Skip to main content

तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ.....अपने आप में अनूठा है नवरंग का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 68

'नवरंग' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है। वी. शांताराम ने १९५५ में 'म्युज़िकल' फ़िल्म बनाई थी 'झनक झनक पायल बाजे'। गोपीकिशन और संध्या के अभिनय और नृत्य तथा वसंत देसाई के जादूई संगीत ने इस फ़िल्म को एक बहुत ऊँचा मुक़ाम दिलवाया था। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांतारामजी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीतप्रधान फ़िल्म बनाने की सोची। यह फ़िल्म थी 'नवरंग'। महिपाल और संध्या इस फ़िल्म के कलाकार थे और संगीत का भार इस बार दिया गया अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र को। फ़िल्म के गाने लिखे भरत व्यास ने। आशा भोंसले और मन्ना डे के साथ साथ नवोदित गायक महेन्द्र कपूर को भी इस फ़िल्म में गाने का मौका मिला। बल्कि इस फ़िल्म को महेन्द्र कपूर की पहली 'हिट' फ़िल्म भी कहा जा सकता है। लेकिन आज हमने इस फ़िल्म का जो गीत चुना है उसे आशाजी और मन्नादा ने गाया है। यह गीत अपने आप में बिल्कुल अनूठा है। इस गीत को यादगार बनाने में गीतकार भरत व्यास के बोलों का उतना ही हाथ था जितना की सी. रामचन्द्र के संगीत का। ऐसा अकसर देखा गया है कि जब भी कुछ मुश्किल या फिर बहुत ज़्यादा शास्त्रीय रंग वाले गीत बनते थे तो संगीतकार की पहली पसंद होती है मन्नादा की आवाज़। यह गीत भी उन्ही में से एक है। सिर्फ़ मन्ना डे ने ही नहीं बल्कि आशाजी ने भी क्या ख़ूब गाया है इस गीत को।

इस गीत की एक और ख़ासीयत है इसका संगीत संयोजन। इस गीत में शहनाई मुख्य साज़ के रूप में पेश किया गया जिसे बजाया था प्रसिद्ध शहनाई और बाँसुरी वादक रामलाल चौधरी, जिन्हे आप संगीतकार रामलाल के नाम से भी जानते होंगे। इन्होने बहुत सारे फ़िल्मों में शाहनाई और बाँसुरी बजाये हैं जिनमें प्रमुख नाम हैं 'आग', 'मुग़ल-ए-आज़म' और 'नवरंग'। ख़ासकर 'नवरंग' फ़िल्म के इस गाने में उनकी शहनाई का प्रभाव इतना ज़्यादा है कि जब लोग इस गीत को गुनगुनाते हैं तो साथ में शहनाई पर बजाये पीस को भी गुनगुना जाते हैं। इस पीस का असर इस गाने में इतना ज़्यादा है कि अगर इसे गाने से हटा दिया जाये तो शायद गाने की आधी चमक ही चली जाए! अगर आप ने इस गीत को फ़िल्म में देखा है तो आपको याद होगा कि बड़े-बड़े घंटों का इस्तेमाल किया गया था और इस गाने का फ़िल्मांकन भी उस ज़माने की मौजूदा तकनीकी दृष्टि से काफ़ी उन्नत था। कुल ७ मिनट ५२ सेकन्ड्स अवधि का यह गीत अपने आप में अद्वितीय है। तो लीजिये पेश-ए-ख़िदमत है आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में "तू छुपी है कहाँ...."



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. जय राज और उषा किरण थे इस फिल्म के कलाकार.
२. असित सेन का निर्देशन था और सलिल दा का संगीत.
३. गर्मी का मौसम है पर ये गीत बरसते बादलों सी ठंडक लिए हुए है..

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी मनु जी एकदम सही जवाब...बहुत बहुत बधाई...शन्नो जी और आचार्य जी गीत पसंद करने के लिए और त्रुटि सुधार के लिए धन्येवाद. भरत पांडया जी दरअसल मेल को पहुँचने में थोडा समय लग ही जाता है, पर आप जवाब दिया कीजिये...बिना इस बात की फ़िक्र किये कि कोई और जवाब दे चुका है, हाँ इस बार आपका जवाब सही नहीं है, फिल्म जरूर सही बता गए आप. आज फिर कोशिश कीजिये.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.


Comments

Parag said…
सुजय जी सचमुच यह नवरंग फिल्म का गीत अदभुत हैं. लता जी से अलगाव होने के बाद यह अन्ना साहब की एक ही हिट फिल्म थी.

आज की पहेली का जवाब थोडा कठीन है मगर प्रयास कर रहा हूँ. फिल्म है परिवार जोह १९५६ में बनी थी और गीत के बोल हैं " झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो". इसे गाया था लता जी और हेमंत कुमार साहब ने सलील्दा के संगीत निर्देशन में. गीत के बोल लिखे हैं शैलेन्द्र जी ने.

आभारी
पराग सांकला
नवरंग का गीत आनंद दे गया. पहेली के बारे में नहीं जानता.
manu said…
कमाल है पराग जी,,,,
आप तो इन जानकारियों का सागर हैं,,,
हमें तो कभी पता ना चलता इस का जवाब,,,
sumit said…
ये तो सचमुच बहुत मुशकिल पहेली है ये गाना तो मैने सुना ही नही
तू छूपी है कहाँ, ये गाना मैने रेडियो पर कई बार सुना है पर आज सुन नही पा रहा प्लेयर दिख तो रहा है पर चल नही रहा
पराग जी,
मैं भी शैलेश जी की बात का समर्थन करता हूँ। शुरू-शुरू में मैने भी दो-तीन बार यह काम किया था। और मेरी मानिये गूगल सर्च करना किसी वेबसाईट पर जाने से ज्यादा आसान है,गूगल के पास हर सवाल का जवाब है। इसलिए आप गूगल सर्च की मदद लेंगे तो हर बार अव्वल आएँगे, लेकिन क्या यह सही है?

मैने सजीव जी और मनु जी से बात करने के बाद खुद महसूस किया कि मैं गलत था , इसलिए छोड़ दिया। अब आपसे भी आग्रह करता हूँ कि अगर आपको जवाब पता हो तो तत्क्षण जवाब दे दें , नहीं तो दूसरो को अपने स्वाभाविक ज्ञान का इस्तेमाल करने दें।

शैलेश जी ने लिखा है कि आप दस-ग्यारह घंटों के बाद गूगल से ढूँढा हुआ जवाब डाल सकते है,लेकिन मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ,क्योंकि दस घंटों के बाद दिया हुआ जवाब भी आपका हीं जवाब माना जाएगा, जबकि वह आपका जवाब नहीं है, गूगल का है। और अगली कड़ी में शाबाशी देते हुए कहीं भी यह जिक्र नहीं होगा कि फलाने साहब ने गूगल से ढूँढ कर यह जवाब दिया है। वैसे यह मेरा मत है। आप अपने निर्णय को स्वतंत्र हैं :)

-विश्व दीपक
Parag said…
शैलेश जी और विश्व दीपक जी

मैं आप दोनोकी राय से सहमत हूँ. वैसे आज की पहेली के लिए पहली बार मैंने सर्च वेबसाइट्स का उपयोग किया है. आगेसे इस बात का ध्यान जरूर रखूंगा.

आप का आभारी
पराग
BHARAT PANDYA said…
pahli ka javab
jhir jhir jhir jhir badarava barse ho kare kare
Hemant/Lata film parivaar
(actor ka naam P.Jairaj likhana chahiye kyonki jairaj naanka dusara actor bhi tha jisane Ardh Sayta aur dusari filmome chhote role kiyethe)
ndvyas said…
Postings in "Old is gold" are always very intresting. Thanks for providing some unknown information about singers and composers. If possible add details about 'raag' in which song is composed. Also write about some very fine "beuties"(Raag ki lakshanikta) of the raag.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की