अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...सज्जाद अली ने कुछ यूँ उम्मीद जगाई, साथ हैं फ़राज़ के शब्द
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६१
आज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की पहली गज़ल लेकर। आज की गज़ल की बात करें, उससे पहले मैं दो सप्ताह की अपनी गैर-हाज़िरी के लिए आप सबसे माफ़ी माँगना चाहूँगा। कुछ ऐसी वज़ह हीं आन पड़ी थी कि मुझे गज़लों की इस शानदार और जानदार महफ़िल को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा। लेकिन कोई बात नहीं, गज़लों की रूकी हुई यह गाड़ी दो सप्ताह के बाद फिर से पटरी पर आ गई है और निकट भविष्य में इसकी गति कम होने की मुझे कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। तो चलिए आज की महफ़िल की शुरूआत कर हीं देते हैं। तो आज जो गज़ल हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वह यूँ तो मेहदी हसन साहब की आवाज़ में भी उपलब्ध थी, लेकिन हमने जान-बूझकर एक कम-चर्चित गायक की गाई हुई गज़ल को चुना। वैसे इस गायक को कम-चर्चित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पाकिस्तानी फिल्मों में इन्होंने बहुत सारे गाने गाए हैं। इस फ़नकार के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उनके दोनों बेटों ने पाकिस्तान में खासा नाम कमाया। जैसे कि आज की गज़ल के गायक सज्जाद अली पाकिस्तान के जानेमाने पॉप गायक हैं, वहीं वक़ार अली एक जानेमाने संगीतकार। सज्जाद अली का जन्म १९६६ में कराची के एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से हीं इन्हें संगीत की शिक्षा दी गई। शास्त्रीय संगीत में इन्हें खासी रूचि थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, मेहदी हसन खान, गुलाम अली, अमानत अली खान जैसे धुरंधरों के संगीत और गायिकी को सुनकर हीं इन्होंने खुद को तैयार किया। इनका पहला एलबम १९७९ में रीलिज हुआ था, जिसमें इन्होंने बड़े-बड़े फ़नकारों की गायिकी को दुहराया। उस एलबम के ज्यादातर गाने "हसरत मोहानी" और "मोमिन खां मोमिन" के लिखे हुए थे। यूँ तो इस एलबम ने इन्हें नाम दिया लेकिन इन्हें असली पहचान मिली पीटीवी की २५वीं सालगिरह पर आयोजित किए गए कार्यक्रम "सिलवर जुब्ली" में। दिन था २६ नवंबर १९८३. "लगी रे लगी लगन" और "बावरी चकोरी" ने रातों-रात इन्हें फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है...सज्जाद अली ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अप्रेल २००८ में "चहार बलिश" नाम से इन्होंने अपना एलबम रीलिज किया, जिसमें "चल रैन दे"(यह गाना वास्तव में जुलाई २००६ में मार्केट में आया था और इस गाने ने उस समय खासा धूम मचाया था) भी शामिल है। इनके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि खुद ए०आर०रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं। वैसे कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन बाकी बातें कभी अगली कड़ी में। अब हम रूख करते हैं इस गज़ल के गज़लगो "अहमद फ़राज़" साहब की ओर।
सबको मालूम है कि फ़राज़ साहब का इंतकाल पिछले साल २५ अगस्त को हुआ था। सबको मालूम है कि उन्हें २००४ में हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया था और उन्होंने यह कहकर यह सम्मान लौटा दिया था कि "मेरा ईमान मुझे माफ़ नहीं करेगा अगर मैं पाकिस्तान में हो रही इन घटनाओं का मूक दर्शक बना रहूँ। कम से कम मैं इतना तो कर हीं सकता हूँ कि मैं इस तानाशाही सरकार को यह दिखा दूँ कि मौलिक अधिकारों को छीनने वाली यह सरकार लोगों के दिलों में कैसा मकाम रखती है। इसलिए मैं हिलाल-ए-इम्तियाज़ को लौटा रहा हूँ और अपने आप को इस हुकूमत से हमेशा के लिए अलग करता हूँ।" लेकिन कुछ बाते हैं जो सबको मालूम नहीं। और वे हैं फ़राज़ साहब का चुटकीला अंदाज़, हर बात को हँसी में उड़ा जाने की अदा। जैसे कि यूँ तो उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ २००४ में मिला, लेकिन उन्होंने इसे लौटाया २००६ में। तो इस मामले में किसी ने उनसे पूछा कि "दो साल की देरी क्यों?" तो उनका जवाब था कि "आपको क्या लगता है कि इन दो सालों में इसने कुछ अंडे दे दिए हैं क्या..यह आज भी वही है।" कहते हैं कि एक बार कुछ लोग फ़राज़ साहब के दरवाजे पर आए और उनसे कहने लगे कि "क्या तुम कलमा सुना सकते हो?" फ़राज़ साहब ने तपाक से जवाब दिया "क्यों? पुराने कलमे में कोई बदलाव आ गया है क्या?" फ़राज़ साहब से एक बार पूछा गया कि १९४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में क्या फ़र्क महसूस करते हैं। उनका जवाब था: "१९४७ में मुस्लिम लीग के प्रेसीडेंट का नाम मुहम्मद अली जिन्ना था और आज चौधरी गुजरात हुसैन है"। यह तो हुआ उनका मज़ाकिया लहज़ा। लेकिन असल में फ़राज़ साहब ४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में कोई फ़र्क नहीं महसूस करते थे। उनसे जब पूछा गया कि आजकल वे जोश-औ-जुनूं वाली क्रातिकारी कविताएँ क्यों नहीं लिखते। तो उनका जवाब था:"क्योंकि मैं एक हीं चीज हर बार नहीं लिखना चाहता। पाकिस्तान में चीजें नहीं बदलतीं और इसीलिए मेरी लिखी हुई पुरानी कविताएँ भी पुरानी नहीं होती..उनका आज भी उतना हीं महत्व है, जितना पहले था।" फ़राज़ हमेशा हीं सैनिक शासन के खिलाफ़ रहे थे, तब भी जब उनके बाकी साथियों ने सरकार का साथ देना मुनासिब समझा था। इस मामले में फ़राज़ दृढ-संकल्प थे। उनका कहना था कि "मैं निरंकुशता के खिलाफ़ था, हूँ और रहूँगा। माना कि वक्त बुरा है लेकिन ऐसा वक्त भी नहीं आया कि मुझे किसी के डर से देश छोड़ना पड़े। मैं घर पर हीं रहकर उनका विरोध करूँगा।" लेकिन ज़िया के शासनकाल में उन्हें भी देशनिकाला सहना पड़ा। छ: साल तक वे देश से बाहर रहे। इस मामले में वे "फ़ैज़" के उत्तराधिकारी साबित हुए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो उन्हें फ़ैज़ के पास ला खड़ा करते हैं। इसलिए कई लोगों का यह मानना है कि सही मायने में फ़ैज़ की परछाई किसी में नज़र आती थी तो वे फ़राज़ हीं थे। फ़राज़ न सिर्फ़ क्रांति के कवि थे बल्कि प्रेम के मामले में भी उनका कोई सानी न था। कहते हैं कि ऐसा कोई प्रेम-पत्र नहीं जिसमें फ़राज़ का शेर शामिल न हो। १९५४ की बात है, जब फ़राज़ पेशावर के इस्लामिया कौलेज़ में पढा करते थे। तब अपने दोस्तों को घेर कर रोमांटिक कविताएँ सुनाना उनकी दैनिक आदत थी। उस समय लड़के-लड़कियाँ खुलेआम आपस में बात नहीं किया करते थे। फिर भी फ़राज़ को लड़कियों की चिट्ठियाँ आती थीं, वो भी न सिर्फ़ अपने कौलेज से, बल्कि शहर के दूसरे कौलेजों से भी। ऐसा असर था फ़राज़ की लेखनी में...
चलते-चलते फ़राज़ के बारे में कुछ शब्द "भारतीय साहित्य संग्रह" पर उपलब्ध फ़राज़ की पुस्तक "खानाबदोश" की समीक्षा से: अहमद फ़राज़ उर्दू के एक समर्थ, सजग और जीवन्त कवि हैं। उनकी कविता जितनी पाकिस्तानी है उतनी ही भारतीय। ऐसा इसलिए कि उर्दू में दोनों देशों के बीच बँटवारा नहीं साझा है। हम यहाँ यह याद कर सकते हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ के अब तक के सबसे बड़े कवि फ़ैज अहमद फ़ैज़ की भारत में लोकप्रियता और प्रतिष्ठा रही है। जैसे फ़ैज़ में वैसे ही अब अहमद फ़राज़ में यह साफ़ पहचाना जा सकता है कि सरहदों के पार और उनके बावजूद, हमारे समय में हम जिन प्रश्नों, अन्तर्विरोधों, तनावों, बेचैनियों और जिज्ञासाओं से घिरे हैं, उन्हें यह कविता सीधे और निहायत आत्मीय आवाज़ में सम्बोधित करती है। एक बार फिर यह कविता इस सच्चाई का इज़हार है और एसर्शन भी। फ़राज़ की कविता ज़िन्दादिल कविता है, उसमें हमेशा एक क़िस्म की स्फूर्ति है; तब भी वह किसी रूमानी अवसाद में डूबी है। वह ऐसी कविता भी है, जो आदमी और उसके बेशुमार रिश्तों की दुनिया को कविता के भूगोल में स्मरणीय ढंग से विन्यस्त करने की चेष्टा करती है। भले उतनी उदग्र न हो जितनी, मस्लन पाब्लो नेरुदा या कि फ़ैज़ की कविता रही है, वह इसी परंपरा में है जिसमें प्रेम और क्रान्ति में, रूमानी सच्चाई और सामाजिक सच्चाई में बुनियादी तौर पर कोई विरोध भाव नहीं है। उसकी आधुनिकता परम्परा का विस्तार है, उसका अवरोध नहीं। वह अपने समय से जो रिश्ता बनाती है वह सीधा-सादा न होकर ख़ासा जटिल है। वह समय को निरी समकालीनता के बाड़े से निकाल कर उसे थोड़ा पीछे और कुछ आगे ले जानी वाली कविता है। फ़राज़ की ज़ुबान में मिठास और अपनी दुनिया में रचे-बसे होने की अनुगूँजें हैं। ज़रूरी होने पर बेबाकी, तीखापन और तंज़ भी है। उसमें उर्दू की अपनी समृद्ध परम्परा की कृतज्ञ याद है। उसमें लयों, बहरों, छन्दों की आश्चर्यजनक विविधता और क्षमता है। सबसे बढ़कर उसमें खुलापन है, जो अहमद फ़राज़ के इन्सानी तौर पर भरे पूरे और चौकन्ने होने का सबूत है। वह मित्र-कविता है जो हमसे आत्मीयता और आत्मविश्वास के साथ बात करती है और हमारे विश्वास आसानी से जीत लेती है। चलिए आज की महफ़िल की समाप्ति अहमद फ़राज़ के इस शेर से करते हैं, जिसमें मोहब्बत की हद बताई गई है:
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे|
इस शेर के बाद चलिए हम अब १९९५ में रीलिज हुई पाकिस्तानी फिल्म "चिफ़ साहब" से इस गज़ल को सुनते हैं, जिसका हर एक मिसरा न जाने कितनी दास्तान सुना जाता है। तो दिल पर हाथ रखकर इस गज़ल का आनंद लें:
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुये लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के _____ में मिलें
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "नसीब" और शेर कुछ यूं था -
हाँ नसीब अपने ही सो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए..
सही शब्द के साथ महफ़िल में सबसे पहली हाज़िरी लगाई "मुरारी पारीक" जी ने। मुरारी जी आपका महफ़िल-ए-गज़ल में हार्दिक स्वागत है। आप आगे भी महफ़िल की शोभा बढाते रहें, इसी कामना के साथ आपका यह शेर पेश-ए-खिदमत है:
जो खिल उठें गुलाब मेरे दिल के बाग़ में
रब्बा, मेरे "नसीब" में ऐसी बहार दे (चरागे-दिल वर्ल्ड प्रेस से)
सजीव जी, आगे से आपको शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा :) इस बार समय की कमी के कारण मैं ज्यादा शोध नहीं कर पाया।
शरद जी, तो कैसी लगी आपकी पसंदीदा नज़्मों पर हमारी यह पेशकश? अपनी राय जाहिर ज़रूर कीजिएगा। यह रहा "नसीब" शब्द पर आपका यह शेर:
नसीब आजमाने के दिन आ रहे है
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं। (फ़ैज़) क्या हुआ..आज कोई स्वरचित शेर नहीं!!
सीमा जी,आपने भी एक से बढकर एक शेर पेश किए। मसलन:
तेरा हिज्र मेरा नसीब है तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे साथ है। (निदा फ़ाज़ली)
आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया (सुदर्शन फ़ाकिर)
कुलदीप जी, आपका पेश किया शेर भी कमाल का है:
बेशक मेरे नसीब पे रख अपना इख्तियार
लेकिन मेरे नसीब में क्या है बता तो दे (राना सहरी)
आप सबके बाद महफ़िल को संभाला शामिख जी ने। शामिख जी, आज से तीन दिनों तक आपकी हीं पसंद की गज़लें पेश होने वाली हैं, इसलिए नदारद मत होईयेगा :) ये रहे आपके शेर:
वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़
जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है (अहमद फ़राज़)
नसीब फिर कोई तक़्रीब-ए-क़र्ब हो के न हो
जो दिल में हों वही बातें किया करो उससे (अहमद फ़राज़) संयोग देखिए कि आज हमने जो गज़ल पेश की है, वो भी फ़राज़ साहब की हीं है।
मंजु जी, हर बार की तरह इस बार भी स्वरचित शेर के साथ नज़र आईं:
ऐ मेरे मालिक ! जब -जब मेरा नसीब जगाया ,
तब -तब गम के रोड़े खुशियों के फूल बन महकने लगे .
अंत में महफ़िल सुमित जी के नाम हुई। ये रही आपकी पेशकश:
नसीब में जिसके जो लिखा था वो तेरी महफ़िल में काम आया,
किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की पहली गज़ल लेकर। आज की गज़ल की बात करें, उससे पहले मैं दो सप्ताह की अपनी गैर-हाज़िरी के लिए आप सबसे माफ़ी माँगना चाहूँगा। कुछ ऐसी वज़ह हीं आन पड़ी थी कि मुझे गज़लों की इस शानदार और जानदार महफ़िल को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा। लेकिन कोई बात नहीं, गज़लों की रूकी हुई यह गाड़ी दो सप्ताह के बाद फिर से पटरी पर आ गई है और निकट भविष्य में इसकी गति कम होने की मुझे कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। तो चलिए आज की महफ़िल की शुरूआत कर हीं देते हैं। तो आज जो गज़ल हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वह यूँ तो मेहदी हसन साहब की आवाज़ में भी उपलब्ध थी, लेकिन हमने जान-बूझकर एक कम-चर्चित गायक की गाई हुई गज़ल को चुना। वैसे इस गायक को कम-चर्चित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पाकिस्तानी फिल्मों में इन्होंने बहुत सारे गाने गाए हैं। इस फ़नकार के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उनके दोनों बेटों ने पाकिस्तान में खासा नाम कमाया। जैसे कि आज की गज़ल के गायक सज्जाद अली पाकिस्तान के जानेमाने पॉप गायक हैं, वहीं वक़ार अली एक जानेमाने संगीतकार। सज्जाद अली का जन्म १९६६ में कराची के एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से हीं इन्हें संगीत की शिक्षा दी गई। शास्त्रीय संगीत में इन्हें खासी रूचि थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, मेहदी हसन खान, गुलाम अली, अमानत अली खान जैसे धुरंधरों के संगीत और गायिकी को सुनकर हीं इन्होंने खुद को तैयार किया। इनका पहला एलबम १९७९ में रीलिज हुआ था, जिसमें इन्होंने बड़े-बड़े फ़नकारों की गायिकी को दुहराया। उस एलबम के ज्यादातर गाने "हसरत मोहानी" और "मोमिन खां मोमिन" के लिखे हुए थे। यूँ तो इस एलबम ने इन्हें नाम दिया लेकिन इन्हें असली पहचान मिली पीटीवी की २५वीं सालगिरह पर आयोजित किए गए कार्यक्रम "सिलवर जुब्ली" में। दिन था २६ नवंबर १९८३. "लगी रे लगी लगन" और "बावरी चकोरी" ने रातों-रात इन्हें फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है...सज्जाद अली ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अप्रेल २००८ में "चहार बलिश" नाम से इन्होंने अपना एलबम रीलिज किया, जिसमें "चल रैन दे"(यह गाना वास्तव में जुलाई २००६ में मार्केट में आया था और इस गाने ने उस समय खासा धूम मचाया था) भी शामिल है। इनके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि खुद ए०आर०रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं। वैसे कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन बाकी बातें कभी अगली कड़ी में। अब हम रूख करते हैं इस गज़ल के गज़लगो "अहमद फ़राज़" साहब की ओर।
सबको मालूम है कि फ़राज़ साहब का इंतकाल पिछले साल २५ अगस्त को हुआ था। सबको मालूम है कि उन्हें २००४ में हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया था और उन्होंने यह कहकर यह सम्मान लौटा दिया था कि "मेरा ईमान मुझे माफ़ नहीं करेगा अगर मैं पाकिस्तान में हो रही इन घटनाओं का मूक दर्शक बना रहूँ। कम से कम मैं इतना तो कर हीं सकता हूँ कि मैं इस तानाशाही सरकार को यह दिखा दूँ कि मौलिक अधिकारों को छीनने वाली यह सरकार लोगों के दिलों में कैसा मकाम रखती है। इसलिए मैं हिलाल-ए-इम्तियाज़ को लौटा रहा हूँ और अपने आप को इस हुकूमत से हमेशा के लिए अलग करता हूँ।" लेकिन कुछ बाते हैं जो सबको मालूम नहीं। और वे हैं फ़राज़ साहब का चुटकीला अंदाज़, हर बात को हँसी में उड़ा जाने की अदा। जैसे कि यूँ तो उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ २००४ में मिला, लेकिन उन्होंने इसे लौटाया २००६ में। तो इस मामले में किसी ने उनसे पूछा कि "दो साल की देरी क्यों?" तो उनका जवाब था कि "आपको क्या लगता है कि इन दो सालों में इसने कुछ अंडे दे दिए हैं क्या..यह आज भी वही है।" कहते हैं कि एक बार कुछ लोग फ़राज़ साहब के दरवाजे पर आए और उनसे कहने लगे कि "क्या तुम कलमा सुना सकते हो?" फ़राज़ साहब ने तपाक से जवाब दिया "क्यों? पुराने कलमे में कोई बदलाव आ गया है क्या?" फ़राज़ साहब से एक बार पूछा गया कि १९४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में क्या फ़र्क महसूस करते हैं। उनका जवाब था: "१९४७ में मुस्लिम लीग के प्रेसीडेंट का नाम मुहम्मद अली जिन्ना था और आज चौधरी गुजरात हुसैन है"। यह तो हुआ उनका मज़ाकिया लहज़ा। लेकिन असल में फ़राज़ साहब ४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में कोई फ़र्क नहीं महसूस करते थे। उनसे जब पूछा गया कि आजकल वे जोश-औ-जुनूं वाली क्रातिकारी कविताएँ क्यों नहीं लिखते। तो उनका जवाब था:"क्योंकि मैं एक हीं चीज हर बार नहीं लिखना चाहता। पाकिस्तान में चीजें नहीं बदलतीं और इसीलिए मेरी लिखी हुई पुरानी कविताएँ भी पुरानी नहीं होती..उनका आज भी उतना हीं महत्व है, जितना पहले था।" फ़राज़ हमेशा हीं सैनिक शासन के खिलाफ़ रहे थे, तब भी जब उनके बाकी साथियों ने सरकार का साथ देना मुनासिब समझा था। इस मामले में फ़राज़ दृढ-संकल्प थे। उनका कहना था कि "मैं निरंकुशता के खिलाफ़ था, हूँ और रहूँगा। माना कि वक्त बुरा है लेकिन ऐसा वक्त भी नहीं आया कि मुझे किसी के डर से देश छोड़ना पड़े। मैं घर पर हीं रहकर उनका विरोध करूँगा।" लेकिन ज़िया के शासनकाल में उन्हें भी देशनिकाला सहना पड़ा। छ: साल तक वे देश से बाहर रहे। इस मामले में वे "फ़ैज़" के उत्तराधिकारी साबित हुए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो उन्हें फ़ैज़ के पास ला खड़ा करते हैं। इसलिए कई लोगों का यह मानना है कि सही मायने में फ़ैज़ की परछाई किसी में नज़र आती थी तो वे फ़राज़ हीं थे। फ़राज़ न सिर्फ़ क्रांति के कवि थे बल्कि प्रेम के मामले में भी उनका कोई सानी न था। कहते हैं कि ऐसा कोई प्रेम-पत्र नहीं जिसमें फ़राज़ का शेर शामिल न हो। १९५४ की बात है, जब फ़राज़ पेशावर के इस्लामिया कौलेज़ में पढा करते थे। तब अपने दोस्तों को घेर कर रोमांटिक कविताएँ सुनाना उनकी दैनिक आदत थी। उस समय लड़के-लड़कियाँ खुलेआम आपस में बात नहीं किया करते थे। फिर भी फ़राज़ को लड़कियों की चिट्ठियाँ आती थीं, वो भी न सिर्फ़ अपने कौलेज से, बल्कि शहर के दूसरे कौलेजों से भी। ऐसा असर था फ़राज़ की लेखनी में...
चलते-चलते फ़राज़ के बारे में कुछ शब्द "भारतीय साहित्य संग्रह" पर उपलब्ध फ़राज़ की पुस्तक "खानाबदोश" की समीक्षा से: अहमद फ़राज़ उर्दू के एक समर्थ, सजग और जीवन्त कवि हैं। उनकी कविता जितनी पाकिस्तानी है उतनी ही भारतीय। ऐसा इसलिए कि उर्दू में दोनों देशों के बीच बँटवारा नहीं साझा है। हम यहाँ यह याद कर सकते हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ के अब तक के सबसे बड़े कवि फ़ैज अहमद फ़ैज़ की भारत में लोकप्रियता और प्रतिष्ठा रही है। जैसे फ़ैज़ में वैसे ही अब अहमद फ़राज़ में यह साफ़ पहचाना जा सकता है कि सरहदों के पार और उनके बावजूद, हमारे समय में हम जिन प्रश्नों, अन्तर्विरोधों, तनावों, बेचैनियों और जिज्ञासाओं से घिरे हैं, उन्हें यह कविता सीधे और निहायत आत्मीय आवाज़ में सम्बोधित करती है। एक बार फिर यह कविता इस सच्चाई का इज़हार है और एसर्शन भी। फ़राज़ की कविता ज़िन्दादिल कविता है, उसमें हमेशा एक क़िस्म की स्फूर्ति है; तब भी वह किसी रूमानी अवसाद में डूबी है। वह ऐसी कविता भी है, जो आदमी और उसके बेशुमार रिश्तों की दुनिया को कविता के भूगोल में स्मरणीय ढंग से विन्यस्त करने की चेष्टा करती है। भले उतनी उदग्र न हो जितनी, मस्लन पाब्लो नेरुदा या कि फ़ैज़ की कविता रही है, वह इसी परंपरा में है जिसमें प्रेम और क्रान्ति में, रूमानी सच्चाई और सामाजिक सच्चाई में बुनियादी तौर पर कोई विरोध भाव नहीं है। उसकी आधुनिकता परम्परा का विस्तार है, उसका अवरोध नहीं। वह अपने समय से जो रिश्ता बनाती है वह सीधा-सादा न होकर ख़ासा जटिल है। वह समय को निरी समकालीनता के बाड़े से निकाल कर उसे थोड़ा पीछे और कुछ आगे ले जानी वाली कविता है। फ़राज़ की ज़ुबान में मिठास और अपनी दुनिया में रचे-बसे होने की अनुगूँजें हैं। ज़रूरी होने पर बेबाकी, तीखापन और तंज़ भी है। उसमें उर्दू की अपनी समृद्ध परम्परा की कृतज्ञ याद है। उसमें लयों, बहरों, छन्दों की आश्चर्यजनक विविधता और क्षमता है। सबसे बढ़कर उसमें खुलापन है, जो अहमद फ़राज़ के इन्सानी तौर पर भरे पूरे और चौकन्ने होने का सबूत है। वह मित्र-कविता है जो हमसे आत्मीयता और आत्मविश्वास के साथ बात करती है और हमारे विश्वास आसानी से जीत लेती है। चलिए आज की महफ़िल की समाप्ति अहमद फ़राज़ के इस शेर से करते हैं, जिसमें मोहब्बत की हद बताई गई है:
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे|
इस शेर के बाद चलिए हम अब १९९५ में रीलिज हुई पाकिस्तानी फिल्म "चिफ़ साहब" से इस गज़ल को सुनते हैं, जिसका हर एक मिसरा न जाने कितनी दास्तान सुना जाता है। तो दिल पर हाथ रखकर इस गज़ल का आनंद लें:
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुये लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के _____ में मिलें
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "नसीब" और शेर कुछ यूं था -
हाँ नसीब अपने ही सो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए..
सही शब्द के साथ महफ़िल में सबसे पहली हाज़िरी लगाई "मुरारी पारीक" जी ने। मुरारी जी आपका महफ़िल-ए-गज़ल में हार्दिक स्वागत है। आप आगे भी महफ़िल की शोभा बढाते रहें, इसी कामना के साथ आपका यह शेर पेश-ए-खिदमत है:
जो खिल उठें गुलाब मेरे दिल के बाग़ में
रब्बा, मेरे "नसीब" में ऐसी बहार दे (चरागे-दिल वर्ल्ड प्रेस से)
सजीव जी, आगे से आपको शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा :) इस बार समय की कमी के कारण मैं ज्यादा शोध नहीं कर पाया।
शरद जी, तो कैसी लगी आपकी पसंदीदा नज़्मों पर हमारी यह पेशकश? अपनी राय जाहिर ज़रूर कीजिएगा। यह रहा "नसीब" शब्द पर आपका यह शेर:
नसीब आजमाने के दिन आ रहे है
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं। (फ़ैज़) क्या हुआ..आज कोई स्वरचित शेर नहीं!!
सीमा जी,आपने भी एक से बढकर एक शेर पेश किए। मसलन:
तेरा हिज्र मेरा नसीब है तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे साथ है। (निदा फ़ाज़ली)
आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया (सुदर्शन फ़ाकिर)
कुलदीप जी, आपका पेश किया शेर भी कमाल का है:
बेशक मेरे नसीब पे रख अपना इख्तियार
लेकिन मेरे नसीब में क्या है बता तो दे (राना सहरी)
आप सबके बाद महफ़िल को संभाला शामिख जी ने। शामिख जी, आज से तीन दिनों तक आपकी हीं पसंद की गज़लें पेश होने वाली हैं, इसलिए नदारद मत होईयेगा :) ये रहे आपके शेर:
वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़
जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है (अहमद फ़राज़)
नसीब फिर कोई तक़्रीब-ए-क़र्ब हो के न हो
जो दिल में हों वही बातें किया करो उससे (अहमद फ़राज़) संयोग देखिए कि आज हमने जो गज़ल पेश की है, वो भी फ़राज़ साहब की हीं है।
मंजु जी, हर बार की तरह इस बार भी स्वरचित शेर के साथ नज़र आईं:
ऐ मेरे मालिक ! जब -जब मेरा नसीब जगाया ,
तब -तब गम के रोड़े खुशियों के फूल बन महकने लगे .
अंत में महफ़िल सुमित जी के नाम हुई। ये रही आपकी पेशकश:
नसीब में जिसके जो लिखा था वो तेरी महफ़िल में काम आया,
किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
गाँव को छोड़ के जब कोई शहर जाता है
parvez
सेराब सराबों से भी हम हो गये होते (shaharyar)
तुम भी सहरा में समन्दर बोना (अतीक)
दिन को सराबों का सफ़र! (Gulzar)
regarsd
premchand sahajwala
regards
हमारे पास सराबों का सायबान तो है
(unknown)
regards
सादर नमस्ते .
आप बहुत दिनों बाद जवाब लेकर आए .इन्तजार रहता था .
जवाब -सराबों है .लेकिन इसका अर्थ नहीं मालूम . उर्दू ज्यादा आती नहीं है
कोई अर्थ बताए तो कुछ लिखूं .
सराब का अर्थ होता है "mirage" यानि कि "मरीचिका"
जवाब देने में देरी हो गई, इसके लिए क्षमा कीजिएगा।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
नमस्ते .
अर्थ बताने के लिए आभार .
पंक्तियाँ हाजिर हैं
तमन्ना थी कि तुम्हारे करीब आ जाऊं
सराबों -सा ख्वाब दिल को बहला न सका .