहास का एक सुनहरा अध्याय के रूप मे भले ही स्वीकारा जाये, उस समय यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी थी और इस फ़िल्म से निर्माता शैलेन्द्र को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। कई कड़वे अनुभवों से उन्हे गुज़रना पड़ा था। कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उन्ही लोगों ने उनको पहुँचाया भारी नुकसान। शैलेन्द्र की इस महत्वाकांशी फ़िल्म को बाद मे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन अफ़सोस, वह दिन देखने के लिए शैलेन्द्र जीवित नहीं थे। बासु भट्टाचार्य निर्देशित और राज कपूर - वहीदा रहमान अभिनीत इस फ़िल्म का एक गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। आशा भोंसले और साथियों की आवाज़ों में यह गीत आपको सुदूर किसी गाँव मे हो गयी किसी के बिटिया की शादी मे ले जायेगा। लोक रंग मे रंगा यह गीत बेहद सुरीला है, मिट्टी की ख़ुशबू लिए हुए है जिसकी महक आज भी वैसी भी बरकरार है। संगीतकार और कोई नहीं, शंकर जयकिशन ही हैं।
दोस्तों, ३० अगस्त २००६ को शैलेन्द्र के जन्मदिवस के उपलक्ष पर दुबई स्थित '१०४.४ आवाज़ FM' रेडियो चैनल पर शैलेन्द्र के बेटे मनोज शैलेन्द्र से एक मुलाक़ात प्रसारित हुआ था, जिसका एक अंश मैं यहाँ पर प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जिसे पढ़कर आप को शैलेन्द्र, राज कपूर और 'तीसरी क़सम' से जुड़ी कई बातें जानने को मिलेंगी।
प्रश्न: अच्छा मनोज साहब, मैं आपसे यह सवाल करना चाहूँगा कि फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बाबा (शैलेन्द्र) की ज़िंदगी में एक अजीब मोड़ लेकर आयी और यही फ़िल्म कारण बनी उनके इस दुनिया से जाने का, बल्कि मैने यहाँ तक पढ़ा है कि जब यह फ़िल्म 'रिलीज़' हुई तो उसके 'प्रिमीयर' मे भी बाबा नहीं गये थे।
मनोज: जी हाँ, यह सच है। बाबा तो एक कलाकार थे और जज्बातों में बह जाया करते थे। उनको हरदम यह था कि जब फ़िल्म बनने लगी, तो काफ़ी परेशानियाँ झेलनी पड़ी। राज कपूर अपनी फ़िल्मों में काफ़ी बिज़ी थे, पहले 'संगम', फिर 'मेरा नाम जोकर', इसलिए उनसे डेट्स मिलना मुश्किल हो रहा था। और ख़ास तौर से इसी वजह से फ़िल्म मे देर होती चली गयी। और बाबा ठहरे कलाकार आदमी, दूसरे निर्मातायों की तरह उन्होने किसी फ़िल्म वितरक से पैसे नहीं लिए अपनी फ़िल्म को प्रायोजित करने के लिए। बल्कि उन्होने अपना जमा पूंजी लगा दी और ख़ुद पैसे उधार लिए अधिक ब्याज पर। जितनी फ़िल्म देर होती चली गयी, ब्याज और बढ़ता चला गया। जैसे जैसे फ़िल्म बनती गयी, उन्होने देखा कि उनके सारे दोस्त उन्हे हतोत्साहित करने मे लगे हैं। बाबा ने हमें बताया था कि जब फ़िल्म पूरी बन गयी तब राज कपूर ने उन्हे फ़िल्म के क्लाइमैक्स को बदलने का सुझाव दिया क्योंकि उन्हे लगा कि एक दुखद अंत फ़िल्म को कामयाब नहीं बना सकती। राज साहब ने अपनी फ़िल्म 'आह' का उदाहरण भी दिया जो दुखद अंत की वजह से फ्लॉप हो गयी थी। लेकिन बाबा कहानी मे कोई फेर बदल नहीं करना चाहते थे। राज साहब ने फिर उनसे उस फ़िल्म को 'आर.के' बैनर तले रिलीज़ करने का सुझाव दिया ताकी फ़िल्म वितरक जुटाने मे सुविधा हो। बाबा इस बात को भी नहीं माने और 'इमेज मेकर्स' के साथ ही बने रहे। यह बहुत ग़लत धारणा लोगों में फैली है कि 'तीसरी क़सम' के फ़्लाप हो जाने से जो आर्थिक क्षति हुई थी, उसने बाबा की जान ले ली। यह ग़लत है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त मै १५ साल का था और एक दिन बाबा अपने कमरे मे अकेले बैठे थे। मैं उनके कमरे मे गया और मालूम नहीं क्यों उन्होने मुझसे कहा कि 'देखो, मैं अपने हर गीत के लिए बहुत बड़ा पारिश्रमिक लेता हूँ, आज शंकर जयकिशन के हाथ ५० फ़िल्में हैं, और उनमें हर फ़िल्म मे अगर मैं एक गीत भी लिखूँ तो इतना कमा सकता हूँ कि सारा कर्ज़ अदा हो जाये।' इससे यह साबित होता है कि आर्थिक कारण नहीं था बाबा के गुजर जाने का।"
दोस्तों, इस इंटरव्यू का पूरा आलेख मेरे पास उपलब्ध है जिसे हम 'हिन्द-युग्म' पर ज़रूर प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे, फिलहाल 'तीसरी क़सम' की याद ताज़ा कीजिये यह गीत सुनकर।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. "दा शो मस्ट गो ऑन" यही नारा था इस अमर फिल्म का.
२. मुकेश की आवाज़ में राज का दर्द.
३. दूसरे अंतरे की अंतिम पंक्ति में ये शब्द है -"साया".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह शरद जी पूरे दस अंकों के लिए बधाई आपको और भूल सुधार के लिए धन्यवाद. जी हाँ ये एक कहानी ही है, लिखते समय उपन्यास लिखा गया गलती से. पराग जी आपने सही कहा, ये गीत अन्य गीतों के मुकाबले कम ही सुना गया है पर जैसा मनु ने कहा मधुर धुन, शब्द और फिल्मांकन के कारण वाकई ये गीत बेहद मीठा और प्यारा लगता है. रचना जी और निर्मला जी आप भी बने रहिये इस महफिल में.
राजकुमार जी ने शरद तैलंग जी को सही पदवी दी और एक पहेली उन्होंने भी पूछ डाली। हम तो राज जी को होस्ट के तौर पर लायेंगे और चाहेंगे कि प्रस्तुतिकरण को और दिलकश बनायें।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
film ka naam hai- mera naam joker
gana hai- jeena yahan marna yahan
iske siva jana kahan...
Manju Gupta.
सादर
रचना
लाइन -अपनी नज़र में आज कल दिन भी अँधेरी रात है ,साया ही मेरे साथ था साए ही मेरे साथ है
लाइन -अपनी नज़र में आज कल दिन भी अँधेरी रात है ,साया ही मेरे साथ था साया ही मेरे साथ है
लाइन -अपनी नज़र में आज कल दिन भी अँधेरी रात है ,साया ही मेरे साथ था साए ही मेरे साथ है
लाइन -अपनी नज़र में आज कल दिन भी अँधेरी रात है ,साया ही मेरे साथ था साए ही मेरे साथ है
Song : Jane Kahan Gaye Wo Din
Director : Raj Kapoor
Producer : Raj Kapoor
Writter : K. A. Abbas
Music by : Shankar Jaikishan
Starring : Raj Kapoor
Simi Garewal
Manoj Kumar
Rishi Kapoor
Dharmendra
Dara Singh
Kseniya Ryabinkina
Padmini
Rajendra Kumar
Release date(s) 1970
Ab Kya Film Kee Story Bhi Sunaaun ?
मंजु जी को बधाई.
आप का धन्यवाद