ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 91
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - "१९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी 'दो बीघा ज़मीन' की। ये दोनो एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। मुझे अभी भी याद है कि जब बिमलदा बहुत सुबह सुबह हमारे घर आया करते थे और मेरे पिताजी के बिस्तर के पास कुर्सी में बैठकर अख़बार पढ़ते रहते और पिताजी के उठने का इंतज़ार करते। मेरी माँ उन्हे जगाना भी चाहे तो बिमलदा मना कर देते थे।" यह तो थी 'दो बीघा ज़मीन' और 'रिक्शावाला' की बात, लेकिन ऐसा भी कहा गया है कि 'दो बीघा ज़मीन' ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर बनी फ़िल्म 'धरती के लाल' से भी प्रेरित था। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि अब्बास साहब और सलिलदा, दोनो ही 'इपटा' के सदस्य थे। बलराज साहनी, निरुपा राय और रतन कुमार अभिनीत 'दो बीघा ज़मीन' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है।
सलिल चौधरी के संगीत की एक ख़ास बात यह रही है कि उनके बहुत सारे गीतों में जन-जागरण के सुर झलकते हैं। संगीत उनके लिए एक हथियार की तरह था जिससे वो समाज में क्रांति की लहर पैदा करना चाहते थे। सलिलदा के व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके बनाये इस तरह के जोशीले गीतों को सुनना बेहद ज़रूरी हो जाता है। दृढ़ राजनैतिक विचारों और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने की वजह से उनका संगीत उस ज़माने के दूसरे संगीतकारों से बिल्कुल अलग हुआ करता था। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' मे भी उन्होने इस तरह के कम से कम दो गीत हमें दिये हैं। एक तो है "धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाये" और दूसरा गीत है "हरियाला सावन ढोल बजाता आया", और यही दूसरा गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। गीतकार शैलेन्द्र भी 'इपटा' के सक्रीय सदस्य थे। सलिलदा के समाज में क्रांति पैदा करने वाले संगीत को अपने जोशीले असरदार बोलों से इस फ़िल्म में समृद्ध किया शैलेन्द्र ने। मन्ना डे, लता मंगेशकर, और साथियों की आवाज़ों में किसान परिवारों के उत्साह भरे इस गीत को सुनिए और गरमी के इस मौसम में सावन को जल्द से जल्द आने का न्योता दीजिए।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. राज कुमार और माला सिन्हा अभिनीत इस फिल्म में संगीत है सी रामचंद्र का.
२. परवेज़ शम्सी ने लिखा है ये मधुर युगल गीत.
३. मुखड़े में शब्द है - "कहानी".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद दिलीप जी के सर बंधा है विजेता का ताज. बधाई हो दिलीप जी और पराग जी आपको भी बधाई सही गीत पहचाना
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - "१९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी 'दो बीघा ज़मीन' की। ये दोनो एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। मुझे अभी भी याद है कि जब बिमलदा बहुत सुबह सुबह हमारे घर आया करते थे और मेरे पिताजी के बिस्तर के पास कुर्सी में बैठकर अख़बार पढ़ते रहते और पिताजी के उठने का इंतज़ार करते। मेरी माँ उन्हे जगाना भी चाहे तो बिमलदा मना कर देते थे।" यह तो थी 'दो बीघा ज़मीन' और 'रिक्शावाला' की बात, लेकिन ऐसा भी कहा गया है कि 'दो बीघा ज़मीन' ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर बनी फ़िल्म 'धरती के लाल' से भी प्रेरित था। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि अब्बास साहब और सलिलदा, दोनो ही 'इपटा' के सदस्य थे। बलराज साहनी, निरुपा राय और रतन कुमार अभिनीत 'दो बीघा ज़मीन' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है।
सलिल चौधरी के संगीत की एक ख़ास बात यह रही है कि उनके बहुत सारे गीतों में जन-जागरण के सुर झलकते हैं। संगीत उनके लिए एक हथियार की तरह था जिससे वो समाज में क्रांति की लहर पैदा करना चाहते थे। सलिलदा के व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके बनाये इस तरह के जोशीले गीतों को सुनना बेहद ज़रूरी हो जाता है। दृढ़ राजनैतिक विचारों और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने की वजह से उनका संगीत उस ज़माने के दूसरे संगीतकारों से बिल्कुल अलग हुआ करता था। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' मे भी उन्होने इस तरह के कम से कम दो गीत हमें दिये हैं। एक तो है "धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाये" और दूसरा गीत है "हरियाला सावन ढोल बजाता आया", और यही दूसरा गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। गीतकार शैलेन्द्र भी 'इपटा' के सक्रीय सदस्य थे। सलिलदा के समाज में क्रांति पैदा करने वाले संगीत को अपने जोशीले असरदार बोलों से इस फ़िल्म में समृद्ध किया शैलेन्द्र ने। मन्ना डे, लता मंगेशकर, और साथियों की आवाज़ों में किसान परिवारों के उत्साह भरे इस गीत को सुनिए और गरमी के इस मौसम में सावन को जल्द से जल्द आने का न्योता दीजिए।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. राज कुमार और माला सिन्हा अभिनीत इस फिल्म में संगीत है सी रामचंद्र का.
२. परवेज़ शम्सी ने लिखा है ये मधुर युगल गीत.
३. मुखड़े में शब्द है - "कहानी".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद दिलीप जी के सर बंधा है विजेता का ताज. बधाई हो दिलीप जी और पराग जी आपको भी बधाई सही गीत पहचाना
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
ऐ चाँद मुबारक हो तुझे रात सुहानी ’ फ़िल्म है शायद नौ शेर वाने आदिल’
गीत भी यही होना चाहिए...सी. राम .चन्द्र का ही लग रहा है....(गीत कार का तो पता नहीं)
और हाँ, पहेली का गीत तो लोगों ने सही बता ही दिया है मेरे ख़याल से ..... और उस गीत के गीतकार हैं "परवेज़ शम्सी".
very melodious song indeed
naushewan-E adil
नौशेरवां-ने -आदिल में शम्स साहेब ने गीतकार के रूप में अपनी साहेबज़ादी परवेज़ का नाम दिया था. इसी लिए इस फिल्म के गीतकार में परवेज़ शम्सी का नाम आता है.
अवध लाल