ओल्ड इज़ गोल्ड -शनिवार विशेष - सुनहरे दौर के विस्मृत संगीतकार बसंत प्रकाश के पुत्र ॠतुराज सिसोदिआ से एक बातचीत
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार। फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग में जहाँ एक तरफ़ कुछ संगीतकार लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचे, वहीं दूसरी तरफ़ बहुत से संगीतकार ऐसे भी हुए जो बावजूद प्रतिभा सम्पन्न होने के बहुत अधिक दूर तक नहीं बढ़ सके। आज जब सुनहरे दौर के संगीतकारों की बात चलती है तब अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, रोशन, सचिन देव बर्मन, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, रवि, हेमन्त कुमार, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन जैसे नाम सब से पहले लिए जाते हैं। इन चमकीले नामों की इस चकाचौंध के आगे बहुत से नाम ऐसे है जो नज़रअंदाज़ हो जाते हैं। ऐसा ही एक नाम है संगीतकार बसंत प्रकाश का। जी हाँ, वही बसंत प्रकाश जो ४० के दशक के सुप्रसिद्ध संगीतकार खेमचंद प्रकाश के छोटे भाई थे। खेमचंद जी की तरह बसंत प्रकाश इतने मशहूर तो नहीं हुए, पर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज बसंत प्रकाश जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हमनें उनके बेटे श्री ॠतुराज सिसोदिआ से सम्पर्क स्थापित किया और पूछे चंद सवाल, जिनका उन्होंने पूरी उत्सुकता के साथ जवाब दिया। तो आइए आज के इस विशेषांक में प्रस्तुत है वही साक्षात्कार।
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सुजॉय - ऋतुराज जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। आप से बातें करते हुए हम बहुत रोमांचित हो रहे हैं, क्योंकि हम एक ऐसे शख़्स से बातें कर रहे हैं जिनका संबंध फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के दो संगीतकारों से है, एक हैं महान खेमचंद प्रकाश जी और दूसरे हैं उन्हीं के भाई बसंत प्रकाश जी।
ऋतुराज जी - धन्यवाद! मुझे भी अपने उन दोनों पर बहुत गर्व है।
सुजॉय - ऋतुराज जी, सबसे पहले तो हम जानना चाहेंगे खेमचंद प्रकाश और बसंत प्रकाश के संबंध के बारे में। मेरा मतलब है कि कुछ लोग कहते हैं कि बसंत जी खेमचंद जी के मानस पुत्र हैं, कोई कहता है कि वो उनके मुंहबोले भाई हैं, तो हम आपसे जानना चाहेंगे इस रिश्ते के बारे में।
ऋतुराज जी - बहुत अच्छा सवाल है यह। मैं आपको बताऊँ कि मेरे पिता बसंत प्रकाश जी और खेमचंद जी सगे भाई भी थे और पिता-पुत्र भी।
सुजॉय - सगे भाई और पिता-पुत्र भी? मतलब?
ॠतुराज जी - यानी कि रिश्ते में तो दोनों सगे भाई ही थे, लेकिन बाद में खेमचंद जी नें व्यक्तिगत कारणों से मेरे पिता बसंत प्रकाश जी को अपने इकलौते पुत्र के तौर पर गोद लिया।
सुजॉय - यानी कि खेमचंद जी आपके ताया जी भी हुए और साथ ही दादाजी भी!
ॠतुराज जी - बिल्कुल ठीक!
सुजॉय - वैसे तो हम आज बसंत प्रकाश जी के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं, लेकिन खेमचंद जी का नाम उनके साथ ऐसे जुड़ा हुआ है कि उनका भी ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए बसंत प्रकाश जी पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले, हम आपसे खेमचंद जी के बारे में जानना चाहेंगे। क्या जानते हैं आप उनके बारे में?
ऋतुराज जी - जी हाँ, हर पोता अपने दादाजी के बारे में जानना चाहेगा, और मेरे पिता जी नें भी उनके बारे में मुझे बताया था। खेमचंद जी नें 'सुप्रीम पिक्चर्स' के 'मेरी आँखें' के ज़रिये १९३९ में फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। और जल्द ही नामचीन रणजीत फ़िल्म स्टुडिओ ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। लता मंगेशकर के लिए खेमचंद प्रकाश फलदायक साबित हुए और उस दौर में 'आशा', 'ज़िद्दी' और 'महल' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता जी को नई नई प्रसिद्धी हासिल हुई थी। लेकिन खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु नें फ़िल्म जगत में एक कभी न पूरा होने वाले शून्य को जन्म दिया।
सुजॉय - निस्संदेह खेमचंद जी के जाने से जो क्षति हुई, वह फ़िल्म जगत की अब तक की सब से बड़ी क्षतियों में से एक है।
ऋतुराज जी - 'तानसेन' को बेहतरीन म्युज़िकल फ़िल्मों में गिना जाता है। खेमचंद जी नें लता जी को तो ब्रेक दिया ही, साथ ही किशोर कुमार को भी पहला ब्रेक दिया "मरने की दुवायें क्यों माँगू" गीत में। यह बात मशहूर है कि लता मंगेशकर की आवाज़ को शुरु शुरु में निर्माता चंदुलाल शाह नें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन खेमचंद जी नें उनके निर्णय को चैलेंज किया और उन्हें बताया कि एक दिन यही आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। 'ज़िद्दी' में लता जी का गाया एक बेहद सुंदर गीत था "चंदा रे जा रे जा रे"।
सुजॉय - अभी हाल ही में हमनें इस गीत को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवाया है इस्मत चुगताई को समर्पित अंक में। अच्छा ॠतुराज जी, यह बताइए कि खेमचंद जी का स्वरबद्ध कौन सा गीत आपको सब से प्रिय है?
ऋतुराज जी - ऐसे बहुत से गीत हैं जो मुझे व्यक्तिगत तौर पे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो गीत जो मेरा फ़ेवरीट है, वह है फ़िल्म 'महल' का "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"।
सुजॉय - वाह! आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि इस गीत को भी हम बजा चुके हैं सस्पेन्स फ़िल्मों के गीतों की शृंखला 'मानो या ना मानो' में। ॠतुराज जी, हम अब बसंत प्रकाश जी पर आते हैं; बताइए कि एक पिता के रूप में वो कैसे थे? उनकी कुछ विशेषताओं के बारे में बताएँ जो संगीत-रसिक जान कर अभिभूत हो जाएँगे।
ऋतुराज जी - मेरा और मेरे पिताजी का संबंध दोस्ताना वाला था और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, पूरे परिवार के साथ ही वो घुलमिल कर रहते थे, और एक अच्छे पिता के सभी गुण उनमें थे। परिवार का वो ख़याल रखा करते थे। बहुत ही शांत और सादे स्वभाव के थे। उनकी रचनाएँ मौलिक हुआ करती थी। उन्होंने कभी डिस्को या पाश्चात्य संगीत का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो भारतीय शास्त्रीय संगीत में विश्वास रखते थे। राग-रागिनियों, ताल और लोक-संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। खेमचंद जी से ही उन्होंने संगीत सीखा और संगीत और नृत्य कला की बारीकियाँ उनसे सीखी। वो थोड़े मूडी थे और उनका संगीत उनके मूड पे डिपेण्ड करता था।
सुजॉय - कहा जाता है कि 'अनारकली' फ़िल्म के लिए पहले पहले बसंत प्रकाश जी को ही साइन करवाया गया था, लेकिन बाद में इन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। क्या इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
ऋतुराज जी - जी हाँ, यह सच बात है। 'अनारकली' के संगीत को लेकर कुछ विवाद खड़े हुए थे। एक दिन काम के अंतराल के वक़्त मेरे पिता जी फ़िल्मिस्तान स्टुडिओ में आराम कर रहे थे। उस समय निर्देशक के सहायक उस कमरे में आये और उन पर चीखने लगे। मेरे पिता जी को उस ऐसिस्टैण्ट के चिल्लाने का तरीका अच्छा नहीं लगा। उन दोनों में बहसा-बहसी हुई, और उसी वक़्त पिताजी फ़िल्म छोड़ कर आ गये। लेकिन तब तक पिताजी फ़िल्म का एक गीत रेकॉर्ड कर चुके थे। सी. रामचंद्र आकर फ़िल्म के संगीत का भार स्वीकारा और अपनी शर्त रख दी कि न केवल फ़िल्म के गानें लता मंगेशकर से गवाये जाएँगे, बल्कि मेरे पिताजी द्वारा स्वरब्द्ध गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म से हटवा दिया जाये। शुरु शुरु में उनके इन शर्तों को फ़िल्मिस्तान मान तो गये, लेकिन आख़िर में गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म में रख लिया गया। और वह गीत था "आ जाने वफ़ा"।
सुजॉय - वाह! आइए आगे बढ़ने से पहले इस लाजवाब गीत को सुन लिया जाये!
गीत - आ जाने वफ़ा (अनारकली)
सुजॉय - अच्छा ॠतुराज जी, मैंने पढ़ा है कि खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु के बाद बसंत प्रकाश जी नें उनकी कुछ असमाप्त फ़िल्मों के संगीत को पूरा किया था और इसी तरह से उनका फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था। तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि वह कौन सी फ़िल्म थी जिसमें बसंत प्रकाश जी नें संगीत दिया था?
ऋतुराज जी - १० अगस्त १९५० को दादाजी की मृत्यु हो गई थी, और उनकी कई फ़िल्में असमाप्त थी जैसे कि 'जय शंकर', 'श्री गणेश जन्म', 'तमाशा'। 'श्री गणेश जन्म' में मन्ना डे सह-संगीतकार थे और 'तमाशा' के गीतों को मन्ना डे और एस. के. पाल नें पूरा किया था। बसंत प्रकाश जी नें 'जय शंकर' का संगीत पूरा किया था और यही उनकी पहली फ़िल्म भी थी।
सुजॉय - बसंत प्रकाश जी द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों में कौन कौन सी फ़िल्में उल्लेखनीय हैं आपके हिसाब से?
ॠतुराज जी - उनकी उल्लेखनीय फ़िल्में हैं - सलोनी (१९५२), श्रीमतिजी (१९५२), निशान डंका (१९५२), बदनाम (१९५२), महारानी (१९५७), नीलोफ़र (१९५७), भक्तध्रुव (१९५७), हम कहाँ जा रहे हैं (१९६६), ज्योत जले (१९६८), ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (१९८४), अबला (१९८६)।
सुजॉय - १९६८ के बाद पूरे २० साल तक वो ग़ायब रहे और १९८६ में दोबारा उनका संगीत सुनाई दिया। इसके पीछे क्या कारण है? वो ग़ायब क्यों हुए थे और दोबारा वापस कैसे आये?
ॠतुराज जी - उनके पैत्रिक स्थान पर कुछ प्रॉपर्टी के इशूज़ हो गये थे जिस वजह से उन्हें लकवा मार गया और १५ साल तक वो लकवे से पीड़ित थे। जब वो ठीक हुए, तब उनके मित्र वसंत गोनी साहब, जो एक निर्देशक थे, उन्होंने पिताजी को फिर से संगीत देने के लिए राज़ी करवाया और इन दोनों फ़िल्मों, 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' और 'अबला', में उन्हें संगीत देने का न्योता दिया। वसंत जी को पिताजी पर पूरा भरोसा था। पिताजी राज़ी हो गये और इस तरह से एक लम्बे अरसे के बाद उनका संगीत फिर से सुनाई दिया।
सुजॉय - बसंत प्रकाश जी के युं तो कई गीत लोकप्रिय हुए थे, आपको व्यक्तिगत तौर पे उनका बनाया कौन सा गीत सब से पसंद है?
ॠतुराज जी - युं तो अभी जिन फ़िल्मों के नाम मैंने लिए, उन सब के गानें पसंद है, लेकिन एक जो मेरा फ़ेवरीट गीत है, वह है उनकी अंतिम फ़िल्म 'अबला' का, "अबला पे सितम निर्बल पर जुलुम, तू चुप बैठा भगवान रे..."।
सुजॉय - यह तो था आपका पसंदीदा गीत। बसंत प्रकाश जी को अपने गीतों में कौन सा गीत सब से ज़्यादा पसंद था?
ऋतुराज जी - मेरे पिताजी का सब से पसंदीदा गीत फ़िल्म 'नीलोफ़र' का "रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये" था। यह गीत इस फ़िल्म का भी सब से लोकप्रिय गीत था। और अब तक लोग इस गीत को याद करते हैं, सुनते हैं।
सुजॉय - इसमें कोई शक़ नहीं है। आइए आज हम भी इस गीत का आनंद लें, फ़िल्म 'नीलोफ़र', आवाज़ें आशा भोसले और महेन्द्र कपूर की।
गीत - रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये (नीलोफ़र)
सुजॉय - और अब आख़िरी सवाल। सुनने में आता है कि खेमचंद जी की एक बेटी भी थी जिनका नाम था सावित्री, और जिनके लिए खेमचंद जी नें पैत्रिक स्थान सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली बनवाई थी, पर बाद में आर्थिक कारणों से वह गिरवी रख दी गई, और आज वह किसी और की अमानत है। क्या आप खेमेचंद जी की बेटी सावित्री जी के बारे में कुछ बता सकते हैं?
ऋतुराज जी - जी नहीं, मुझे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम। पिताजी नें कभी मुझे उनके बारे में नहीं बताया, इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।
सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया ऋतुराज जी। हम वाक़ई अभिभूत हैं खेमचंद जी और बसंत प्रकाश जी जैसे महान कलाकारों के बारे में आप से बातचीत कर। 'हिंद-युग्म' के लिए अपना कीमती वक़्त निकालने के लिए और इतनी सारी बातें बताने के लिए मैं अपनी तरफ़ से, हमारे तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से, आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। नमस्कार!
ऋतुराज जी - आपका भी बहुत धन्यवाद, नमस्कार!
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तो दोस्तों, ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', आशा है आपको पसंद आई होगी। अगले हफ़्ते फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ वापस आयेंगे। मेरी और आपकी दोबारा मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, लेकिन सुमित के साथ कल सुबह 'सुर-संगम' सुनना/पढ़ना न भूलिएगा, अब अनुमती दीजिए, नमस्कार!
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सुजॉय - ऋतुराज जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। आप से बातें करते हुए हम बहुत रोमांचित हो रहे हैं, क्योंकि हम एक ऐसे शख़्स से बातें कर रहे हैं जिनका संबंध फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के दो संगीतकारों से है, एक हैं महान खेमचंद प्रकाश जी और दूसरे हैं उन्हीं के भाई बसंत प्रकाश जी।
ऋतुराज जी - धन्यवाद! मुझे भी अपने उन दोनों पर बहुत गर्व है।
सुजॉय - ऋतुराज जी, सबसे पहले तो हम जानना चाहेंगे खेमचंद प्रकाश और बसंत प्रकाश के संबंध के बारे में। मेरा मतलब है कि कुछ लोग कहते हैं कि बसंत जी खेमचंद जी के मानस पुत्र हैं, कोई कहता है कि वो उनके मुंहबोले भाई हैं, तो हम आपसे जानना चाहेंगे इस रिश्ते के बारे में।
ऋतुराज जी - बहुत अच्छा सवाल है यह। मैं आपको बताऊँ कि मेरे पिता बसंत प्रकाश जी और खेमचंद जी सगे भाई भी थे और पिता-पुत्र भी।
सुजॉय - सगे भाई और पिता-पुत्र भी? मतलब?
ॠतुराज जी - यानी कि रिश्ते में तो दोनों सगे भाई ही थे, लेकिन बाद में खेमचंद जी नें व्यक्तिगत कारणों से मेरे पिता बसंत प्रकाश जी को अपने इकलौते पुत्र के तौर पर गोद लिया।
सुजॉय - यानी कि खेमचंद जी आपके ताया जी भी हुए और साथ ही दादाजी भी!
ॠतुराज जी - बिल्कुल ठीक!
सुजॉय - वैसे तो हम आज बसंत प्रकाश जी के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं, लेकिन खेमचंद जी का नाम उनके साथ ऐसे जुड़ा हुआ है कि उनका भी ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए बसंत प्रकाश जी पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले, हम आपसे खेमचंद जी के बारे में जानना चाहेंगे। क्या जानते हैं आप उनके बारे में?
ऋतुराज जी - जी हाँ, हर पोता अपने दादाजी के बारे में जानना चाहेगा, और मेरे पिता जी नें भी उनके बारे में मुझे बताया था। खेमचंद जी नें 'सुप्रीम पिक्चर्स' के 'मेरी आँखें' के ज़रिये १९३९ में फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। और जल्द ही नामचीन रणजीत फ़िल्म स्टुडिओ ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। लता मंगेशकर के लिए खेमचंद प्रकाश फलदायक साबित हुए और उस दौर में 'आशा', 'ज़िद्दी' और 'महल' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता जी को नई नई प्रसिद्धी हासिल हुई थी। लेकिन खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु नें फ़िल्म जगत में एक कभी न पूरा होने वाले शून्य को जन्म दिया।
सुजॉय - निस्संदेह खेमचंद जी के जाने से जो क्षति हुई, वह फ़िल्म जगत की अब तक की सब से बड़ी क्षतियों में से एक है।
ऋतुराज जी - 'तानसेन' को बेहतरीन म्युज़िकल फ़िल्मों में गिना जाता है। खेमचंद जी नें लता जी को तो ब्रेक दिया ही, साथ ही किशोर कुमार को भी पहला ब्रेक दिया "मरने की दुवायें क्यों माँगू" गीत में। यह बात मशहूर है कि लता मंगेशकर की आवाज़ को शुरु शुरु में निर्माता चंदुलाल शाह नें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन खेमचंद जी नें उनके निर्णय को चैलेंज किया और उन्हें बताया कि एक दिन यही आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। 'ज़िद्दी' में लता जी का गाया एक बेहद सुंदर गीत था "चंदा रे जा रे जा रे"।
सुजॉय - अभी हाल ही में हमनें इस गीत को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवाया है इस्मत चुगताई को समर्पित अंक में। अच्छा ॠतुराज जी, यह बताइए कि खेमचंद जी का स्वरबद्ध कौन सा गीत आपको सब से प्रिय है?
ऋतुराज जी - ऐसे बहुत से गीत हैं जो मुझे व्यक्तिगत तौर पे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो गीत जो मेरा फ़ेवरीट है, वह है फ़िल्म 'महल' का "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"।
सुजॉय - वाह! आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि इस गीत को भी हम बजा चुके हैं सस्पेन्स फ़िल्मों के गीतों की शृंखला 'मानो या ना मानो' में। ॠतुराज जी, हम अब बसंत प्रकाश जी पर आते हैं; बताइए कि एक पिता के रूप में वो कैसे थे? उनकी कुछ विशेषताओं के बारे में बताएँ जो संगीत-रसिक जान कर अभिभूत हो जाएँगे।
ऋतुराज जी - मेरा और मेरे पिताजी का संबंध दोस्ताना वाला था और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, पूरे परिवार के साथ ही वो घुलमिल कर रहते थे, और एक अच्छे पिता के सभी गुण उनमें थे। परिवार का वो ख़याल रखा करते थे। बहुत ही शांत और सादे स्वभाव के थे। उनकी रचनाएँ मौलिक हुआ करती थी। उन्होंने कभी डिस्को या पाश्चात्य संगीत का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो भारतीय शास्त्रीय संगीत में विश्वास रखते थे। राग-रागिनियों, ताल और लोक-संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। खेमचंद जी से ही उन्होंने संगीत सीखा और संगीत और नृत्य कला की बारीकियाँ उनसे सीखी। वो थोड़े मूडी थे और उनका संगीत उनके मूड पे डिपेण्ड करता था।
सुजॉय - कहा जाता है कि 'अनारकली' फ़िल्म के लिए पहले पहले बसंत प्रकाश जी को ही साइन करवाया गया था, लेकिन बाद में इन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। क्या इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
ऋतुराज जी - जी हाँ, यह सच बात है। 'अनारकली' के संगीत को लेकर कुछ विवाद खड़े हुए थे। एक दिन काम के अंतराल के वक़्त मेरे पिता जी फ़िल्मिस्तान स्टुडिओ में आराम कर रहे थे। उस समय निर्देशक के सहायक उस कमरे में आये और उन पर चीखने लगे। मेरे पिता जी को उस ऐसिस्टैण्ट के चिल्लाने का तरीका अच्छा नहीं लगा। उन दोनों में बहसा-बहसी हुई, और उसी वक़्त पिताजी फ़िल्म छोड़ कर आ गये। लेकिन तब तक पिताजी फ़िल्म का एक गीत रेकॉर्ड कर चुके थे। सी. रामचंद्र आकर फ़िल्म के संगीत का भार स्वीकारा और अपनी शर्त रख दी कि न केवल फ़िल्म के गानें लता मंगेशकर से गवाये जाएँगे, बल्कि मेरे पिताजी द्वारा स्वरब्द्ध गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म से हटवा दिया जाये। शुरु शुरु में उनके इन शर्तों को फ़िल्मिस्तान मान तो गये, लेकिन आख़िर में गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म में रख लिया गया। और वह गीत था "आ जाने वफ़ा"।
सुजॉय - वाह! आइए आगे बढ़ने से पहले इस लाजवाब गीत को सुन लिया जाये!
गीत - आ जाने वफ़ा (अनारकली)
सुजॉय - अच्छा ॠतुराज जी, मैंने पढ़ा है कि खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु के बाद बसंत प्रकाश जी नें उनकी कुछ असमाप्त फ़िल्मों के संगीत को पूरा किया था और इसी तरह से उनका फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था। तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि वह कौन सी फ़िल्म थी जिसमें बसंत प्रकाश जी नें संगीत दिया था?
ऋतुराज जी - १० अगस्त १९५० को दादाजी की मृत्यु हो गई थी, और उनकी कई फ़िल्में असमाप्त थी जैसे कि 'जय शंकर', 'श्री गणेश जन्म', 'तमाशा'। 'श्री गणेश जन्म' में मन्ना डे सह-संगीतकार थे और 'तमाशा' के गीतों को मन्ना डे और एस. के. पाल नें पूरा किया था। बसंत प्रकाश जी नें 'जय शंकर' का संगीत पूरा किया था और यही उनकी पहली फ़िल्म भी थी।
सुजॉय - बसंत प्रकाश जी द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों में कौन कौन सी फ़िल्में उल्लेखनीय हैं आपके हिसाब से?
ॠतुराज जी - उनकी उल्लेखनीय फ़िल्में हैं - सलोनी (१९५२), श्रीमतिजी (१९५२), निशान डंका (१९५२), बदनाम (१९५२), महारानी (१९५७), नीलोफ़र (१९५७), भक्तध्रुव (१९५७), हम कहाँ जा रहे हैं (१९६६), ज्योत जले (१९६८), ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (१९८४), अबला (१९८६)।
सुजॉय - १९६८ के बाद पूरे २० साल तक वो ग़ायब रहे और १९८६ में दोबारा उनका संगीत सुनाई दिया। इसके पीछे क्या कारण है? वो ग़ायब क्यों हुए थे और दोबारा वापस कैसे आये?
ॠतुराज जी - उनके पैत्रिक स्थान पर कुछ प्रॉपर्टी के इशूज़ हो गये थे जिस वजह से उन्हें लकवा मार गया और १५ साल तक वो लकवे से पीड़ित थे। जब वो ठीक हुए, तब उनके मित्र वसंत गोनी साहब, जो एक निर्देशक थे, उन्होंने पिताजी को फिर से संगीत देने के लिए राज़ी करवाया और इन दोनों फ़िल्मों, 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' और 'अबला', में उन्हें संगीत देने का न्योता दिया। वसंत जी को पिताजी पर पूरा भरोसा था। पिताजी राज़ी हो गये और इस तरह से एक लम्बे अरसे के बाद उनका संगीत फिर से सुनाई दिया।
सुजॉय - बसंत प्रकाश जी के युं तो कई गीत लोकप्रिय हुए थे, आपको व्यक्तिगत तौर पे उनका बनाया कौन सा गीत सब से पसंद है?
ॠतुराज जी - युं तो अभी जिन फ़िल्मों के नाम मैंने लिए, उन सब के गानें पसंद है, लेकिन एक जो मेरा फ़ेवरीट गीत है, वह है उनकी अंतिम फ़िल्म 'अबला' का, "अबला पे सितम निर्बल पर जुलुम, तू चुप बैठा भगवान रे..."।
सुजॉय - यह तो था आपका पसंदीदा गीत। बसंत प्रकाश जी को अपने गीतों में कौन सा गीत सब से ज़्यादा पसंद था?
ऋतुराज जी - मेरे पिताजी का सब से पसंदीदा गीत फ़िल्म 'नीलोफ़र' का "रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये" था। यह गीत इस फ़िल्म का भी सब से लोकप्रिय गीत था। और अब तक लोग इस गीत को याद करते हैं, सुनते हैं।
सुजॉय - इसमें कोई शक़ नहीं है। आइए आज हम भी इस गीत का आनंद लें, फ़िल्म 'नीलोफ़र', आवाज़ें आशा भोसले और महेन्द्र कपूर की।
गीत - रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये (नीलोफ़र)
सुजॉय - और अब आख़िरी सवाल। सुनने में आता है कि खेमचंद जी की एक बेटी भी थी जिनका नाम था सावित्री, और जिनके लिए खेमचंद जी नें पैत्रिक स्थान सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली बनवाई थी, पर बाद में आर्थिक कारणों से वह गिरवी रख दी गई, और आज वह किसी और की अमानत है। क्या आप खेमेचंद जी की बेटी सावित्री जी के बारे में कुछ बता सकते हैं?
ऋतुराज जी - जी नहीं, मुझे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम। पिताजी नें कभी मुझे उनके बारे में नहीं बताया, इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।
सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया ऋतुराज जी। हम वाक़ई अभिभूत हैं खेमचंद जी और बसंत प्रकाश जी जैसे महान कलाकारों के बारे में आप से बातचीत कर। 'हिंद-युग्म' के लिए अपना कीमती वक़्त निकालने के लिए और इतनी सारी बातें बताने के लिए मैं अपनी तरफ़ से, हमारे तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से, आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। नमस्कार!
ऋतुराज जी - आपका भी बहुत धन्यवाद, नमस्कार!
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तो दोस्तों, ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', आशा है आपको पसंद आई होगी। अगले हफ़्ते फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ वापस आयेंगे। मेरी और आपकी दोबारा मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, लेकिन सुमित के साथ कल सुबह 'सुर-संगम' सुनना/पढ़ना न भूलिएगा, अब अनुमती दीजिए, नमस्कार!
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