महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०
करीब एकतीस साल पहले मुज़फ़्फ़र अली की एक फ़िल्म आई थी "गमन"। फ़ारूख शेख और स्मिता पाटिल की अदाकारियों से सजी इस फ़िल्म में कई सारी दिलकश गज़लें थीं। यह तो सभी जानते हैं कि मुज़फ़्फ़र अली को संगीत का अच्छा-खासा इल्म है, विशेषकर गज़लों का। इसलिए उन्होंने गज़लों को संगीतबद्ध करने का जिम्मा उस्ताद अली अकबर खान के शागिर्द जयदेव वर्मा को दिया। और मुज़फ़्फ़र अली की दूरगामी नज़र का कमाल देखिए कि इस फ़िल्म के लिए "जयदेव" को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया। भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में अब तक केवल तीन हीं संगीतकार हुए हैं,जिन्हें तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार (रजत कमल पुरस्कार) पाने का अवसर मिला है: जयदेव, ए आर रहमान और इल्लैया राजा। हाँ तो हम "गमन" की गज़लों की बात कर रहे थे। इस फ़िल्म की एक गज़ल "आप की याद आती रही रात भर" ,जिसे "मक़दू्म मोहिउद्दिन" ने लिखा था, के लिए मुज़फ़्फ़र अली को एक नई आवाज़ की तलाश थी और यह तलाश हमारी आज की फ़नकारा पर खत्म हुई। इस गज़ल के बाद तो मानो मुज़फ़्फ़र अली इस नए आवाज़ के दिवाने हो गए। यूँ तो मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्मों (गमन,उमराव जान) के लिए जाने जाते हैं,लेकिन कम हीं लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि इन्होंने कई सारी हीं गज़लों को संगीतबद्ध किया है। "रक़्स-ए-बिस्मिल","पैगाम-ए-मोहब्बत","हुस्न-ए-जानां" ऎसी हीं कुछ खुशकिस्मत गज़लों की एलबम हैं,जिन्हें मुज़फ़्फ़र अली ने अपनी सुरों से सजाया है। बाकी एलबमों की बात कभी बाद में करेंगे, लेकिन "हुस्न-ए-जानां" का जिक्र यहाँ लाजिमी है। अमिर खुसरो का लिखा "ज़िहाल-ए-मस्कीं" न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग अंदाज़ में गाया जा चुका है, यहाँ तक कि "गुलामी" के लिए गुलज़ार साहब ने इसे एक अलग हीं रूप दे दिया था, लेकिन कहा जाता है कि इस गाने को हमारी आज की फ़नकारा ने जिस तरह गाया है,जिस अंदाज में गाया है, वैसा दर्द वैसा गम-ए-हिज्र आज तक किसी और की आवाज़ में महसूस नहीं होता। ऎसी है मुज़फ़्फ़र अली की परख और ऎसा है इस फ़नकारा की आवाज़ का तिलिस्म....। तो चलिए मैंने तो उस फ़नकारा के बारे में इतना कुछ कह दिया; अब आप की बारी है,पता कीजिए उस फ़नकारा का नाम..
उस फ़नकारा के नाम से पर्दा हटाने के पहले मैं आज की गज़ल से जुड़े एक और हस्ती के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। आज की गज़ल को साज़ों से सजाने वाला वह इंसान खुद एक कामयाब गज़ल-गायक है। गज़लों से परे अगर बात करें तो कई सारे फ़िल्मी-गानों को उन्होंने स्वरबद्ध किया है। एक तरह से वे गु्लज़ार के प्रिय रहे हैं। "दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन", "नाम गुम जाएगा", "एक अकेला इस शहर में", "हुज़ूर इस कदर भी न इतराके चलिए" कुछ ऎसे हीं मकबूल गाने हैं,जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और "भूपिन्दर सिंह" ने अपनी आवाज़ दी। जी हाँ,हमारी आज की गज़ल के संगीतकार "भूपिन्दर सिंह" जी ही है। तो अब तक हम गज़ल के संगीतकार से रूबरू हो चुके है, अब इस महफ़िल में बस गज़लगो और गायिका की हीं कमी है। दोस्तों...मुझे उम्मीद है कि मैने गायिका की पहचान के लिए जो हिंट दिए थे,उनकी मदद से आपने अब तक गायिका का नाम जान हीं लिया होगा। और अगर...अभी तक आप सोच में डूबे हैं तो मैं हीं बता देता हूँ। हम आज जिस फ़नकारा की बात कर रहे हैं, उनका नाम है "छाया गांगुली" । "छाया गांगुली" से जुड़ी मैने कई सारी बातें आपको पहले हीं बता दी हैं, अब उनके बारे में ज्यादा लिखने चलूँगा तो आलेख लंबा हो जाएगा। इसलिए अच्छा होगा कि मैं अब गज़ल की ओर रूख करूँ।
कई साल पहले "नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" नाम से गज़लों की एक एलबम आई थी। आज हम उसी एलबम की प्रतिनिधि गज़ल आपको सुना रहे हैं.... । प्रतिनिधि गज़ल होने के कारण यह तो साफ़ हीं है कि उस गज़ल के भी बोल यही हैं..."नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" । इस सुप्रसिद्ध गज़ल के बोल लिखे थे "इब्राहिम अश्क़" ने। कभी मौका आने पर "इब्राहिम अश्क" साहब के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे..अभी अपने आप को बस इस गज़ल तक हीं सीमित रखते हैं। इस गज़ल की खासियत यह है कि बस चार शेरों में हीं पूरी दुनिया की बात कह दी गई है। गज़लगो कभी खुद पर नाज़ करता है, कभी जहां की तल्ख निगाहों का ब्योरा देता है तो कभी अपने महबूब पर गुमां करता है। भला दूसरी कौन-सी ऎसी गज़ल होगी जो चंद शब्दों में हीं सारी कायनात का जिक्र करती हो। शुक्र यह है कि इश्क-वालों के लिए कायनात बस अपने इश्क तक हीं सिमटा नहीं है। वैसे इसे शुक्र कहें या मजबूरी ...क्योंकि इश्क-वाले तो खुद में हीं डूबे होते हैं, उन्हें औरों से क्या लेना। अब जब औरों को इनकी खुशी न पचे तो ये दुनिया की शिकायत न करें तो क्या करें।
इश्क-वालों ने किए जब अलहदा हैं रास्ते,
राह-भर में खार किसने बोए इनके वास्ते।
तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल...लुत्फ़ लें और अगर अच्छी लगे तो हमारे चुनाव की दाद दें:
नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था,
आईने में जब तलक देखा न था।
शहर की महरूमियाँ मत पूछिये,
भीड़ थी पर कोई भी अपना न था।
मंजिलें आवाज़ देती रह गईं,
हम पहुँच जाते मगर रस्ता न था।
इतनी दिलकश थी कहाँ ये ज़िंदगी,
हमने जब तक आपको चाहा न था।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
___ से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा..
आपके विकल्प हैं -
a) दरख्त , b) गुल , c) टहनी, d) पंखुडी
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था "खुद", यानी कि शेर कुछ यूँ था-
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम,
थोडी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे...
सबसे पहले सही जवाब देकर मैदान मारा शन्नो जी ने. मनु जी और सलिल जी ने भी सही जवाब दिया. सलिल जी ने एक सदाबहार शेर याद दिलाया -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है....
वाह...
नीलम जी ने भी सही जवाब दिया, और एक फ़िल्मी गाने को याद किया, पर गीत के बोल भूल गयी, जिसे बाद में मनु जी ने याद दिलवाया पर आदत अनुसार इस बार कोई शेर नहीं सुनाया उन्होंने.
पूजा जी, पहेली का अपना अलग मज़ा है, जो भी विकल्प आपको सही लगे उस पर कुछ सुनाया भी कीजिये. आपकी और सुशील जी की पसंद का गाना भी जल्द ही सुनवाने की कोशिश रहेगी. और चलते चलते सलिल जी का एक और शेर उसी महफिल से-
खुद को खुद पर हो यकीन तो दुनिया से लड़ जाईये,
मंजिलों की फ़िक्र क्यों हो, पैर- नीचे पाईये...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
करीब एकतीस साल पहले मुज़फ़्फ़र अली की एक फ़िल्म आई थी "गमन"। फ़ारूख शेख और स्मिता पाटिल की अदाकारियों से सजी इस फ़िल्म में कई सारी दिलकश गज़लें थीं। यह तो सभी जानते हैं कि मुज़फ़्फ़र अली को संगीत का अच्छा-खासा इल्म है, विशेषकर गज़लों का। इसलिए उन्होंने गज़लों को संगीतबद्ध करने का जिम्मा उस्ताद अली अकबर खान के शागिर्द जयदेव वर्मा को दिया। और मुज़फ़्फ़र अली की दूरगामी नज़र का कमाल देखिए कि इस फ़िल्म के लिए "जयदेव" को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया। भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में अब तक केवल तीन हीं संगीतकार हुए हैं,जिन्हें तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार (रजत कमल पुरस्कार) पाने का अवसर मिला है: जयदेव, ए आर रहमान और इल्लैया राजा। हाँ तो हम "गमन" की गज़लों की बात कर रहे थे। इस फ़िल्म की एक गज़ल "आप की याद आती रही रात भर" ,जिसे "मक़दू्म मोहिउद्दिन" ने लिखा था, के लिए मुज़फ़्फ़र अली को एक नई आवाज़ की तलाश थी और यह तलाश हमारी आज की फ़नकारा पर खत्म हुई। इस गज़ल के बाद तो मानो मुज़फ़्फ़र अली इस नए आवाज़ के दिवाने हो गए। यूँ तो मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्मों (गमन,उमराव जान) के लिए जाने जाते हैं,लेकिन कम हीं लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि इन्होंने कई सारी हीं गज़लों को संगीतबद्ध किया है। "रक़्स-ए-बिस्मिल","पैगाम-ए-मोहब्बत","हुस्न-ए-जानां" ऎसी हीं कुछ खुशकिस्मत गज़लों की एलबम हैं,जिन्हें मुज़फ़्फ़र अली ने अपनी सुरों से सजाया है। बाकी एलबमों की बात कभी बाद में करेंगे, लेकिन "हुस्न-ए-जानां" का जिक्र यहाँ लाजिमी है। अमिर खुसरो का लिखा "ज़िहाल-ए-मस्कीं" न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग अंदाज़ में गाया जा चुका है, यहाँ तक कि "गुलामी" के लिए गुलज़ार साहब ने इसे एक अलग हीं रूप दे दिया था, लेकिन कहा जाता है कि इस गाने को हमारी आज की फ़नकारा ने जिस तरह गाया है,जिस अंदाज में गाया है, वैसा दर्द वैसा गम-ए-हिज्र आज तक किसी और की आवाज़ में महसूस नहीं होता। ऎसी है मुज़फ़्फ़र अली की परख और ऎसा है इस फ़नकारा की आवाज़ का तिलिस्म....। तो चलिए मैंने तो उस फ़नकारा के बारे में इतना कुछ कह दिया; अब आप की बारी है,पता कीजिए उस फ़नकारा का नाम..
उस फ़नकारा के नाम से पर्दा हटाने के पहले मैं आज की गज़ल से जुड़े एक और हस्ती के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। आज की गज़ल को साज़ों से सजाने वाला वह इंसान खुद एक कामयाब गज़ल-गायक है। गज़लों से परे अगर बात करें तो कई सारे फ़िल्मी-गानों को उन्होंने स्वरबद्ध किया है। एक तरह से वे गु्लज़ार के प्रिय रहे हैं। "दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन", "नाम गुम जाएगा", "एक अकेला इस शहर में", "हुज़ूर इस कदर भी न इतराके चलिए" कुछ ऎसे हीं मकबूल गाने हैं,जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और "भूपिन्दर सिंह" ने अपनी आवाज़ दी। जी हाँ,हमारी आज की गज़ल के संगीतकार "भूपिन्दर सिंह" जी ही है। तो अब तक हम गज़ल के संगीतकार से रूबरू हो चुके है, अब इस महफ़िल में बस गज़लगो और गायिका की हीं कमी है। दोस्तों...मुझे उम्मीद है कि मैने गायिका की पहचान के लिए जो हिंट दिए थे,उनकी मदद से आपने अब तक गायिका का नाम जान हीं लिया होगा। और अगर...अभी तक आप सोच में डूबे हैं तो मैं हीं बता देता हूँ। हम आज जिस फ़नकारा की बात कर रहे हैं, उनका नाम है "छाया गांगुली" । "छाया गांगुली" से जुड़ी मैने कई सारी बातें आपको पहले हीं बता दी हैं, अब उनके बारे में ज्यादा लिखने चलूँगा तो आलेख लंबा हो जाएगा। इसलिए अच्छा होगा कि मैं अब गज़ल की ओर रूख करूँ।
कई साल पहले "नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" नाम से गज़लों की एक एलबम आई थी। आज हम उसी एलबम की प्रतिनिधि गज़ल आपको सुना रहे हैं.... । प्रतिनिधि गज़ल होने के कारण यह तो साफ़ हीं है कि उस गज़ल के भी बोल यही हैं..."नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" । इस सुप्रसिद्ध गज़ल के बोल लिखे थे "इब्राहिम अश्क़" ने। कभी मौका आने पर "इब्राहिम अश्क" साहब के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे..अभी अपने आप को बस इस गज़ल तक हीं सीमित रखते हैं। इस गज़ल की खासियत यह है कि बस चार शेरों में हीं पूरी दुनिया की बात कह दी गई है। गज़लगो कभी खुद पर नाज़ करता है, कभी जहां की तल्ख निगाहों का ब्योरा देता है तो कभी अपने महबूब पर गुमां करता है। भला दूसरी कौन-सी ऎसी गज़ल होगी जो चंद शब्दों में हीं सारी कायनात का जिक्र करती हो। शुक्र यह है कि इश्क-वालों के लिए कायनात बस अपने इश्क तक हीं सिमटा नहीं है। वैसे इसे शुक्र कहें या मजबूरी ...क्योंकि इश्क-वाले तो खुद में हीं डूबे होते हैं, उन्हें औरों से क्या लेना। अब जब औरों को इनकी खुशी न पचे तो ये दुनिया की शिकायत न करें तो क्या करें।
इश्क-वालों ने किए जब अलहदा हैं रास्ते,
राह-भर में खार किसने बोए इनके वास्ते।
तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल...लुत्फ़ लें और अगर अच्छी लगे तो हमारे चुनाव की दाद दें:
नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था,
आईने में जब तलक देखा न था।
शहर की महरूमियाँ मत पूछिये,
भीड़ थी पर कोई भी अपना न था।
मंजिलें आवाज़ देती रह गईं,
हम पहुँच जाते मगर रस्ता न था।
इतनी दिलकश थी कहाँ ये ज़िंदगी,
हमने जब तक आपको चाहा न था।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
___ से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा..
आपके विकल्प हैं -
a) दरख्त , b) गुल , c) टहनी, d) पंखुडी
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था "खुद", यानी कि शेर कुछ यूँ था-
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम,
थोडी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे...
सबसे पहले सही जवाब देकर मैदान मारा शन्नो जी ने. मनु जी और सलिल जी ने भी सही जवाब दिया. सलिल जी ने एक सदाबहार शेर याद दिलाया -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है....
वाह...
नीलम जी ने भी सही जवाब दिया, और एक फ़िल्मी गाने को याद किया, पर गीत के बोल भूल गयी, जिसे बाद में मनु जी ने याद दिलवाया पर आदत अनुसार इस बार कोई शेर नहीं सुनाया उन्होंने.
पूजा जी, पहेली का अपना अलग मज़ा है, जो भी विकल्प आपको सही लगे उस पर कुछ सुनाया भी कीजिये. आपकी और सुशील जी की पसंद का गाना भी जल्द ही सुनवाने की कोशिश रहेगी. और चलते चलते सलिल जी का एक और शेर उसी महफिल से-
खुद को खुद पर हो यकीन तो दुनिया से लड़ जाईये,
मंजिलों की फ़िक्र क्यों हो, पैर- नीचे पाईये...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
BHAYEE ISEE FILM KA ......SEENE ME JALAN AANKHON ME TOOFAN SA KYOON HAI.......... TATHA SHOBHA GURTU KEE GAYEE VAH THUMREE '...........AAJA SANVARIYA TOHE GARWA LAGALOON.....RAS KE BHARE TORE NAIN' KEE BHEE YAD DILA DEE .
ISEE FILM SE NANA PATEKAR NE EK CHOTE SE ROLE SE HINDEE FILMON ME EK CHOTEE SEE ENTRY LEE THEE.........JISKE SABAB ME IS NACHEEJ NE BHEE EK ROLE NIBHAYA THA ....PAR VAH KAHANEE FIR KABHEE.
FIR SE EK BAAR SHUKRIYA 'TANHA' .
आपने आज गमन का जिक्र किया है,,,,,टी,वी, पर देखि थी बचपन में,,,,,उस समय बड़ी बोर लगी थी,,,मगर ,,,
" आपकी याद आती रही रात भर ,,,,,,,"
उस उम्र में भी इतनी ही खलिश पैदा कर रहा था जो आज बड़े होने पर करता है,,,,,
(याद है के बाकी के बच्चे तो वहीँ टी, वी, वाले पडोसी के घर पर ही ऊंघ कर सो गए थे,,,)
पर इस के संगीत ने वाकई में हमारे नन्हे मन पर जादू किया था,,,,,
आज फिर दिल किया है " गमन " देखने का,,,,शायद अब पल्ले पड़े,,,,
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा..
सही शब्द 'गुल'.
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
खिलो 'गुल' बनकर तो खुद आयेंगी ये.
'गुल' नहीं, गुलशन नहीं, गुलकंद सा.
सजाया शे'रों का गुलदस्ता यहाँ.
एक और 'गुल' है-
जल गयी, गुल बन गयी जलकर शमा.
'गुल' हटाया रौशनी ज्यादा हुई.
एक और प्रयोग-
गुलबदन जब 'गुल' हुई तो धड़कनें रुक सी गयीं.
देखकर गुलशेर को गुलफाम रोके न रुके.
उसी के रंग जैसा हो चला है पैरहन मेरा,,
शुक्रिया आचार्य ,,,,,
जो आपने आकर रंग जमाया,,,
बहुत शुक्रिया कि आपने ध्यान से देख लिया मेरे जबाब को और मै पहली बार मैदाने-जंग को जीत सकी. यह आज वाली आपकी सुनवाई ग़ज़ल भी खूब अच्छी लगी.
और मेरा आज का जबाब है 'गुल'. नक़ल की तो आदत नहीं है कुछ लोगों की तरह लेकिन जरा देर हो गयी आने में और जबाब देने में. (अब लगता है कोई और ही मैदान मार ले जायेगा). पछतावा तो है....पर चलो कोई बात नहीं. और लगता है कि आज सलिल जी कुछ झुंझलाए हुए हैं इसीलिए गुल पर इतनी गुस्सा निकाल रहे हैं बुरी तरह से. उधर दोहे की कक्षा तहस-नहस हुई जा रही है. नसीब अपना-अपना. खैर चलिए, अगर मैं आ ही गयी हूँ तो कुछ मैं भी कह के ही जाऊँगी. कहीं जाइयेगा नहीं आप लोग:
दिल खुश है कि किस्मत ने कुछ गुल खिलाये आज
कल को क्या पता कहीं खाक छानते नज़र आयें हम.
बस सिर्फ एक और शेर महफ़िल बर्खास्त होने के पहले. अरे..अरे आप लोग जाने क्यों लगे..अरे.. सुनते जाइए मेहरबानी करके मेरा यह वाला शेर भी. तनहा जी आप ही कुछ कहिये ना. अच्छा जल्दी से कहती हूँ:
पान जब खा लिया गुल गुले सी गुल बदन के हाथ से
थूकने का फिर कर बहाना गुल फाम जी गुल हो गए.
filhaal gul par apni batti gul hai ,anu ji ka sher badhiya laga aur ab shanno ji pataa nahi kya kya sher ke naam par apni lekhni se ugalwa rahin hain aap log hi jheliye hum to chale .
gud night ,shubh raatri
आपकी महफ़िल तितर-बितर होने के पहले और अपनी बत्ती गुल करने के पहले (गलत ना समझिये, मेरा मतलब लाइट ऑफ करने से है सोने जाने के पहले) सोचा कि आप सबसे अपने बेजायका शेरों के लिए माफ़ी मांग लूं वर्ना कहीं कोई खौफनाक सपने न दिखनें लगें यहाँ से निकाले जाने के. शायद कुछ लोग तकल्लुफ के मारे कह नहीं पाते हैं और मेरे शेरों को झेलने की कोशिश करते हैं पर कुछ कह जाते हैं bluntly, और बोर होकर goodnight कहके चले जाते हैं. वेवकूफ इतनी भी नहीं हूँ मैं (एक मिनट ही..ही..ही..) कि समझ ना पाऊँ. आपकी महफ़िल बस गुलजार रहे. अपने लिखे शेर आगे से अपने ही पास सहेज कर रखने होंगें जैसे अपनी गाने की आवाज़ अपने गले के अन्दर ही रखनी पड़ती है....यही सही रहेगा वर्ना यहाँ से अपनी entry गुल हो सकती है. आगे से अपना मुंह बंद और औरो की बक-बक ही सुनने की कोशिश होगी. Goodnight.
नीलम जी, आप यहाँ महफ़िल की शान बनी रहिये और अपना आना जारी रखें, please.
आगे से आपको मेरे शेरों से कोई खतरा नहीं होगा (झेलना नहीं होगा) O.K. अरे याद आया, वो पहेलिओं की जमात में आपको कोई याद कर रहा है आप पर इल्जाम लगाकर.
कल क्या पता हम ख़ाक कहाँ छानते फिरें...
गुल गुले सी गुल बदन के हाथ से लो पान खा,
थूकने के नाम पर गुल फाम जी गुल हो गए
शन्नो जी ,आपके वाले नहीं हैं जी,
मेरे अपने हैं ,,अभी अभी बने हैं जी,,,
यह कैसी नाराज़गी!
आप इस महफ़िल से गुल हुईं तो सबसे बड़ा नुकसान तो मेरा होगा, मुझे कैसे पता चलेगा कि मुझे पढने वाले लोग अभी हैं। अरे आप ऐसा मत कीजिए....... आती रहिए और लिखती रहिए....। और जहाँ तक शेरों की बात है, तो हरेक इंसान अपना शेर लिखने को स्वतंत्र हैं।
मेरा नीलम जी, मनु जी, आचार्य जी और आपसे यही गुजारिश है कि इस महफ़िल से प्यार बनाए रखें।
-विश्व दीपक
मेरे शेरों को सही करने के लिए शुक्रिया. (लगता है अब तनहा जी को अपनी इस महफ़िल को शेरो-शायरी के मदरसे में तब्दील करना पड़ेगा मुझ जैसे लोगों के लिए जिसमें मनु जी जैसे लोग सबका होमवर्क सही किया करेंगें).
हो सकता है कि मनु जी आप सही हों नीलम जी के नजरिये से, लेकिन मेरा सवाल है कि फिर अगर गुलफाम जी बाहर नहीं गये पान थूकने के लिये तो क्या उसे निगल गये या गाल में ही भरे बैठे रहे? वैसे तो वह पीकदान भी इस्तेमाल कर सकते थे लेकिन लिखते समय मेरे जेहन में था कि वह गुलबदन से दूर भागने के लिए पान बाहर जाकर थूकने का बहाना करेंगें और फिर वहीँ से ही गायब हो जायेंगें. खैर मेरा अपना ढंग है सोचने का. आप और गुरु जी तो ठहरे एक मंजे हुए शायर और मैंने कभी अपनी जिंदगी में लिखने पर गौर नहीं दिया था. शायद आप सही ही होंगें, लेकिन कैसे? जनाब, आप explain करें. जाते-जाते एक सवाल और आया दिमाग में पूँछ लूं तो ही बेहतर रहेगा......आपका मतलब कहीं यह तो नहीं है गुल से कि पान खाने के बाद गुलफाम जी हमेशा के लिए ही गुल.......तोबा-तोबा...ऐसा नहीं सोचना चाहिए मुझे. तो फिर आप ही जबाब दीजिये ना.
aap to majaak ko bhi sanjeedgi se le leti hain aur fir tanha ji ko bula leti hain ,shanno ji apun ke beech me koi galatfahmi nahi honi chaahiye ,wo kahaani to yaad hai n aapko do billiyon ki laddai ,
isliye hum log sabse achche dost hain ye is awwam ko bata hi de aaj .
आप कितना हंसाती हैं मुझे कि पेट दुखने लगता है आपकी मजेदार बातों से. और मैडम जी, आपने सोच भी कैसे लिया कि मैं कभी भी आपकी बातों को सीरियसली मान कर नाराज़ हो सकती हूँ. पहले लिख लूं फिर फुर्सत के बख्त आपकी लिखी बातों को सोच-सोच कर और हंसूंगी. सही कहा आपने कि गुलफाम जी के चक्कर में हम दोनों उन दो बिल्लियों की तरह कहीं झगड़ने न लगें.
भाड़ में गए गुलफाम जी और उनका पान
गुलबदन ही जाने हम तो हैं यहाँ मेहमान.