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शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट.. बाबा नागार्जुन की हुंकार के साथ आईये करें गणतंत्र दिवस का स्वागत

महफ़िल-ए-ग़ज़ल ०२


बचपन बीत जाता है, बचपना नहीं जाता। बचपन की कुछ यादें, कुछ बातें साथ-साथ आ जाती हैं। उम्र की पगडंडियों पर चलते-चलते उन बातों को गुनगुनाते रहो तो सफ़र सुकून से कटता है। बचपन की ऐसी हीं दो यादें जो मेरे साथ आ गई हैं उनमें पहली है कक्षा सातवीं से बारहवीं तक (हाँ मेरे लिए बारहवीं भी बचपन का हीं हिस्सा है) पढी हुईं हिन्दी कविताएँ और दूसरी है साल में कम-से-कम तीन दिन देशभक्त हो जाना। आज २६ जनवरी है तो सोचा कि इन दो यादों को एक साथ पिरोकर एक ऐसे कवि और उनकी ऐसी कविताओं का ताना-बाना बुना जाए जिससे महफ़िल की पहचान बढे और आज के लिए थोड़ी बदले भी (बदलने की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि आज की महफ़िल में उर्दू की कोई ग़ज़ल नहीं, बल्कि हिन्दी की कुछ कविताएँ हैं)



मैंने बचपन की किताबों में कईयों को पढा और उनमें से कुछ ने अंदर तक पैठ भी हासिल की। ऐसे घुसपैठियों में सबसे आगे रहे बाबा नागार्जुन यानि कि ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा के वैद्यनाथ मिश्र। अभी तक कंठस्थ है मुझे "बादल को घिरते देखा है"।


शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल 
मुखरित देवदारु कनन में, 
शोणित धवल भोज पत्रों से 
छाई हुई कुटी के भीतर, 
रंग-बिरंगे और सुगंधित 
फूलों की कुंतल को साजे, 
इंद्रनील की माला डाले 
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में, 
कानों में कुवलय लटकाए, 
शतदल लाल कमल वेणी में, 
रजत-रचित मणि खचित कलामय 
पान पात्र द्राक्षासव पूरित 
रखे सामने अपने-अपने 
लोहित चंदन की त्रिपटी पर, 
नरम निदाग बाल कस्तूरी 
मृगछालों पर पलथी मारे 
मदिरारुण आखों वाले उन 
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की 
मृदुल मनोरम अँगुलियों को 
वंशी पर फिरते देखा है।


एक साँस में इतना कुछ लिख और पढ जाना मेरे लिए नामुमकिन के बराबर था(है)। और ऊपर से... सारे बिंब अतुलनीय। "कहाँ गया धनपति कुबेर वह, कहाँ गई उसकी वह अल्का.. नहीं ठिकाना कालिदास के व्योमप्रवाही गंगाजल का"... ईमानदारी से कहूँ तो यह बाबा नागार्जुन हीं थे जिन्होंने मुझे कालिदास से जोड़ा। मेरे हिसाब से वे कालिदास के मुँहलग्गु थे.. तभी तो उन्होंने कालिदास से सीधे-सीधे पूछ लिया कि:


वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका 
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का 
देख गगन में श्याम घन-घटा 
विधुर यक्ष का मन जब उचटा 
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर 
चित्रकूट से सुभग शिखर पर 
उस बेचारे ने भेजा था 
जिनके ही द्वारा संदेशा 
उन पुष्करावर्त मेघों का 
साथी बनकर उड़ने वाले 
कालिदास! सच-सच बतलाना 
पर पीड़ा से पूर-पूर हो 
थक-थककर औ' चूर-चूर हो 
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर 
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे? 
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!


ये दो कविताएँ महज कविताएँ नहीं मेरे लिए हिन्दी साहित्य का मुख्यद्वार थीं। साहित्य में मेरी अभिरूचि पैदा हुई तो बाबा की दूसरी कविताओं को ढूँढ कर पढना शुरू किया। और अब जो बाबा मेरे सामने मौजूद थे, वे पहले के बाबा से निपट उल्टे थे। भारी-भरकम संस्कृतमय हिन्दी के शब्दों को गूंथने वाले बाबा को मैंने जब यह कहते सुना कि:


आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी, 
यही हुई है राय जवाहरलाल की 


इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको? 
सत्ता की मस्ती में, भूल गई बाप को?


या फिर "भाई मोरारजी" को श्रद्धांजलि देती हुई ये पंक्तियां पढीं:


हाय तुम्हारे बिना लगेगा सूना यह संसार जी, 
गिरवी कौन रखेगा हमको सात समंदर पार जी


तो मालूम चला कि बाबा का असल रूप यही है। "खिचड़ी विप्लव देखा हमने" नाम के कविता-संग्रह में उन्होंने इंमरजेंसी के पक्ष और विपक्ष दोनों की जो बघ्घियां उधेड़ी हैं, उसका सानी कहीं नहीं.. कोई नहीं। न यकीन आए तो "जाने तुम कैसी डायन हो" और "तुनुक मिजाजी नहीं चलेगी" नाम की ये दो कविताएँ देखें। बाबा किसी एक विचारधारा से बंधे ने थे, वे जनवादी थे, जनता के लिए लिखते थे और हमेशा जनता के साथ खड़े होते थे। तभी तो इमरजेंसी के खिलाफ हुए "संपूर्णक्रांति आंदोलन" में जेल जाने के बावजूद जब उन्हें लगा कि आंदोलन दिशाहीन हो रहा है तो उन्होंने "जयप्रकाश नारायण" को संबोधित करते हुए कहा कि:


खिचड़ी विप्लव देखा हमने, 
भोगा हमने क्रांति विलास,
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास?


बाबा अपने जीवनकाल में हर अन्याय के खिलाफ मुखर रहे। अपनी बातों को व्यंग्य के रूप में पेश करने में उनका कोई जवाब न था। उनके मन में जो आया,  उन्होंने सो लिखा। आज हम आपके लिए उनकी ऐसी हीं एक रचना लेकर आए हैं जो क्रांति, शांति, भाषण, प्रवचन और घोषणाओं जैसे हर एक गोरखधंधे पर कुठाराघात करती है।


भागलपुर के सुलतानगंज में जन्मे संजय झा की एक अदना-सी कोशिश थी "स्ट्रिंग्स.. बाउंड बाई फेथ" नाम की फिल्म। कुंभ मेले पर आधारित यह फिल्म कुंभ के साधुओं के विरोध के कारण रीलिज तो नहीं हो पाई, लेकिन इस फिल्म के एक गाने ने बाबा के विध्वंसक शब्दों की वज़ह से सबका (कम से कम मेरा) ध्यान खींचा। इस गाने को अपने अलहदा और हुंकारमय संगीत से सजाया है ज़ुबिन गर्ग ने और आवाज़ें हैं खुद ज़ुबिन, सौरन रॉय चौधरी और आजकल पापोन के नाम से लोकप्रिय अंगरंग महंता की।


ॐ के आह्वान के साथ "हमेशा-हमेशा राज करेगा मेरा पोता" (इशारा तो समझ हीं रहे होंगे) जैसा व्यंग्य, "शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट" जैसी हुंकार और "इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा" जैसा विषाद महसूस करते चलें तो आज के दिन बाबा को याद करने/कराने की मेरी कोशिश सफल हो जाएगी।

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..
ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌...
ॐ प्रव‌च‌न‌...
ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार
ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे

ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात
ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌

ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः
ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ
ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌
ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌

ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली
ॐ अप‌नी _________
ॐ दुश्म‌नों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट
ॐ श‌त्रुओं की छाती पर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली
ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड

ॐ ॐ ॐ
ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌
ॐ अष्ट‌धातुओं के ईंटो के भ‌ट्टे
ॐ म‌हाम‌हिम, म‌हम‌हो उल्लू के प‌ट्ठे
ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
ॐ इसी पेट के अन्द‌र स‌मा जाय स‌र्व‌हारा
ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त‌


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
यदि आप इस गाने/ग़ज़ल/नज़्म को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

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खेल महफ़िल का:

जो भी महफ़िल-ए-ग़ज़ल के पुराने श्रोता हैं वो यह जानते होंगे कि गायब शब्द का मतलब क्या है। जो नए हैं उन्हें बता दें कि हम हर कड़ी में पेश की गई ग़ज़ल/नज़्म/कविता से एक शब्द हटा दिया करेंगे, जिसको लेकर पाठकों को या तो खुद से कुछ लिखना है या किसी नामचीन ग़ज़लगो/कवि की वे पंक्तियाँ टिप्पणी में डालनी हैं जिसमें यह शब्द मौजूद हो। तो अब आपकी बारी है..... खेल शुरू किया जाए!!!



पुराना हिसाब:

सही शब्द:  क़तरा
बधाईयाँ:  रीतेश जी
चंद शेर:

तुझको एक क़तरा भी न ग़म मिले,
अपना हक़ तमाम लिया है इसलिए - रीतेश जी

इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना - चचा ग़ालिब


तो चलिए गिरता है आज की महफ़िल का परदा।

साक़ी-ए-महफ़िल-  विश्व दीपक

Comments

Smart Indian said…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
Archana Chaoji said…
बेहतरीन ...वाकई बेहतरीन...

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