Taaza Sur Taal (TST) - 08/2011 - BARSE BARSE
कुछ चीजें जितनी पुरानी हो जाएँ, उतनी ज्यादा असर करती हैं, जैसे कि पुरानी शराब। ज्यों-ज्यों दिन बीतता जाए, त्यों-त्यों इसका नशा बढता जाता है। यह बात अगर बस शराब के लिए सही होती, तो मैं यह ज़िक्र यहाँ छेड़ता हीं नहीं। यहाँ मैं बात उन शख्स की कर रहा हूँ, जिनकी लेखनी का नशा शराब से भी ज्यादा है और जिनके शब्द अल्कोहल से भी ज्यादा मारक होते हैं। पिछले आधे दशक से इस शख्स के शब्दों का जादू बरकरार है... दर-असल बरकरार कहना गलत होगा, बल्कि कहना चाहिए कि बढता जा रहा है। हमने इनके गानों की बात ज्यादातर तब की है, जब ये किसी फिल्म का हिस्सा रहे हैं, लेकिन "ताज़ा सुर ताल" के अंतर्गत पहली बार हम एक एलबम के गानों को इनसे जोड़कर लाए हैं। हमने "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" में इनके कई सारे गैर-फिल्मी गाने सुनें हैं और सुनते रहेंगे। हम अगर चाहते तो इस एलबम को भी महफ़िल-ए-ग़ज़ल का हिस्सा बनाया जा सकता था, लेकिन चुकी यह "ताज़ा एलबम" है, तो "ताज़ा सुर ताल" हीं सही उम्मीदवार साबित होता है। अभी तक की हमारी बातों से आपने उन शख्स को पहचान तो लिया हीं होगा। जी हाँ, हम गुलज़ार की हीं बातें कर रहे हैं और एलबम का नाम है "बरसे बरसे"।
जब भी कहीं गुलज़ार का ज़िक्र आता है, तो दो संगीतकार खुद-ब-खुद हमें याद आ जाते हैं। एक तो पंचम दा और दूसरे विशाल। विशाल यानि विशाल भारद्वाज। गुलज़ार साहब ने पंचम दा के साथ कई सारे गैर-फिल्मी गानों पर काम किया है..उनमें से एक एलबम का ज़िक्र हमने महफ़िल-ए-ग़ज़ल में भी किया था। पंचम दा की तुलना में विशाल के गानों की गिनती काफ़ी पीछे रह जाती है, लेकिन आज के समय में विशाल हीं एकलौते ऐसे संगीतकार हैं, जिन्होंने गुलज़ार के लफ़्ज़ों के मर्म को पकड़ा है। विशाल-गुलज़ार के गानों को सुनकर इस बात का अनुमान हीं नहीं लग पाता कि संगीत पहले आया था या गीत। दोनों एक-दूसरे से जुड़े महसूस होते हैं। अब अगर इस जोड़ी में "तेरे लिए" (७ खून माफ़) और "जाग जा" (ओंकारा) जैसे सुमधुर गानों में अपनी मखमली आवाज़ का तड़का लगाने वाले सुरेश वाडेकर को शामिल कर लिया जाए तो इस तरह बनी तिकड़ी का कोई सानी न होगा। आज के एलबम "बरसे बरसे" की यही खासियत है। इस एलबम के गीत लिखे हैं गुलज़ार ने, संगीत दिया है विशाल भारद्वाज ने और आवाज़ है सुरेश वाडेकर की। अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि एलबम के गीत कितने अनमोल होंगे! चलिए तो पहले गाने से शुरूआत करते हैं। यह गीत एलबम का शीर्षक गीत (टाईटल ट्रैक) है।
बरसे-बरसे मेघा कारा,
तन भींजे, मन भींजे म्हारा...
मैं भींजूँ अपने साजन में,
मुझमें भींजे साजन म्हारा..
बैयों में भर ले,
सौंधी माटी-सी मैं महकूँ रे,
आज न रैन ढले...
प्रीत का खेल नियारा,
हारूँ तो हो जाऊँ पिया की,
जीतूँ तो पी म्हारा..
इस गाने में राजस्थानी फोक़ (लोक-संगीत) का पुट इतनी खूबसूरती से डाला हुआ है कि एक बार डूबो तो निकलकर आने का मन हीं नहीं करता। सुरेश वाडेकर को सुनकर ऐसा एक पल को भी नहीं लगता कि वे दर-असल मराठी हैं। राजस्थानी शब्दों का उच्चारण न सिर्फ़ साफ़ है, बल्कि राजस्थान के किसी गाँव का माहौल भी उभरकर आ जाता है। विशाल अपने वाद्य-यंत्रों से श्रोताओं को बाँधकर रखने में कामयाब हुए हैं। "प्रीत का खेल नियारा" वाले अंतरे में गुलज़ार ने "अमीर खुसरो" को ज़िंदा कर दिया है। खुसरो ने भी यही कहा था कि "हारूँ तो मैं पी की और जीतूँ तो पी मेरा"। गुलज़ार ऐसा कमाल करते रहते हैं।
अगला गाना है "ऐसा तो होता नहीं है"। इस गाने में गुलज़ार की जादूगरी खुलकर नज़र आती है।
सब्जे में लिपटा हुआ कोई आ जाए अपना!
चंपा-सी तुम, तुम-सी चंपा,
फूलों से धोखा हुआ है..
ये तुम हो कि शम्मा जलाकर,
कोई लॉन में रख गया है।
एक लौ-सा जलता हुआ कोई आ जाए अपना!
जिस तरह से और जिन साज़ों के सहारे गाने की शुरूआत होती है, उसे सुनकर विशाल के संगीत की समझ का सही पता चलता है। चूँकि मुझे साज़ों की उतनी जानकारी नहीं, इसलिए ठीक-ठीक मैं यह कह नहीं सकता कि कौन-से साज़ इस्तेमाल हुए हैं। अगर आप जानते हों तो कृप्या हमें अवगत कराएँ। इस गाने में वाडेकर साहब "तेरे लिए" गाने के हैंग-ओवर में नज़र आते हैं। जब भी वे "कोई आ जाए अपना" कहते हैं तो सच में किसी अपने के आने की चाह खड़ी हो जाती है। "ऐसा तो होता नहीं है...सपनों से चलकर कोई आ जाए अपना"...इस पंक्ति के सहारे गुलज़ार साहब ने हर किसी की दिली-ख्वाहिश को एक झटके में हीं सच का आईना दिखा दिया है।
एलबम का तीसरा गाना है "तेरे नैन"। जहाँ पहला गाना राजस्थानी लोकगीत की याद दिलाता था, वहीं यह गाना खुद में पंजाबियत समेटे हुए है।
पीछ्छे पै गए तेरे नैन...
चले न मेरी मर्जी कोई,
जो कैंदे मैं करदा सोई,
दो दिन वीच मेरी सारी आकर,
कढ के लै गए तेरे नैन..
कोई पीर सयाना आवे,
आके मेरी जान छड़ावे,
मेरे सिरते इश्क़ दा टोना
कर के बै गए तेरे नैन..
गानों में नई सोच किस तरह डालते हैं, यह कोई गुलज़ार साहब से सीखे। "पीछ्छे पै गए तेरे नैन""... अब अगर किसी को अपनी माशूका की आँखों की तारीफ़ करनी होगी तो वह यह तो कतई नहीं कहेगा, क्योंकि उसे डर होगा कि उसकी माशूका कहीं बुरा न मान जाए। लेकिन गुलज़ार साहब जब यह कहते हैं तो उनके पास अपनी बात रखने और साबित करने के कई तरीके होते हैं.. तभी तो वह आराम से कह जाते हैं कि तुम्हारी आँखों ने मेरे सिर पर इश्क़ का टोना कर रखा है। इश्क़ की नई-नई अदाएँ कोई गुलज़ार साहब से सीखे। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे गुलज़ार साहब के पास इश्क़ के कई सारे शब्दकोष हैं, जो इन्होंने खुद गढे हैं। इस गाने में विशाल और सुरेश वाडेकर की भागेदारी भी बराबर की है। गाने के बीच में तबले का बड़ा हीं सुंदर प्रयोग हुआ है। वाडेकर साहेब ने जिस तरह राजस्थानी ज़बान को अपना बना लिया था, अमूमन वैसी हीं महारत उनकी पंजाबी ज़बान में नज़र आती है।
तन्हाई में... देहों के टाँके टूटे..
पोर-पोर गुलमोहर खिल गए,
रग-रग में सूरज दहका रे,
साँसों की अंगनाई में..
ताप सहे कोई कितना,
रोम-रोम देह का पुकारे,
वो मंतर जाने सैयां,
तन-मन छांव उतारे,
रूह तलक गहराई में..
एक लंबे आलाप के साथ इस गाने की शुरूआत होती है। सुरेश वाडकर साहब शास्त्रीय संगीत में पारंगत है, इस बात का पता आलाप को सुनते हीं लग जाता है। "तन्हाई" कहते वक़्त ये अपनी आवाज़ में अजीब-सा भारीपन ले आते हैं, ताकि तन्हाई को महसूस किया जा सके। एकबारगी सुनने पर यह मालूम हीं नहीं किया जा सकता कि गुलज़ार साहब कहना क्या चाहते हैं, गाना है किस विषय पर? बात शुरू तो तन्हाई से होती है, लेकिन अगली हीं पंक्ति में "देहों के टाँके टूटे" कहकर गुलज़ार साहब प्यार के "अनमोल पल" की ओर इशारा करते हैं। आगे का हर-एक लफ़्ज़ यही बात दुहराता-सा लगता है। "रग-रग में सूरज दहका" या फिर "ताप सहे कोई कितना".. यहाँ किस ताप की बात हो रही है? क्या मैं वही समझ रहा हूँ, जो गुलज़ार साहब समझाना चाहते हैं या फिर मैं रास्ते से भटक गया हूँ? इस बात का फैसला कौन करेगा? अब जो भी हो, मुझे तो इस गाने में "प्यार..प्यार..प्यार.. और बस प्यार" हीं नज़र आ रहा है, तन्हाई के दर्द का कोई नामो-निशां नहीं है। और वैसे भी, तन्हाई से दर्द को जोड़ना सही नहीं, क्योंकि जब दो जिस्म एक हो जाते हैं, तो वह एक जिस्म-औ-जान अकेला हीं होता है, तन्हा हीं होता है। है या नहीं?
इस एलबम का अंतिम गाना है "ज़िंदगी सह ले"..
ज़िंदगी सह ले,
दर्द है.. कह ले।
पैरों के तले से जिस तरह ये
बर्फ़ पिघलती है, आ जा..
जंगलों में जैसे पगडंडी
पेड़ों से निकलती है, आ जा..
मेरे हिसाब से इस गाने का नाम "आ जा" रखा जाना चाहिए था, क्योंकि भले हीं मुखरे में ज़िंदगी को सह लेने की हिदायत दी जा रही है, लेकिन अंतरों में पुकार हीं पुकार है.. "आ जा" कहकर किसी को पुकारा जा रहा है। मुख्ररे के अंत में और अंतरों के बीच में एक शब्द है जिसे मैं सही से समझ नहीं पाया हूँ। "आ जा अभी/हबी आ सके.. तू आ".. यहाँ पर "अभी" है या "हबी"? अभी रखा जाए तो अर्थ सटीक बैठता है... अर्थ तब भी सही निकलता है, जब हबी हो, बस दिक्कत यह है कि "हबी" हिन्दी या उर्दू का शब्द नहीं, बल्कि अंग्रेजी का है.. हबी यानि कि हसबैंड। अब यह अगर यह फीमेल सॉंग होता तो मैं मान भी लेता कि हबी होगा, क्योंकि गुलज़ार साहब अंग्रेजी के शब्द गानों में इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन यह तो मेल सॉंग है। एक तीसरा विकल्प भी है.. "हबीब", लेकिन "बीट्स" पर हबीब फिट नहीं बैठता। तो क्या हम मान लें कि वह शब्द "अभी" है? इस एलबम के किसी भी गाने का लिरिक्स इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं, इसलिए सही शब्द पता करना नामुमकिन हीं समझिए। खैर! जहाँ तक संगीत की बात है तो पहले बीट से लेकर अंतिम बीट तक विशाल श्रवणेन्द्रियों को थामे रखने में सफ़ल साबित हुए हैं। बस सुरेश वाडकर साहब से थोड़ी-सी चूक हो गई है। कुछेक शब्दों का उच्चारण साफ़ नहीं है.. इसलिए मज़ा हल्का-सा कम हो गया है।
कुल मिलाकर यह एलबम विविधताओं से भरा है और जैसा हम कहते हैं ना.. "विविधता में एकता"। तो ऐसा हीं कुछ यहाँ भी है। हर गाना अलग तरीके का है, लेकिन सबमें एक खासियत है और वह है "फ़ीलिंग".. "इमोशन्स".. "भाव"। इसलिए सभी गाने सुने जाने चाहिए। सुनकर अच्छा महसूस होगा, यकीन मानिए।
आज की समीक्षा आपको कैसी लगी, ज़रूर बताईयेगा। चलिए तो इस बातचीत को यहीं विराम देते हैं। अगले हफ़्ते फिर मुलाकात होगी। नमस्कार!
आवाज़ रेटिंग - 8/10
एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।
कुछ चीजें जितनी पुरानी हो जाएँ, उतनी ज्यादा असर करती हैं, जैसे कि पुरानी शराब। ज्यों-ज्यों दिन बीतता जाए, त्यों-त्यों इसका नशा बढता जाता है। यह बात अगर बस शराब के लिए सही होती, तो मैं यह ज़िक्र यहाँ छेड़ता हीं नहीं। यहाँ मैं बात उन शख्स की कर रहा हूँ, जिनकी लेखनी का नशा शराब से भी ज्यादा है और जिनके शब्द अल्कोहल से भी ज्यादा मारक होते हैं। पिछले आधे दशक से इस शख्स के शब्दों का जादू बरकरार है... दर-असल बरकरार कहना गलत होगा, बल्कि कहना चाहिए कि बढता जा रहा है। हमने इनके गानों की बात ज्यादातर तब की है, जब ये किसी फिल्म का हिस्सा रहे हैं, लेकिन "ताज़ा सुर ताल" के अंतर्गत पहली बार हम एक एलबम के गानों को इनसे जोड़कर लाए हैं। हमने "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" में इनके कई सारे गैर-फिल्मी गाने सुनें हैं और सुनते रहेंगे। हम अगर चाहते तो इस एलबम को भी महफ़िल-ए-ग़ज़ल का हिस्सा बनाया जा सकता था, लेकिन चुकी यह "ताज़ा एलबम" है, तो "ताज़ा सुर ताल" हीं सही उम्मीदवार साबित होता है। अभी तक की हमारी बातों से आपने उन शख्स को पहचान तो लिया हीं होगा। जी हाँ, हम गुलज़ार की हीं बातें कर रहे हैं और एलबम का नाम है "बरसे बरसे"।
जब भी कहीं गुलज़ार का ज़िक्र आता है, तो दो संगीतकार खुद-ब-खुद हमें याद आ जाते हैं। एक तो पंचम दा और दूसरे विशाल। विशाल यानि विशाल भारद्वाज। गुलज़ार साहब ने पंचम दा के साथ कई सारे गैर-फिल्मी गानों पर काम किया है..उनमें से एक एलबम का ज़िक्र हमने महफ़िल-ए-ग़ज़ल में भी किया था। पंचम दा की तुलना में विशाल के गानों की गिनती काफ़ी पीछे रह जाती है, लेकिन आज के समय में विशाल हीं एकलौते ऐसे संगीतकार हैं, जिन्होंने गुलज़ार के लफ़्ज़ों के मर्म को पकड़ा है। विशाल-गुलज़ार के गानों को सुनकर इस बात का अनुमान हीं नहीं लग पाता कि संगीत पहले आया था या गीत। दोनों एक-दूसरे से जुड़े महसूस होते हैं। अब अगर इस जोड़ी में "तेरे लिए" (७ खून माफ़) और "जाग जा" (ओंकारा) जैसे सुमधुर गानों में अपनी मखमली आवाज़ का तड़का लगाने वाले सुरेश वाडेकर को शामिल कर लिया जाए तो इस तरह बनी तिकड़ी का कोई सानी न होगा। आज के एलबम "बरसे बरसे" की यही खासियत है। इस एलबम के गीत लिखे हैं गुलज़ार ने, संगीत दिया है विशाल भारद्वाज ने और आवाज़ है सुरेश वाडेकर की। अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि एलबम के गीत कितने अनमोल होंगे! चलिए तो पहले गाने से शुरूआत करते हैं। यह गीत एलबम का शीर्षक गीत (टाईटल ट्रैक) है।
बरसे-बरसे मेघा कारा,
तन भींजे, मन भींजे म्हारा...
मैं भींजूँ अपने साजन में,
मुझमें भींजे साजन म्हारा..
बैयों में भर ले,
सौंधी माटी-सी मैं महकूँ रे,
आज न रैन ढले...
प्रीत का खेल नियारा,
हारूँ तो हो जाऊँ पिया की,
जीतूँ तो पी म्हारा..
इस गाने में राजस्थानी फोक़ (लोक-संगीत) का पुट इतनी खूबसूरती से डाला हुआ है कि एक बार डूबो तो निकलकर आने का मन हीं नहीं करता। सुरेश वाडेकर को सुनकर ऐसा एक पल को भी नहीं लगता कि वे दर-असल मराठी हैं। राजस्थानी शब्दों का उच्चारण न सिर्फ़ साफ़ है, बल्कि राजस्थान के किसी गाँव का माहौल भी उभरकर आ जाता है। विशाल अपने वाद्य-यंत्रों से श्रोताओं को बाँधकर रखने में कामयाब हुए हैं। "प्रीत का खेल नियारा" वाले अंतरे में गुलज़ार ने "अमीर खुसरो" को ज़िंदा कर दिया है। खुसरो ने भी यही कहा था कि "हारूँ तो मैं पी की और जीतूँ तो पी मेरा"। गुलज़ार ऐसा कमाल करते रहते हैं।
अगला गाना है "ऐसा तो होता नहीं है"। इस गाने में गुलज़ार की जादूगरी खुलकर नज़र आती है।
सब्जे में लिपटा हुआ कोई आ जाए अपना!
चंपा-सी तुम, तुम-सी चंपा,
फूलों से धोखा हुआ है..
ये तुम हो कि शम्मा जलाकर,
कोई लॉन में रख गया है।
एक लौ-सा जलता हुआ कोई आ जाए अपना!
जिस तरह से और जिन साज़ों के सहारे गाने की शुरूआत होती है, उसे सुनकर विशाल के संगीत की समझ का सही पता चलता है। चूँकि मुझे साज़ों की उतनी जानकारी नहीं, इसलिए ठीक-ठीक मैं यह कह नहीं सकता कि कौन-से साज़ इस्तेमाल हुए हैं। अगर आप जानते हों तो कृप्या हमें अवगत कराएँ। इस गाने में वाडेकर साहब "तेरे लिए" गाने के हैंग-ओवर में नज़र आते हैं। जब भी वे "कोई आ जाए अपना" कहते हैं तो सच में किसी अपने के आने की चाह खड़ी हो जाती है। "ऐसा तो होता नहीं है...सपनों से चलकर कोई आ जाए अपना"...इस पंक्ति के सहारे गुलज़ार साहब ने हर किसी की दिली-ख्वाहिश को एक झटके में हीं सच का आईना दिखा दिया है।
एलबम का तीसरा गाना है "तेरे नैन"। जहाँ पहला गाना राजस्थानी लोकगीत की याद दिलाता था, वहीं यह गाना खुद में पंजाबियत समेटे हुए है।
पीछ्छे पै गए तेरे नैन...
चले न मेरी मर्जी कोई,
जो कैंदे मैं करदा सोई,
दो दिन वीच मेरी सारी आकर,
कढ के लै गए तेरे नैन..
कोई पीर सयाना आवे,
आके मेरी जान छड़ावे,
मेरे सिरते इश्क़ दा टोना
कर के बै गए तेरे नैन..
गानों में नई सोच किस तरह डालते हैं, यह कोई गुलज़ार साहब से सीखे। "पीछ्छे पै गए तेरे नैन""... अब अगर किसी को अपनी माशूका की आँखों की तारीफ़ करनी होगी तो वह यह तो कतई नहीं कहेगा, क्योंकि उसे डर होगा कि उसकी माशूका कहीं बुरा न मान जाए। लेकिन गुलज़ार साहब जब यह कहते हैं तो उनके पास अपनी बात रखने और साबित करने के कई तरीके होते हैं.. तभी तो वह आराम से कह जाते हैं कि तुम्हारी आँखों ने मेरे सिर पर इश्क़ का टोना कर रखा है। इश्क़ की नई-नई अदाएँ कोई गुलज़ार साहब से सीखे। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे गुलज़ार साहब के पास इश्क़ के कई सारे शब्दकोष हैं, जो इन्होंने खुद गढे हैं। इस गाने में विशाल और सुरेश वाडेकर की भागेदारी भी बराबर की है। गाने के बीच में तबले का बड़ा हीं सुंदर प्रयोग हुआ है। वाडेकर साहेब ने जिस तरह राजस्थानी ज़बान को अपना बना लिया था, अमूमन वैसी हीं महारत उनकी पंजाबी ज़बान में नज़र आती है।
तन्हाई में... देहों के टाँके टूटे..
पोर-पोर गुलमोहर खिल गए,
रग-रग में सूरज दहका रे,
साँसों की अंगनाई में..
ताप सहे कोई कितना,
रोम-रोम देह का पुकारे,
वो मंतर जाने सैयां,
तन-मन छांव उतारे,
रूह तलक गहराई में..
एक लंबे आलाप के साथ इस गाने की शुरूआत होती है। सुरेश वाडकर साहब शास्त्रीय संगीत में पारंगत है, इस बात का पता आलाप को सुनते हीं लग जाता है। "तन्हाई" कहते वक़्त ये अपनी आवाज़ में अजीब-सा भारीपन ले आते हैं, ताकि तन्हाई को महसूस किया जा सके। एकबारगी सुनने पर यह मालूम हीं नहीं किया जा सकता कि गुलज़ार साहब कहना क्या चाहते हैं, गाना है किस विषय पर? बात शुरू तो तन्हाई से होती है, लेकिन अगली हीं पंक्ति में "देहों के टाँके टूटे" कहकर गुलज़ार साहब प्यार के "अनमोल पल" की ओर इशारा करते हैं। आगे का हर-एक लफ़्ज़ यही बात दुहराता-सा लगता है। "रग-रग में सूरज दहका" या फिर "ताप सहे कोई कितना".. यहाँ किस ताप की बात हो रही है? क्या मैं वही समझ रहा हूँ, जो गुलज़ार साहब समझाना चाहते हैं या फिर मैं रास्ते से भटक गया हूँ? इस बात का फैसला कौन करेगा? अब जो भी हो, मुझे तो इस गाने में "प्यार..प्यार..प्यार.. और बस प्यार" हीं नज़र आ रहा है, तन्हाई के दर्द का कोई नामो-निशां नहीं है। और वैसे भी, तन्हाई से दर्द को जोड़ना सही नहीं, क्योंकि जब दो जिस्म एक हो जाते हैं, तो वह एक जिस्म-औ-जान अकेला हीं होता है, तन्हा हीं होता है। है या नहीं?
इस एलबम का अंतिम गाना है "ज़िंदगी सह ले"..
ज़िंदगी सह ले,
दर्द है.. कह ले।
पैरों के तले से जिस तरह ये
बर्फ़ पिघलती है, आ जा..
जंगलों में जैसे पगडंडी
पेड़ों से निकलती है, आ जा..
मेरे हिसाब से इस गाने का नाम "आ जा" रखा जाना चाहिए था, क्योंकि भले हीं मुखरे में ज़िंदगी को सह लेने की हिदायत दी जा रही है, लेकिन अंतरों में पुकार हीं पुकार है.. "आ जा" कहकर किसी को पुकारा जा रहा है। मुख्ररे के अंत में और अंतरों के बीच में एक शब्द है जिसे मैं सही से समझ नहीं पाया हूँ। "आ जा अभी/हबी आ सके.. तू आ".. यहाँ पर "अभी" है या "हबी"? अभी रखा जाए तो अर्थ सटीक बैठता है... अर्थ तब भी सही निकलता है, जब हबी हो, बस दिक्कत यह है कि "हबी" हिन्दी या उर्दू का शब्द नहीं, बल्कि अंग्रेजी का है.. हबी यानि कि हसबैंड। अब यह अगर यह फीमेल सॉंग होता तो मैं मान भी लेता कि हबी होगा, क्योंकि गुलज़ार साहब अंग्रेजी के शब्द गानों में इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन यह तो मेल सॉंग है। एक तीसरा विकल्प भी है.. "हबीब", लेकिन "बीट्स" पर हबीब फिट नहीं बैठता। तो क्या हम मान लें कि वह शब्द "अभी" है? इस एलबम के किसी भी गाने का लिरिक्स इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं, इसलिए सही शब्द पता करना नामुमकिन हीं समझिए। खैर! जहाँ तक संगीत की बात है तो पहले बीट से लेकर अंतिम बीट तक विशाल श्रवणेन्द्रियों को थामे रखने में सफ़ल साबित हुए हैं। बस सुरेश वाडकर साहब से थोड़ी-सी चूक हो गई है। कुछेक शब्दों का उच्चारण साफ़ नहीं है.. इसलिए मज़ा हल्का-सा कम हो गया है।
कुल मिलाकर यह एलबम विविधताओं से भरा है और जैसा हम कहते हैं ना.. "विविधता में एकता"। तो ऐसा हीं कुछ यहाँ भी है। हर गाना अलग तरीके का है, लेकिन सबमें एक खासियत है और वह है "फ़ीलिंग".. "इमोशन्स".. "भाव"। इसलिए सभी गाने सुने जाने चाहिए। सुनकर अच्छा महसूस होगा, यकीन मानिए।
आज की समीक्षा आपको कैसी लगी, ज़रूर बताईयेगा। चलिए तो इस बातचीत को यहीं विराम देते हैं। अगले हफ़्ते फिर मुलाकात होगी। नमस्कार!
आवाज़ रेटिंग - 8/10
एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
Comments
मज़ा आ गया.
शायद और सुनने पर बिलकुल छा ही जाएँ.
अवध लाल