Taaza Sur Taal (TST) - 10/2011 - Shor In The City
'ताज़ा सुर ताल' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! पिछले कई हफ़्तों से 'टी.एस.टी' में हम ऐसी फ़िल्मों की संगीत समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं जो लीक से हटके हैं। आज भी एक ऐसी ही फ़िल्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, जो २०१० में पुसान अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव और दुबई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के लिए मनोनीत हुई थी। इस फ़िल्म के लिये निर्देशक राज निदिमोरु और कृष्णा डी.के को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला न्यु यॉर्क के MIAAC में। वैसे भारत के सिनेमाघरों में यह फ़िल्म २८ अप्रैल को प्रदर्शित हो रही है। शोभा कपूर व एकता कपूर निर्मित इस फ़िल्म का शीर्षक है 'शोर इन द सिटी'।
'शोर इन द सिटी' तुषार कपूर, सेन्धिल रामामूर्ती, निखिल द्विवेदी, पितोबश त्रिपाठी, संदीप किशन, गिरिजा ओक, प्रीति देसाई, राधिका आप्टे और अमित मिस्त्री के अभिनय से सजी है। फ़िल्म का पार्श्वसंगीत तैयार किया है रोशन मचाडो नें। फ़िल्म के गीतों का संगीत सचिन-जिगर और हरप्रीत नें तैयार किया हैं। हरप्रीत के दो गीत उनकी सूफ़ी संकलन 'तेरी जुस्तजू' से लिया गया है। गीतकार के रूप में समीर और प्रिया पांचाल नें काम किया है। आइए अब इस ऐल्बम के गीतों की एक एक कर समीक्षा की जाये!
पहला गीत है श्रेया घोषाल और तोची रैना की आवाज़ों में "साइबो"। गीत के बोल हैं "धीरे धीरे, नैनों को धीरे धीरे, जिया को धीरे धीरे, अपना सा लागे है साइबो"। सचिन-जिगर नें अपने पारी की अच्छी शुरुआत की है। भले ही फ़िल्म का नाम है 'शोर इन द सिटी', लेकिन यह गीत शोर-गुल से कोसों दूर है। श्रेया अपनी नर्म मीठी आवाज़ में गीत शुरु करती है, जिसमें पंजाबी अंदाज़ भी है। उसके बाद तोची उसमें अपना रंग भरते हैं। इस गीत की ख़ास बात है इसमें प्रयोग हुए विभिन्न साज़ों का संगम। भारतीय और पाश्चात्य साज़ों का कैसा ख़ूबसूरत मेल है इस गीत में, इसे सुन कर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। इस सुंदर कर्णप्रिय गीत के रीमिक्स संस्करण की क्या आवश्यक्ता पड़ गयी थी, कभी मौका मिले तो संगीतकार व फ़िल्म के निर्माता से ज़रूर पूछूंगा। फ़िल्म के प्रोमोशन में इसी गीत का इस्तमाल हो रहा है।
'शोर इन द सिटी' का दूसरा गीत है फ़िल्म के शीर्षक को सार्थक करता है। जी हाँ, शोर शराबे से भरपूर सूरज जगन, प्रिया पांचाल (जो इस गीत की गीतकार भी हैं) और स्वाति मुकुंद की आवाज़ों में "साले कर्मा इस अ बिच" गीत को सेन्सर बोर्ड कैसे पास करती है, यह भी सोचने वाली बात है। गीत के बीच बीच में रोबोट शैली की आवाज़ों का प्रयोग है। हो सकता है कुछ नौजवानों को गीत पसंद आये, लेकिन मुझे तो केवल शोर ही सुनाई दिया इस गीत में। गीत में रॉक शैली, दमदार गायकी और सख़्त शब्दों का प्रयोग है जो इस गीत को एक "शहरी" रूप प्रदान करती है।
पिछले हफ़्ते 'मेमोरीज़ इन मार्च' में मोहन की आवाज़ में "पोस्ट बॉक्स" गीत की चर्चा आपको याद होगी। 'शोर इन द सिटी' में भी 'अग्नि' के मोहन कन्नन की आवाज़ में एक गीत है "शोर"। गीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ शुरु होती है तो लगता है कि यह कर्णप्रियता बनी रहेगी, लेकिन तुरंत पाश्चात्य साज़ों की भीड़ उमड पड़ती है और गीत एक रॉक रूप ले लेता है। इंटरल्युड्स में फिर से शास्त्रीय संगीत और आलाप का फ़्युज़न है। इस तरह का संगीत पाक़िस्तानी बैण्ड्स की खासियत मानी जाती है। गीत की अपनी पहचान है, लेकिन ऐसी भी कोई ख़ास बात नहीं जो भीड़ मे अलग सुनाई दे। गीत को थोड़ा और कर्णप्रिय ट्रीटमेण्ट दिया जा सकता था।
अतिथि संगीतकार हरप्रीत सिंह की धुन पर श्रीराम अय्यर की आवाज़ में "दीम दीम ताना" को सुनकर भी एक बैण्ड गीत की ही याद आती है। काफ़ी तेज़ रफ़्तार वाला गीत है ठीक एक शहर की ज़िंदगी की तरह। ये सब गानें फ़िल्म संगीत की प्रचलित फ़ॉरमैट से अलग तो लगते हैं, लेकिन यह प्रयोग, यह एक्स्पेरीमेण्ट कितना सफल होगा, यह तो वक़्त ही बताएगा। वैसे कुछ साल पहले तक भी ज़माना ऐसा हुआ करता था कि कम से कम कुछ गीत हमारी ज़ुबान पर ज़रूर चढ़ते थे, जिन्हें हम जाने अंजाने गुनगुनाया करते थे। लेकिन आजकल कोई ऐसा गीत सुनाई नहीं देता जो हमारी होठों की शान बन सके। आज मेरे होठों पर जो सब से नया गीत सजता है, वह है 'सिंह इज़ किंग' का "तेरी ओर"। पता नहीं क्यों, इस गीत के बाद कोई ऐसा गीत मुझे भाया ही नहीं जिसे गुनगुनाने को जी चाहे। ख़ैर, मुद्दे पर वापस आते हैं, "दीम दीम ताना" भी एक "अलग" गीत है जिसमें हिंदी रैप का भी प्रयोग हुआ है और अरेंजमेण्ट भी अच्छा है, लेकिन सबकुछ होते हुए भी दिल को छू पाने में असमर्थ है। माफ़ी चाहता हूँ।
ये तो थे इस फ़िल्म के ऑरिजिनल गानों की समीक्षा। इस ऐल्बम में तीन बोनस ट्रैक्स भी है। रूप कुमार राठौड़ का "तेरी जुस्तजू", अग्नि का "उजाले बाज़" और कैलासा का "बबम बम बबम"। दोस्तों, एक पंक्ति में अगर 'शोर इन द सिटी' के साउण्डट्रैक के बारे में बताया जाये तो यही कह सकते हैं कि इस फ़िल्म का संगीत पूर्णत: प्रयोगधर्मी है, जिसमें से ग़ैरफ़िल्मी ऐल्बम के गीतों की महक आतीhttp://www.blogger.com/img/blank.gif है। गानें हो सकता है कि बहुत ख़ास न हो, लेकिन 'ताज़ा सुर ताल' में इसकी समीक्षा प्रस्तुत करने का हमारा उद्येश्य यही है कि हम नये संगीत में हो रहे प्रयोगों की तरफ़ अपना और आपका ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं। और हमें पूरा पूरा हक़ भी है कि अगर संगीत कर्णप्रिय नहीं है, अगर उसमें केवल अनर्थक साज़ों का महाकुम्भ है, तो हम उसे नकार दे, उसे अस्वीकार कर दें। इस ऐल्बम को हम दे रहे हैं ७.५ की रेटिंग् और इस ऐल्बम से हमारा पिक है, निस्संदेह, "साइबो"।
फिल्म के गाने आप यहाँ सुन सकते हैं
इसी के साथ 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिये, नमस्कार!
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अगर आप में नये फ़िल्म संगीत के प्रति लगाव है और आपको लगता है कि आप हर सप्ताह एक नई फ़िल्म के संगीत की समीक्षा लिख सकते हैं, तो हम से सम्पर्क कीजिए oig@hindyugm.com के पते पर। हमें तलाश है एक ऐसे वाहक की जो 'ताज़ा सुर ताल' को अपनी शैली में नियमीत रूप से प्रस्तुत करे, और नये फ़िल्म संगीत के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ाये!
'ताज़ा सुर ताल' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! पिछले कई हफ़्तों से 'टी.एस.टी' में हम ऐसी फ़िल्मों की संगीत समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं जो लीक से हटके हैं। आज भी एक ऐसी ही फ़िल्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, जो २०१० में पुसान अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव और दुबई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के लिए मनोनीत हुई थी। इस फ़िल्म के लिये निर्देशक राज निदिमोरु और कृष्णा डी.के को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला न्यु यॉर्क के MIAAC में। वैसे भारत के सिनेमाघरों में यह फ़िल्म २८ अप्रैल को प्रदर्शित हो रही है। शोभा कपूर व एकता कपूर निर्मित इस फ़िल्म का शीर्षक है 'शोर इन द सिटी'।
'शोर इन द सिटी' तुषार कपूर, सेन्धिल रामामूर्ती, निखिल द्विवेदी, पितोबश त्रिपाठी, संदीप किशन, गिरिजा ओक, प्रीति देसाई, राधिका आप्टे और अमित मिस्त्री के अभिनय से सजी है। फ़िल्म का पार्श्वसंगीत तैयार किया है रोशन मचाडो नें। फ़िल्म के गीतों का संगीत सचिन-जिगर और हरप्रीत नें तैयार किया हैं। हरप्रीत के दो गीत उनकी सूफ़ी संकलन 'तेरी जुस्तजू' से लिया गया है। गीतकार के रूप में समीर और प्रिया पांचाल नें काम किया है। आइए अब इस ऐल्बम के गीतों की एक एक कर समीक्षा की जाये!
पहला गीत है श्रेया घोषाल और तोची रैना की आवाज़ों में "साइबो"। गीत के बोल हैं "धीरे धीरे, नैनों को धीरे धीरे, जिया को धीरे धीरे, अपना सा लागे है साइबो"। सचिन-जिगर नें अपने पारी की अच्छी शुरुआत की है। भले ही फ़िल्म का नाम है 'शोर इन द सिटी', लेकिन यह गीत शोर-गुल से कोसों दूर है। श्रेया अपनी नर्म मीठी आवाज़ में गीत शुरु करती है, जिसमें पंजाबी अंदाज़ भी है। उसके बाद तोची उसमें अपना रंग भरते हैं। इस गीत की ख़ास बात है इसमें प्रयोग हुए विभिन्न साज़ों का संगम। भारतीय और पाश्चात्य साज़ों का कैसा ख़ूबसूरत मेल है इस गीत में, इसे सुन कर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। इस सुंदर कर्णप्रिय गीत के रीमिक्स संस्करण की क्या आवश्यक्ता पड़ गयी थी, कभी मौका मिले तो संगीतकार व फ़िल्म के निर्माता से ज़रूर पूछूंगा। फ़िल्म के प्रोमोशन में इसी गीत का इस्तमाल हो रहा है।
'शोर इन द सिटी' का दूसरा गीत है फ़िल्म के शीर्षक को सार्थक करता है। जी हाँ, शोर शराबे से भरपूर सूरज जगन, प्रिया पांचाल (जो इस गीत की गीतकार भी हैं) और स्वाति मुकुंद की आवाज़ों में "साले कर्मा इस अ बिच" गीत को सेन्सर बोर्ड कैसे पास करती है, यह भी सोचने वाली बात है। गीत के बीच बीच में रोबोट शैली की आवाज़ों का प्रयोग है। हो सकता है कुछ नौजवानों को गीत पसंद आये, लेकिन मुझे तो केवल शोर ही सुनाई दिया इस गीत में। गीत में रॉक शैली, दमदार गायकी और सख़्त शब्दों का प्रयोग है जो इस गीत को एक "शहरी" रूप प्रदान करती है।
पिछले हफ़्ते 'मेमोरीज़ इन मार्च' में मोहन की आवाज़ में "पोस्ट बॉक्स" गीत की चर्चा आपको याद होगी। 'शोर इन द सिटी' में भी 'अग्नि' के मोहन कन्नन की आवाज़ में एक गीत है "शोर"। गीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ शुरु होती है तो लगता है कि यह कर्णप्रियता बनी रहेगी, लेकिन तुरंत पाश्चात्य साज़ों की भीड़ उमड पड़ती है और गीत एक रॉक रूप ले लेता है। इंटरल्युड्स में फिर से शास्त्रीय संगीत और आलाप का फ़्युज़न है। इस तरह का संगीत पाक़िस्तानी बैण्ड्स की खासियत मानी जाती है। गीत की अपनी पहचान है, लेकिन ऐसी भी कोई ख़ास बात नहीं जो भीड़ मे अलग सुनाई दे। गीत को थोड़ा और कर्णप्रिय ट्रीटमेण्ट दिया जा सकता था।
अतिथि संगीतकार हरप्रीत सिंह की धुन पर श्रीराम अय्यर की आवाज़ में "दीम दीम ताना" को सुनकर भी एक बैण्ड गीत की ही याद आती है। काफ़ी तेज़ रफ़्तार वाला गीत है ठीक एक शहर की ज़िंदगी की तरह। ये सब गानें फ़िल्म संगीत की प्रचलित फ़ॉरमैट से अलग तो लगते हैं, लेकिन यह प्रयोग, यह एक्स्पेरीमेण्ट कितना सफल होगा, यह तो वक़्त ही बताएगा। वैसे कुछ साल पहले तक भी ज़माना ऐसा हुआ करता था कि कम से कम कुछ गीत हमारी ज़ुबान पर ज़रूर चढ़ते थे, जिन्हें हम जाने अंजाने गुनगुनाया करते थे। लेकिन आजकल कोई ऐसा गीत सुनाई नहीं देता जो हमारी होठों की शान बन सके। आज मेरे होठों पर जो सब से नया गीत सजता है, वह है 'सिंह इज़ किंग' का "तेरी ओर"। पता नहीं क्यों, इस गीत के बाद कोई ऐसा गीत मुझे भाया ही नहीं जिसे गुनगुनाने को जी चाहे। ख़ैर, मुद्दे पर वापस आते हैं, "दीम दीम ताना" भी एक "अलग" गीत है जिसमें हिंदी रैप का भी प्रयोग हुआ है और अरेंजमेण्ट भी अच्छा है, लेकिन सबकुछ होते हुए भी दिल को छू पाने में असमर्थ है। माफ़ी चाहता हूँ।
ये तो थे इस फ़िल्म के ऑरिजिनल गानों की समीक्षा। इस ऐल्बम में तीन बोनस ट्रैक्स भी है। रूप कुमार राठौड़ का "तेरी जुस्तजू", अग्नि का "उजाले बाज़" और कैलासा का "बबम बम बबम"। दोस्तों, एक पंक्ति में अगर 'शोर इन द सिटी' के साउण्डट्रैक के बारे में बताया जाये तो यही कह सकते हैं कि इस फ़िल्म का संगीत पूर्णत: प्रयोगधर्मी है, जिसमें से ग़ैरफ़िल्मी ऐल्बम के गीतों की महक आतीhttp://www.blogger.com/img/blank.gif है। गानें हो सकता है कि बहुत ख़ास न हो, लेकिन 'ताज़ा सुर ताल' में इसकी समीक्षा प्रस्तुत करने का हमारा उद्येश्य यही है कि हम नये संगीत में हो रहे प्रयोगों की तरफ़ अपना और आपका ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं। और हमें पूरा पूरा हक़ भी है कि अगर संगीत कर्णप्रिय नहीं है, अगर उसमें केवल अनर्थक साज़ों का महाकुम्भ है, तो हम उसे नकार दे, उसे अस्वीकार कर दें। इस ऐल्बम को हम दे रहे हैं ७.५ की रेटिंग् और इस ऐल्बम से हमारा पिक है, निस्संदेह, "साइबो"।
फिल्म के गाने आप यहाँ सुन सकते हैं
इसी के साथ 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिये, नमस्कार!
ताज़ा सुर ताल के वाहक बनिये
अगर आप में नये फ़िल्म संगीत के प्रति लगाव है और आपको लगता है कि आप हर सप्ताह एक नई फ़िल्म के संगीत की समीक्षा लिख सकते हैं, तो हम से सम्पर्क कीजिए oig@hindyugm.com के पते पर। हमें तलाश है एक ऐसे वाहक की जो 'ताज़ा सुर ताल' को अपनी शैली में नियमीत रूप से प्रस्तुत करे, और नये फ़िल्म संगीत के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ाये!
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
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