महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११
यूँ तो गज़ल उसी को कहते हैं जो आपके दिल-औ-दिमाग दोनों को हैरत में डाल दे। पर आज की गज़ल को सुनकर एकबारगी तो मैं सकते में आ गया या यह कहिए कि गज़ल को सुनकर और फ़िर उसके बारे में जाँच-पड़ताल करने के बाद मैं कुछ देर तक अपने को संभाल हीं नहीं सका। गु्लूकार की आवाज़ इतनी बुलंद कि मैं सोच हीं बैठा था कि वास्तव में यह कोई गुलूकार हीं है और उसपर सोने पे सुहागा कि गज़ल के बोल भी मर्दों वाले।लेकिन जब गज़ल की जड़ों को ढूँढने चला तो अपने कर्णदोष का आभास हुआ। आज की गज़ल को किसी गुलूकार ने नहीं बल्कि एक गुलूकारा ने अपनी आवाज़ से सजाया है। इन फ़नकारा के बारे में क्या कहूँ... गज़ल-गायकी के क्षेत्र में इन्हें बेगम का दर्जा दिया जाता है और बेगम की हैसियत क्या होती है वह हम सब बखूबी जानते हैं। यह "बेगम" १९७३ से हीं इस पदवी पर काबिज है। वैसे अगर आपके घर में हीं संगीत का इतना बढिया माहौल हो तो लाजिमी है कि आपमें भी वैसे हीं गुण आएँगे। लेकिन इनके लिए बदकिस्मती यह थी कि यह जिस समाज से आती हैं वहाँ महिलाओं को निचले दर्जे का नागरिक माना जाता है और वहाँ महिलाओं के लिए संगीत तो क्या पढाई-लिखाई की भी अनुमति नहीं मिलती। लेकिन "बेगम" साहिबा के पिताजी उस्ताद गुलाम हैदर, जो खुद एक प्रख्यात गायक थे, ने समाज की एक न मानी और इन्हें अपना शागिर्द बना लिया। "गुलाम हैदर" साहब के बाद उस्ताद सलामत अली खान से इन्हें संगीत की शिक्षा मिली। इन उस्तादों का हीं असर था कि "बेगम" साहिबा आगे बढती रहीं और अंतत: पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "सितारा-ए-इम्तियाज" की उपाधि से नवाज़ा। "बेगम" साहिब न सिर्फ़ उर्दू की जानकारा हैं बल्कि उर्दू के अलावा इन्होंने सिंधी(जो इनकी मातृभाषा है),पंजाबी, सराइकी(सिंधी और पंजाबी का अपभ्रंश) और फारसी के नज़्मों और गज़लों को भी गाया है। तो लीजिए मैने इतना हिंट दे दिया, अब आप खुद इन फ़नकारा को पहचानिए।
२००० में रीलिज हुई "हो जमालो" हो या फिर १९८७ की "काफ़ियां बुल्ले शाह", २००७ की "लाल शाहबाज़ की चादर हो" या फिर २००७ की हीं "इश्क कलंदर", "बेगम आबिदा परवीन" की हर एक नज़्म, हर एक गज़ल उस ऊपर वाले से जोड़ने का एक जरिया रही है। वैसे कहते भी हैं कि "सूफ़ी" कलामों में वह जादू होता है जो आपकी आत्मा को परमात्मा के सुपूर्द कर देता है। आप खो-से जाते हैं, आपको जहां की फ़िक्र नहीं रहती। "बेगम" साहिबा मूलत: "काफ़ी" और "गज़लें" गाती हैं और इनकी आवाज़ का सुनने वालों पर गहरा असर होता है। कहा जाता है कि जैसा "तानसेन" अपनी धुनों और अपनी आवाज़ से बीमारों का इलाज कर देते थे, वैसा हीं कुछ "आबिदा" की आवाज़ सुनकर होता है। इस बात में कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं वह तो वैज्ञानिक शोधों का विषय है ,लेकिन दीगर बात यह है कि "आबिदा" की आवाज़ आपको सम्मोहित तो जरूर करती है,आप एक दूसरी हीं दुनिया में पहुँच जाते है। आपको यकीन न हो तो आज की गज़ल हीं सुन लें। खुद सुनियेगा तो खुद मानिएगा...वैसे भी संस्कृत की एक कहावत है "प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्" मतलब कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता।
सूफ़ी कलामों में इश्क का एक अपना हीं महत्व है। सु्नने पर तो यह किसी इंसान से इश्क की बात लगती है,लेकिन वास्तव में आत्मा-रूपी प्रेमी परमात्मा से मिलन की बाट जोहता है,गुहार लगाता है। इन कलामों की खासियत यही है कि आप चाहें तो इसे अपनी प्रेमिका/अपने प्रेमी को भी सुना दें,ऎसा लगेगा मानो उसी के लिए लिखी गई हो। १९९७ में "इश्क मस्ताना" नाम से आबिदा की गज़लों की एक एलबम रीलिज हुई थी,जिसमें एक से बढकर एक आठ गज़लें थी। उन गज़लों को संगीत दिया था "तफ़ु खान" ने और आवाज़ थी......कहना पड़ेगा क्या?...आबिदा की हीं। आज की गज़ल हमने उसी एलबम से चुनी है। गज़ल के बोल लिखे हैं "इमाद अली अल्वी" ने। "ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा" - इस गज़ल के बारे में क्या कहूँ...सबसे पहले तो यह कि आज तक किसी भी गज़ल में मैने इतना बड़ा रदीफ़ "तू और नहीं मैं और नहीं" इस्तेमाल हो्ते नहीं देखा है। अमूमन लोग एक हर्फ़ या एक शब्द रखते हैं रदीफ़ में या फिर वह भी नहीं रखते। लेकिन छ: लफ़्जों का रदीफ़!! - गज़लगो को दाद देनी होगी। शिल्प से अब चलते हैं भाव की ओर... इश्क अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचता है जब आशिक अपने महबूब/अपनी महबूबा में अपने वजूद को डूबो दे, जब वास्तव में दो जिस्म-एक जां हो जाएँ, जब वह यकीं से अपने हबीब से कह सके: "कैसा शर्माना,कैसी चिंता! जब हम तुम एक हैं तो फ़िर फ़िराक की कैसी फ़िक्र!" और यकीं मानिए जिस दिन किसी आशिक ने अपनी आशिकी से यह कह दिया, उस दिन इश्क के दु्श्मनों को अपना बोरिया-बिस्तर बाँधना होगा,उस दिन के बाद उनकी एक न चलने वाली।
तो अगर आपको अपने इश्क की फ़िक्र है, महबूब/महबूबा का ख़्याल है तो पहले उसे अपने मोहब्बत का यकीं दिलाईये ,दुनिया का क्या है, दुनिया की पड़ी किसको है! :
मैं बात यही बेबात कहूँ,
तुझसे तेरे जज्बात कहूँ।
मुझे तो बस मौका चाहिए अपने जज्बातों को सबके सामने लाने का, मु्झे छोड़िए और आबिदा परवीन की दमदार आवाज़ में गोता लगाने को तैयार हो जाईये :
ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं,
है शक्ल तेरी मेरा नक्शा, तू और नहीं मैं और नहीं।
मैं तुझको गैर समझता था और खुद को और समझता था,
पर चश्म-ए-गौर से जब देखा, तू और नहीं मैं और नहीं।
अव्वल तू है,आखिर तू है, ज़ाहिर तू है, ..........
मैं तुझमें हूँ, तु मु्झमें छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं।
मैं तालिब-ए-वस्ल जो यार से था,वो ना........
तू मैं हीं तो हैं....... ,तू और नहीं मैं और नहीं।
यहाँ आपने गौर किया होगा कि अंतिम दो शेरों में कुछ शब्द गायब हैं। दर-असल सुनकर भी मैं उन शब्दों को पकड़ नहीं सका। इसलिए आप सबसे गुज़ारिश करूँगा कि अगर आपको इन शब्दों की जानकारी हो तो कृप्या टिप्पणी में डाल दें ताकि यह गज़ल मुकम्मल हो सके।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
__ ने फिर पानी पकाया देर तक...
आपके विकल्प हैं -
a) दीदी, b) वालिद, c) बा, d) माँ
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"गुल", शेर कुछ यूँ था-
गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा...
सबसे पहले सही जवाब देकर शान-ए-महफिल बने हैं मनु जी, पर दिए हुए शब्द पर पहले शेर जडा सलिल जी ने-
गुलबदन जब 'गुल' हुई तो धड़कनें रुक सी गयीं.
देखकर गुलशेर को गुलफाम रोके न रुके.
तभी मनु जे ने फरमाया -
असर दिखला रहा है खूब मुझ पर गुल बदन मेरा
उसी के रंग जैसा हो चला है पैरहन मेरा..
वाह वाह ...
उसके बाद शन्नो जी, नीलम जी और मनु जी ने जम कर रंग जमाया महफ़िल में. राज जी को भी महफ़िल में खूब आनंद आया. सभी का आभार....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
यूँ तो गज़ल उसी को कहते हैं जो आपके दिल-औ-दिमाग दोनों को हैरत में डाल दे। पर आज की गज़ल को सुनकर एकबारगी तो मैं सकते में आ गया या यह कहिए कि गज़ल को सुनकर और फ़िर उसके बारे में जाँच-पड़ताल करने के बाद मैं कुछ देर तक अपने को संभाल हीं नहीं सका। गु्लूकार की आवाज़ इतनी बुलंद कि मैं सोच हीं बैठा था कि वास्तव में यह कोई गुलूकार हीं है और उसपर सोने पे सुहागा कि गज़ल के बोल भी मर्दों वाले।लेकिन जब गज़ल की जड़ों को ढूँढने चला तो अपने कर्णदोष का आभास हुआ। आज की गज़ल को किसी गुलूकार ने नहीं बल्कि एक गुलूकारा ने अपनी आवाज़ से सजाया है। इन फ़नकारा के बारे में क्या कहूँ... गज़ल-गायकी के क्षेत्र में इन्हें बेगम का दर्जा दिया जाता है और बेगम की हैसियत क्या होती है वह हम सब बखूबी जानते हैं। यह "बेगम" १९७३ से हीं इस पदवी पर काबिज है। वैसे अगर आपके घर में हीं संगीत का इतना बढिया माहौल हो तो लाजिमी है कि आपमें भी वैसे हीं गुण आएँगे। लेकिन इनके लिए बदकिस्मती यह थी कि यह जिस समाज से आती हैं वहाँ महिलाओं को निचले दर्जे का नागरिक माना जाता है और वहाँ महिलाओं के लिए संगीत तो क्या पढाई-लिखाई की भी अनुमति नहीं मिलती। लेकिन "बेगम" साहिबा के पिताजी उस्ताद गुलाम हैदर, जो खुद एक प्रख्यात गायक थे, ने समाज की एक न मानी और इन्हें अपना शागिर्द बना लिया। "गुलाम हैदर" साहब के बाद उस्ताद सलामत अली खान से इन्हें संगीत की शिक्षा मिली। इन उस्तादों का हीं असर था कि "बेगम" साहिबा आगे बढती रहीं और अंतत: पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "सितारा-ए-इम्तियाज" की उपाधि से नवाज़ा। "बेगम" साहिब न सिर्फ़ उर्दू की जानकारा हैं बल्कि उर्दू के अलावा इन्होंने सिंधी(जो इनकी मातृभाषा है),पंजाबी, सराइकी(सिंधी और पंजाबी का अपभ्रंश) और फारसी के नज़्मों और गज़लों को भी गाया है। तो लीजिए मैने इतना हिंट दे दिया, अब आप खुद इन फ़नकारा को पहचानिए।
२००० में रीलिज हुई "हो जमालो" हो या फिर १९८७ की "काफ़ियां बुल्ले शाह", २००७ की "लाल शाहबाज़ की चादर हो" या फिर २००७ की हीं "इश्क कलंदर", "बेगम आबिदा परवीन" की हर एक नज़्म, हर एक गज़ल उस ऊपर वाले से जोड़ने का एक जरिया रही है। वैसे कहते भी हैं कि "सूफ़ी" कलामों में वह जादू होता है जो आपकी आत्मा को परमात्मा के सुपूर्द कर देता है। आप खो-से जाते हैं, आपको जहां की फ़िक्र नहीं रहती। "बेगम" साहिबा मूलत: "काफ़ी" और "गज़लें" गाती हैं और इनकी आवाज़ का सुनने वालों पर गहरा असर होता है। कहा जाता है कि जैसा "तानसेन" अपनी धुनों और अपनी आवाज़ से बीमारों का इलाज कर देते थे, वैसा हीं कुछ "आबिदा" की आवाज़ सुनकर होता है। इस बात में कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं वह तो वैज्ञानिक शोधों का विषय है ,लेकिन दीगर बात यह है कि "आबिदा" की आवाज़ आपको सम्मोहित तो जरूर करती है,आप एक दूसरी हीं दुनिया में पहुँच जाते है। आपको यकीन न हो तो आज की गज़ल हीं सुन लें। खुद सुनियेगा तो खुद मानिएगा...वैसे भी संस्कृत की एक कहावत है "प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्" मतलब कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता।
सूफ़ी कलामों में इश्क का एक अपना हीं महत्व है। सु्नने पर तो यह किसी इंसान से इश्क की बात लगती है,लेकिन वास्तव में आत्मा-रूपी प्रेमी परमात्मा से मिलन की बाट जोहता है,गुहार लगाता है। इन कलामों की खासियत यही है कि आप चाहें तो इसे अपनी प्रेमिका/अपने प्रेमी को भी सुना दें,ऎसा लगेगा मानो उसी के लिए लिखी गई हो। १९९७ में "इश्क मस्ताना" नाम से आबिदा की गज़लों की एक एलबम रीलिज हुई थी,जिसमें एक से बढकर एक आठ गज़लें थी। उन गज़लों को संगीत दिया था "तफ़ु खान" ने और आवाज़ थी......कहना पड़ेगा क्या?...आबिदा की हीं। आज की गज़ल हमने उसी एलबम से चुनी है। गज़ल के बोल लिखे हैं "इमाद अली अल्वी" ने। "ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा" - इस गज़ल के बारे में क्या कहूँ...सबसे पहले तो यह कि आज तक किसी भी गज़ल में मैने इतना बड़ा रदीफ़ "तू और नहीं मैं और नहीं" इस्तेमाल हो्ते नहीं देखा है। अमूमन लोग एक हर्फ़ या एक शब्द रखते हैं रदीफ़ में या फिर वह भी नहीं रखते। लेकिन छ: लफ़्जों का रदीफ़!! - गज़लगो को दाद देनी होगी। शिल्प से अब चलते हैं भाव की ओर... इश्क अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचता है जब आशिक अपने महबूब/अपनी महबूबा में अपने वजूद को डूबो दे, जब वास्तव में दो जिस्म-एक जां हो जाएँ, जब वह यकीं से अपने हबीब से कह सके: "कैसा शर्माना,कैसी चिंता! जब हम तुम एक हैं तो फ़िर फ़िराक की कैसी फ़िक्र!" और यकीं मानिए जिस दिन किसी आशिक ने अपनी आशिकी से यह कह दिया, उस दिन इश्क के दु्श्मनों को अपना बोरिया-बिस्तर बाँधना होगा,उस दिन के बाद उनकी एक न चलने वाली।
तो अगर आपको अपने इश्क की फ़िक्र है, महबूब/महबूबा का ख़्याल है तो पहले उसे अपने मोहब्बत का यकीं दिलाईये ,दुनिया का क्या है, दुनिया की पड़ी किसको है! :
मैं बात यही बेबात कहूँ,
तुझसे तेरे जज्बात कहूँ।
मुझे तो बस मौका चाहिए अपने जज्बातों को सबके सामने लाने का, मु्झे छोड़िए और आबिदा परवीन की दमदार आवाज़ में गोता लगाने को तैयार हो जाईये :
ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं,
है शक्ल तेरी मेरा नक्शा, तू और नहीं मैं और नहीं।
मैं तुझको गैर समझता था और खुद को और समझता था,
पर चश्म-ए-गौर से जब देखा, तू और नहीं मैं और नहीं।
अव्वल तू है,आखिर तू है, ज़ाहिर तू है, ..........
मैं तुझमें हूँ, तु मु्झमें छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं।
मैं तालिब-ए-वस्ल जो यार से था,वो ना........
तू मैं हीं तो हैं....... ,तू और नहीं मैं और नहीं।
यहाँ आपने गौर किया होगा कि अंतिम दो शेरों में कुछ शब्द गायब हैं। दर-असल सुनकर भी मैं उन शब्दों को पकड़ नहीं सका। इसलिए आप सबसे गुज़ारिश करूँगा कि अगर आपको इन शब्दों की जानकारी हो तो कृप्या टिप्पणी में डाल दें ताकि यह गज़ल मुकम्मल हो सके।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
__ ने फिर पानी पकाया देर तक...
आपके विकल्प हैं -
a) दीदी, b) वालिद, c) बा, d) माँ
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"गुल", शेर कुछ यूँ था-
गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा...
सबसे पहले सही जवाब देकर शान-ए-महफिल बने हैं मनु जी, पर दिए हुए शब्द पर पहले शेर जडा सलिल जी ने-
गुलबदन जब 'गुल' हुई तो धड़कनें रुक सी गयीं.
देखकर गुलशेर को गुलफाम रोके न रुके.
तभी मनु जे ने फरमाया -
असर दिखला रहा है खूब मुझ पर गुल बदन मेरा
उसी के रंग जैसा हो चला है पैरहन मेरा..
वाह वाह ...
उसके बाद शन्नो जी, नीलम जी और मनु जी ने जम कर रंग जमाया महफ़िल में. राज जी को भी महफ़िल में खूब आनंद आया. सभी का आभार....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
" माँ "
जाहिर तू है "बातिन तू है" ( बातिन यानी शायद,,,,,,,भीतरी,,या मन के भीतर रहने वाला,,,)
आगे भी कुछ ठीक से नहीं समझ पाया,,,,,,यूं लगा ,,,
" वो नावों के खुद को देख ज़रा,,,"( मतलब नहीं समझ में आया फिलहाल तो )
और आखिरी लाइन नहीं समझ सका,,,,
and the complete sher is
"bhukhe bachho ki tasalli ke liye ma ne fir pani pakaya der tak"
अवनीश
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक...
ऊपरवाले सब कुछ ले-ले,लेकिन मुझको माँ दे-दे.
माँ ले ली,क्या तुझसे मांगूँ,खाली हाथों रहने दे..
पैरों में माँ के मिले जन्नत, सजदा ही करता रहूँ..
ऐ माँ! तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी?, क्या होगी?
उसको नहीं देखा हमने कभी,
पर इसकी ज़रुरत क्या होगी?, क्या होगी?
एक शेर याद आया है मुनव्वर राणा का,,,,,,
मुझे बेहद पसंद है,,,
"मुनव्वर" माँ के आगे इस तरह खुलकर नहीं रोना,
जहां बुनियाद हो,इतनी नमी अच्छी नहीं होती...
ग़ज़ल भी बढ़िया है. शुक्रिया.
jisme raaja n ho raani ,
wo kahaani jo hasna sikha de ,
pet ki bhookh ko jo mita de ,
bus itna hi ,
ek baat aaps ki guftgu me kabhi yah bataane ka dhyaan hi nahi raha ki tanha ji aap ki is mahfil me hum sab aapke saath hain ,ab aap tanha hokar bhi tanha nahi hain
aapne jo nayi prstuti di hai hum logon ko hum sabhi ko bahut bahut pasand aati hai ,aap apne kaam ke saath poori nishtha dikha rahen hain .ab izaazat lete hain kahi peeche se shanno ji aapse yah n pooch baithe ki yah nistha kaun hai ,aur aap musibat me fas jaayenge ,waise bhi aajkal afvaahon ka baajar garm hai .
shubh raatri
yaar ko humne jaan-b -jaan dekha
usme ek line hai kahin jaahir kahin chupa dekha ,to zaahir hai sabd to chupa hi hona chaaihye aur wo urdu me sahi shabd kya hai koi urdu ka jaankaar bata skta hai ,yaad aaya ahsan bhaai aapki madad kar sakte hain inki id par ye link bhej kar dekhiye .shaayad kuch baat ban jaaye
छुपा हुआ नहीं आ पायेगा क्यूनके इस से शेर बे-बहर हो जाएगा और ले भी बिगड़ जायेगी,,,,
बातिन का मतलब भीतर या मन में,,या दिल के अंदर...जो है,,,,तो वो भी छुपा हुआ ही है,,,,
tu chupi hai kahaan ,
koi comments nahi hai yahaan
ho gayi ab humse aisi kaun si khata
aachaarya ji ke couplets dhoondhne n karo waqt jaaya .
yahaan par bhi kuch ho jaaye
ab gulfaam ji "maa" ko dhoondh rahe hain kya
kisi ke hisse me makaan aaya ,kisi ke hisse me dukaan aayi ,
mai sabse chhota tha mere hisse me maa aayi
आपने किसी निष्ठा जी का नाम लिया है तो पूछना ही पड़ेगा कि यह निष्ठा जी कौन लगती हैं तन्हा जी की? सुना नहीं था इनके बारे में कभी पहले. तन्हा जी, कभी महफ़िल में भी जरा लेके आयें. जरा हम भी तो देखें कि यह कौन दुष्टा जी हैं ( ही..ही..ही..ही). और आप भी क्या नीलम जी फिर से गुलफाम जी के पीछे हाथ धो के पड़ गईं हैं. अरे भाग गए होंगे कहीं.....हमें क्या पड़ी.....
'रो रही होंगीं उनकी गुलबदन कहीं बैठी हुई
हाथ में पान ले याद में बेहाल बन छुई-मुई.'
और मनु जी को आपने मुनव्वर जी क्यों कहा? क्या यह उनका नया नामकरण हुआ है? या वह पहले से ही कई नामों से जाने जाते हैं? या मुझे वेवकूफ बनाया जा रहा है ??????(फिर ही..ही...ही). ऐसा लगता है कि एक नया नाम ईजाद करके दोहा कक्षा में कामचोर बन के अन्तरिक्ष पर जाने का प्लान बना रहे थे जनाब...यह तो कहो कि मैंने गुरु जी और मनु जी को (मुनव्वर जी) आपस में बतिआते हुये सुन लिया....वर्ना तो आप सबको उनके प्लान के बारे में कुछ पता ही न चलता. अब नीलम जी आप और तनहा जी क्या सोच रहे हैं (मेरा मतलब है मनु जी के बारे में)? तनहा जी की तन्हाइयाँ तो बहुत ही लम्बी हो जायेंगीं अगर मनुजी ने वाकई में जाने की ठान ली तो. ......वैसे आज किसी ने हाथ में बोतल नहीं देखी होगी उनके. अब शायद मिनरल वाटर के जाम पर जाम चढा रहे होंगें. और आज तो न जाने कितने मूड में आकर आपने भी बतियां कर डालीं. बड़ा ही अच्छा लगा. और यह मनु जी क्यों घूर रहे हैं ऐसे मेरी तरफ. जो सचाई थी बस वही तो कही मैंने. क्यों? और वह भी जब नीलम जी आपने ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया तब. सब उगलवा लिया आपने मुझसे. कैसी हैं आप भी? ही..हे..हे..
अच्छा अब आप सबको मेरा सलाम-नमस्ते.