महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१६
आज हम जिन दो शख्सियतों की बात करने जा रहे हैं,उनमें से एक को अपना नाम
साबित करने में पूरे १८ साल लगे तो दूसरे नामचीन होने के बावजूद मुशाअरों तक हीं सिमटकर रह गए। जहाँ पहला नाम अब सबकी जुबान पर काबिज रहता है, वहीं दूसरा नाम मुमकिन है कि किसी को भी मालूम न हो(आश्चर्य की बात है ना कि एक नामचीन इंसान भी गुमनाम हो सकता है) । यूँ तो मैं चाहता तो आज का पूरा अंक पहले फ़नकार को हीं नज़र कर देता,लेकिन दूसरे फ़नकार में ऐसी कुछ बात है कि जब से मैने उन्हें पढा,सुना और देखा है(युट्युब पर)है, तब से उनका क़ायल हो गया हूँ और इसीलिए चाहता हूँ कि आज की गज़ल के "गज़लगो" भी दुनिया के सामने उसी ओहदे के साथ आएँ जिस ओहदे और जिस कद के साथ आज की गज़ल के "संगीतकार" और "गायक" को पेश किया जाना है। तो चलिए पहले फ़नकार से हीं बात की शुरूआत करते हैं। आपको शायद याद हो कि जब हम "छाया गांगुली" और उनकी एक प्यारी गज़ल की बात कर रहे थे तो इसी दरम्यान "गमन" की बात उभर आई थी। "गमन"- वही मुज़फ़्फ़र अली की एक संजीदा फिल्म, जिसके गानों को संगीत से सजाया था जाने-माने संगीतकार "जयदेव" ने। इस फ़िल्म ने न केवल "छाया गांगुली" को संगीत की दुनिया में स्थापित किया, बल्कि एक और फ़नकार थे,जिसने इसी फ़िल्म की बदौलत फ़िल्मी-संगीत का पहला अनुभव लिया था। "अजीब सानिहा मुझपर गुजर गया" -मुझे मालूम नहीं कितने लोगों ने इस गज़ल को सुना है, लेकिन "शह्रयार" की लिखी इस गज़ल में भी इस फ़नकार की आवाज़ उतनी हीं मुकम्मल जान पड़ती है,जितनी आज है। दीगर बात यह है कि "गमन" बनने से १ साल पहले यानी कि १९७७ में इस फ़नकार ने "आल इंडिया सुर श्रॄंगार कम्पीटिशन" में शीर्ष का पुरस्कार जीता था और तभी "जयदेव" ने इन्हें अपनी अगली फिल्म "गबन" का न्यौता दे दिया था। इस फिल्म के तीन साल बाद "चश्मे बद्दूर" में इन्हें गाने का अवसर मिला, फिर १९९१ में "लम्हें" आई, जिसमें "कभी मैं कहूँ", "ये लम्हें" जैसे गीत इन्होंने गाए। लेकिन सही मायने में इन्हें स्वीकारा तब गया, जब एक बिल्कुल नए-से संगीतकार "ए आर रहमान" के लिए इन्होंने "रोजा" का "तमिज़ा तमिज़ा" (हिन्दी मे "भारत हमको जान से प्यारा है") गाया। मुझे लगता है कि मैने अब हद से ज्यादा हिंट दे दिए हैं, इसलिए अब थमता हूँ; अब आप पर है, आप पता कीजिए कि हम किस फ़नकार की बात कर रहे हैं।
एक तरह से "रहमान" के सबसे पसंदीदा गायक, जिन्होंने हाल में हीं "गुरू" में "ऐ हैरत-ए-आशिकी" गाया है, को नज़र-अंदाज करना उतना हीं मुश्किल है, जितना अपनी परछाई को। "बार्डर" में इन्होंने जब "जावेद साहब" के अनमोल बोलों (मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे हमसाये) को अपनी आवाज़ दी तो भारत की सरकार भी इन्हें "रजत कमल" देने से रोक नहीं पाई। इतना हीं नहीं, इन्हें २००४ में पद्मश्री की उपाधि प्रदान की गई। जिस फ़नकार को पूरी दुनिया ने अपनी हथेली पर जगह दी,हमारा सौभाग्य है कि आज हमारी महफ़िल भी उन्ही के चिरागों से रौशन होने जा रही है। "बांबे" में "तू हीं रे" का हृदयस्पर्शी आलाप लेने वाले "हरिहरण" के बारे में जितना भी कहा जाए उतना कम है। वैसे आप यह जानने को उत्सुक हो रहे होंगे कि मैने इस आलेख की शुरूआत में "अठारह" सालों का जिक्र क्यों किया था। दर-असल ७८ में "गमन" के लिए गाने के बाद इनकी संगीत की गाड़ी लुढकते-लुढकते आगे बढ रही थी। लेकिन ९६ में एक ऐसी घटना हुई जिसने हरिहरण और मुम्बई के एक और फ़नकार "लेसली लुविस" को एक मजबूत मंच दे दिया। "कोलोनियल कजन्स" नाम से इन्होंने एक "फ़्यूजन" एलबम रीलिज किया, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी का समागम तो था हीं, लेकिन साथ हीं साथ साधारण जन द्वारा भुला दी गई "संस्कृत" को भी इन दोनों ने सम्मान दिया था। "वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि च समप्रभा, निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा" - गणेश की वंदना के साथ हरिहरण जब गाने की शुरूआत करते हैं तो माहौल का रंग हीं बदल जाता है। इस एलबम की सफ़लता के बाद हरिहरण ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह तो हुई हरिहरण की बात, अब चलिए हम दूसरे फ़नकार की ओर रूख करते हैं। "ऐसा नहीं कि उनसे मुहब्बत नहीं रही","कहीं शेर-औ-नगमा बनके कहीं आँसूओं में ढलके", "हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए", "वो जो आए हयात याद आई", "गम-ए-जानां को गम जाने हुए हैं" ,"न हारा है इश्क न दुनिया थमी है," वो जब याद आए बहुत याद आए" जैसी गज़लों को लिखने वाला इंसान न जाने कैसे गुमनामी के अंधेरों में छुपा रहा, यह बात मुझे समझ नहीं आती। क्या आपको याद है या फिर पता है कि वह इंसान कौन था?
१९१९ में ईहलोक में आने वाले इस इंसान का नाम यूँ तो "मोहम्मद हैदर खान" था लेकिन उसे जानने वाले उसे "खुमार बाराबंकवी" कहते थे। १९५५ में "रूख्साना" के लिए "शकील बदायूँनी" के साथ इन्होंने भी गाने लिखे थे। उससे पहले १९४६ में "शहंशाह" के एक गीत "चाह बरबाद करेगी" को "खुमार" साहब ने हीं लिखा था, जिसे संगीत से सजाया था "नौशाद" ने और अपनी आवाज़ दी थी गायकी के बेताज बादशाह "के०एल०सहगल" ने। तो इतने पुराने हैं हमारे "खुमार" साहब। १९९९ में स्वर्ग सिधारने से पहले इन्होंने मंच को कई बार सुशोभित किया है। हम बस "शकील बदायूनी","मज़रूह सुल्तानपुरी", "राहत इंदौरी", "नीरज", "निदा फ़ाज़ली", "बशीर बद्र" का नाम हीं जानते है,लेकिन इनके साथ मंच पर "खुमार" साहब ने भी अपना जादू बिखेरा है और मेरी मानिए तो इनका जादू बाकियों के जादू से एक रत्ती भी कम नहीं होता था। हर मिसरे के बाद "आदाब" कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती है। यूँ तो हम हरिहरण की आवाज़ में आज की गज़ल आपको सुना रहे हैं,लेकिन आप सबसे यह दरख्वास्त है कि युट्युब पर इस गज़ल को "खुमार" साहब की आवाज़ में सुनें, आपको एक अलग हीं अनुभव न हुआ तो बताईयेगा। तो चलिए अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। "मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं" - ऐसा द्वंद्व, ऐसी कशमकश कि जिसे सदियों पहले भुला दिया हो वही अब यादों में दस्तक देने लगा है। वैसे शायद प्यार इसी को कहते हैं। इंसान भुलाए नहीं भूलता और अपनी मर्जी से याद आने लगता है। "खुमार" साहब की खुमारी मुझपर इस कदर छाई है कि आज फ़िर अपना कुछ कहने का मन नहीं हो रहा। इसलिए लगे हाथ "खुमार" साहब का हीं एक शेर आपको सुनाए देता हूँ:
अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई "खुमार",
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही।
१९९४ में रीलिज हुई "गुलफ़ाम" से आज की गज़ल आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है:
मुद्दतों गम पे गम उठाए हैं,
तब कहीं जाके मुस्कुराए हैं,
एक निगाह-ए-खुलूस के कारण,
ज़िंदगी भर फ़रेब खाए हैं।
मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं,
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
ये कहना है उनसे मोहब्बत है मुझको,
ये कहने में उनसे जमाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
क़यामत यकीनन करीब आ गई है,
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
यूँ तो जो गज़ल हम आपको सुना रहे हैं, उसमें बस इतने हीं शेर हैं,लेकिन दो शेर और भी हैं,जो खुशकिस्मती से मुझे "खुमार" साहब की हीं आवाज़ में सुनने को मिल गए। वे शेर हैं:
वो हैं पास और याद आने लगे हैं,
मुहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
हटाए थे जो राह से दोस्तों की,
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कितने दिन के प्यासे होंगे यारों सोचो तो,
___ का कतरा भी जिनको दरिया लगता है...
आपके विकल्प हैं -
a) शबनम, b) पानी, c) ओस, d) बूँद
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल में सबसे पहले सही जवाब दिया एक बार फिर नीलम जी, वाह नीलम जी आप तो कमाल कर रही हैं, लीजिये उनका शेर मुलाहजा फरमाईये -
दिल की तमन्नाएँ अक्सर पूरी नहीं हुआ करती ,
चाह लो गर दिल से तो अधूरी नहीं रहा करती...
शोभा जी ने एक फ़िल्मी गीत याद दिलाया तमन्ना पर, जुरूर उसे कभी ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवायेंगें, वादा है. मनु जी जरुरत के मुकाबले तमन्ना ही सटीक है उपरोक्त शेर में, हमें तो ऐसा ही लगता है...चलिए अब आज की पहेली में सर खपाईये.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज हम जिन दो शख्सियतों की बात करने जा रहे हैं,उनमें से एक को अपना नाम
साबित करने में पूरे १८ साल लगे तो दूसरे नामचीन होने के बावजूद मुशाअरों तक हीं सिमटकर रह गए। जहाँ पहला नाम अब सबकी जुबान पर काबिज रहता है, वहीं दूसरा नाम मुमकिन है कि किसी को भी मालूम न हो(आश्चर्य की बात है ना कि एक नामचीन इंसान भी गुमनाम हो सकता है) । यूँ तो मैं चाहता तो आज का पूरा अंक पहले फ़नकार को हीं नज़र कर देता,लेकिन दूसरे फ़नकार में ऐसी कुछ बात है कि जब से मैने उन्हें पढा,सुना और देखा है(युट्युब पर)है, तब से उनका क़ायल हो गया हूँ और इसीलिए चाहता हूँ कि आज की गज़ल के "गज़लगो" भी दुनिया के सामने उसी ओहदे के साथ आएँ जिस ओहदे और जिस कद के साथ आज की गज़ल के "संगीतकार" और "गायक" को पेश किया जाना है। तो चलिए पहले फ़नकार से हीं बात की शुरूआत करते हैं। आपको शायद याद हो कि जब हम "छाया गांगुली" और उनकी एक प्यारी गज़ल की बात कर रहे थे तो इसी दरम्यान "गमन" की बात उभर आई थी। "गमन"- वही मुज़फ़्फ़र अली की एक संजीदा फिल्म, जिसके गानों को संगीत से सजाया था जाने-माने संगीतकार "जयदेव" ने। इस फ़िल्म ने न केवल "छाया गांगुली" को संगीत की दुनिया में स्थापित किया, बल्कि एक और फ़नकार थे,जिसने इसी फ़िल्म की बदौलत फ़िल्मी-संगीत का पहला अनुभव लिया था। "अजीब सानिहा मुझपर गुजर गया" -मुझे मालूम नहीं कितने लोगों ने इस गज़ल को सुना है, लेकिन "शह्रयार" की लिखी इस गज़ल में भी इस फ़नकार की आवाज़ उतनी हीं मुकम्मल जान पड़ती है,जितनी आज है। दीगर बात यह है कि "गमन" बनने से १ साल पहले यानी कि १९७७ में इस फ़नकार ने "आल इंडिया सुर श्रॄंगार कम्पीटिशन" में शीर्ष का पुरस्कार जीता था और तभी "जयदेव" ने इन्हें अपनी अगली फिल्म "गबन" का न्यौता दे दिया था। इस फिल्म के तीन साल बाद "चश्मे बद्दूर" में इन्हें गाने का अवसर मिला, फिर १९९१ में "लम्हें" आई, जिसमें "कभी मैं कहूँ", "ये लम्हें" जैसे गीत इन्होंने गाए। लेकिन सही मायने में इन्हें स्वीकारा तब गया, जब एक बिल्कुल नए-से संगीतकार "ए आर रहमान" के लिए इन्होंने "रोजा" का "तमिज़ा तमिज़ा" (हिन्दी मे "भारत हमको जान से प्यारा है") गाया। मुझे लगता है कि मैने अब हद से ज्यादा हिंट दे दिए हैं, इसलिए अब थमता हूँ; अब आप पर है, आप पता कीजिए कि हम किस फ़नकार की बात कर रहे हैं।
एक तरह से "रहमान" के सबसे पसंदीदा गायक, जिन्होंने हाल में हीं "गुरू" में "ऐ हैरत-ए-आशिकी" गाया है, को नज़र-अंदाज करना उतना हीं मुश्किल है, जितना अपनी परछाई को। "बार्डर" में इन्होंने जब "जावेद साहब" के अनमोल बोलों (मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे हमसाये) को अपनी आवाज़ दी तो भारत की सरकार भी इन्हें "रजत कमल" देने से रोक नहीं पाई। इतना हीं नहीं, इन्हें २००४ में पद्मश्री की उपाधि प्रदान की गई। जिस फ़नकार को पूरी दुनिया ने अपनी हथेली पर जगह दी,हमारा सौभाग्य है कि आज हमारी महफ़िल भी उन्ही के चिरागों से रौशन होने जा रही है। "बांबे" में "तू हीं रे" का हृदयस्पर्शी आलाप लेने वाले "हरिहरण" के बारे में जितना भी कहा जाए उतना कम है। वैसे आप यह जानने को उत्सुक हो रहे होंगे कि मैने इस आलेख की शुरूआत में "अठारह" सालों का जिक्र क्यों किया था। दर-असल ७८ में "गमन" के लिए गाने के बाद इनकी संगीत की गाड़ी लुढकते-लुढकते आगे बढ रही थी। लेकिन ९६ में एक ऐसी घटना हुई जिसने हरिहरण और मुम्बई के एक और फ़नकार "लेसली लुविस" को एक मजबूत मंच दे दिया। "कोलोनियल कजन्स" नाम से इन्होंने एक "फ़्यूजन" एलबम रीलिज किया, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी का समागम तो था हीं, लेकिन साथ हीं साथ साधारण जन द्वारा भुला दी गई "संस्कृत" को भी इन दोनों ने सम्मान दिया था। "वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि च समप्रभा, निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा" - गणेश की वंदना के साथ हरिहरण जब गाने की शुरूआत करते हैं तो माहौल का रंग हीं बदल जाता है। इस एलबम की सफ़लता के बाद हरिहरण ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह तो हुई हरिहरण की बात, अब चलिए हम दूसरे फ़नकार की ओर रूख करते हैं। "ऐसा नहीं कि उनसे मुहब्बत नहीं रही","कहीं शेर-औ-नगमा बनके कहीं आँसूओं में ढलके", "हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए", "वो जो आए हयात याद आई", "गम-ए-जानां को गम जाने हुए हैं" ,"न हारा है इश्क न दुनिया थमी है," वो जब याद आए बहुत याद आए" जैसी गज़लों को लिखने वाला इंसान न जाने कैसे गुमनामी के अंधेरों में छुपा रहा, यह बात मुझे समझ नहीं आती। क्या आपको याद है या फिर पता है कि वह इंसान कौन था?
१९१९ में ईहलोक में आने वाले इस इंसान का नाम यूँ तो "मोहम्मद हैदर खान" था लेकिन उसे जानने वाले उसे "खुमार बाराबंकवी" कहते थे। १९५५ में "रूख्साना" के लिए "शकील बदायूँनी" के साथ इन्होंने भी गाने लिखे थे। उससे पहले १९४६ में "शहंशाह" के एक गीत "चाह बरबाद करेगी" को "खुमार" साहब ने हीं लिखा था, जिसे संगीत से सजाया था "नौशाद" ने और अपनी आवाज़ दी थी गायकी के बेताज बादशाह "के०एल०सहगल" ने। तो इतने पुराने हैं हमारे "खुमार" साहब। १९९९ में स्वर्ग सिधारने से पहले इन्होंने मंच को कई बार सुशोभित किया है। हम बस "शकील बदायूनी","मज़रूह सुल्तानपुरी", "राहत इंदौरी", "नीरज", "निदा फ़ाज़ली", "बशीर बद्र" का नाम हीं जानते है,लेकिन इनके साथ मंच पर "खुमार" साहब ने भी अपना जादू बिखेरा है और मेरी मानिए तो इनका जादू बाकियों के जादू से एक रत्ती भी कम नहीं होता था। हर मिसरे के बाद "आदाब" कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती है। यूँ तो हम हरिहरण की आवाज़ में आज की गज़ल आपको सुना रहे हैं,लेकिन आप सबसे यह दरख्वास्त है कि युट्युब पर इस गज़ल को "खुमार" साहब की आवाज़ में सुनें, आपको एक अलग हीं अनुभव न हुआ तो बताईयेगा। तो चलिए अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। "मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं" - ऐसा द्वंद्व, ऐसी कशमकश कि जिसे सदियों पहले भुला दिया हो वही अब यादों में दस्तक देने लगा है। वैसे शायद प्यार इसी को कहते हैं। इंसान भुलाए नहीं भूलता और अपनी मर्जी से याद आने लगता है। "खुमार" साहब की खुमारी मुझपर इस कदर छाई है कि आज फ़िर अपना कुछ कहने का मन नहीं हो रहा। इसलिए लगे हाथ "खुमार" साहब का हीं एक शेर आपको सुनाए देता हूँ:
अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई "खुमार",
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही।
१९९४ में रीलिज हुई "गुलफ़ाम" से आज की गज़ल आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है:
मुद्दतों गम पे गम उठाए हैं,
तब कहीं जाके मुस्कुराए हैं,
एक निगाह-ए-खुलूस के कारण,
ज़िंदगी भर फ़रेब खाए हैं।
मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं,
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
ये कहना है उनसे मोहब्बत है मुझको,
ये कहने में उनसे जमाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
क़यामत यकीनन करीब आ गई है,
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
यूँ तो जो गज़ल हम आपको सुना रहे हैं, उसमें बस इतने हीं शेर हैं,लेकिन दो शेर और भी हैं,जो खुशकिस्मती से मुझे "खुमार" साहब की हीं आवाज़ में सुनने को मिल गए। वे शेर हैं:
वो हैं पास और याद आने लगे हैं,
मुहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
हटाए थे जो राह से दोस्तों की,
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कितने दिन के प्यासे होंगे यारों सोचो तो,
___ का कतरा भी जिनको दरिया लगता है...
आपके विकल्प हैं -
a) शबनम, b) पानी, c) ओस, d) बूँद
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल में सबसे पहले सही जवाब दिया एक बार फिर नीलम जी, वाह नीलम जी आप तो कमाल कर रही हैं, लीजिये उनका शेर मुलाहजा फरमाईये -
दिल की तमन्नाएँ अक्सर पूरी नहीं हुआ करती ,
चाह लो गर दिल से तो अधूरी नहीं रहा करती...
शोभा जी ने एक फ़िल्मी गीत याद दिलाया तमन्ना पर, जुरूर उसे कभी ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवायेंगें, वादा है. मनु जी जरुरत के मुकाबले तमन्ना ही सटीक है उपरोक्त शेर में, हमें तो ऐसा ही लगता है...चलिए अब आज की पहेली में सर खपाईये.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
sahi shabd hai shabnam
आज के सवाल का जवाब तो याद नही आ रहा
वैसे बहुत ही प्यारा गाना है ये
मुद्दतों गम पे गम उठाए हैं,
तब कहीं जाके मुस्कुराए हैं,
एक निगाह-ए-खुलूस के कारण,
ज़िंदगी भर फ़रेब खाए हैं।
तन्हा जी निगाह-ए-खुलूस का अर्थ क्या होता है?
सुमित जी ....आते रहे इस महफ़िल में....
शायद खुलूस शब्द आया है .. "खालिस" से यानी ...शुद्धता ..प्योरिटी... खालसा है जैसे...
मिलावट इस कदर शामिल हुई है जिंदगानी में,
के खालिस दूध से पेचिश, तो घी से बांस आती है,
मुझे भी गर्क कर देनी पड़ीं सच्चाइयां अपनी,
कहाँ अब अहले-दुनिया को, "खुलूसी" रास आती है,,,,
MUJHE HAIRAT BHI HUYI JAB HINDYUGM KE KISI STAMBH ME UNHE NA PAKER
AAJ AAPKA LEKH PADHKAR MAN PRASANNA HO GAYA
VAISE KHUMAR SAHAB NE 2-3 FILMO KE LIYE GEET BHI LIKHE HAIN 50 KE DASHAK ME JO BAHUT HI SUNDAR HAIN LATA JI KI AWAZ ME GAYE HUYE
BAHUT BAHUT ABHAR
MUJHE HAIRAT BHI HUYI JAB HINDYUGM KE KISI STAMBH ME UNHE NA PAKER
AAJ AAPKA LEKH PADHKAR MAN PRASANNA HO GAYA
VAISE KHUMAR SAHAB NE 2-3 FILMO KE LIYE GEET BHI LIKHE HAIN 50 KE DASHAK ME JO BAHUT HI SUNDAR HAIN LATA JI KI AWAZ ME GAYE HUYE
BAHUT BAHUT ABHAR
TO UNKO KAISE BHULAYA JA SAKTA LAZIM HAI KI SABHI SHAYAR UNSE WAQIF HONGE
YADI NAHI HAIN TO YE DUKHAD H KI ITNA BADA SHAYAR AKHIR KAISE BHULA DIYA GAYA
KAYI LOG NUSHAYRTE SUE KEVAL KHUMAR SAHAB KI VAJAH SE HI JATE THE
EK BAR KUNWAR MAHENDRA SING BEDI JI NE UN PAR TIPPADI KI UNKA NAAM KHUMAR NAHI SUROOR HONA CHAHIYE
VO MUSHAYRO KE PRATINIDH SHAYAR HUA KERTE THE
AUR US PAR UNKA GAZAL SUNANE KE JAN LEVA LAHZA
KHUDA UNKO JANNAT NASEEB KERE
"AKELE HAIN VOH JHUNJHLA REHE HAIN , MERI YAD SE JANG FARMA REHE HAIN"
BEDI SAHAB NE UNHE GALIB AUR MOMIN KA VARIS TAK BATAYA HAI
MERE PASS UNKE SARE UPLABDH MUSHAIRA VIDEOS HAI
BADI KHUSHI HUYI
HIND YUGM PAR DEKHKAR JANABE KHUMAR BARABANKWI KO
antatah yahi kehuga ki khumar sahab ke bina classical gazals ki bat humesha adhoori rehegi
jai ho janabe khumar barabankwi
" baharo me bhi kyon may se tauba,khumar aap kafir huye ja rehe hain"