ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 108
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हीरक जयंती पर्व और फिर उसके बाद राज कपूर विशेषांकों के बाद आज हम वापस लौट आये हैं हमारे नियमित अंक पर। दोस्तों, अगर हम डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की बात करें तो सबसे पहले जिस फ़िल्म का नाम हमारे ज़हन मे आता है वह है 'शोले'। इस फ़िल्म मे गब्बर सिंह के रूप में अमजद ख़ान ने वह इतिहास रचा है कि फिर उनके बाद किसी ने भी डाकू की ऐसी सशक्त भूमिका अदा नहीं की। 'शोले' ७० के दशक की फ़िल्म थी। लेकिन अगर हम एक दशक पीछे की ओर जायें, तो उस ज़माने मे डाकू के रूप मे सुनिल दत्त साहब का नाम बड़ा मशहूर था। उनकी ऐसी तमाम फ़िल्मों में जो फ़िल्म सब से ज़्यादा मशहूर हुई वह थी 'मुझे जीने दो'। १९६३ मे बनी इस फ़िल्म का निर्माण भी सुनिल दत्त और उनके भाई सोम दत्त ने मिलकर किया था। यह उनकी दूसरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता, पहली फ़िल्म थी 'ये रास्तें हैं प्यार के' जो १९६३ मे ही बनी थी। 'मुझे जीने दो' की कहानी यह दर्शाती है कि किस तरह प्यार की कोमलता कट्टर से कट्टर डाकू को भी ज़िंदगी की सही राह पर वापस ले जा सकती है। यह कहानी है डाकू जरनैल सिंह (सुनिल दत्त) और चमेली (वहीदा रहमान) की। डाकुओं के लिए मशहूर मध्य प्रदेश के चंबल घाटी में ही इस फ़िल्म के कई दृश्य फ़िल्माये गये थे, जिससे इस फिल्म की जीवंतता और भी बढ़ गयी थी। मोनी भट्टाचार्य निर्देशित इस फ़िल्म के संगीतकार थे जयदेव और गीतकार थे साहिर लुधियानवी। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे सुनिए इसी फ़िल्म से आशा भोंसले का गाया एक गीत।
चमेली के रूप में वहीदा रहमान का अभिनय भी सराहनीय रहा इस फ़िल्म में। लेकिन सुनिल दत्त साहब ही मैदान मार गये और उन्हे इस फ़िल्म के लिए उस साल के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार मिला। इस फ़िल्म से जुड़ी पुरस्कारों की बात करें तो फ़िल्म के निर्देशक का नाम उस साल के 'कान्स फ़िल्म महोत्सव' के लिए मनोनीत किया गया था। और अब आते हैं आज के गीत पर। यूँ तो आशा भोंसले की आवाज़ हर तरह के गानों के लिए नम्बर वन है, लेकिन जब भी लोक शैली मे किसी गीत को गाने की बात आती है तो उनकी आवाज़ से वह खनक, वह लचीलापन, वह शरारत छलकने लगती है कि गीत को सुनते हुए हम वाक़ई भारत के किसी सुदूर गाँव में पहुँच जाते हैं। "नदी नारे न जायो श्याम पैंयाँ पड़ूँ" में भी कुछ इसी तरह का जादू बिखेरा है आशाजी ने। शास्त्रीय और लोक संगीत के रंगों से सराबोर इस गीत से जहाँ एक तरफ़ कृष्ण और गोपियों के दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इस गीत में मुजरे के रंग को भी महसूस किया जा सकता है। सुनिये...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. इस गीत के संगीतकार हैं ब्रिज भूषण.
२. राम अवतार त्यागी के लिखे इस गीत को जिस कलाकार पर फिल्माया गया है उन पर बतौर बाल कलाकार फिल्माया एक गीत ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है.
३. मुखड़े में शब्द है -"इरादा".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
मंजू जी इस बार आपका जवाब एकदम सही है, पर शरद जी एक बार फिर आपसे पहले आकर बाज़ी मार ही गए. ठीक ६.३० भारतीय समय अनुसार ओल्ड इस गोल्ड पोस्ट आती है, हमें लगता है की थोडी सी फुर्ती दिखा कर आप शरद जी को टक्कर दे पाएंगीं बहरहाल आज के लिए तो शरद जी को बधाई आपके अंक बढ़ कर हुए - १२. जानिए अपने होस्ट सुजॉय के बारे में कुछ दिलचस्प बातें इस साक्षात्कार में यहाँ
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हीरक जयंती पर्व और फिर उसके बाद राज कपूर विशेषांकों के बाद आज हम वापस लौट आये हैं हमारे नियमित अंक पर। दोस्तों, अगर हम डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की बात करें तो सबसे पहले जिस फ़िल्म का नाम हमारे ज़हन मे आता है वह है 'शोले'। इस फ़िल्म मे गब्बर सिंह के रूप में अमजद ख़ान ने वह इतिहास रचा है कि फिर उनके बाद किसी ने भी डाकू की ऐसी सशक्त भूमिका अदा नहीं की। 'शोले' ७० के दशक की फ़िल्म थी। लेकिन अगर हम एक दशक पीछे की ओर जायें, तो उस ज़माने मे डाकू के रूप मे सुनिल दत्त साहब का नाम बड़ा मशहूर था। उनकी ऐसी तमाम फ़िल्मों में जो फ़िल्म सब से ज़्यादा मशहूर हुई वह थी 'मुझे जीने दो'। १९६३ मे बनी इस फ़िल्म का निर्माण भी सुनिल दत्त और उनके भाई सोम दत्त ने मिलकर किया था। यह उनकी दूसरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता, पहली फ़िल्म थी 'ये रास्तें हैं प्यार के' जो १९६३ मे ही बनी थी। 'मुझे जीने दो' की कहानी यह दर्शाती है कि किस तरह प्यार की कोमलता कट्टर से कट्टर डाकू को भी ज़िंदगी की सही राह पर वापस ले जा सकती है। यह कहानी है डाकू जरनैल सिंह (सुनिल दत्त) और चमेली (वहीदा रहमान) की। डाकुओं के लिए मशहूर मध्य प्रदेश के चंबल घाटी में ही इस फ़िल्म के कई दृश्य फ़िल्माये गये थे, जिससे इस फिल्म की जीवंतता और भी बढ़ गयी थी। मोनी भट्टाचार्य निर्देशित इस फ़िल्म के संगीतकार थे जयदेव और गीतकार थे साहिर लुधियानवी। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे सुनिए इसी फ़िल्म से आशा भोंसले का गाया एक गीत।
चमेली के रूप में वहीदा रहमान का अभिनय भी सराहनीय रहा इस फ़िल्म में। लेकिन सुनिल दत्त साहब ही मैदान मार गये और उन्हे इस फ़िल्म के लिए उस साल के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार मिला। इस फ़िल्म से जुड़ी पुरस्कारों की बात करें तो फ़िल्म के निर्देशक का नाम उस साल के 'कान्स फ़िल्म महोत्सव' के लिए मनोनीत किया गया था। और अब आते हैं आज के गीत पर। यूँ तो आशा भोंसले की आवाज़ हर तरह के गानों के लिए नम्बर वन है, लेकिन जब भी लोक शैली मे किसी गीत को गाने की बात आती है तो उनकी आवाज़ से वह खनक, वह लचीलापन, वह शरारत छलकने लगती है कि गीत को सुनते हुए हम वाक़ई भारत के किसी सुदूर गाँव में पहुँच जाते हैं। "नदी नारे न जायो श्याम पैंयाँ पड़ूँ" में भी कुछ इसी तरह का जादू बिखेरा है आशाजी ने। शास्त्रीय और लोक संगीत के रंगों से सराबोर इस गीत से जहाँ एक तरफ़ कृष्ण और गोपियों के दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इस गीत में मुजरे के रंग को भी महसूस किया जा सकता है। सुनिये...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. इस गीत के संगीतकार हैं ब्रिज भूषण.
२. राम अवतार त्यागी के लिखे इस गीत को जिस कलाकार पर फिल्माया गया है उन पर बतौर बाल कलाकार फिल्माया एक गीत ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है.
३. मुखड़े में शब्द है -"इरादा".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
मंजू जी इस बार आपका जवाब एकदम सही है, पर शरद जी एक बार फिर आपसे पहले आकर बाज़ी मार ही गए. ठीक ६.३० भारतीय समय अनुसार ओल्ड इस गोल्ड पोस्ट आती है, हमें लगता है की थोडी सी फुर्ती दिखा कर आप शरद जी को टक्कर दे पाएंगीं बहरहाल आज के लिए तो शरद जी को बधाई आपके अंक बढ़ कर हुए - १२. जानिए अपने होस्ट सुजॉय के बारे में कुछ दिलचस्प बातें इस साक्षात्कार में यहाँ
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
गीत : एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले, मैनें मन्दिर को तलाशा मुझे बाज़ार मिले ।
जि़न्दगी और बता तेरा इरादा क्या है ।
गायक : मुकेश फ़िल्म : जि़न्दगी और तूफान
Aderniye vijayta sharad ji ko badhaie.
Manju Gupta.
nadee naare aa jaao syaam ye geet lokasamgeet kaa ek utkrushta geet hai.
vaise ham pahelee ko geet se zyaada tavajjo de rahe hai, kyonki geet par Tippanee kam hai, pahelee par zyada.
ashaa hai ki mere tippaNeekar mitra is baat ka bhee dhyaan rakhenge.