महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१५
देश से बाहर बसे खानाबदोशों को रूलाने के लिए करीब २३ साल पहले एक शख्स ने फिल्मी संगीत की तिलिस्मी दुनिया में कदम रखा था। "चिट्ठी" लेकर आया वह शख्स देखते हीं देखते कब गज़लों की दुनिया का एक नायाब हीरा हो गया,किसी को पता न चला। उसके आने से पहले गज़लें या तो बु्द्धिजीवियों की महफ़िलों में सजती थीं या फ़िर शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों की जुबां पर और इस कारण गज़लें आम लोगों की पहुँच और समझ से दूर रहा करती थीं। वह आया तो यूँ लगा मानो गज़लों के पंख खोल दिए हों किसी ने। गज़ल आजाद हो गई और अब उसे बस गाया या समझा हीं नहीं जाने लगा बल्कि लोग उसे महसूस भी करने लगे। गज़ल कभी रूलाने लगी तो कभी दिल में हल्की टीस जगाने लगी। गज़लों को जीने वाला वह इंसान सीधे-साधे बोलों और मखमली आवाज़ के जरिये न जाने कितने दिलों में घर कर गया। फिर १९८६ में रीलिज हुई नाम की "चिट्ठी आई है" हो, १९९१ के साजन की "जियें तो जियें कैसे" हो या फिर ३ साल बाद रीलिज हुई "मोहरा" की "ना कज़रे की धार" हो, उस शख्स की आवाज़ की धार तब से अब तक हमेशा हीं तेज़-तर्रार रही है। इसे उस शख्स की जादू-भरी आवाज़ और पुरजोर शख्सियत का असर हीं कहेंगे कि फ़िल्मों में उन्हें महफ़िलों में गाता हुआ दिखाया जाने लगा, वैसे सच हीं है- बहती गंगा में कौन अपने हाथ नहीं धोना चाहता । इतिहास गवाह है कि "चिट्ठी आई है" -बस इस गाने ने "नाम" की किस्मत हीं बदल दी थी। चलिए हमने तो इतना बता दिया, अब आप उस "नामचीन" कलाकार का नाम पता करें।
पूरे हिन्दुस्तान में(और यूँ कहिए पूरी दुनिया में जहाँ भी हिन्दवी बोली जाती है,हिन्दवी नाम अमीर खुसरो का दिया हुआ है,जोकि हिंदी और उर्दू को मिलाकर बनी एक भाषा है) ऐसा कौन होगा जिसने "चाँदी जैसा रंग है तेरा" या फिर "चिट्ठी आई है" न सुना हो। मुझे तो एक भी ऐसे बदकिस्मत इंसान की जानकारी नहीं है। इसलिए उम्मीद करता हूँ कि आपने आज के फ़नकार को पहचान लिया होगा। पहचान लिया ना? तो हाँ अगर पहचान हीं लिया है तो उन्हें जानने की भी कोशिश कर ली जाए। यूँ कहते हैं ना कि "पूत के पाँव पालने में हीं दीख जाते है" - शायद इन जैसों को सोचकर हीं किसी ने सदियों पहले यह बात कही होगी। हमारे आज के फ़नकार जब महज दस साल के थे, तभी इन्होंने सबके सामने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था । भारत-चीन युद्ध के दौरान इन्होंने जब मंच से "ऐ मेरे वतन के लोगों" गाया तो लोगों की आँखों में खुशी और ग़म के आँसू साथ हीं साथ आ गए । ग़म का सबब तो जगज़ाहिर है,लेकिन खुशी इसकी कि हिन्दुस्तान को संगीत के क्षेत्र में एक उभरता हुआ सितारा मिल गया था। फिर क्या था,वह नन्हा सितारा धीरे-धीरे अपनी चमक सारी दुनिया में बिखराने के लिए तैयार होने लगा। उस नन्हे सितारे को किसी भी और चीज की फ़िक्र न थी,क्योंकि जहां के पैतरों से रूबरू कराने के लिए उसके दोनों बड़े भाई पहले से हीं तैनात थे। "मनहर उधास" और "निर्मल उधास" भले हीं उतने मकबूल न हों,जितने कि हमारे "पंकज उधास" साहब हैं,लेकिन उन दोनों ने भी संगीत की उतनी हीं साधना की है। निर्मल उधास जी के बारे में जहां को ज्यादा नहीं पता, लेकिन मनहर उधास साहब का स्वर कोकिला "लता मंगेशकर" के साथ किया गया पार्श्व-गायन अमूमन सब के हीं जेहन में जिंदा होगा। याद आया कुछ? फिल्म "अभिमान" का "लूटे कोई मन का नगर" जिसे कई सारे लोग "मुकेश-लता" का गीत समझते हैं,दर-असल मनहर साहब का एक सदाबहार नगमा है। जी हाँ तो जब जिस इंसान के दोनों भाई संगीत की दुनिया में मशगू्ल हों, वहाँ तीसरे का इससे दूर जाने का कोई सवाल हीं नहीं उठता। तो इस तरह "पंकज उधास" साहब भी संगीत के सफ़र पर चल निकले।
"पंकज उधास" का गज़लों की तरफ़ रूख कैसे हुआ,इसकी भी एक मज़ेदार दास्तां है। वो कहते हैं ना कि "गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक उसे गाया न जाए और गाई हुई गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक कि गज़ल-गायक गाए जा रहे लफ़्ज़ों और जुबां को समझता न हो।" इसलिए उर्दू-गज़ल गाने के लिए उर्दू का इल्म होना लाजिमी है। यही कारण था कि पंकज उधास साहब के घर उनके बड़े भाई "मनहर उधास" को उर्दू की तालिम देने के लिए एक शिक्षक आया करते थे। एक दफ़ा पंकज उधास ने उन्हें बेगम अख्तर और मेहदी हसन की गज़लों को सुनते और सुनाते सुन लिया। इस छोटी-सी घटना का ऐसा असर हुआ कि पंकज साहब ने भी उर्दू सीखने की जिद्द ठान ली और उस जिद्द का सुखद परिणाम आज हम सबके सामने है। पंकज उधास की गज़लों का जब भी जिक्र होता है तो मयखाना,शराब और साकी का जिक्र भी साथ हीं आ जाता है। इन्हें शराब की गज़लों का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल भी कुछ ऐसी हीं है। यूँ तो "निगाह-ए-यार" में भी वही नशा है जो "मयकदे के आबसार" में है,लेकिन अगर किसी को दोनों की हीं तलब हो और वो भी एक साथ तो वह क्या करे। "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा" -किसी की ऐसी हालत हो जाए तो फिर उसे खुदा हीं बचाए।
खुदा-न-ख्वास्ता मेरे हुनर का जिक्र यूँ न हो,
कि उसके वास्ते कुछ और से मुझको सुकूं न हो।
किसी के दिल का हाल बयां करने के लिए मालूम नहीं "ज़फ़र गोरखपुरी" इससे ज्यादा क्या लिखते। "नशा" एलबम से ली गई इस गज़ल में कुछ नशा हीं ऐसा है जो होश का दावा करने वालों को मदहोश कर देता है। आप खुद देखिए:
तेरी निगाह से ऐसी शराब पी मैने
कि फिर न होश का दावा किया कभी मैने।
वो और होंगे जिन्हें मौत आ गई होगी,
निगाह-ए-यार से पाई है ज़िंदगी मैने।
ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
एक तरफ़ बाम पर कोई गुलफ़ाम है,
एक तरफ़ महफ़िल-ए-बादा-औ-जाम है,
दिल का दोनो से है कुछ न कुछ वास्ता,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
उसके दर से उठा तो किधर जाऊँगा,
मयकदा छोड़ दूँगा तो मर जाऊँगा,
सख्त मुश्किल में हूँ- क्या करूँ ऐ खुदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
ज़िंदगी एक है और तलबगार दो,
जां अकेली मगर जां के हकदार दो,
दिल बता पहले किसका करूँ हक़ अदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
इस ताल्लुक को मैं कैसे तोड़ूँ ज़फ़र,
किसको अपनाऊँ मैं, किसको छोड़ूँ जफ़र,
मेरा दोनों से रिश्ता है नजदीक का,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
दिल से मिलने की ___ ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की जरुरत क्या है...
आपके विकल्प हैं -
a)जरुरत, b) कशिश, c) तड़प, d) तम्मना
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था -"चाँद" और शेर था -
चाँद से फूल से या मेरी जुबाँ से सुनिए,
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए...
निदा साहब का लिखा ये खूबसूरत शेर था...मनु जी पूरी तरह चूक गए, पर नीलम जी का निशाना एकदम सही लगा. जवाब मिलते ही महफिल जम गयी. मनु जी ने हरकीरत हकीर जी की कविता का ये अंश सुनाया -
रात आसमां में
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!
वाह बहुत खूब...नए श्रोता आशीष ने कुछ शेर याद दिलाये जैसे -
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले....
और
तुझे चाँद बनके मिला जो तेरे सहिलो पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा.
नीलम जी ने फ़रमाया -
हमें दुनिया की ईदों से क्या ग़ालिब (ग़ालिब????)
हमारा चाँद दिख जाए हमारी ईद समझो...
क्या ये ग़ालिब का शेर है नीलम जी ? मनु जी बेहतर बता पायेंगें. नीरज जी भी चुप चाप महफिल का आनंद लेते रहे, अब ऐसे में शन्नो जी कैसे पीछे रह सकती हैं. उन्होंने महफिल में कुछ हंसी के गुब्बारे उछाले जैसे -
बाल पूरी तरह से जबसे सर के गायब हुये हैं
सर नहीं अब उसे लोग अक्सर चाँद ही कहते हैं.
हा हा हा....महफ़िल में रंग ज़माने वाले सभी श्रोताओं को बधाई...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
देश से बाहर बसे खानाबदोशों को रूलाने के लिए करीब २३ साल पहले एक शख्स ने फिल्मी संगीत की तिलिस्मी दुनिया में कदम रखा था। "चिट्ठी" लेकर आया वह शख्स देखते हीं देखते कब गज़लों की दुनिया का एक नायाब हीरा हो गया,किसी को पता न चला। उसके आने से पहले गज़लें या तो बु्द्धिजीवियों की महफ़िलों में सजती थीं या फ़िर शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों की जुबां पर और इस कारण गज़लें आम लोगों की पहुँच और समझ से दूर रहा करती थीं। वह आया तो यूँ लगा मानो गज़लों के पंख खोल दिए हों किसी ने। गज़ल आजाद हो गई और अब उसे बस गाया या समझा हीं नहीं जाने लगा बल्कि लोग उसे महसूस भी करने लगे। गज़ल कभी रूलाने लगी तो कभी दिल में हल्की टीस जगाने लगी। गज़लों को जीने वाला वह इंसान सीधे-साधे बोलों और मखमली आवाज़ के जरिये न जाने कितने दिलों में घर कर गया। फिर १९८६ में रीलिज हुई नाम की "चिट्ठी आई है" हो, १९९१ के साजन की "जियें तो जियें कैसे" हो या फिर ३ साल बाद रीलिज हुई "मोहरा" की "ना कज़रे की धार" हो, उस शख्स की आवाज़ की धार तब से अब तक हमेशा हीं तेज़-तर्रार रही है। इसे उस शख्स की जादू-भरी आवाज़ और पुरजोर शख्सियत का असर हीं कहेंगे कि फ़िल्मों में उन्हें महफ़िलों में गाता हुआ दिखाया जाने लगा, वैसे सच हीं है- बहती गंगा में कौन अपने हाथ नहीं धोना चाहता । इतिहास गवाह है कि "चिट्ठी आई है" -बस इस गाने ने "नाम" की किस्मत हीं बदल दी थी। चलिए हमने तो इतना बता दिया, अब आप उस "नामचीन" कलाकार का नाम पता करें।
पूरे हिन्दुस्तान में(और यूँ कहिए पूरी दुनिया में जहाँ भी हिन्दवी बोली जाती है,हिन्दवी नाम अमीर खुसरो का दिया हुआ है,जोकि हिंदी और उर्दू को मिलाकर बनी एक भाषा है) ऐसा कौन होगा जिसने "चाँदी जैसा रंग है तेरा" या फिर "चिट्ठी आई है" न सुना हो। मुझे तो एक भी ऐसे बदकिस्मत इंसान की जानकारी नहीं है। इसलिए उम्मीद करता हूँ कि आपने आज के फ़नकार को पहचान लिया होगा। पहचान लिया ना? तो हाँ अगर पहचान हीं लिया है तो उन्हें जानने की भी कोशिश कर ली जाए। यूँ कहते हैं ना कि "पूत के पाँव पालने में हीं दीख जाते है" - शायद इन जैसों को सोचकर हीं किसी ने सदियों पहले यह बात कही होगी। हमारे आज के फ़नकार जब महज दस साल के थे, तभी इन्होंने सबके सामने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था । भारत-चीन युद्ध के दौरान इन्होंने जब मंच से "ऐ मेरे वतन के लोगों" गाया तो लोगों की आँखों में खुशी और ग़म के आँसू साथ हीं साथ आ गए । ग़म का सबब तो जगज़ाहिर है,लेकिन खुशी इसकी कि हिन्दुस्तान को संगीत के क्षेत्र में एक उभरता हुआ सितारा मिल गया था। फिर क्या था,वह नन्हा सितारा धीरे-धीरे अपनी चमक सारी दुनिया में बिखराने के लिए तैयार होने लगा। उस नन्हे सितारे को किसी भी और चीज की फ़िक्र न थी,क्योंकि जहां के पैतरों से रूबरू कराने के लिए उसके दोनों बड़े भाई पहले से हीं तैनात थे। "मनहर उधास" और "निर्मल उधास" भले हीं उतने मकबूल न हों,जितने कि हमारे "पंकज उधास" साहब हैं,लेकिन उन दोनों ने भी संगीत की उतनी हीं साधना की है। निर्मल उधास जी के बारे में जहां को ज्यादा नहीं पता, लेकिन मनहर उधास साहब का स्वर कोकिला "लता मंगेशकर" के साथ किया गया पार्श्व-गायन अमूमन सब के हीं जेहन में जिंदा होगा। याद आया कुछ? फिल्म "अभिमान" का "लूटे कोई मन का नगर" जिसे कई सारे लोग "मुकेश-लता" का गीत समझते हैं,दर-असल मनहर साहब का एक सदाबहार नगमा है। जी हाँ तो जब जिस इंसान के दोनों भाई संगीत की दुनिया में मशगू्ल हों, वहाँ तीसरे का इससे दूर जाने का कोई सवाल हीं नहीं उठता। तो इस तरह "पंकज उधास" साहब भी संगीत के सफ़र पर चल निकले।
"पंकज उधास" का गज़लों की तरफ़ रूख कैसे हुआ,इसकी भी एक मज़ेदार दास्तां है। वो कहते हैं ना कि "गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक उसे गाया न जाए और गाई हुई गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक कि गज़ल-गायक गाए जा रहे लफ़्ज़ों और जुबां को समझता न हो।" इसलिए उर्दू-गज़ल गाने के लिए उर्दू का इल्म होना लाजिमी है। यही कारण था कि पंकज उधास साहब के घर उनके बड़े भाई "मनहर उधास" को उर्दू की तालिम देने के लिए एक शिक्षक आया करते थे। एक दफ़ा पंकज उधास ने उन्हें बेगम अख्तर और मेहदी हसन की गज़लों को सुनते और सुनाते सुन लिया। इस छोटी-सी घटना का ऐसा असर हुआ कि पंकज साहब ने भी उर्दू सीखने की जिद्द ठान ली और उस जिद्द का सुखद परिणाम आज हम सबके सामने है। पंकज उधास की गज़लों का जब भी जिक्र होता है तो मयखाना,शराब और साकी का जिक्र भी साथ हीं आ जाता है। इन्हें शराब की गज़लों का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल भी कुछ ऐसी हीं है। यूँ तो "निगाह-ए-यार" में भी वही नशा है जो "मयकदे के आबसार" में है,लेकिन अगर किसी को दोनों की हीं तलब हो और वो भी एक साथ तो वह क्या करे। "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा" -किसी की ऐसी हालत हो जाए तो फिर उसे खुदा हीं बचाए।
खुदा-न-ख्वास्ता मेरे हुनर का जिक्र यूँ न हो,
कि उसके वास्ते कुछ और से मुझको सुकूं न हो।
किसी के दिल का हाल बयां करने के लिए मालूम नहीं "ज़फ़र गोरखपुरी" इससे ज्यादा क्या लिखते। "नशा" एलबम से ली गई इस गज़ल में कुछ नशा हीं ऐसा है जो होश का दावा करने वालों को मदहोश कर देता है। आप खुद देखिए:
तेरी निगाह से ऐसी शराब पी मैने
कि फिर न होश का दावा किया कभी मैने।
वो और होंगे जिन्हें मौत आ गई होगी,
निगाह-ए-यार से पाई है ज़िंदगी मैने।
ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
एक तरफ़ बाम पर कोई गुलफ़ाम है,
एक तरफ़ महफ़िल-ए-बादा-औ-जाम है,
दिल का दोनो से है कुछ न कुछ वास्ता,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
उसके दर से उठा तो किधर जाऊँगा,
मयकदा छोड़ दूँगा तो मर जाऊँगा,
सख्त मुश्किल में हूँ- क्या करूँ ऐ खुदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
ज़िंदगी एक है और तलबगार दो,
जां अकेली मगर जां के हकदार दो,
दिल बता पहले किसका करूँ हक़ अदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
इस ताल्लुक को मैं कैसे तोड़ूँ ज़फ़र,
किसको अपनाऊँ मैं, किसको छोड़ूँ जफ़र,
मेरा दोनों से रिश्ता है नजदीक का,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
दिल से मिलने की ___ ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की जरुरत क्या है...
आपके विकल्प हैं -
a)जरुरत, b) कशिश, c) तड़प, d) तम्मना
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था -"चाँद" और शेर था -
चाँद से फूल से या मेरी जुबाँ से सुनिए,
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए...
निदा साहब का लिखा ये खूबसूरत शेर था...मनु जी पूरी तरह चूक गए, पर नीलम जी का निशाना एकदम सही लगा. जवाब मिलते ही महफिल जम गयी. मनु जी ने हरकीरत हकीर जी की कविता का ये अंश सुनाया -
रात आसमां में
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!
वाह बहुत खूब...नए श्रोता आशीष ने कुछ शेर याद दिलाये जैसे -
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले....
और
तुझे चाँद बनके मिला जो तेरे सहिलो पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा.
नीलम जी ने फ़रमाया -
हमें दुनिया की ईदों से क्या ग़ालिब (ग़ालिब????)
हमारा चाँद दिख जाए हमारी ईद समझो...
क्या ये ग़ालिब का शेर है नीलम जी ? मनु जी बेहतर बता पायेंगें. नीरज जी भी चुप चाप महफिल का आनंद लेते रहे, अब ऐसे में शन्नो जी कैसे पीछे रह सकती हैं. उन्होंने महफिल में कुछ हंसी के गुब्बारे उछाले जैसे -
बाल पूरी तरह से जबसे सर के गायब हुये हैं
सर नहीं अब उसे लोग अक्सर चाँद ही कहते हैं.
हा हा हा....महफ़िल में रंग ज़माने वाले सभी श्रोताओं को बधाई...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
दिल की तमन्नाएँ अक्सर पूरी नहीं हुआ करती ,
चाह लो गर दिल से तो अधूरी नहीं रहा करती
गज़ल बहुत अच्छी लगी। आपके शेर में शायद तमन्ना शब्द आएगा।
शेर अर्ज़ है- मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी।
मुझको रातों की स्याही के सिवा कुछ ना मिला।।
यह गज़ल भी सुनवा दें।
बाकी दोनों तो वजन में भी नहीं आ रहे ,,,,
शायद उनका नहीं है....
हाँ,,,
इस पर एक और याद आ गया ग़ालिब का...
न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवाह,
न सही गर मेरे अश'आर में मानी न सही.....
दोबारा स और ज्यादा गौर किया शेर पर तो लगा के..." जरूरत " होगा.....
फर्क ख़ास नहीं....पर इससे खूबसूरती बढ़ रही है,,,. नीलम जी,
एक बार आप भी डूब कर पढें..