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हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद... राही मासूम रज़ा, जगजीत-चित्रा एवं आबिदा परवीन के साथ

"मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद" - बस इस पंक्ति से हीं राही साहब ने अपने चाँद के दु:ख का पारावार खड़ कर दिया है। चाँद शायरों और कवियों के लिए वैसे हीं हमेशा प्रिय रहा है और इस एक चाँद को हर कलमकार ने अलग-अलग तरीके से पेश किया है। अधिकतर जगहों पर चाँद एक महबूबा है और शायद(?) यहाँ भी वही है।

महफ़िल-ए-ग़ज़ल ०१

तो लीजिए साल की पहली महफ़िल-ए-ग़ज़ल के साथ हाज़िर हूँ मैं। मुझे मालूम है कि पिछली महफ़िल-ए-ग़ज़ल (जो कि आवाज़ पर थी) के आए छह महिने से ज्यादा हो गए, इसलिए शायद इस श्रृंखला के सुधि पाठक एवं श्रोता मुझसे कुछ नाराज़ भी हों। आप सब की नाराज़गी जायज है, लेकिन कुछ चीजें अपने हाथ में नहीं होती। मैं उन्हीं चीजों को वापस रस्ते पर लाने की कोशिश में था। वे सारी चीजें कितनी रस्ते पर आईं और कितनी नहीं, ये तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन हाँ मैं अपने आपको सहेजने और समेटने में काफी हद तक सफल हो गया। धन्यवाद! धन्यवाद! यह आप सब की दुआओं का हीं परिणाम है। चलिए तो इसी खुशी और संतुष्टि के साथ हम नए वर्ष में प्रवेश करते हैं और इस नए साल का स्वागत  हरिवंश राय बच्चन साहब के लिखे इस कविता से करते हैं:

वर्ष नव
हर्ष नव
जीवन उत्कर्ष नव

नव उमंग
नव तरंग
जीवन का नव प्रसंग

नवल चाह
नवल राह
जीवन का प्रवाह

गीत नवल
प्रीति नवल
जीवन की नीति नवल
जीवन की रीति नवल
जीवन की जीत नवल

वर्ष नव
हर्ष नव....

जब भी नया साल आता है, तो हम कुछ न कुछ नया करने का प्रण लेते हैं। ये प्रण अलग-अलग इंसान के लिए अलग-अलग तरह के होते हैं। लेकिन हम जैसे परदेशियों के लिए सबसे पहला प्रण यही होता है कि जल्द हीं अपने घर के लिए कूच करेंगे। हम सोचते तो यही हैं कि इस बार परदेश छोड़कर हमेशा के लिए अपने "देस" के लिए रवाना हो लेंगे लेकिन ऐसा होता नहीं कभी। फिर भी अगर बस कुछ दिनों के लिए हीं देस के दर्शन हो लें तो हम इसी से अपना मन भर लेते हैं। यह प्रण सदियों से चलता आ रहा है और जब तक देश-परदेश की बातें रहेंगीं तब तक चलता रहेगा।

यह प्रण, यह विचार तब और भी भयावह और असहनीय रूप ले लेता है, जब घर पर कोई आपके इंतज़ार में हो। चूँकि मैं भोजपुरी प्रदेश से आता हूँ तो मैंने "पलायन" को बड़े ऊँचे स्तर पर देखा है और जब भी इस पलायन की बात आती है तो मुझे "भोजपुरी" के "मृदुल गायक" मनोज तिवारी के इस गाने की बरबस और अनायास हीं याद आ जाती है। मुझे यकीन है कि आप सब ने इस गाने को सुना न होगा। मेरी दरख्वास्त है कि एक बार इसे ज़रुर सुनें:

हम बानि परदेस में घर में रोअत होइहें चाँद,
होली दिवाली चैत के रस्ता जोहत होइहें चाँद..

पेट के अइसन निरमम माया,
गाँव छोड़ा के कइलस पराया,
हम परिवार के रोटी खातिर,
एक अदद रोटी के खातिर अइलीहीं गैर के मांद,
हम बानि परदेस में घर में रोअत होइहें चाँद.

चउकी चुल्हा बासन बरतन,
सबके खिलावत थाकत होइ तन,
दिन में का रतियों में शायद सोअत होइहें चाँद,
हम बानि परदेस में घर में रोअत होइहें चाँद.

माई के जारि सहि जइहें,
ननदि के गारि सहि जइहें,
जब जब याद परत होई हमरा,
जब जब याद परत होई आँसू बहोरत होइहें चाँद,
हम बानि परदेस में घर में रोअत होइहें चाँद.

चिट्ठिया में बस आँसू भेजावे रोअत होइहें चाँद..





इस गाने की पहली पंक्ति से हीं आपको मालूम चल गया होगा कि इसे राही मासूम रज़ा साहब की प्रसिद्ध ग़ज़ल "हम तो हैं परदेश में  देस में निकला होगा चाँद" पर आधारित करके लिखा गया है। चलिए तो अब हम मूल ग़ज़ल की ओर हीं रुख कर लेते हैं। "मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद" - बस इस पंक्ति से हीं राही साहब ने अपने चाँद के दु:ख का पारावार खड़ कर दिया है। चाँद शायरों और कवियों के लिए वैसे हीं हमेशा प्रिय रहा है और इस एक चाँद को हर कलमकार ने अलग-अलग तरीके से पेश किया है। अधिकतर जगहों पर चाँद एक महबूबा है और शायद(?) यहाँ भी वही है।

हम राही साहब की यह ग़ज़ल पढें और सुनें इससे पहले इनके बारे में थोड़ी जानकारी हासिल कर ली जाए। जिन्होंने इनका नाम तक न सुना हो (ऐसे शायद हीं कोई हों), उनके लिए इतना हीं काफी होगा कि ये वही महानुभाव हैं जिन्होंने "महाभारत" की पटकथा लिखी थी और "गीता" के गूढ रहस्यों को सरल (कुछ-कुछ संस्कृतमय) हिन्दी में अनुवादित किया था। ऐसा अनुवाद किया कि अटल जी तक नत-मस्तक हो गए।  ऐसा अनुवाद किया कि राजीव गाँधी ने उन्हें दिल्ली बुला डाला। अटल जी का आरोप था कि राही साहब महाभारत को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं और कृष्ण के चरित्र को ट्विस्ट करके दिखा रहे हैं। राही साहब ने अटल जी को फोन किया और पूछा कि क्या आपने सच में ये कहा है। अटल जी के हाँ कहने पर राही साहब उनपर बिगड़ गए और कहा कि आप झूठ बोलते हैं। आपने अगर महाभारत पढी होती तो आप जैसा पढा-लिखा इंसान ऐसा बेहूदा बयान नहीं देता। यह सुनकर अटल जी लाजवाब हो गए। ज्ञात हो कि राही साहब ने महाभारत को खुद सौ से अधिक बार पढा था और वो भी हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और फारसी जैसी भिन्न-भिन्न भाषाओं में। राही साहब ने गीता के उपदेश पर नौ एपिसोड्स लिखे थे। इन्हीं कड़ियों को देखकर राजीव जी इस सोच में पड़ गए कि कहीं गीता का जन्म और कर्म वाला उपदेश उनके ऊपर चोट करने के लिए तो नहीं लिखा गया। राही जी ने उन्हें समझाया कि गीता का मूल उपदेश यही है कि इंसान कर्म से बड़ा होता है, जन्म से नहीं.. और मैंने तो बस अनुवाद किया है। (काश राजीव जी और पूरा गाँधी परिवार यह उपदेश समझ गया होता!!!!!)

राही साहब के बारे में हम बाकी बातें अगली किसी कड़ी में करेंगे। अभी तो इस ग़ज़ल का आनंद लिया जाए, जिसे जगजीत सिंह जी और उनकी धर्मपत्नी चित्रा सिंह जी ने अपनी आवाज़ें दी हैं:

हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद,
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद।

मेरे चुप रह जाने को क्या समझा होगा चाँद,
अब लोगों से जाने क्या-क्या कहता होगा चाँद।

जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात,
उनमें शायद अब आँसू का ________ होगा चाँद।

हिज्र की सारी रात पड़ी है आओ करें कुछ बात,
ठण्डी हवाओं! तुमने तो अक्सर देखा होगा चाँद।

रात ने ऐसा पेंच लगाया टूटी हाथ की डोर,
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद।

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते,
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद।




और यह रही वही ग़ज़ल आबिदा परवीन जी की आवाज़ में..




चलिए तो मुझे अब विदा दीजिए। जो भी महफ़िल-ए-ग़ज़ल के पुराने श्रोता हैं वो यह जानते होंगे कि गायब शब्द का मतलब क्या है। जो नए हैं उन्हें बता दें कि हम हर कड़ी में पेश की गई ग़ज़ल से एक शब्द हटा दिया करेंगे, जिसको लेकर पाठकों को या तो खुद से कुछ लिखना है या किसी नामचीन ग़ज़लगो/कवि की वे पंक्तियाँ टिप्पणी में डालनी हैं जिसमें यह शब्द मौजूद हो। तो अब आपकी बारी है..... खेल शुरू किया जाए!!!


और हाँ टिप्पणी से यह सूचित ज़रूर कीजिएगा कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल की यह नई कड़ी आपको कैसी लगी...


आपकी इस महफ़िल का साथी- विश्व दीपक

Comments

Sajeev said…
welcome back vd, is mahfil ko bahut miss kiya tha hamne, bhojpuri geet kabhi nahi suna tha....badhiya laga
आज के पहले अंक में दोनों आडिओ आबिदा परवीन के ही लग गए हैं. इसमें जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का आडिओ नहीं है. इसे सुधार दें.
मनोज तिवारी के स्थान पर भी आबिदा परवीन का आडियो लग गया है।
Reetesh said…
ऑडियो पर मेरा ध्यान भी गया..मित्रों ने यहाँ पहले ही इंगित कर दिया है जो त्रण मात्र त्रुटि हो गयी है अपलोडिंग में..खैर अब मिसिंग शब्द पर आते हैं, तो यह शब्द है 'क़तरा'
इस पर पेश है मेरी ग़ज़लों से कुछ अशआर,

"लाज़मी होता मेरी सांस को क़तरा हवा का
तेरी आवाज़ का वो क़तरा जो लहरता नहीं "

"तुझको एक क़तरा भी न ग़म मिले
अपना हक़ तमाम लिया है इसलिए "

और ये एक बड़े मियाँ "ग़ालिब" साहब का एक शेर..
"इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना "
Reetesh said…
महफ़िल ए ग़ज़ल के बारे में तो यही कहूँगा कि बहुत बढ़िया पहल और मेहनत है. बड़े ही रचनात्मक अंदाज़ में यह कवायद रची गयी है जो खेल खेल में इल्मी इज़ाफा करेगी बेशक. बहुत शुक्रिया आप सब को जो इस ज़िम्मेदारी में जुटे हुए हैं.
Amit said…
आज पूरी पोस्ट पढ़ी. बहुत मज़ा आया. धन्यवाद वी.डी. भाई. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है
महफ़िल-ए-गजल पढ़ी.सुनी.सचमुच विश्व दीपक हो इस साईट के. एक एक शब्द भीतर तक भिगो गया.कमाल लिखते हो.मनोज तिवारी जी का यह गाना मैंने पहली बार सुना.अच्छा लगा.खूब खोजा नही मिला.अब यह जिम्मेदारी आपकी..........मेरे इस परिवार की.मुझे यह गाना भेजिए.
यह गजल मुझे बहुत पसंद है अक्सर सुनती हूँ.इसका हर शे'र मेरे दिल को छू जाता है .
पर........'रात ने ऐसा पेंच लगाया टूटी हाथ की डोर,
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद।

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते,
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद।' सुनकर बहुत भावुक हो जाती हूँ.सुविधि की तीन वर्षीया बेटी मुझे 'मून जी' बुलाती है.मून यानी चाँद यानि इंदु.और यह चाँद उसकी फैली बाहों मे अटक जाता है स्कुल पहुँचते ही.
उसका 'मून जी' बोलना जैसे आबिदा परवीन की गजल बना देता है मुझे.क्या बोलू! अटपटी लगती होगी मेरी बाते और मैं भी.पर............ क्या करूं?ऐसिच हूँ मैं और मेरे चाँद
इंदु जी, मनोज तिवारी का "हम बानि परदेस में" यहाँ यह यू-ट्युब पर... http://www.youtube.com/watch?v=GPkUy-4YuSE

सुनिए और डाउनलोड कर लीजिए... मैंने भी यहीं से किया था...
मिल गया और सजीव जी की महरबानी से इसको ऑडियो मे कन्वर्ट करना भी सीख गई हूँ.थेंक्स दूँ?
चलो दे देती हूँ नही तो अगली बार मुझे गाना नही देने वाले ढूंढकर हा हा हा
थेंक्स विश्व जी !
विश्व दीपक भाई ...उम्मीद सही थी की ...आखिर एक दिन वापसी होगी .......बहुत बहुत बधाई व् धन्यवाद ...!
रज़ा साहब के बहु आयामी व्यक्तित्व पर डाला गया प्रकाश अच्छा लगा और श्रद्धांजलि भी हो गयी रुहे ग़ज़ल को पहले एपिसोड की मार्फ़त !
"कतरा" जनाबे कृष्ण बिहारी का पसंदीदा लफ्ज़ ..उनकी के दो शेर पेशे खिदमत हैं !

दरिया में यूँ तो होते हैं कतरे ही कतरे सब !
कतरा वही है जिसमें की दरिया दिखाई दे !!

तिश्नगी के भी मुकामत हैं क्या क्या यानी !
कभी दरिया नहीं काफी कभी कतरा है बहुत !
विश्व दीपक भाई ...उम्मीद सही थी की ...आखिर एक दिन वापसी होगी .......बहुत बहुत बधाई व् धन्यवाद ...!
रज़ा साहब के बहु आयामी व्यक्तित्व पर डाला गया प्रकाश अच्छा लगा और श्रद्धांजलि भी हो गयी रुहे ग़ज़ल को पहले एपिसोड की मार्फ़त !
"कतरा" जनाबे कृष्ण बिहारी का पसंदीदा लफ्ज़ ..उनही के दो शेर पेशे खिदमत हैं !

दरिया में यूँ तो होते हैं कतरे ही कतरे सब !
कतरा वही है जिसमें की दरिया दिखाई दे !!

तिश्नगी के भी मुकामत हैं क्या क्या यानी !
कभी दरिया नहीं काफी कभी कतरा है बहुत !

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