हर घर के कोने में एक पोस्ट बॉक्स होता है... रितुपर्णा घोष लाये हैं संगीत की एक अजीब दावत "मेमोरीस इन मार्च" में
Taaza Sur Taal (TST) - 09/2011 - Memories In March
'ताज़ा सुर ताल' के आज के अंक में मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का स्वागत करता हूँ। दोस्तों, जिस तरह से समाज का नज़रिया बद्लता रहा है, उसी तरह से हमारी फ़िल्मों की कहानियों में, किरदारों में भी बदलाव आते रहे हैं। "फ़िल्म समाज का आइना है" वाक़ई सही बात है। एक विषय जो हमेशा से ही समाजिक विरोध और घृणा का पात्र रहा है, वह है समलैंगिक्ता। भले ही सुप्रीम कोर्ट नें समलैंगिक संबंध को स्वीकृति दे दी है, लेकिन देखना यह है कि हमारा समाज कब इसे खुले दिल से स्वीकार करता है। फ़िल्मों की बात करें तो पिछ्ले कई सालों से समलैंगिक चरित्र फ़िल्मों में दिखाये जाते रहे हैं, लेकिन उन पर हास्य-व्यंग के तीर ही चलाये गये हैं। जब अंग्रेज़ी फ़िल्म 'ब्रोकबैक माउण्टेन' नें समलैंगिक संबंध को रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया तो हमारे यहाँ भी फ़िल्मकारों ने साहस किया, और सब से पहले निर्देशक ओनिर 'माइ ब्रदर निखिल' में इस राह पर चलकर दिखाया। अभी हाल ही में 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' में भी समलैंगिक संबंध को दर्शाया गया लेकिन फ़िल्म के नायक के परिवार वालों नें हक़ीक़त में ही उसे परिवार से अलग कर दिया। सबसे अफ़सोस की बात यह है कि जब समलैंगिक्ता को हास्य-व्यंग के रूप में प्रस्तुत किया गया, लोगों नें हाथों हाथ लिया, पर जब जब संवेदनशील तरीके से किसी ने इसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया, इस समाज ने उसे हतोत्साहित ही किया। एक और फ़िल्मकार जिन्होंने इस विषय को रुचिकर तरीके से प्रस्तुत किया, वो हैं ऋतुपर्ण घोष। उनकी बांग्ला फ़िल्म 'आर एकटी प्रेमेर गौल्पो' (और एक प्रेम कहानी) में एक समलैंगिक निर्देशक का फ़िल्म के नायक से साथ प्रेम-संबंध का चित्रण लोगों नें बहुत पसंद किया। और अब आ रही है उनकी अगली फ़िल्म 'मेमोरीज़ इन मार्च'।
'मेमोरीज़ इन मार्च' मूलत: एक अंग्रेज़ी फ़िल्म है, जिसमें हिंदी और बांग्ला का भी प्रयोग हुआ है। यह केवल दो समलैंगिक प्रेमियों की कहानी ही नहीं, बल्कि यह कहानी है उस दर्द और पीड़ा की जो एक माँ झेलती है जब उसका बेटा एक सड़क हादसे में गुज़र जाता है। इस हादसे के बहुत दिनों बाद जब उसे यह पता चलता है कि उसके बेटे का एक पुरुष प्रेमी भी था, उसे एक और झटका लगता है। और अचानक वह अपने बेटे की ज़िंदगी के एक अनछुया पहलु से रु-ब-रु होती है। 'मेमोरीज़ इन मार्च' कहानी है एक माँ की और उसके स्वर्गवासी बेटे के प्रेमी की, और किस तरह से दोनों अपने अपने दुख बांटते हुए एक दूसरे के करीब आ जाते हैं। सुनने में आया है कि निर्देशक संजय नाग नें बहुत ही सुंदरता से पूरे विषय को प्रस्तुत किया है, और क्यों न हो जब ऋतु दा जैसे अनुभवी और १३-बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजयी निर्देशक फ़िल्म से जुड़े हो। ऋतु दा नें इस फ़िल्म में स्वर्गवासी बेटे के प्रेमी की भूमिका निभाई है, जब कि माँ की भूमिका में हैं दीप्ती नवल। फ़िल्म का तीसरा चरित्र है राइमा सेन का जो उस स्वरगवासी लड़के की दोस्त थी।
और अब आते हैं मुद्दे की बात पर, यानी कि गीत-संगीत पर। 'मेमोरीज़ इन मार्च' के संगीतकार हैं देबोज्योति मिश्र और इसके सभी गीतों को लिखा है स्वयं ऋतुपर्ण घोष नें। ऐल्बम का पहला गीत है शुभोमिता बैनर्जी की आवाज़ में "सखी हम" और शायद यही इस ऐल्बम का सर्वोत्तम गीत है। दोस्तों, इस गीत के बारे में आपके 'सुर-संगम' के हमसफ़र सुमित चक्रवर्ती के शब्दों में - "यह गीत सुनने वाले के अंतर मन में जल की तरह उतरता जाता है। गायिका शुभोमिता बैनर्जी ने दिल को छू लेने वाले अन्दाज़ में इस गीत को गाया है। ऋतुपर्णो घोष ने इस गीत को बंगला एवं मैथिली में लिखकर एक अनोखा प्रयास किया है तथा इसमें चार चाँद लगाया है संगीतकार देबज्योति मिश्र ने इसे पियानो पर एक नर्म तर्ज़ पर रचकर। गीत का असर सुनने वाले के दिलो-दिमाग़ पर देर तक रहता है। मैं ख़ुद भी इसे कई बार लगातार सुनता रहा और देर तक गुनगुनाता भी रहा।" और दोस्तों, छोटी मुंह बड़ी बात होगी, शुभोमिता के गायन अंदाज़ को सुनते हुए मुझे पता नहीं क्यों लता जी की याद आ गई। मैं आवाज़ की नहीं, केवल अंदाज़ की बात कर रहा हूँ। अगर मुझसे कोई ग़लती हो गई हो तो क्षमा कीजिएगा। शुभोमिता और सखियों की आवाज़ों में एक और गीत है "मेरे लाला आज न जैयो जमुनार पार", लेकिन इस गीत में वह बात नहीं महसूस हुई जो "सखी हम" में हुई थी।
अगला गीत है शैल हाडा की आवाज़ में "अजीब दावत"। शैल, जिन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'सांवरिया' के शीर्षक गीत में ही अपना करिश्मा दिखा दिया था, और अभी हाल में 'गुज़ारिश' में भी अपने आप को सिद्ध किया था, इस गीत में भी साबित किया कि भले ही उनकी आवाज़ कम सुनाई दे, लेकिन जब भी सुनाई देती है एक अलग ही असर छोड़ती है। इसी गीत का एक और संस्करण है शिल्पा राव की आवाज़ में। शिल्पा के गाये पहले के गीतों की ही तरह यह गीत भी है, कोई नई बात महसूस नहीं हुई।
तीसरा गीत रेखा भारद्वाज की आवाज़ में है "काहा संग खेलूँ होरी"। 'वीर' फ़िल्म में "कान्हा" गाने के बाद एक बार फिर से उन्हें कान्हा, होरी, वृंदावन विषयों पर गाने का मौका मिला। कम से कम साज़ों से सजी इस गीत का भी अपना अलग चार्म है। इसी गीत का एक और संस्करण है कैलाश खेर की आवाज़ में। लेकिन "काहा संग खेलूँ होरी" इसमें बदल कर बन गया "कान्हा संग खेले होरी"। मेरी राय पूछें तो कैलाश की आवाज़ में यह गीत जैसे खिल सा उठा है। रेखा जी की आवाज़ को पूर्ण सम्मान देते हुए यह कहता हूँ कि कैलाश साहब नें जिस तरह का आधायत्मिक रंग इस गीत पर चढ़ाया है, वह बात रेखा जी के संस्करण में नज़र नहीं आई। कैलाश खेर का फ़ोर्टे है इस तरह के गीत, कमाल तो वो करेंगे ही! बेहद ख़ूबसूरत, दैवीय अनुभव होता है इस गीत को सुनते हुए।
'मेमोरीज़ इन मार्च' का अगला गीत है मोहन का गाया हुआ। "हर घर के कोने में एक पोस्ट बॉक्स होता है, कभी खाली, कभी सूनी, कभी खतों से भरी, अनसूनी, लहू जैसा लाल रंग का पोस्ट बॉक्स होता है", ऋतु दा की कलम से ऐसे ग़ैर-पारम्परिक बोल निकले हैं, इस तरह के बोल इन दिनों बांग्ला बैण्ड के गीतों में नज़र आता है। मोहन की गम्भीर और कशिश भरी आवाज़ में इस गीत में एक हल्की सी रॉक शैली भी सुनाई देती है। इस गीत में जो दर्शन छुपा है, मुझे जितना समझ में आया या फिर मैंने इसे जैसे ग्रहण किया, वह यह है कि हर इंसान (घर) के भीतर (कोने में) एक हृदय (पोस्ट बॉक्स) है, जो कभी एकाकी होता है तो कभी ख़ुशियों से भर जाता है, कभी उसकी बोली को कोई सुन नहीं पाता। वैसे इसका सटीक विश्लेषण तो फ़िल्म को देखते हुए ही किया जा सकता है।
'मेमोरीज़ इन मार्च' का जो ऐल्बम है वह है क्लास ऒडिएन्स के लिए। अच्छा संगीत पसंद करने वालों के लिए है यह ऐल्बम। हमारी तरफ़ से इस ऐल्बम को १० में से ९ की रेटिंग। और मुझे जो दो गीत सब से ज़्यादा पसंद आये वो हैं शुभोमिता का "सखी हम" और कैलाश खेर "कान्हा संग खेले होरी"। अगर आप नये गीतों के सी.डी खरीदते हैं, तो मैं आपको इस ऐल्बम की सी.डी खरीदने की सलाह भी देता हूँ। और इसी के साथ आज के 'ताज़ा सुर ताल' को समेटने की आज्ञा चाहता हूँ। इस फ़िल्म के गीतों को सुनिएगा ज़रूर और सुन कर नीचे टिप्पणी में अपनी राय अवश्य लिखिएगा, नमस्कार!
एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।
'ताज़ा सुर ताल' के आज के अंक में मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का स्वागत करता हूँ। दोस्तों, जिस तरह से समाज का नज़रिया बद्लता रहा है, उसी तरह से हमारी फ़िल्मों की कहानियों में, किरदारों में भी बदलाव आते रहे हैं। "फ़िल्म समाज का आइना है" वाक़ई सही बात है। एक विषय जो हमेशा से ही समाजिक विरोध और घृणा का पात्र रहा है, वह है समलैंगिक्ता। भले ही सुप्रीम कोर्ट नें समलैंगिक संबंध को स्वीकृति दे दी है, लेकिन देखना यह है कि हमारा समाज कब इसे खुले दिल से स्वीकार करता है। फ़िल्मों की बात करें तो पिछ्ले कई सालों से समलैंगिक चरित्र फ़िल्मों में दिखाये जाते रहे हैं, लेकिन उन पर हास्य-व्यंग के तीर ही चलाये गये हैं। जब अंग्रेज़ी फ़िल्म 'ब्रोकबैक माउण्टेन' नें समलैंगिक संबंध को रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया तो हमारे यहाँ भी फ़िल्मकारों ने साहस किया, और सब से पहले निर्देशक ओनिर 'माइ ब्रदर निखिल' में इस राह पर चलकर दिखाया। अभी हाल ही में 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' में भी समलैंगिक संबंध को दर्शाया गया लेकिन फ़िल्म के नायक के परिवार वालों नें हक़ीक़त में ही उसे परिवार से अलग कर दिया। सबसे अफ़सोस की बात यह है कि जब समलैंगिक्ता को हास्य-व्यंग के रूप में प्रस्तुत किया गया, लोगों नें हाथों हाथ लिया, पर जब जब संवेदनशील तरीके से किसी ने इसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया, इस समाज ने उसे हतोत्साहित ही किया। एक और फ़िल्मकार जिन्होंने इस विषय को रुचिकर तरीके से प्रस्तुत किया, वो हैं ऋतुपर्ण घोष। उनकी बांग्ला फ़िल्म 'आर एकटी प्रेमेर गौल्पो' (और एक प्रेम कहानी) में एक समलैंगिक निर्देशक का फ़िल्म के नायक से साथ प्रेम-संबंध का चित्रण लोगों नें बहुत पसंद किया। और अब आ रही है उनकी अगली फ़िल्म 'मेमोरीज़ इन मार्च'।
'मेमोरीज़ इन मार्च' मूलत: एक अंग्रेज़ी फ़िल्म है, जिसमें हिंदी और बांग्ला का भी प्रयोग हुआ है। यह केवल दो समलैंगिक प्रेमियों की कहानी ही नहीं, बल्कि यह कहानी है उस दर्द और पीड़ा की जो एक माँ झेलती है जब उसका बेटा एक सड़क हादसे में गुज़र जाता है। इस हादसे के बहुत दिनों बाद जब उसे यह पता चलता है कि उसके बेटे का एक पुरुष प्रेमी भी था, उसे एक और झटका लगता है। और अचानक वह अपने बेटे की ज़िंदगी के एक अनछुया पहलु से रु-ब-रु होती है। 'मेमोरीज़ इन मार्च' कहानी है एक माँ की और उसके स्वर्गवासी बेटे के प्रेमी की, और किस तरह से दोनों अपने अपने दुख बांटते हुए एक दूसरे के करीब आ जाते हैं। सुनने में आया है कि निर्देशक संजय नाग नें बहुत ही सुंदरता से पूरे विषय को प्रस्तुत किया है, और क्यों न हो जब ऋतु दा जैसे अनुभवी और १३-बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजयी निर्देशक फ़िल्म से जुड़े हो। ऋतु दा नें इस फ़िल्म में स्वर्गवासी बेटे के प्रेमी की भूमिका निभाई है, जब कि माँ की भूमिका में हैं दीप्ती नवल। फ़िल्म का तीसरा चरित्र है राइमा सेन का जो उस स्वरगवासी लड़के की दोस्त थी।
और अब आते हैं मुद्दे की बात पर, यानी कि गीत-संगीत पर। 'मेमोरीज़ इन मार्च' के संगीतकार हैं देबोज्योति मिश्र और इसके सभी गीतों को लिखा है स्वयं ऋतुपर्ण घोष नें। ऐल्बम का पहला गीत है शुभोमिता बैनर्जी की आवाज़ में "सखी हम" और शायद यही इस ऐल्बम का सर्वोत्तम गीत है। दोस्तों, इस गीत के बारे में आपके 'सुर-संगम' के हमसफ़र सुमित चक्रवर्ती के शब्दों में - "यह गीत सुनने वाले के अंतर मन में जल की तरह उतरता जाता है। गायिका शुभोमिता बैनर्जी ने दिल को छू लेने वाले अन्दाज़ में इस गीत को गाया है। ऋतुपर्णो घोष ने इस गीत को बंगला एवं मैथिली में लिखकर एक अनोखा प्रयास किया है तथा इसमें चार चाँद लगाया है संगीतकार देबज्योति मिश्र ने इसे पियानो पर एक नर्म तर्ज़ पर रचकर। गीत का असर सुनने वाले के दिलो-दिमाग़ पर देर तक रहता है। मैं ख़ुद भी इसे कई बार लगातार सुनता रहा और देर तक गुनगुनाता भी रहा।" और दोस्तों, छोटी मुंह बड़ी बात होगी, शुभोमिता के गायन अंदाज़ को सुनते हुए मुझे पता नहीं क्यों लता जी की याद आ गई। मैं आवाज़ की नहीं, केवल अंदाज़ की बात कर रहा हूँ। अगर मुझसे कोई ग़लती हो गई हो तो क्षमा कीजिएगा। शुभोमिता और सखियों की आवाज़ों में एक और गीत है "मेरे लाला आज न जैयो जमुनार पार", लेकिन इस गीत में वह बात नहीं महसूस हुई जो "सखी हम" में हुई थी।
अगला गीत है शैल हाडा की आवाज़ में "अजीब दावत"। शैल, जिन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'सांवरिया' के शीर्षक गीत में ही अपना करिश्मा दिखा दिया था, और अभी हाल में 'गुज़ारिश' में भी अपने आप को सिद्ध किया था, इस गीत में भी साबित किया कि भले ही उनकी आवाज़ कम सुनाई दे, लेकिन जब भी सुनाई देती है एक अलग ही असर छोड़ती है। इसी गीत का एक और संस्करण है शिल्पा राव की आवाज़ में। शिल्पा के गाये पहले के गीतों की ही तरह यह गीत भी है, कोई नई बात महसूस नहीं हुई।
तीसरा गीत रेखा भारद्वाज की आवाज़ में है "काहा संग खेलूँ होरी"। 'वीर' फ़िल्म में "कान्हा" गाने के बाद एक बार फिर से उन्हें कान्हा, होरी, वृंदावन विषयों पर गाने का मौका मिला। कम से कम साज़ों से सजी इस गीत का भी अपना अलग चार्म है। इसी गीत का एक और संस्करण है कैलाश खेर की आवाज़ में। लेकिन "काहा संग खेलूँ होरी" इसमें बदल कर बन गया "कान्हा संग खेले होरी"। मेरी राय पूछें तो कैलाश की आवाज़ में यह गीत जैसे खिल सा उठा है। रेखा जी की आवाज़ को पूर्ण सम्मान देते हुए यह कहता हूँ कि कैलाश साहब नें जिस तरह का आधायत्मिक रंग इस गीत पर चढ़ाया है, वह बात रेखा जी के संस्करण में नज़र नहीं आई। कैलाश खेर का फ़ोर्टे है इस तरह के गीत, कमाल तो वो करेंगे ही! बेहद ख़ूबसूरत, दैवीय अनुभव होता है इस गीत को सुनते हुए।
'मेमोरीज़ इन मार्च' का अगला गीत है मोहन का गाया हुआ। "हर घर के कोने में एक पोस्ट बॉक्स होता है, कभी खाली, कभी सूनी, कभी खतों से भरी, अनसूनी, लहू जैसा लाल रंग का पोस्ट बॉक्स होता है", ऋतु दा की कलम से ऐसे ग़ैर-पारम्परिक बोल निकले हैं, इस तरह के बोल इन दिनों बांग्ला बैण्ड के गीतों में नज़र आता है। मोहन की गम्भीर और कशिश भरी आवाज़ में इस गीत में एक हल्की सी रॉक शैली भी सुनाई देती है। इस गीत में जो दर्शन छुपा है, मुझे जितना समझ में आया या फिर मैंने इसे जैसे ग्रहण किया, वह यह है कि हर इंसान (घर) के भीतर (कोने में) एक हृदय (पोस्ट बॉक्स) है, जो कभी एकाकी होता है तो कभी ख़ुशियों से भर जाता है, कभी उसकी बोली को कोई सुन नहीं पाता। वैसे इसका सटीक विश्लेषण तो फ़िल्म को देखते हुए ही किया जा सकता है।
'मेमोरीज़ इन मार्च' का जो ऐल्बम है वह है क्लास ऒडिएन्स के लिए। अच्छा संगीत पसंद करने वालों के लिए है यह ऐल्बम। हमारी तरफ़ से इस ऐल्बम को १० में से ९ की रेटिंग। और मुझे जो दो गीत सब से ज़्यादा पसंद आये वो हैं शुभोमिता का "सखी हम" और कैलाश खेर "कान्हा संग खेले होरी"। अगर आप नये गीतों के सी.डी खरीदते हैं, तो मैं आपको इस ऐल्बम की सी.डी खरीदने की सलाह भी देता हूँ। और इसी के साथ आज के 'ताज़ा सुर ताल' को समेटने की आज्ञा चाहता हूँ। इस फ़िल्म के गीतों को सुनिएगा ज़रूर और सुन कर नीचे टिप्पणी में अपनी राय अवश्य लिखिएगा, नमस्कार!
एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
Comments
मुझे भी बहुत अच्छी लगी देबोज्योति मिश्र की यह प्रस्तुति.
शुभोमिता के बारे में आपकी बात सही है.मुझे भी उनके गाये पहले गाने में लता दीदी जैसे अंदाज़ की झलकी लगी.(केवल दीदी के अंदाज़ की बात है,यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि वह अतुलनीय हैं.)
अवध लाल