महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१२
आज हम जिस हस्ती की बात करने जा रहे हैं,उन्हें गज़ल-गायकी के क्षेत्र में शहंशाह कहा जाता है, गज़ल-प्रेमियों ने उन्हें शहंशाह-ए-गज़ल की उपाधि दी है। यह तो सब को पता होगा कि ८० के दशक तक पाकिस्तान में गज़लों से लबरेज फिल्में बनती थीं। हरेक फिल्म में कम-से-कम ३-४ गज़लों को जरूर स्थान मिलता था। उस दौर में अदाकार भी कम थे तो फ़िल्मों में गाने वाले गुलूकार भी। इसलिए कुछ लोगों का यह मानना हो सकता है कि गज़लों में नयापन और वज़न की कमी रहती होगी। लेकिन जब आप उस दौर के गज़लों को सुनेंगे तो आपकी सारी शंकाएँ पल में छू हो जाएँगी। भले हीं कम फ़नकार थे लेकिन उन फ़नकारों की आवाज़ में जो जादू था, जो दम था, वो अब कम हीं सुनने को मिलता है। यूँ तो हमारी आज की ह्स्ती ने फ़िल्मों में बस १९५६ से लेकर १९८६ तक हीं गाया है, लेकिन उन गज़लों का आज भी कोई सानी नहीं है।उन गज़लों को न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग एलबमों में "गोल्डन कलेक्शन" के नाम से रीलिज किया जा चुका है तो न जाने कितने हीं अन्य फ़नकारों ने उनपर अपना गला साफ़ किया है। इससे आप खुद हीं अंदाजा लगा सकते हैं कि वह हस्ती कितनी मकबूल है। उस हस्ती से जुड़ी एक मज़ेदार घटना है जो कला के कद्रदानों के दिल में कला का ओहदा साबित करती है। हमारे आज के फ़नकार जब नेपाल के राजदरबार में राजा "बिरेन्द्र बिक्रम शाह देव" के सामने "ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं" गज़ल पेश कर रहे थे, तो यकायक बीच की एक पंक्ति भूल गए। माहौल में कुछ खलबली मचती इससे पहले हीं राजा साहब खड़े हो गए हो और अगली पंक्ति गाने लगे|माहौल जस-का-तस हीं बना रहा...और गज़ल अपनी गति से बढती रही। किसी भी फ़नकार की ज़िंदगी में इससे बड़ी घटना क्या हो सकती है। इस फ़नकार को जनरल "अयूब खान" ने "तमगा-ए-इम्तियाज", जनरल "ज़िया-उल-हक़" ने "प्राइड औफ़ परफारमेंश" और जनरल "परवेज मु्शर्रफ़" ने "हिलाल-ए-इम्तियाज" से नवाजा है। अब आपके पास भी अवसर है, आप इन फ़नकार को पहचानें और अपनी मनपसंद उपाधि से नवाजें।
उम्मीद है अब तक पहचानने और नवाजने का काम हो चुका होगा...तो चलिए आगे बढते हैं। और अगर अब भी आपके मन में दो चार शंकाएँ हैं तो मैं हीं उस विशाल हस्ती के नाम से पर्दा हटाए देता हूँ। अपने पिता "उस्ताद अज़ीम खान" और अपने चाचा "उस्ताद इस्माईल खान" के शिष्य "खां साहब" उर्फ़ "मेंहदी हसन" साहब हीं हमारे आज के फ़नकार हैं। यूँ तो हिन्दुस्तान में "गुलाम अली" साहब का रूतबा ज्यादा है, लेकिन अगर वहाँ की बात करें जहाँ से ये सारे फ़नकार आते हैं (यानि कि पाकिस्तान) तो वहाँ मेंहदी हसन को पूजने वाले कहीं ज्यादा हैं। मुझे इसके दो कारण समझ आते हैं। एक कि मेंहदी हसन साहब ने ज्यादा गज़लें पाकिस्तानी फ़िल्मों के लिए हीं गाई हैं और दूसरा यह कि ८० के दशक के बाद खां साहब की तबियत बिगड़ती हीं चली गई और इस कारण संगीत से इनकी दूरी बढती गई। इन बातों को उठाने का मेरा मकसद यह नहीं है कि मैं "गुलाम अली" साहब की गायकी को कमतर साबित करना चाहता हूँ, दर-असल मैंने भी गुलाम अली साहब की गज़लॊं की तुलना में खां साहब की गज़लें कम हीं सुनी हैं और मैं जिस पीढी का हूँ, उस पीढी के ज्यादातर लोगों का यही हाल है, लेकिन अगर आप किसी भी पाकिस्तानी साईट या फोरम में चले जाएँ तो आपको इन दोनों गुलूकारों के रूतबा का अंदाजा लग जाएगा। यहाँ तक कि स्वर-कोकिला "लता मंगेशकर" ने भी खां साहब की आवाज़ को खुदा की आवाज कहा है। चलिए इस बात को हम यहीं छोड़ते हैं...क्योंकि हमें तो गज़ल से काम है और हम तो हर उस गुलूकार के प्रशंसक हैं, जिनकी आवाज़ में गज़ल ज़िंदा हो जाती है और यह तो इन दोनों हीं फ़नकारों के साथ होता है। अब लगे हाथ हम आज की गज़ल की ओर रुख करते हैं।
यूँ तो आज की गज़ल हमने "गोल्डन कलेक्शन: मेंहदी हसन" एलबम से ली है, लेकिन मैने जब इस गज़ल की जड़ों को ढूँढना शुरू किया तो कई सारे और भी एलबम मिलते गए, जिसमें इस गज़ल को शामिल किया गया था, यानी कि इनमें से कोई भी वह एलबम नहीं है जो दावा कर सके कि यह गज़ल इसी के लिए बनी थी। फिर ढूँढते-ढूँढते मैं १९६० की एक पाकिस्तानी फ़िल्म "अंजान" तक पहुँचा, जिसका विडियो मुझे यू-ट्युब पर भी मिल गया। चूँकि इससे पहले की किसी भी एलबम में यह गज़ल नहीं थी इसलिए मानना पड़ा कि यही ओरिजिनल गज़ल है। इस गज़ल को अपने संगीत से सजाया था "मंज़ूर असरफ़" ने और गज़लगो थे.....। इस गज़ल के गज़लगो कौन हैं, वह मैं लाख कोशिशों के बावजूद पता नहीं कर पाया, इसके लिए माफ़ी चाहूँगा। "गम साथ रह गए, मेरा साथी बिछड़ गया" - इससे बड़ा गम क्या हो सकता है कि गम को हरने वाला साथी हीं अब नहीं रहा, फिर कौन इन ज़ख्मों को भरेगा। जब साथी अपने पास था तो गमों में इतना माद्दा हीं कहाँ था कि मेरे पास भी भटक सके, लेकिन जब से मेरे साथी ने मुझसे मुँह फेरा है, मानो खुशियों ने हीं हमेशा के लिए खुदकुशी कर ली है। चलो मान भी लिया कि ये गम मेरी किस्मत में थे,लेकिन अब कौन बचा है जिसके कंधे पर सर रखकर इन सरचढे गमों का मातम करूँ?
गमों की इसी मनमानी को ध्यान में रखते हुए मैने कभी लिखा था:
गम नहीं कि गम यह मेरा हो गया है बेहया,
गम है ये कि गम जो बाँटे ना रहा वो मुस्तफ़ा।
गमों की तहरीर अगर लिखने चला तो न जाने कितने पन्ने काले हो जाएँगे फिर भी गमों का कला चिट्ठा नहीं खुलेगा, इसलिए अच्छा होगा कि हम खां साहब की आवाज़ में हीं गमों की कारस्तानी सुन लें:
गम साथ रह गए, मेरा साथी बिछड़ गया,
बर्बाद हो गई मेरी दुनिया, मैं चुप रहा।
अपनों ने गम दिए तो मुझे याद आ गया,
एक अजनबी जो गैर था और गम-गुसार था।
वो साथ था तो दुनिया के गम दिल से दूर थे,
खु्शियों को साथ लेकर न जाने कहाँ गया।
अब ज़िंदगी की कोई तमन्ना नहीं मुझे,
रौशन उसी के दम से था बुझता हुआ दीया।
दुनिया समझ रही है जुदा मुझसे हो गया,
नज़रों से दूर जाके भी दिल से न जा सका।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कल शब् मुझे एक शख्स की __ ने चौंका दिया,
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी...
आपके विकल्प हैं -
a} आवाज़ b) परछाई c) आहट d) पुकार.
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था "माँ" और सही शेर था -
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक...
सबसे पहले सही जवाब देकर "शान-ए-महफिल" बने मनु जी, अविनाश जी, रचना जी सलिल जी, नीलम जी और शन्नो जी भी पीछे नहीं रही, माँ शब्द ने सबको भावुक कर दिया, कुछ पुराने गीत याद हो आये तो कुछ मुन्नवर राणा के इन शेरों ने महफिल में समां बाँधा ...
किसी के हिस्से मकान आया, किसी के हिस्से दूकान आई,
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से माँ आयी....
और
"मुनव्वर" माँ के आगे इस तरह खुलकर नहीं रोना,
जहां बुनियाद हो,इतनी नमी अच्छी नहीं होती...
वाह ...इसी बहाने सबने एक बार फिर याद किया माँ को.....माँ दिवस की एक बार फिर बधाई...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज हम जिस हस्ती की बात करने जा रहे हैं,उन्हें गज़ल-गायकी के क्षेत्र में शहंशाह कहा जाता है, गज़ल-प्रेमियों ने उन्हें शहंशाह-ए-गज़ल की उपाधि दी है। यह तो सब को पता होगा कि ८० के दशक तक पाकिस्तान में गज़लों से लबरेज फिल्में बनती थीं। हरेक फिल्म में कम-से-कम ३-४ गज़लों को जरूर स्थान मिलता था। उस दौर में अदाकार भी कम थे तो फ़िल्मों में गाने वाले गुलूकार भी। इसलिए कुछ लोगों का यह मानना हो सकता है कि गज़लों में नयापन और वज़न की कमी रहती होगी। लेकिन जब आप उस दौर के गज़लों को सुनेंगे तो आपकी सारी शंकाएँ पल में छू हो जाएँगी। भले हीं कम फ़नकार थे लेकिन उन फ़नकारों की आवाज़ में जो जादू था, जो दम था, वो अब कम हीं सुनने को मिलता है। यूँ तो हमारी आज की ह्स्ती ने फ़िल्मों में बस १९५६ से लेकर १९८६ तक हीं गाया है, लेकिन उन गज़लों का आज भी कोई सानी नहीं है।उन गज़लों को न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग एलबमों में "गोल्डन कलेक्शन" के नाम से रीलिज किया जा चुका है तो न जाने कितने हीं अन्य फ़नकारों ने उनपर अपना गला साफ़ किया है। इससे आप खुद हीं अंदाजा लगा सकते हैं कि वह हस्ती कितनी मकबूल है। उस हस्ती से जुड़ी एक मज़ेदार घटना है जो कला के कद्रदानों के दिल में कला का ओहदा साबित करती है। हमारे आज के फ़नकार जब नेपाल के राजदरबार में राजा "बिरेन्द्र बिक्रम शाह देव" के सामने "ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं" गज़ल पेश कर रहे थे, तो यकायक बीच की एक पंक्ति भूल गए। माहौल में कुछ खलबली मचती इससे पहले हीं राजा साहब खड़े हो गए हो और अगली पंक्ति गाने लगे|माहौल जस-का-तस हीं बना रहा...और गज़ल अपनी गति से बढती रही। किसी भी फ़नकार की ज़िंदगी में इससे बड़ी घटना क्या हो सकती है। इस फ़नकार को जनरल "अयूब खान" ने "तमगा-ए-इम्तियाज", जनरल "ज़िया-उल-हक़" ने "प्राइड औफ़ परफारमेंश" और जनरल "परवेज मु्शर्रफ़" ने "हिलाल-ए-इम्तियाज" से नवाजा है। अब आपके पास भी अवसर है, आप इन फ़नकार को पहचानें और अपनी मनपसंद उपाधि से नवाजें।
उम्मीद है अब तक पहचानने और नवाजने का काम हो चुका होगा...तो चलिए आगे बढते हैं। और अगर अब भी आपके मन में दो चार शंकाएँ हैं तो मैं हीं उस विशाल हस्ती के नाम से पर्दा हटाए देता हूँ। अपने पिता "उस्ताद अज़ीम खान" और अपने चाचा "उस्ताद इस्माईल खान" के शिष्य "खां साहब" उर्फ़ "मेंहदी हसन" साहब हीं हमारे आज के फ़नकार हैं। यूँ तो हिन्दुस्तान में "गुलाम अली" साहब का रूतबा ज्यादा है, लेकिन अगर वहाँ की बात करें जहाँ से ये सारे फ़नकार आते हैं (यानि कि पाकिस्तान) तो वहाँ मेंहदी हसन को पूजने वाले कहीं ज्यादा हैं। मुझे इसके दो कारण समझ आते हैं। एक कि मेंहदी हसन साहब ने ज्यादा गज़लें पाकिस्तानी फ़िल्मों के लिए हीं गाई हैं और दूसरा यह कि ८० के दशक के बाद खां साहब की तबियत बिगड़ती हीं चली गई और इस कारण संगीत से इनकी दूरी बढती गई। इन बातों को उठाने का मेरा मकसद यह नहीं है कि मैं "गुलाम अली" साहब की गायकी को कमतर साबित करना चाहता हूँ, दर-असल मैंने भी गुलाम अली साहब की गज़लॊं की तुलना में खां साहब की गज़लें कम हीं सुनी हैं और मैं जिस पीढी का हूँ, उस पीढी के ज्यादातर लोगों का यही हाल है, लेकिन अगर आप किसी भी पाकिस्तानी साईट या फोरम में चले जाएँ तो आपको इन दोनों गुलूकारों के रूतबा का अंदाजा लग जाएगा। यहाँ तक कि स्वर-कोकिला "लता मंगेशकर" ने भी खां साहब की आवाज़ को खुदा की आवाज कहा है। चलिए इस बात को हम यहीं छोड़ते हैं...क्योंकि हमें तो गज़ल से काम है और हम तो हर उस गुलूकार के प्रशंसक हैं, जिनकी आवाज़ में गज़ल ज़िंदा हो जाती है और यह तो इन दोनों हीं फ़नकारों के साथ होता है। अब लगे हाथ हम आज की गज़ल की ओर रुख करते हैं।
यूँ तो आज की गज़ल हमने "गोल्डन कलेक्शन: मेंहदी हसन" एलबम से ली है, लेकिन मैने जब इस गज़ल की जड़ों को ढूँढना शुरू किया तो कई सारे और भी एलबम मिलते गए, जिसमें इस गज़ल को शामिल किया गया था, यानी कि इनमें से कोई भी वह एलबम नहीं है जो दावा कर सके कि यह गज़ल इसी के लिए बनी थी। फिर ढूँढते-ढूँढते मैं १९६० की एक पाकिस्तानी फ़िल्म "अंजान" तक पहुँचा, जिसका विडियो मुझे यू-ट्युब पर भी मिल गया। चूँकि इससे पहले की किसी भी एलबम में यह गज़ल नहीं थी इसलिए मानना पड़ा कि यही ओरिजिनल गज़ल है। इस गज़ल को अपने संगीत से सजाया था "मंज़ूर असरफ़" ने और गज़लगो थे.....। इस गज़ल के गज़लगो कौन हैं, वह मैं लाख कोशिशों के बावजूद पता नहीं कर पाया, इसके लिए माफ़ी चाहूँगा। "गम साथ रह गए, मेरा साथी बिछड़ गया" - इससे बड़ा गम क्या हो सकता है कि गम को हरने वाला साथी हीं अब नहीं रहा, फिर कौन इन ज़ख्मों को भरेगा। जब साथी अपने पास था तो गमों में इतना माद्दा हीं कहाँ था कि मेरे पास भी भटक सके, लेकिन जब से मेरे साथी ने मुझसे मुँह फेरा है, मानो खुशियों ने हीं हमेशा के लिए खुदकुशी कर ली है। चलो मान भी लिया कि ये गम मेरी किस्मत में थे,लेकिन अब कौन बचा है जिसके कंधे पर सर रखकर इन सरचढे गमों का मातम करूँ?
गमों की इसी मनमानी को ध्यान में रखते हुए मैने कभी लिखा था:
गम नहीं कि गम यह मेरा हो गया है बेहया,
गम है ये कि गम जो बाँटे ना रहा वो मुस्तफ़ा।
गमों की तहरीर अगर लिखने चला तो न जाने कितने पन्ने काले हो जाएँगे फिर भी गमों का कला चिट्ठा नहीं खुलेगा, इसलिए अच्छा होगा कि हम खां साहब की आवाज़ में हीं गमों की कारस्तानी सुन लें:
गम साथ रह गए, मेरा साथी बिछड़ गया,
बर्बाद हो गई मेरी दुनिया, मैं चुप रहा।
अपनों ने गम दिए तो मुझे याद आ गया,
एक अजनबी जो गैर था और गम-गुसार था।
वो साथ था तो दुनिया के गम दिल से दूर थे,
खु्शियों को साथ लेकर न जाने कहाँ गया।
अब ज़िंदगी की कोई तमन्ना नहीं मुझे,
रौशन उसी के दम से था बुझता हुआ दीया।
दुनिया समझ रही है जुदा मुझसे हो गया,
नज़रों से दूर जाके भी दिल से न जा सका।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कल शब् मुझे एक शख्स की __ ने चौंका दिया,
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी...
आपके विकल्प हैं -
a} आवाज़ b) परछाई c) आहट d) पुकार.
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का सही शब्द था "माँ" और सही शेर था -
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक...
सबसे पहले सही जवाब देकर "शान-ए-महफिल" बने मनु जी, अविनाश जी, रचना जी सलिल जी, नीलम जी और शन्नो जी भी पीछे नहीं रही, माँ शब्द ने सबको भावुक कर दिया, कुछ पुराने गीत याद हो आये तो कुछ मुन्नवर राणा के इन शेरों ने महफिल में समां बाँधा ...
किसी के हिस्से मकान आया, किसी के हिस्से दूकान आई,
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से माँ आयी....
और
"मुनव्वर" माँ के आगे इस तरह खुलकर नहीं रोना,
जहां बुनियाद हो,इतनी नमी अच्छी नहीं होती...
वाह ...इसी बहाने सबने एक बार फिर याद किया माँ को.....माँ दिवस की एक बार फिर बधाई...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
आवाज़
एक बहुत ही खूबसूरत सी ग़ज़ल को खान साहिब की दिल को छूने वाली आवाज़ में सुनवाने का बहुत शुक्रिया. बार-बार इस ग़ज़ल को सुनने को मन करेगा.
ये दिल आवाज देकर जब बुलाए तो चले आना,
अगर गुजरा ज़माना याद आए तो चले आना,
आप अपनी आहट पर ही कायम रहे,,,,नेता लोगों की तरह पलटी ना खाएं,,,,,
नजर राहों पे रखना और रखना कान "आहट" पर,
मगर कानों में मच्छर गुनगुनाए तो चले आना
बदलना मत ,कभी भी दल, किसी नेता के जैसे तुम
मगर "आहट" से भी "आवाज" आए तो चले आना
गलत बात ,,,गलत बात,,,,
ये कोई नीलम जी वाली पहेलियाँ नहीं हैं ,,जो यूं सरे आम आप हमें टीप लेंगी,,,,,
तनहा जी,,नोट कर के रखिये,,,इनका जवाब "आहट" ही है,,,,
ऐ दुश्मने तमन्ना इसका जवाब दे दे ,
ये हाँ बने तो क्या हो ,मरता हूँ जिस नहीं पर|
kahiye waah waah ,shanno ji kaisa laga bataayiyega jaroor .
मेरा फेवरिट शेर है ये तो,,,,
पर शन्नो जी लगी होंगी किसी और नयी पार्टी में,,,
कन्फ्यूज कर रहे थे "आवाज" और "आहट"
शन्नो टहल रहीं हैं अब और ही कहीं पर,
दल बदलने के लिए,,,,,,( और मुझे नेता कहतीं थीं )
हो,,हो,,,हो,,,,हो,,,,,,,,,
अजी क्या बात करते हैं आप दोनों. क्या शेर लिखे हैं आपने......वल्लाह!
और आपकी आहट सुनी तो हम फिर चले आये रे ये ये ये .....
और:
आप से ही तो सीखें हैं बदलने पैंतरे हमने
कभी थाली के बैगन बन कर लुढ़क जाते हैं.
आपकी ''आहट'' सुनते ही ''आवाज़'' पर
हम ''आहट'' को नहीं अब ''आवाज़' को लाये हैं.
दो मच्छरों की ''आवाज़'' सुनी कानों में तो
हम भी कुछ अपनी भुनभुनाने चले आये यहाँ.
आपके शेर वजनी और ''आवाज़'' वाले हैं, फिर भी
वह मेरे मच्छरों की ''आहट'' सुन के घबरा जाते हैं.
वल्लाह!!!!
mujhko is raat ki tanhaee men awaz n do.
jiski awaz rula de mujhe vo saaz n do..
naam bhool jayega, chehra bhee badal jayega.
meree awaz hee pahchan hai, gar yaad rahe..
dastak degi dil par awaz 'salil; ki sunana.
na samajh sako to, chup ho matlab ko thoda gunana..
आप सब लोगों के वजनी शेरों के क्या कहने
मेरे तो मच्छरों की तरह कुचल दिए जाते हैं
क्या किसी ने गौर किया है कुछ लोग बराबर
अब आवाज़ पर अंग्रेजी में शेर लिख के लाते हैं.
मनु जी, अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ऐसा लगता है कि हमें कोई दोहा कक्षा की याद करवा रहा है. या अल्ल्लाह!
hum phool sahi,patthar bhi hataaeynge teri raah ke sabhi
ek baar hume aawaj to laga ke dekh kabhi .
ab aap log rahne hi dijiye ,hum apne aap ko shaabashi khud hi delete hain .
tanha ji itni bakwaas kaafi hai yaa abhi aur likhte rahen ,jaisa aap aadesh karen ,
जरा ढंग से नज़र डालिए मेरे शेरों (मच्छरों) की तरफ वहां कुछ देर पहले मैंने आप लोगों को आवाज़ दी है.