Skip to main content

"सैगल ब्लूज़" - सहगल साहब की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजली एक नए अंदाज़ में


कुंदनलाल सहगल को इस दुनिया से गए आज ६५ वर्ष हो चुके हैं, पर उनकी आवाज़ आज भी सर चढ़ के बोल रहा है। फ़िल्म 'डेल्ही बेली' में राम सम्पत और चेतन शशितल नें सहगल साहब को श्रद्धांजली स्वरूप जिस गीत की रचना की है, उसी की चर्चा सुजॉय चटर्जी के साथ, 'एक गीत सौ कहानियाँ' की तीसरी कड़ी में...

एक गीत सौ कहानियाँ # 3

हिन्दी सिनेमा के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार के रूप में कुंदनलाल सहगल के नाम से हम सभी भली-भाँति वाक़िफ़ हैं। फ़िल्म-संगीत की जब शुरुआत हुई थी, तब वह पूर्णत: शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय और नाट्य संगीत से प्रभावित थी। कुंदनलाल सहगल और न्यु थिएटर्स के संगीतकारों नें फ़िल्म-संगीत को अपनी अलग पहचान दी, और जनसाधारण में अत्यन्त लोकप्रिय बनाया। जब भी कभी फ़िल्म-संगीत का इतिहास लिखा जाएगा, सहगल साहब का नाम सबसे उपर स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। सहगल साहब की आवाज़ और गायकी का ३० और ४० के दशकों में कुछ ऐसा क्रेज़ था कि अगली पीढ़ी के नवोदित गायक उन्हीं की शैली को अनुकरण कर संगीत के मैदान में उतरते थे। तलत महमूद, मुकेश और किशोर कुमार तीन ऐसे बड़े नाम हैं जिन्होंने अपनी शुरुआत सहगल साहब को गुरु मान कर की थी। पर बाद में अपना अलग स्टाइल ज़रूर अख़्तियार कर लिया था। लेकिन अगर किसी गायक नें ता-उम्र सहगल साहब की शैली में गाते रहे, तो वो थे सी. एच. आत्मा। सिर्फ़ वो ही नहीं, उनके बेटे चन्द्रू आत्मा नें भी सहगल अंदाज़ में गीत गाए।

कुंदनलाल सहगल को गुरु मानने वाले या उनसे मुतासिर होने वालों की फ़ेहरिस्त तलत, मुकेश, किशोर, सी. एच. आत्मा और चन्द्रू आत्मा पर आकर ही समाप्त नहीं हो जाती, आज भी सहगल साहब के चाहने वालों की संख्या हज़ारों, लाखों में है। और इनमें एक हैं इस दौर के संगीतकार राम सम्पत। 'आमिर ख़ान प्रोडक्शन्स' की २०११ की चर्चित फ़िल्म 'डेल्ही बेली' में राम सम्पत नें कुंदनलाल सहगल को श्रद्धांजली स्वरूप एक गीत कम्पोज़ किया है "सैगल ब्लूज़" (Saigal Blues) शीर्षक से। सहगल को दर्द का पर्याय माना जाता है, इसलिए 'सैगल ब्लूज़' भी टूटे हुए दिल की ही पुकार है। सहगल शैली का आधुनिक रूप कहा जा सकता है 'सैगल ब्लूज़' को। सहगल शैली और ब्लूज़ जौनर का फ़्युज़न है यह गीत जिसे राम सम्पत और चेतन शशितल नें मिलकर लिखा है और चेतन शशितल नें बिल्कुल सहगल अंदाज़ में गाया है। गीटार पर कमाल किया है रूडी वलांग और हितेश धुतिया नें। जब भी इस तरह का कोई नवीन प्रयोग किया जाता है, और ख़ास कर किसी महान कलाकार का अनुकरण किया जाता है, तो उस पर मिली-जुली प्रतिक्रियायें मिलती हैं; इस गीत के साथ भी यही हुआ। यूं तो अधिकतर लोगों और समालचकों नें इस गीत को "थम्स-अप" ही दिया, पर कुछ लोगों को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उन्हें यह सहगल का अपमान महसूस हुआ। इन्टरनेट को खंगालने पर मुझे इसके दो कारण हाथ लगे - पहला यह कि गायक नें सहगल के नैज़ल अंदाज़ की नकल की है, और दूसरी, सहगल शैली के गीत को पाश्चात्य रंग देकर (फ़्युज़न के ज़रिए) सहगल जौनर को दूषित किया है।

"दुनिया में प्यार जब बरसे, न जाने दिल यह क्यों तरसे, हाय, इस दिल को कैसे समझाऊँ, पागल को कैसे मैं मनाऊँ, इस दर्द की न है दवाई, मजनूं है या तू है कसाई...", यही है 'सैगल ब्लूज़' गीत के बोल। जब इसके संगीतकार राम सम्पत से इस बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था - "मैं के. एल. सहगल साहब का बहुत बड़ा फ़ैन हूँ। मैं समझता हूँ कि सहगल साहब भारत का सबसे महान "ब्लूज़ सिंगर" हैं। मैंने 'डेल्ही बेली' फ़िल्म के निर्देशक अभिनय देव और गायक-गीतकार चेतन शशितल से इस बारे में कई साल पहले ही बात की थी कि मैं सहगल साहब को एक "ब्लूज़ ट्रिब्युट" देना चाहता हूँ। पर कोई सिचुएशन या फ़िल्म ऐसी नहीं बन रही थी जिसमें मेरा यह सपना सच हो सके। 'डेल्ही बेली' इस गीत को लौंच करने के लिए सटीक माध्यम मुझे महसूस हुआ। फ़िल्म का साउण्डट्रैक इस गीत के लिए पर्फ़ेक्ट था और आमिर ख़ान जैसे निडर निर्माता के होते मुझे किस बात की फ़िक्र थी! आमिर ख़ान को पुराने समय और इतिहास से बहुत लगाव है। मेरे इस सुझाव को उन्होंने हाथोंहाथ स्वीकार कर लिया। मुझे आशा है कि इस गीत के माध्यम से हम लोगों को, ख़ास कर इस पीढ़ी के लोगों को के. एल. सहगल की गायकी से अवगत करा पाएंगे।" एक अन्य इन्टरव्यू में राम सम्पत नें बताया कि यूं तो 'डेल्ही बेली' के कई गीत हिट हुए हैं जैसे कि "भाग डी के बोस", "स्विट्टी स्विट्टी", "आइ हेट यू", "बेदर्दी राजा", "जा चुड़ैल", लेकिन जो गीत उनके दिल के सबसे करीब है, वह है "सैगल ब्लूज़"। "मुझे ख़ास तौर से 'सैगल ब्लूज़' पर गर्व है क्योंकि लोग यह समझ रहे हैं कि यह सहगल साहब का ही गाया हुआ कोई गीत है जिसका रीमिक्स हुआ है, जबकि हक़ीक़त यह कि यह मेरा ऑरिजिनल कम्पोज़िशन है और गीत के बोल भी बिल्कुल नए हैं", राम सम्पत नें एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में बताया। सम्पत नें यह भी बताया कि इस फ़िल्म के संगीत निर्माण में आमिर ख़ान का भी बड़ा योगदान रहा है।

उधर चेतन शशितल का नाम बहुत अधिक लोगों नें नहीं सुना होगा। आपको याद होगा २००४ में ऐश्वर्या राय और विवेक ओबेरॉय की फ़िल्म आई थी 'क्यों.. हो गया न!', जिसमें एक गीत था "बात समझा करो", उस गीत में चेतन की आवाज़ थी शंकर महादेवन और जावेद अली के साथ। उसी साल 'दि किंग ऑफ़ बॉलीवूड' फ़िल्म के लिए भी उन्होंने गाया था। उसके बाद चेतन एक बार फिर से गुमनामी में चले गए, पर 'सैगल ब्लूज़' के साथ जैसे रातों रात वो छा गए। हालाँकि इस गीत को वह लोकप्रियता नहीं मिली, या यूं कहे कि इस गीत को फ़िल्म के दूसरे गीतों के मुकाबले कम प्रोमोट किया गया, पर इस फ़िल्म के संगीत से जुड़े सभी कलाकारों को यह गीत अत्यन्त प्रिय है। चेतन शशितल नें बताया कि इस गीत को उन्होंने दो साल पहले ही रेकॉर्ड कर लिया था। चेतन बताते हैं, "राम (सम्पत) 'डेल्ही बेली' के बैकग्राउण्ड पर काम कर रहे थे और वो मुझसे कुछ प्रयोगधर्मी चीज़ चाहते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि क्यों न मैं सहगल साहब की आवाज़ में गाऊँ? उस वक़्त हमें ज़रा सा भी अन्दाज़ा नहीं था कि यह बात हमें किस मुकाम तक ले जायेगी। शुरुआत में जब यह गीत रेकॉर्ड हुआ तो केवल वोकल और ड्रम्स का इस्तमाल हुआ था, पर सम्पत नें बाद में इसे जो रूप दिया, मैं तो हैरान रह गया। मुझे तो अन्त तक यह मालूम ही नहीं था कि इस गीत को 'डेल्ही बेली' के साउण्डट्रैक में शामिल कर लिया गया है। जब भी मेरी राम सम्पत से मुलाक़ात होती तो मैं यह ज़रूर पूछता कि अपने गाने का क्या हुआ? एक दिन उन्होंने मुझे आकर बताया कि आमिर ख़ान और अभिनय देव नें इस गीत को सुना है और उन्हें पसन्द भी आया है। मैंने जब गीत का फ़ाइनल वर्ज़न सुना तो वह बिल्कुल अलग ही बन चुका था।"

चेतन शशितल ख़ुद एक अच्छे गायक हैं, जो पिछले १७ वर्षों से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीख रहे हैं। शशितल नें यह साफ़ बताया कि इस गीत को गाते हुए उनका यह कतई उद्देश्य नहीं था कि सहगल साहब जैसे महान कलाकार की नकल कर उन पर कोई व्यंग किया जाये या उनका मज़ाक उडाया जाये! यह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक श्रद्धांजली थी उस पूरे दौर के नाम। "यह गीत सुनने में बिल्कुल सहगल की शैली का लगता है। उस दौर की यही ख़ास बात थी कि गानें इसी अंदाज़ में गाए जाते थे। उस दौर के अन्य गायक, जैसे जगमोहन, श्याम और सुरेन्द्र, भी इसी अंदाज़ में गाया करते थे। अगर आप इस गीत को सुनें, तो शायद आपको सहगल साहब की याद आये, पर मेरे लिए यह गीत केवल सहगल साहब को ही नहीं, बल्कि उस पूरे दौर को श्रद्धांजली है। For me it was more about recreating the voice of that era. अफ़सोस की बात है कि जब लोग नकल करते हैं, तो वो उस कलाकार के कमी को ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं, और तब ऐसा लगता है जैसे उस कलाकार का व्यंग किया जा रहा हो। पर हमने ऐसा नहीं किया।" आज जहाँ सहगल की आवाज़ केवल 'विविध भारती' के 'भूले बिसरे गीत' कार्यक्रम में ही सुनाई देती है, ऐसे में आज की युवा पीढ़ी को सहगल से मिलवाने में 'डेल्ही बेली' का यह गीत शायद ज़्यादा कारगर होगा। आज सहगल को गए ६५ वर्ष बीत चुके हैं, पर उनकी आवाज़ का जादू आज भी सर चढ़ कर बोलता है, और इसका प्रमाण है 'डेल्ही बेली' का "दुनिया में प्यार जब बरसे"।

फ़िल्म 'डेल्ही बेली' से "दुनिया में प्यार जब बरसे..." सुनने के लिए नीचे प्लेयर में क्लिक करें...



तो दोस्तों, आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' में बस इतना ही, अगले सप्ताह फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर उपस्थित हो‍ऊंगा, अनुमति दीजिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को, नमस्कार!

Comments

प्रयोग के तौर पर तो ठीक है, किन्तु इसे चलन बनाए जाने का कोई औचित्य नहीं। किसी गीत में साज और आवाज़ परस्पर घुल-मिल जाते हैं तो गीत की कर्णप्रियता बढ़ती है। मुझे वाद्य संगीत, स्वर पर थोपा हुआ, प्रतीत हुआ।

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट