भूमिका
हिंदी फ़िल्म संगीत के हर दौर में कुछ निर्दिष्ट गायकों ने राज किया है और हर पीढ़ी में हम गिने चुने गायकों का नाम भी ले सकते हैं जो अपने दौर में पूरी तरह से छाये रहे, अपने दौर का जिन्होने प्रतिनिधित्व किया। लेकिन आज फ़िल्म संगीत का जो दौर चला है, उसमें एक दम से इतने सारे नये गायक आ गये हैं कि हिसाब रखना मुश्किल हो रहा है कि कौन सा गीत किस गायक ने गाया है। बहुत ही कम समय में इतने सारे गायकों के आ जाने से जहाँ एक तरफ़ प्रतियोगिता बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है, वहीं दूसरी तरफ़ नयी नयी आवाज़ों से फ़िल्म संगीत में एक नयी ताज़गी भी आयी है। कुछ भी हो, इतना ज़रूर साफ़ है कि इन बहुत सारी आवाज़ों में वही आवाज़ें बहुत आगे तक जा पायेंगी जिनमें कुछ अलग हटके बात हो! एक समय ऐसा था जब नये गायक पुराने ज़माने के दिग्गज गायकों की आवाज़ को अपनी गायिकी का आधार बनाकर इस क्षेत्र में क़दम रखते थे और सफलता भी हासिल करते थे, लेकिन आज उस तरह से बात बिल्कुल नहीं बनेगी। आज वही आवाज़ मशहूर है जो दूसरों से अलग है, जुदा है। यह एक अच्छा लक्षण है कि आज के युवा गायक शुरु से ही अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। "फ़िल्म संगीत के नवोदित पार्श्वगायक" नाम है उस शृंखला का जिसमें हम आनेवाले हफ़्तों में ज़िक्र करेंगे आज की पीढ़ी के पार्श्वगायकों की। इससे पहले की हम नवोदित आवाज़ों से आपका परिचय करवाना शुरु करें, यह बेहद ज़रूरी होगा कि फ़िल्म संगीत के सभी पीढ़ियों के पार्श्वगायकों पर जल्दी जल्दी एक नज़र दौड़ा लिया जाये, और फिर उसके बाद इत्मीनान से आज की पीढ़ी की विस्तार से चर्चा की जाये।
१९३१ में फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ था जब गायक अभिनेता वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने फ़िल्म 'आलम आरा' में गाया था "ख़ुदा के नाम पर दे दे प्यारे"। इसके बाद फ़िल्म संगीत ने पहली पीढ़ी के गायकों, गीतकारों और संगीतकारों की उंगलियाँ थामे धीरे धीरे खड़ा होना सीखा, चलना सीखा, आगे बढ़ना सीखा। पीढ़ी दर पीढ़ी फ़िल्म संगीत का ऐसे कलाकारों के सहारे निरंतर विकास होता गया। और वह बीज जिसे 'आलम आरा' के कलाकारों ने बोया था, आज उसने एक विशाल वटो वृक्ष का रूप ले चुका है। यूँ तो फ़िल्म संगीत के विकास में फ़िल्म निर्माता - निर्देशकों, गीतकार, संगीतकार और पार्श्व गायकों गायिकायों का समान रूप से हाथ रहा है, हमारी इस प्रस्तुति में हम ज़िक्र करने जा रहे हैं केवल पार्श्वगायकों का। फ़िल्म संगीत के लगभग ८० साल पुराने इतिहास को हम पार्श्वगायकों की ६ पीढ़ियों में विभाजन कर सकते हैं। पहली पीढ़ी में शामिल हैं कुंदन लाल सहगल, के. सी. डे, पंकज मल्लिक, ख़ान मस्ताना, जी एम् दुर्रानी, अरुण कुमार, सुरेन्द्र, गोविंदराव टेम्बे, आदि जिन्होने फ़िल्मी गीतों की नींव को पहले पहल मज़बूत किया था। वह दौर पार्श्वगायन का नहीं था, हालाँकि १९३५ के आसपास पार्श्वगायन की तकनीक आ गयी थी। उन दिनों अभिनेता को ख़ुद अपने गीत गाने पड़ते थे। सहगल, सुरेन्द्र जैसे कलाकार अभिनेता होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। लेकिन कुछ ऐसे नायक भी थे जो अभिनेता तो बहुत ऊँचे स्तर के थे, लेकिन गायिकी में थोड़े कच्चे। अशोक कुमार, मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल, जैसे कलाकार इस श्रेणी में आते हैं। संगीतकार बहुत ज़्यादा उन्नत या मुश्किल धुन नहीं बना पाते थे क्योंकि उन्हे गा पाना इन अभिनेताओं के बस में नहीं था।
पार्श्वगायन पद्धति को लोकप्रियता मिली ४० के दशक में जब कई अच्छे गायक गायिकायों ने इस उद्योग में क़दम रखा। द्वितीय विश्वयुद्ध और आज़ादी के बाद फ़िल्मों में व लोगों की रुचि में बदलाव आया। तो ज़ाहिर है कि फ़िल्म संगीत के रंग ढंग भी बदले और शुरु हो गया फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर। इस सुनहरे दौर का प्रतिनिधित्व जिन पार्श्वगायकों ने किया उनके नाम हैं मुकेश, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, तलत महमूद, मन्ना डे, हेमन्त कुमार, और महेन्द्र कपूर प्रमुख। ७० के दशक के बीचों बीच आते आते पार्श्व गायकों की तीसरी पीढ़ी क़दम रख चुकी थी। इस पीढ़ी में हम शामिल कर सकते हैं बहुत सारे गायकों को। लेकिन जिन गायकों ने मुख्य रूप से अपनी छाप छोड़ी है उनके नाम हैं भूपेन्द्र, सुरेश वाडेकर, जेसुदास, एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम, किशोरदा के बेटे अमित कुमार, हरिहरण, जसपाल सिंह, शैलेन्द्र सिंह, मनहर उधास, विजय बेनेडिक्ट, नरेन्द्र चंचल आदि। ७० के दशक के अंत और ८० के दशक में ग़ज़लों का एक दौर चल पड़ा था। ऐसे में कई अच्छे ग़ज़ल गायक आये और जिन्होने ग़ज़ल गायिकी के साथ साथ फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ के जलवे बिखेरे। ग़ुलाम अली, पंकज उधास, तलत अजीज़, अनुप जलोटा ऐसे ही चंद नाम हैं। ८० के दशक के शुरु होते ही गायक रफ़ी साहब का इन्तक़ाल हो गया था। लोग उनकी आवाज़ के ऐसे दीवाने बन चुके थे कि उनकी कमी को पूरा करने के लिए फ़िल्मकारों और संगीतकारों ने कई ऐसी आवाज़ें खोज निकाले जो रफ़ी साहब की आवाज़ से मिलते जुलते थे। और इस तरह से पार्श्व गायकों की इस तीसरी पीढ़ी में रफ़ी साहब जैसी आवाज़ वाले कई गायक शामिल हुए जिनमें प्रमुख नाम हैं अनवर, शब्बीर कुमार और मोहम्मद अजीज़ का। मुकेश के जाने के बाद उनके बेटे नितिन मुकेश इस क्षेत्र में आये और अपने पिता के नाम और काम को आगे बढ़ाया।
१९८७ में किशोरदा हमसे बिछड़ गये थे और ऐसा लगा कि फ़िल्म संगीत का एक अध्याय समाप्त हो गया। सचमुच फ़िल्म संगीत ने अपनी आँखें मूंद कर एक अंगड़ाई ली और आँखें खोलते ही देखा कि आ गयी है पार्श्वगायकों की चौथी पीढ़ी। रफ़ी साहब के शागिर्दों की तरह किशोरदा के भी पदचिन्हों पर चलनेवाले कई गायक आये इस पीढ़ी के, जिनमें सब से ज़्यादा ख्याति मिली कुमार सानू और अभिजीत को। उदित नारायण की आवाज़ मौलिक ज़रूर थी, लेकिन सोनू निगम की आवाज़ में शुरु शुरु में रफ़ी साहब की आवाज़ का असर महसूस होता था, हालाँकि बाद में उन्होने अपनी अलग पहचान बनायी। इस चौथी पीढ़ी के कुछ और पार्श्वगायक रहे हैं विनोद राठोड़, रूप कुमार राठोड़, सूदेश भोंसले, जौली मुखर्जी, सुखविंदर सिंह, आदि। इस पीढ़ी के बाद पाँचवी पीढ़ी के गायकों में शामिल हैं शान, के.के, बाबुल सुप्रियो, कुणाल गांजावाला, कैलाश खेर, लकी अली, अल्ताफ़ राजा, अदनान सामी, शंकर महादेवन जैसे गायक और इनमें से कई आज की पीढ़ी में भी काफ़ी सक्रीय हैं। हर पीढ़ी में कई संगीतकार ऐसे भी रहे हैं जो संगीतकार होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। इस ओर कुछ प्रमुख नाम हैं के.सी. डे, पंकज मल्लिक, चितलकर (सी. रमचन्द्र), सचिन देव बर्मन, हेमन्त कुमार, राहुल देव बर्मन, रविन्द्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, और अनु मलिक। इसी तरह से पाँचवी पीढ़ी में जिन दो संगीतकार ने अपने सुरों के साथ साथ अपने आवाज़ से भी काफ़ी धूम मचायी, वो हैं ए. आर रहमान और हिमेश रेशमिया।
आज छठी पीढ़ी चल रही है जिसमें पाँचवी पीढ़ी के कई गायक तो शामिल हैं ही, लेकिन पिछले दो तीन सालों में बहुत सारी नयी प्रतिभायें इस क्षेत्र में अपना क़िस्मत आज़माने आ गयीं हैं, और इस शृंखला में हम ऐसे ही नवोदित युवा प्रतिभाओं का ज़िक्र करेंगे जिन्होने अभी अभी अपनी पारी का खाता खोला है। तो दोस्तों, आज बस यहीं तक, अगले हफ़्ते से हम शुरु करेंगे इन नवोदित पार्श्वगायकों की बातें और बातों के साथ साथ हम उनके गाये हुए गानें भी आपको सुनवाते जायेंगे। हमें उम्मीद है कि इस शृंखला के समापन के बाद आप यह बात फिर कभी नहीं कहेंगे कि "आज कौन सा गीत कौन से गायक गा रहे हैं कुछ पता ही नहीं चलता"। अगर कहेंगे तो हम तो भई यही समझेंगे कि हमारी मेहनत रंग नहीं लायी। तो बने रहिये 'हिंद-युग्म' के साथ 'आवाज़' की इस दुनिया में, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ साथ नये संगीत और नयी आवाज़ों का भी खुले दिल से स्वागत कीजिये।
प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी
हिंदी फ़िल्म संगीत के हर दौर में कुछ निर्दिष्ट गायकों ने राज किया है और हर पीढ़ी में हम गिने चुने गायकों का नाम भी ले सकते हैं जो अपने दौर में पूरी तरह से छाये रहे, अपने दौर का जिन्होने प्रतिनिधित्व किया। लेकिन आज फ़िल्म संगीत का जो दौर चला है, उसमें एक दम से इतने सारे नये गायक आ गये हैं कि हिसाब रखना मुश्किल हो रहा है कि कौन सा गीत किस गायक ने गाया है। बहुत ही कम समय में इतने सारे गायकों के आ जाने से जहाँ एक तरफ़ प्रतियोगिता बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है, वहीं दूसरी तरफ़ नयी नयी आवाज़ों से फ़िल्म संगीत में एक नयी ताज़गी भी आयी है। कुछ भी हो, इतना ज़रूर साफ़ है कि इन बहुत सारी आवाज़ों में वही आवाज़ें बहुत आगे तक जा पायेंगी जिनमें कुछ अलग हटके बात हो! एक समय ऐसा था जब नये गायक पुराने ज़माने के दिग्गज गायकों की आवाज़ को अपनी गायिकी का आधार बनाकर इस क्षेत्र में क़दम रखते थे और सफलता भी हासिल करते थे, लेकिन आज उस तरह से बात बिल्कुल नहीं बनेगी। आज वही आवाज़ मशहूर है जो दूसरों से अलग है, जुदा है। यह एक अच्छा लक्षण है कि आज के युवा गायक शुरु से ही अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। "फ़िल्म संगीत के नवोदित पार्श्वगायक" नाम है उस शृंखला का जिसमें हम आनेवाले हफ़्तों में ज़िक्र करेंगे आज की पीढ़ी के पार्श्वगायकों की। इससे पहले की हम नवोदित आवाज़ों से आपका परिचय करवाना शुरु करें, यह बेहद ज़रूरी होगा कि फ़िल्म संगीत के सभी पीढ़ियों के पार्श्वगायकों पर जल्दी जल्दी एक नज़र दौड़ा लिया जाये, और फिर उसके बाद इत्मीनान से आज की पीढ़ी की विस्तार से चर्चा की जाये।
१९३१ में फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ था जब गायक अभिनेता वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने फ़िल्म 'आलम आरा' में गाया था "ख़ुदा के नाम पर दे दे प्यारे"। इसके बाद फ़िल्म संगीत ने पहली पीढ़ी के गायकों, गीतकारों और संगीतकारों की उंगलियाँ थामे धीरे धीरे खड़ा होना सीखा, चलना सीखा, आगे बढ़ना सीखा। पीढ़ी दर पीढ़ी फ़िल्म संगीत का ऐसे कलाकारों के सहारे निरंतर विकास होता गया। और वह बीज जिसे 'आलम आरा' के कलाकारों ने बोया था, आज उसने एक विशाल वटो वृक्ष का रूप ले चुका है। यूँ तो फ़िल्म संगीत के विकास में फ़िल्म निर्माता - निर्देशकों, गीतकार, संगीतकार और पार्श्व गायकों गायिकायों का समान रूप से हाथ रहा है, हमारी इस प्रस्तुति में हम ज़िक्र करने जा रहे हैं केवल पार्श्वगायकों का। फ़िल्म संगीत के लगभग ८० साल पुराने इतिहास को हम पार्श्वगायकों की ६ पीढ़ियों में विभाजन कर सकते हैं। पहली पीढ़ी में शामिल हैं कुंदन लाल सहगल, के. सी. डे, पंकज मल्लिक, ख़ान मस्ताना, जी एम् दुर्रानी, अरुण कुमार, सुरेन्द्र, गोविंदराव टेम्बे, आदि जिन्होने फ़िल्मी गीतों की नींव को पहले पहल मज़बूत किया था। वह दौर पार्श्वगायन का नहीं था, हालाँकि १९३५ के आसपास पार्श्वगायन की तकनीक आ गयी थी। उन दिनों अभिनेता को ख़ुद अपने गीत गाने पड़ते थे। सहगल, सुरेन्द्र जैसे कलाकार अभिनेता होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। लेकिन कुछ ऐसे नायक भी थे जो अभिनेता तो बहुत ऊँचे स्तर के थे, लेकिन गायिकी में थोड़े कच्चे। अशोक कुमार, मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल, जैसे कलाकार इस श्रेणी में आते हैं। संगीतकार बहुत ज़्यादा उन्नत या मुश्किल धुन नहीं बना पाते थे क्योंकि उन्हे गा पाना इन अभिनेताओं के बस में नहीं था।
पार्श्वगायन पद्धति को लोकप्रियता मिली ४० के दशक में जब कई अच्छे गायक गायिकायों ने इस उद्योग में क़दम रखा। द्वितीय विश्वयुद्ध और आज़ादी के बाद फ़िल्मों में व लोगों की रुचि में बदलाव आया। तो ज़ाहिर है कि फ़िल्म संगीत के रंग ढंग भी बदले और शुरु हो गया फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर। इस सुनहरे दौर का प्रतिनिधित्व जिन पार्श्वगायकों ने किया उनके नाम हैं मुकेश, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, तलत महमूद, मन्ना डे, हेमन्त कुमार, और महेन्द्र कपूर प्रमुख। ७० के दशक के बीचों बीच आते आते पार्श्व गायकों की तीसरी पीढ़ी क़दम रख चुकी थी। इस पीढ़ी में हम शामिल कर सकते हैं बहुत सारे गायकों को। लेकिन जिन गायकों ने मुख्य रूप से अपनी छाप छोड़ी है उनके नाम हैं भूपेन्द्र, सुरेश वाडेकर, जेसुदास, एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम, किशोरदा के बेटे अमित कुमार, हरिहरण, जसपाल सिंह, शैलेन्द्र सिंह, मनहर उधास, विजय बेनेडिक्ट, नरेन्द्र चंचल आदि। ७० के दशक के अंत और ८० के दशक में ग़ज़लों का एक दौर चल पड़ा था। ऐसे में कई अच्छे ग़ज़ल गायक आये और जिन्होने ग़ज़ल गायिकी के साथ साथ फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ के जलवे बिखेरे। ग़ुलाम अली, पंकज उधास, तलत अजीज़, अनुप जलोटा ऐसे ही चंद नाम हैं। ८० के दशक के शुरु होते ही गायक रफ़ी साहब का इन्तक़ाल हो गया था। लोग उनकी आवाज़ के ऐसे दीवाने बन चुके थे कि उनकी कमी को पूरा करने के लिए फ़िल्मकारों और संगीतकारों ने कई ऐसी आवाज़ें खोज निकाले जो रफ़ी साहब की आवाज़ से मिलते जुलते थे। और इस तरह से पार्श्व गायकों की इस तीसरी पीढ़ी में रफ़ी साहब जैसी आवाज़ वाले कई गायक शामिल हुए जिनमें प्रमुख नाम हैं अनवर, शब्बीर कुमार और मोहम्मद अजीज़ का। मुकेश के जाने के बाद उनके बेटे नितिन मुकेश इस क्षेत्र में आये और अपने पिता के नाम और काम को आगे बढ़ाया।
१९८७ में किशोरदा हमसे बिछड़ गये थे और ऐसा लगा कि फ़िल्म संगीत का एक अध्याय समाप्त हो गया। सचमुच फ़िल्म संगीत ने अपनी आँखें मूंद कर एक अंगड़ाई ली और आँखें खोलते ही देखा कि आ गयी है पार्श्वगायकों की चौथी पीढ़ी। रफ़ी साहब के शागिर्दों की तरह किशोरदा के भी पदचिन्हों पर चलनेवाले कई गायक आये इस पीढ़ी के, जिनमें सब से ज़्यादा ख्याति मिली कुमार सानू और अभिजीत को। उदित नारायण की आवाज़ मौलिक ज़रूर थी, लेकिन सोनू निगम की आवाज़ में शुरु शुरु में रफ़ी साहब की आवाज़ का असर महसूस होता था, हालाँकि बाद में उन्होने अपनी अलग पहचान बनायी। इस चौथी पीढ़ी के कुछ और पार्श्वगायक रहे हैं विनोद राठोड़, रूप कुमार राठोड़, सूदेश भोंसले, जौली मुखर्जी, सुखविंदर सिंह, आदि। इस पीढ़ी के बाद पाँचवी पीढ़ी के गायकों में शामिल हैं शान, के.के, बाबुल सुप्रियो, कुणाल गांजावाला, कैलाश खेर, लकी अली, अल्ताफ़ राजा, अदनान सामी, शंकर महादेवन जैसे गायक और इनमें से कई आज की पीढ़ी में भी काफ़ी सक्रीय हैं। हर पीढ़ी में कई संगीतकार ऐसे भी रहे हैं जो संगीतकार होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। इस ओर कुछ प्रमुख नाम हैं के.सी. डे, पंकज मल्लिक, चितलकर (सी. रमचन्द्र), सचिन देव बर्मन, हेमन्त कुमार, राहुल देव बर्मन, रविन्द्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, और अनु मलिक। इसी तरह से पाँचवी पीढ़ी में जिन दो संगीतकार ने अपने सुरों के साथ साथ अपने आवाज़ से भी काफ़ी धूम मचायी, वो हैं ए. आर रहमान और हिमेश रेशमिया।
आज छठी पीढ़ी चल रही है जिसमें पाँचवी पीढ़ी के कई गायक तो शामिल हैं ही, लेकिन पिछले दो तीन सालों में बहुत सारी नयी प्रतिभायें इस क्षेत्र में अपना क़िस्मत आज़माने आ गयीं हैं, और इस शृंखला में हम ऐसे ही नवोदित युवा प्रतिभाओं का ज़िक्र करेंगे जिन्होने अभी अभी अपनी पारी का खाता खोला है। तो दोस्तों, आज बस यहीं तक, अगले हफ़्ते से हम शुरु करेंगे इन नवोदित पार्श्वगायकों की बातें और बातों के साथ साथ हम उनके गाये हुए गानें भी आपको सुनवाते जायेंगे। हमें उम्मीद है कि इस शृंखला के समापन के बाद आप यह बात फिर कभी नहीं कहेंगे कि "आज कौन सा गीत कौन से गायक गा रहे हैं कुछ पता ही नहीं चलता"। अगर कहेंगे तो हम तो भई यही समझेंगे कि हमारी मेहनत रंग नहीं लायी। तो बने रहिये 'हिंद-युग्म' के साथ 'आवाज़' की इस दुनिया में, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ साथ नये संगीत और नयी आवाज़ों का भी खुले दिल से स्वागत कीजिये।
प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी
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