ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 112
आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बड़ा ही ग़मगीन है दोस्तो, क्यूँकि आज हम इसमें एक बेहद प्रतिभाशाली और कामयाब फ़िल्मकार और एक बहुत ही मशहूर और सुरीली गायिका के दुखद अंत की कहानी आप को बताने जा रहे हैं। अभिनेता और निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त साहब की एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी 'काग़ज़ के फूल' (१९५९)। इस फ़िल्म से गुरुदत्त को बहुत सारी उम्मीदें थीं। लेकिन व्यावसायिक रूप से फ़िल्म बुरी तरह से पिट गयी, जिससे गुरु दत्त को ज़बरदस्त झटका लगा। 'काग़ज़ के फूल' की कहानी कुछ इस तरह से थी कि सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) एक मशहूर फ़िल्म निर्देशक हैं। उनकी पत्नी बीना (वीणा) के साथ उनके रिश्ते में अड़चनें आ रही हैं क्यूँकि बीना के परिवार वाले फ़िल्म जगत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। आगे चलकर सुरेश को अपनी बच्ची पम्मी (बेबी नाज़) से भी अलग कर दिया जाता है। तभी सुरेश के जीवन में एक नयी लड़की शांति (वहीदा रहमान) का आगमन होता है जिसमें सुरेश एक बहुत बड़ी अभिनेत्री देखते हैं। सुरेश उसे अपनी फ़िल्म 'देवदास' में पारो का किरदार देते हैं और रातों रात शांति एक मशहूर नायिका बन जाती हैं। लोग सुरेश और शांति के संबधों को लेकर अफ़वाहें फैलाते हैं जिसका असर सुरेश की बेटी पम्मी तक पड़ती है। पम्मी के अनुरोध से शांति फ़िल्म जगत छोड़ देती है और एक स्कूल टीचर बन जाती है। शांति के चले जाने से सुरेश को भारी नुकसान होता है और फ़िल्म जगत से अलग-थलग पड़ जाता है। इंडस्ट्री उसे भूल जाता हैं और वो बिल्कुल अकेला रह जाता है। अपनी अनुबंधों (कॉन्ट्रेक्टों) के कारण शांति को फ़िल्मों में वापस आना तो पड़ता है लेकिन वो सुरेश की कोई मदद नहीं कर पाती क्यूँकि सुरेश तो बरबादी की तरफ़ बहुत आगे को निकल चुका होता है। आख़िरकार अपने बीते हुए स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए सुरेश अपनी स्टूडियो मे निर्देशक की कुर्सी पर बैठे-बैठे दम तोड़ देता है। यह फ़िल्म गुरुदत्त की सब से बेहतरीन फ़िल्म मानी जाती है जिसे बाद में 'वर्ल्ड क्लासिक्स' में गिना जाने लगा। लेकिन दुखद बात यह है कि जब यह फ़िल्म बनी थी तो फ़िल्म बुरी तरह से फ़्लाप हो गयी थी। और आज जब भी यह फ़िल्म किसी थियटर में लगती है तो 'हाउसफ़ुल' हुए बिना नहीं रहती। तक़नीकी दृष्टि से भी यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म रही। रोशनी और छाया के ज़रिये कैमरे का जो काम इस फ़िल्म में हुआ है वह सचमुच जादूई है। ब्लैक ऐंड वाइट में इससे बेहतर सिनीमाटोग्राफी संभव नहीं। तभी तो फ़िल्म के सिनेमाटोग्राफर वी. के. मूर्ती को उस साल का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। आज फ़िल्म निर्देशन और निर्माण के पाठ्यक्रम में इस फ़िल्म को शामिल किया जाता है। फ़िल्म के संगीतकार थे सचिन देव बर्मन और गाने लिखे थे कैफ़ी आज़मी ने। 'काग़ज़ के फूल' के पिट जाने का असर गुरु दत्त पर इतना ज़्यादा हुआ कि इस फ़िल्म के बाद उन्होने फ़िल्में निर्देशित करना ही छोड़ दिया। उनकी अगली महत्वपूर्ण फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' को अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। गुरुदत्त लगातार मानसिक अवसाद से भुगतने लगे, और १९६४ में एक रात नशे की हालत में उन्होने ख़ुदकुशी कर ली। केवल ४० वर्ष की आयु में एक बेहतरीन फ़िल्मकार का दुखद अंत हो गया।
कुछ लोगों का मानना है कि 'काग़ज़ के फूल' की कहानी गुरुदत्त के निजी जीवन से मिलती जुलती थी। उनकी पसंदीदा अभिनेत्री कुछ हद तक कारण बनीं उनके पारिवारिक जीवन में चल रही अशांति का। एक तरफ़ गुरुदत्त का मानसिक अवसाद और दूसरी तरफ़ गीता दत्त का नर्वस ब्रेकडाउन। कुल मिलाकर उनका घर संसार महज़ एक सामाजिक कर्तव्य बन कर रह गया। पति के देहांत के बाद गीता दत्त और भी ज़्यादा दुखद पारिवारिक जीवन व्यतीत करती रहीं। उनकी निजी ज़िंदगी भी उनकी वेदना भरे गीतों की तरह हो गयी थी। वे संगीत निर्देशिका भी बनना चाहती थीं, लेकिन २० जुलाई १९७१ को उनका यह सपना हमेशा के लिए टूट गया - वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम...। गीताजी भी हमेशा के लिए चली गयीं और पीछे छोड़ गयीं अपने असंख्य अमर गीत। मृत्यु से केवल दो वर्ष पहले उन्होने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में शिरक़त की थीं जिसमें उन्होंने कुछ ऐसे शब्द कहे थे जो उस समय उनकी मानसिक स्थिति बयान करते थे। जैसे कि "सपनों की उड़ान का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं, न जाने यह मन क्या क्या सपने देख लेता है। जब सपने भंग होते हैं तो कुछ और ही हक़ीक़त सामने आती है।" अपने पति को याद करते हुए वो कहती हैं - "अब मेरे सामने है फ़िल्म 'प्यासा' का रिकार्ड, और इसी के साथ याद आ रही है मेरे जीवन की सुख भरी-दुख भरी यादें, लेकिन आपको ये सब बताकर क्या करूँगी! मेरे मन की हालत का अंदाज़ा आप अच्छी तरह लगा सकते हैं। इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे मेरे पतिदेव गुरु दत्त जी। मेरे पतिदेव सही अर्थ में कलाकार थे। वो जो कुछ भी करते बहुत मेहनत और लगन से करते। फ़िल्मों के ज़रिए अपने विचारों को व्यक्त करते। आज अंतिम गीत भी मैं अपने पतिदेव की फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' से सुनवाने जा रही हूँ। इस गीत के भाव पात्रों से भी ज़्यादा मेरे अपने भावों से मिलते-जुलते हैं।" पता है दोस्तों कि उन्होने 'साहब बीवी और ग़ुलाम' फ़िल्म के किस गीत को सुनवाया था? जी हाँ, "न जायो सैयाँ छुड़ा के बैयाँ"। लेकिन आज हम आपको सुनवा रहे हैं "वक्त ने किया क्या हसीं सितम"। यह गीत गीताजी की सब से यादगार गीतों में से एक है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' श्रद्धांजली अर्पित कर रही है फ़िल्म जगत के इस सदाबहार फ़नकार दम्पति को जिन्होंने फ़िल्म जगत में एक ऐसी छाप छोड़ी है कि जिस पर वक़्त का कोई भी सितम असर नहीं कर सकता। गुरु दत्त और गीता दत्त की स्मृति को हिंद-युग्म की तरफ़ से श्रद्धा सुमन!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. गीत के दो वर्जन हैं - लता और रफी की एकल आवाजों में.
२. इस फिल्म में थे धर्मेन्द्र और शर्मीला टैगोर. संगीत शंकर जयकिशन का.
३. मुखड़े में शब्द है -"सपने".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी को बधाई। इनका स्कोर 2 से 4 हो गया है। स्वप्न मंजूषा जी, राज जी और पराग जी, आपकी शिकायत लाज़िमी है, हमने इसके स्वरूप को बदलने के बारे में विचार किया था, लेकिन ब्लॉगर तकनीक की अपनी सीमाओं की वज़ह से यह सम्भव नहीं हो पा रहा। जल्द ही कोई न कोई और रास्ता निकालेंगे। अपना प्रेम बनाये रखें। फिलहाल तो सबसे पहले जवाब देने का ही गेम खेलते हैं। मंजु जी को भी बधाई।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बड़ा ही ग़मगीन है दोस्तो, क्यूँकि आज हम इसमें एक बेहद प्रतिभाशाली और कामयाब फ़िल्मकार और एक बहुत ही मशहूर और सुरीली गायिका के दुखद अंत की कहानी आप को बताने जा रहे हैं। अभिनेता और निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त साहब की एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी 'काग़ज़ के फूल' (१९५९)। इस फ़िल्म से गुरुदत्त को बहुत सारी उम्मीदें थीं। लेकिन व्यावसायिक रूप से फ़िल्म बुरी तरह से पिट गयी, जिससे गुरु दत्त को ज़बरदस्त झटका लगा। 'काग़ज़ के फूल' की कहानी कुछ इस तरह से थी कि सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) एक मशहूर फ़िल्म निर्देशक हैं। उनकी पत्नी बीना (वीणा) के साथ उनके रिश्ते में अड़चनें आ रही हैं क्यूँकि बीना के परिवार वाले फ़िल्म जगत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। आगे चलकर सुरेश को अपनी बच्ची पम्मी (बेबी नाज़) से भी अलग कर दिया जाता है। तभी सुरेश के जीवन में एक नयी लड़की शांति (वहीदा रहमान) का आगमन होता है जिसमें सुरेश एक बहुत बड़ी अभिनेत्री देखते हैं। सुरेश उसे अपनी फ़िल्म 'देवदास' में पारो का किरदार देते हैं और रातों रात शांति एक मशहूर नायिका बन जाती हैं। लोग सुरेश और शांति के संबधों को लेकर अफ़वाहें फैलाते हैं जिसका असर सुरेश की बेटी पम्मी तक पड़ती है। पम्मी के अनुरोध से शांति फ़िल्म जगत छोड़ देती है और एक स्कूल टीचर बन जाती है। शांति के चले जाने से सुरेश को भारी नुकसान होता है और फ़िल्म जगत से अलग-थलग पड़ जाता है। इंडस्ट्री उसे भूल जाता हैं और वो बिल्कुल अकेला रह जाता है। अपनी अनुबंधों (कॉन्ट्रेक्टों) के कारण शांति को फ़िल्मों में वापस आना तो पड़ता है लेकिन वो सुरेश की कोई मदद नहीं कर पाती क्यूँकि सुरेश तो बरबादी की तरफ़ बहुत आगे को निकल चुका होता है। आख़िरकार अपने बीते हुए स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए सुरेश अपनी स्टूडियो मे निर्देशक की कुर्सी पर बैठे-बैठे दम तोड़ देता है। यह फ़िल्म गुरुदत्त की सब से बेहतरीन फ़िल्म मानी जाती है जिसे बाद में 'वर्ल्ड क्लासिक्स' में गिना जाने लगा। लेकिन दुखद बात यह है कि जब यह फ़िल्म बनी थी तो फ़िल्म बुरी तरह से फ़्लाप हो गयी थी। और आज जब भी यह फ़िल्म किसी थियटर में लगती है तो 'हाउसफ़ुल' हुए बिना नहीं रहती। तक़नीकी दृष्टि से भी यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म रही। रोशनी और छाया के ज़रिये कैमरे का जो काम इस फ़िल्म में हुआ है वह सचमुच जादूई है। ब्लैक ऐंड वाइट में इससे बेहतर सिनीमाटोग्राफी संभव नहीं। तभी तो फ़िल्म के सिनेमाटोग्राफर वी. के. मूर्ती को उस साल का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। आज फ़िल्म निर्देशन और निर्माण के पाठ्यक्रम में इस फ़िल्म को शामिल किया जाता है। फ़िल्म के संगीतकार थे सचिन देव बर्मन और गाने लिखे थे कैफ़ी आज़मी ने। 'काग़ज़ के फूल' के पिट जाने का असर गुरु दत्त पर इतना ज़्यादा हुआ कि इस फ़िल्म के बाद उन्होने फ़िल्में निर्देशित करना ही छोड़ दिया। उनकी अगली महत्वपूर्ण फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' को अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। गुरुदत्त लगातार मानसिक अवसाद से भुगतने लगे, और १९६४ में एक रात नशे की हालत में उन्होने ख़ुदकुशी कर ली। केवल ४० वर्ष की आयु में एक बेहतरीन फ़िल्मकार का दुखद अंत हो गया।
कुछ लोगों का मानना है कि 'काग़ज़ के फूल' की कहानी गुरुदत्त के निजी जीवन से मिलती जुलती थी। उनकी पसंदीदा अभिनेत्री कुछ हद तक कारण बनीं उनके पारिवारिक जीवन में चल रही अशांति का। एक तरफ़ गुरुदत्त का मानसिक अवसाद और दूसरी तरफ़ गीता दत्त का नर्वस ब्रेकडाउन। कुल मिलाकर उनका घर संसार महज़ एक सामाजिक कर्तव्य बन कर रह गया। पति के देहांत के बाद गीता दत्त और भी ज़्यादा दुखद पारिवारिक जीवन व्यतीत करती रहीं। उनकी निजी ज़िंदगी भी उनकी वेदना भरे गीतों की तरह हो गयी थी। वे संगीत निर्देशिका भी बनना चाहती थीं, लेकिन २० जुलाई १९७१ को उनका यह सपना हमेशा के लिए टूट गया - वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम...। गीताजी भी हमेशा के लिए चली गयीं और पीछे छोड़ गयीं अपने असंख्य अमर गीत। मृत्यु से केवल दो वर्ष पहले उन्होने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में शिरक़त की थीं जिसमें उन्होंने कुछ ऐसे शब्द कहे थे जो उस समय उनकी मानसिक स्थिति बयान करते थे। जैसे कि "सपनों की उड़ान का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं, न जाने यह मन क्या क्या सपने देख लेता है। जब सपने भंग होते हैं तो कुछ और ही हक़ीक़त सामने आती है।" अपने पति को याद करते हुए वो कहती हैं - "अब मेरे सामने है फ़िल्म 'प्यासा' का रिकार्ड, और इसी के साथ याद आ रही है मेरे जीवन की सुख भरी-दुख भरी यादें, लेकिन आपको ये सब बताकर क्या करूँगी! मेरे मन की हालत का अंदाज़ा आप अच्छी तरह लगा सकते हैं। इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे मेरे पतिदेव गुरु दत्त जी। मेरे पतिदेव सही अर्थ में कलाकार थे। वो जो कुछ भी करते बहुत मेहनत और लगन से करते। फ़िल्मों के ज़रिए अपने विचारों को व्यक्त करते। आज अंतिम गीत भी मैं अपने पतिदेव की फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' से सुनवाने जा रही हूँ। इस गीत के भाव पात्रों से भी ज़्यादा मेरे अपने भावों से मिलते-जुलते हैं।" पता है दोस्तों कि उन्होने 'साहब बीवी और ग़ुलाम' फ़िल्म के किस गीत को सुनवाया था? जी हाँ, "न जायो सैयाँ छुड़ा के बैयाँ"। लेकिन आज हम आपको सुनवा रहे हैं "वक्त ने किया क्या हसीं सितम"। यह गीत गीताजी की सब से यादगार गीतों में से एक है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' श्रद्धांजली अर्पित कर रही है फ़िल्म जगत के इस सदाबहार फ़नकार दम्पति को जिन्होंने फ़िल्म जगत में एक ऐसी छाप छोड़ी है कि जिस पर वक़्त का कोई भी सितम असर नहीं कर सकता। गुरु दत्त और गीता दत्त की स्मृति को हिंद-युग्म की तरफ़ से श्रद्धा सुमन!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. गीत के दो वर्जन हैं - लता और रफी की एकल आवाजों में.
२. इस फिल्म में थे धर्मेन्द्र और शर्मीला टैगोर. संगीत शंकर जयकिशन का.
३. मुखड़े में शब्द है -"सपने".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी को बधाई। इनका स्कोर 2 से 4 हो गया है। स्वप्न मंजूषा जी, राज जी और पराग जी, आपकी शिकायत लाज़िमी है, हमने इसके स्वरूप को बदलने के बारे में विचार किया था, लेकिन ब्लॉगर तकनीक की अपनी सीमाओं की वज़ह से यह सम्भव नहीं हो पा रहा। जल्द ही कोई न कोई और रास्ता निकालेंगे। अपना प्रेम बनाये रखें। फिलहाल तो सबसे पहले जवाब देने का ही गेम खेलते हैं। मंजु जी को भी बधाई।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
sapne ye sach hi honge
hum tum juda na honge
film : yakeen
year : 1969
बहुत बधाईयाँ
पराग
Manju Gupta.