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वाइस ऑफ़ हेवन - कोई बोले राम-राम, कोई खुदाए........नुसरत फ़तेह अली खान.

बात एक एल्बम की # 06

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर

आलेख प्रस्तुतीकरण - नीरज गुरु "बादल"

आज फिर नुसरत जी पर लिखने बैठा हूँ, समझ नहीं आता है कि क्या करूँ जो इस शख्स का नशा मुझ पर से उतर जाए. इनका हर सुर खुमारी का वो आलम लेकर आता है कि बस आँखें बंद हो जाती हैं, शरीर के कस-बल ढीले पड़ जाते हैं और एक गहरी ध्यान-मुद्रा में चला जाता हूँ. फिर लगता है कि कोई भी मुझे छेड़े नहीं. पर यह दुनिया है बाबा.....वो मुझे नहीं छोड़ती और यह नुसरत साहब मुझसे नहीं छूटते हैं. आज यही कशमकश मैं आपके साथ बाँटने निकला हूँ.

आज जिस नुसरत साहब को हम जानते हैं, उन्हें पाकिस्तानी मौसिकी का रत्न कहा जाता है, बात बड़ी लगती है-सही भी लगती है, पर मेरी नज़र में उन्हें विश्व-संगीत की अमूल्य धरोहर कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी. सूफियाना गायन ऐसा है कि कोई भी उसका दीवाना हो जाए, पर यह दीवानगी पैदा करने के लिए ही उस खुदा ने नुसरत जी को हमारे बीच भेजा था. उन्होंने क़व्वाली के ज़रिये, इस सूफियाना अंदाज़ को, जो इस भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ हिस्सों में ही मक़बूल था, दुनिया भर को दीवाना बनाने का काम किया है. उनकी क़व्वाली गायन का अंदाज़ ऐसा कि सुनने वाला तो नशे में खो ही जाता है, और जो उन्हें सामने गाता हुआ देखता है, तो यह नशा उसके साथ ता-उम्र के लिए ही ठहर जाता है. फिर आप लाख कोशिशे कर लें, नशा न उतरता है - न कहीं जाता है.

आम तौर पर क़व्वाली के बारे में माना जाता है कि यह सूफी संतों की मज़ारों पर गायी जाने वाली भक्ति गायन की एक विधा है, जिसका एक सीमित दायरा है. इसका एक खास तबका है और असर भी वहीँ तक सीमित है. यह ठीक भी है और एक हद तक सही भी था, पर १९३१ में फिल्मों के आगमन ने क़व्वाली की शक्ल ही बदल दी, अब क़व्वाली खुदा-ए-आलम, खुदा-ए-इश्क से बाहर आकर और भी नए मायने लिए अपने एक खास तबके से आगे निकल कर अन्य लोगों की भी हो गई. नए साज, नए उपकरण, नया माहौल, नए प्रयोगों ने क़व्वाली की दशा-दिशा ही बदल दी.

उसी दौर में एक शख्स ने बड़े चुपचाप अपना परिचय दिया, नुसरत फतह अली खान, पहले तो अपने पिता की शागिर्दी की फिर पिता के बाद अपने चचा उस्ताद मुबारक अली खान की शागिर्दी की, पहली बार मंच चचा ने ही दिया, पर १९७१ में चचा उस्ताद मुबारक अली खान की म्रत्यु के बाद जब नुसरत जी ने अपनी क़व्वाली पार्टी बनाई तो जैसे क़व्वाली के एक नए युग की शुरुआत हुई. इस पार्टी का नाम रखा गया,"नुसरत फ़तेह अली खान-मुजाहिद मुबारक अली खान एंड पार्टी".मुजाहिद उनके चचा के सुपुत्र. इस पार्टी ने अपना पहला कार्यक्रम, रेडियो पाकिस्तान के वार्षिक संगीत समारोह,"जश्न-ए-बहारा" के लिए दिया और क़व्वाली अपने घर से निकलकर दुनिया को अपना बनाने के लिए चल पड़ी.

बाद में ८० के दशक में बर्मिंघम-इंग्लैंड की कम्पनी -ओरियंटल स्टार ऐजेंसी ने नुसरत जी को साइन किया तो जैसे उनके लिए दुनिया के दरवाज़े खुल गए या और भी बेहतर कहूँ तो कह सकता हूँ कि उन्होंने अपने दरवाज़े दुनिया में संगीत के दीवानों के लिए खोल दिए. पीटर ग्रेबियल के "द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ़ क्राइस्ट" ने उन्हें पश्चिम के घर-घर तक पहुंचा दिया. उसके बाद तो जैसे ख्याल-ध्रुपद में रचे-बसे सुरों की बरसात ही शुरू हो गई हो,"रियल वर्ल्ड","मस्त-मस्त","स्टार राईस","द प्रेयर सायकल"......और फिर आप गिनते जाइये-गुनगुनाते जाइये. गिनिस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड के मुताबिक उनके क़व्वाली पर १२५ एल्बम हैं, इनमें उनके इस दुनिया-ए-फानी से रूखसती के बाद जारी एल्बम शामिल नहीं हैं. आप नशे का अन्दाज़ा लगा सकते हैं.

हिंदी फिल्मों में उन्होंने,"और प्यार हो गया",जिसमें वह खुद रूबरू थें,"कच्चे धागे", और विशेषकर "धड़कन" जिसकी क़व्वाली में "...धड़कन-धड़कन-धड़कन" का आरोह-अवरोह आप अपनी रूह तक महसूस कर सकते हैं. एक बेहद सतही फिल्म में इतना उच्च कोटी का गायन, संगीत रसिज्ञों को चौका देता है. दरअसल यही है नुसरत जी का कमाल. उन्होंने अपनी गायकी पर - क़व्वाली पर ढेरों प्रयोग किये, दुनिया के हर साज़ और मौसिकी के हर रंग को उन्होंने अपने लिए इस्तेमाल किया,पर कभी भी उसके चलते किसी भी कमतरी से कोई समझौता नहीं किया. इस फिल्म का यह गायन इसका सर्वश्रेष्ठ उदहारण है. तब जब उन्हें कोई "बाब मेर्लो ऑफ़ पाकिस्तान" या "एल्विस ऑफ़ ईस्ट" कहाता है तो मुझे बड़ा दुःख होता है.नुसरत जी, नुसरत जी हैं, उन्हें वही रहने दो, तुलना ज़रूरी है क्या?

हाँ,जब कोई उन्हें "वाइस ऑफ़ हेवन" कहता है तो बड़ा ही सुखद लगता है. खुदा की इस आवाज़ को और क्या कहेगें आप. एक लम्बी सूची है, उनके सुर-स्वर से सजी रचनाओं की. सोचता हूँ इस पर बात करूँ या उस पर बात करूँ. सब एक से बढ़कर एक धुनें हैं, राग हैं, ख्याल है, ध्रुपद हैं, उर्दू है, पंजाबी है, कहीं-कहीं अरबी-फ़ारसी भी है, दुनिया भर की लोक धुनों पर किये गए प्रयोग हैं, परम्परा और आधुनिक वाद्यों का संगम है, कई बार लगता है कि अरे, ऐसा भी है. सुनते-सुनते मुहँ से बेसाख्ता निकल पड़ता है तो सिर्फ एक ही लफ्ज़ - वाह. अगर आपने नुसरत जी के पापुलर एल्बम ही सुने हैं तो मेरी गुजारिश है कि और भी ढूंढे इस महान गायक की गायकी को और अपना जीवन धन्य बना लें, आखिर यह आवाज़ है जन्नत की-उस परवरदिगार की, जिसे कहा गया है -"वाइस ऑफ़ हेवन".

चलिए लौटते हैं हमारे फीचर्ड एल्बम की तरफ जहाँ नुसरत साहब का साथ दे रहे हैं गीतकार जावेद अख्तर. इसी "संगम" का रचा "आफरीन आफरीन" हम सुन चुके हैं, आज सुनिए दो और शानदार ग़ज़लें -

अब क्या सोचें क्या होना है....(इस ग़ज़ल में नुसरत साहब ने एक ऐसा माहौल रचा है जो आज की अनिश्चिताओं से भरी दुनिया में निर्णय लेने वाले हर शख्स के मन में पैदा होती है. ये गायिकी बेमिसाल है)



और अब सुनिए इसके ठीक विपरीत प्यार के उस पहले दौर की दास्ताँ इस गीत में -
आप से मिलके हम कुछ बदल से गए....



आने वाले सप्ताह में बातें करेंगे इस एल्बम के दूसरे फनकार जावेद अख्तर साहब की और सुनेंगें कुछ और रचनाएँ इसी एल्बम से. तब तक के लिए इजाज़त.


"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की. इस स्तम्भ को आप तक ला रहे हैं युवा स्तंभकार नीरज गुरु. यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.


Comments

neelam said…
mujjafar ali ji ke baare me aur unki raqs-e-bismil ke baare me bhi sunna chaahungi .

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