कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो कभी बदलती नहीं। जिस तरह हमारी जीने की चाह कभी खत्म नहीं होती उसी तरह अच्छे गानों को परखने और सुनने की हमारी आरजू भी हमेशा बरकरार रहती है। कहते हैं कि संगीत हर बीमारी का इलाज है। आप अगर निराश बैठे हों तो बस अपने पसंद के किसी गाने को सुनना शुरू कर दें, क्षण भर में हीं आप अपने आप को किसी दूसरी दुनिया में पाएँगे जहाँ ग़म का कोई नाम-ओ-निशान नहीं होगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि किसी भी गाने की धुन में जो "बिट्स" होते हैं वो हमारे "हर्ट बीट" पर असर करते हैं और यही कारण है कि गानों को सुनकर हम सुकून का अनुभव करते हैं। अब जब हमें इतना मालूम है तो क्यों न अपने पसंद के गानों की एक फेहरिश्त बना ली जाए ताकि हर बार सारे गानों को खंगालना न पड़े। यूँ तो हर इंसान की पसंद अलग-अलग होती है,लेकिन कुछ गाने ऐसे होते हैं जो अमूमन सभी को पसंद आते हैं। "आवाज़" की तरफ़ से हमारी कोशिश यही है कि उन्हीं खासमखास गानों को चुनकर आपके सामने पेश किया जाए। २००९ में रीलिज हुए गानों की समीक्षा एक बहाना मात्र है, असल लक्ष्य तो सही गानों को गुनकर, चुनकर और सुनकर सुकून की प्राप्ति करना है। तो आप हैं ना हमारे साथ इस सुकून के सफ़र में?
२००९ के संगीत (हिन्दी फिल्म-संगीत) की बात करें तो यह साल गैर-पारंपरिक शब्दों, धुनों और आवाज़ों के नाम रहा। जहाँ लेखन में पियुष मिश्रा, अमिताभ भट्टाचार्य, स्वानंद किरकिरे और सुब्रत सिन्हा ने लीक से हटकर अल्फ़ाज़ दिए, वहीं अमित त्रिवेदी, पियुष मिश्रा(जी हाँ यहाँ भी) और सोहेल सेन ने संगीत की दुनिया में अच्छे खासे प्रयोग किए। अगर गायकी की बात करें तो इस साल मोहित चौहान, नीरज श्रीधर, रेखा भारद्वाज, आतिफ़ असलम, विशाल दादलानी, सलीम मर्चेंट और हिमेश रेशमिया की आवाज़ों ने धूम मचाई। ऐसा नहीं है कि इस दौरान बाकी फ़नकार हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे। सभी ने अपने हिस्से का काम बखूबी निभाया और इसलिए सब हीं प्रशंसा के पात्र हैं। हम एक-एक करके इन फ़नकारों की फ़नकारी पर नज़र डालेंगे।
इस साल की शुरूआत हीं एक ऐसी खबर से हुई थी कि जिसने न सिर्फ़ बालीवुड बल्कि हालीवुड को हिलाकर रख दिया। "बाफ़्टा" अवार्ड जीतने के बाद ए०आर०रहमान ने अपने एलबम "स्लमडाग मिलिनेअर(करोड़पति)" के जरिये दो आस्कर अवार्ड हिन्दी फिल्म-संगीत की झोली में डाल दिए। लोग कितना भी कहे कि फिल्म हिन्दुस्तानी नहीं थी लेकिन संगीत तो हमारा हीं था, इसलिए इसे अपना कहने में कोई हर्ज नहीं है। यूँ तो हम इस फिल्म के गानों की समीक्षा कर सकते हैं लेकिन चूँकि यह फिल्म २००८ में रीलिज हुई थी, इसलिए इसे छोड़ देना हीं वाजिब होगा। अब जब रहमान की बात हो हीं रही है तो क्यों न लगे हाथ "दिल्ली-६" की भी बात कर ली जाए। इस फिल्म के गानों की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। "मसकली", "दिल गिरा दफ़-अतन", "अर्जियाँ" , "रहना तू", "गेंदाफूल" जैसे गाने रोज-रोज नहीं बनते। जहाँ "नूर" में अमिताभ बच्चन को सुनकर दिल खिल उठता है, वहीं "रहना तू" में रहमान और "गेंदाफूल" में रेखा भारद्वाज की गलाकारी गायिकी के सारे बने-बनाए नियम तोड़ती हैं। प्रयोग के मामले में रहमान का कोई सानी नहीं है। "रहना तू" गाने के अंतिम दो मिनट एक ऐसे वाद्य-यंत्र को समर्पित हैं, जिसका ईजाद इसी साल हुआ है और जो हिन्दुस्तान में बस रहमान के पास हीं है। प्रसून जोशी का लेखन भी कमाल का है। "थोड़ा-सा रेशम तू हमदम, थोड़ा-सा खुरदुरा..बिना सजावट, मिलावट न ज्यादा, ना हीं कम" जैसे शब्द गीतकार की उड़ान को दर्शाते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि दिल्ली-६ का संगीत पैसा वसूल था। इस फिल्म के लाजवाब संगीत के लिए मैं ए०आर०रहमान को बेस्ट कम्पोजर के लिए नामांकित करता हूँ। इसी साल "रहमान" की "ब्लू" भी रीलिज हुई थी। इस फिल्म में रहमान ने कुछ ज्यादा हीं प्रयोग कर दिए और शायद यही कारण है कि बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म के गाने ज्यादा नहीं सुने गए। तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल कभी-कभी गाने की आत्मा को ले डूबता है इस बात का प्रमाण "फिक्राना" को सुनकर मिलता है। इलेक्ट्रोनिक वाद्य-यंत्रों के बीच में गाने के शब्द नदारद मालूम होते हैं और यही कारण है कि श्रोता गाने से खुद को नहीं जोड़ पाता। मुझे इस एलबम के "यार मिला था" और "रहनुमा" ज्यादा पसंद आए। और हाँ फिल्म में इन गानों को नहीं देखकर बुरा भी लगा। "काईली मेनोग" के कारण "चिगी विगी" देखा और सराहा गया। कुल मिलाकर इस एलबम को औसत हीं कहेंगे।
बालीवुड में अमित त्रिवेदी बहुत हीं नया नाम है। "देव डी" से पहले अमित के पास कहने को बस "आमिर" ही था, लेकिन उसी एक फिल्म ने अमित के लिए रास्ते का काम किया और फिर "देव डी" आई। फिल्म में पूरे अठारह गाने थे, जो किसी रिस्क से कम नहीं। आज के दौर में जब संगीतकार कम से कम गानों(उदाहरण: राकेट सिंह, ३ गाने) के साथ सफ़लता का स्वाद चखना चहता है और फिल्मकार भी ज्यादा गाने रखने से डरते हैं, अनुराग कश्यप जैसे लोग पुराने ढर्रों को तोड़ने में यकीन रखते हैं। यकीन मानिए इस फिल्म का कोई भी गाना दूसरे गाने से कमजोर नहीं था। जहाँ "इमोशनल अत्याचार" "यूथ एंथम" बन गया, वहीं "नयन तरसे" ने क्लासिकल मूड के शब्दों के साथ पाश्चात्य संगीत की बढिया जुगलबंदी पेश की। फिल्म में एक तरह "परदेशी" जैसे फास्ट नंबर्स थे तो वहीं "पायलिया" जैसे साफ़्ट रोमांटिक नंबर्स भी थे। अठारह गानों में अमित ने अमूमन १८ मूड्स को समेटा और इस लिहाज से इसे कम्प्लिट एलबम कहा जा सकता है। इस साल के बेस्ट एलबम का मेरा वोट इसी को जाता है। इस एलबम की खासियत यह है कि न सिर्फ़ संगीत की दृष्टि से यह खास थी, बल्कि "अमिताभ भट्टाचार्य" के शब्द भी काबिल-ए-तारीफ़ थे। इस एलबम के अलावा अमित की एक और पेशकश थी और वह थी "वेक अप सिड" का "एकतारा"। जहाँ अमित का संगीत और जावेद साहब के शब्द इसे लाजवाब बनाते हैं, वहीं कविता सेठ की आवाज़ इसे दूसरे ही लेवल पर ले जाती है। "अमिताभ भट्टाचार्य" की आवाज़ में "गूँजा-सा है कोई एकतारा" दिल को छू जाता है। जहाँ तक कविता सेठ का सवाल है तो इसी साल उनकी संगीतबद्ध की हुई "ये मेरा इंडिया" रीलिज हुई थी, जिसमें क्लासिकल बेस्ड कई सारे गाने थे। भले हीं उनकी "एकतारा" हीं नाम कमा सकी, पर मेरे लिए इतना हीं काफ़ी है और "बेस्ट फ़ीमेल सिंगर" का मेरा वोट इन्हीं को जाता है।
इस साल प्रयोगधर्मी फिल्मों की कमी नहीं रही और मेरे अनुसार "गुलाल" भी ऐसी हीं एक फिल्म थी। अनुराग कश्यप जहाँ एक तरफ़ अपने फिल्मों के विषय को लेकर चर्चा में रहें, वहीं संगीतकार और गीतकार का उनका चुनाव भी समझ से परे था। आप खुद हीं सोचिए कि एक ऐसा इंसान जिसने पहले कभी संगीत न दिया हो, उसके हाथों में संगीत के साथ-साथ, गीत और गायिकी का बांगडोर सौंपना कितनी हिम्मत का काम होगा। और अंतत: इस प्रयोग में अनुराग सफल हुए। "पियुष मिश्रा"(थियेटर वालों के लिए पियुष भाई) के शब्दों ने वह कमाल किया कि लोग मुँह खोलकर देखते हीं रह गए। कोई "जैसे दूर देश के टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन" कैसे लिखता है..लोग यही समझ नहीं पा रहे थे और यहाँ अपने पियुष भाई "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" को एक अलग और अनोखा रूप देकर निकल पड़े। "सरफरोशी की तमन्ना" का रूपांतरण भले हीं कोई गाना न हो, लेकिन उसका असर किसी संगीत से कम नहीं था। जहाँ एक ओर "आरंभ है प्रचंड" का उद्घोष लगाया गया, वहीं "शहर" के सहारे सोए लोगों की आत्मा झकझोड़ी गई। शब्दों के इस अद्वितीय चुनाव के लिए बेस्ट लीरिस्ट का मेरा वोट संयुक्त रूप से पियुष भाई और प्रसून जोशी(इनका जिक्र आगे किया जाएगा) को जाता है। पियुष मिश्रा की इसी साल एक और फिल्म आई थी और वह थी "इल्लैया राजा" के संगीत निर्देशन में "चल चलें"। "शहर अमरूद का है ये..शहर है इलाहाबाद" में भी शब्दों का वही बेमिसाल चुनाव दिखता है। हम आगे भी पियुष मिश्रा से ऐसे हीं गानों की उम्मीद रखते हैं।
शंकर-एहसान-लौय(SEL) एक ऐसी तिकड़ी है, जिसके गाने हमेशा हीं सराहे जाते रहे हैं और इस साल भी इन्होंने निराश नहीं किया। यूँ तो इस साल इन्होंने ७ फिल्मों में संगीत दिया लेकिन "लक़ बाई चांस", "वेक अप सिड" और "लंदन ड्रीम्स" हीं इनकी सफल फिल्मों में गिनी जाती हैं। इन फिल्मों के अलावा "सिकंदर" के "धूप के सिक्के" और "गुलों में रंग", "13B" का "क्रेज़ी मामा" ,"चाँदनी चौक को चाईना" का "तेरे नैना" और "शार्टकर्ट" का "कल नौ बजे" भी अच्छे गाने में शुमार किए जाते हैं, लेकिन पूरी एलबम की बात की जाए तो बस तीन हीं ध्यान में आते हैं। इन तीनों में मैं "लक़ बाई चांस" को सबसे ऊपर और "वेक अप सिड" को सबसे नीचे रखता हूँ। "लक़ बाई चांस" का "बावरे" हर लिहाज़ से एक बढिया गीत है। पिक्चराईजेश भी कमाल का है और मेरे हिसाब से बेस्ट पिक्चराज्ड सांग यही है। "राग भैरवी" पर आधारित "सपनों से भरे नैना" की जितनी भी तारीफ़ की जाए उतनी कम है। न सिर्फ़ संगीत काबिल-ए-तारीफ़ है, बल्कि जावेद अख्शतर के ब्द भी सच्चाई के बेहद करीब नज़र आते हैं और गायिकी के लिए क्या कहना...जब खुद शंकर हीं माईक के पीछे हों। इस कारण "बेस्ट सांग आफ़ द ईयर" का मेरा वोट "सपनों से भरे नैना" और "कमीने"(इसके बारे में बातें अगले पैराग्राफ़ में) को संयुक्त रूप से जाता है। इस फिल्म के बाकी गाने भी खूबसूरत बन पड़े हैं। अब अगर "लंदन ड्रीम्स" की बात की जाए तो "बरसो यारों", "टपके मस्ती" और "शोला-शोला" एक अलग तरह का हीं माहौल तैयार करते हैं जहाँ जोश हीं जोश रवाँ हो। "खानाबदोश" हर तरह से नया है। पहले तो यह शब्द हीं कईयों के लिए अजनबी है, फिर "आ जमाने आ, आजमाने आ" जैसे प्रयोग हिन्दी गानों में सुनने को नहीं मिलते..शायद यही कारण है कि मुझे यह गाना बेहद पसंद है। बस इसी प्रयोग के लिए मैं प्रसून जोशी को बेस्ट लीरिस्ट के रूप में नामांकित करता हूँ। आप अभी तक समझ हीं गए होंगे कि मैं प्रसून जोशी के प्रयोगों का कितना बड़ प्रशंसक हूँ। अंत में "वेक अप सिड"... इस फिल्म का बस टाईटल ट्रैक हीं SEL के लिए(और हमारे लिए भी) सुकूनदायक साबित हुआ।
विशाल भारद्वाज की संगीतकार के तौर पर इस साल एक हीं फिल्म आई "कमीने"। "कमीने" के "धन-तनन" ने युवाओं को झूमने पर मजबूर कर दिया। पुरानी फिल्मों में हजार बार इस्तेमाल हो चुके ट्युन का आधुनकीकरण किस तरह करते हैं वह सही मायने में विशाल ने हीं सिखाया। इस फिल्म के टाईटल ट्रैक में विशाल ने अपनी आवाज़ दी। अगर यह कहूँ कि इस गाने ने इंसानी इरादों के चिथड़े करके रख दिये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी खूबी के कारण इस गाने को मैं बेस्ट सांग के लिए नामांकित करता हूँ। गुलज़ार साहब इस तरह के गानों में माहिर माने जाते हैं। और उन्होंने इस गाने और "पहली बार मोहब्बत की है" के माध्यम से यह बात फिर से साबित की। "एड्स-जारूगकता" के लिए बनाया गया "फटाक" भी अपने उद्देश्य में सफल रहा। तो कुल मिलाकर यह एलबम हीं सफल कही जाएगी। "पहली बार मोहब्बत की है" में मोहित चौहान की रेशमी आवाज़ खुलकर सामने आती है। यूँ तो मोहित सुर्खियों में तब आए जब "मसकली" इनकी आवाज़ में खिल उठी लेकिन इस साल इन्होंने इन दो गानों के अलावा और भी कई खूबसूरत गाने गाए। कहते हैं कि मोहित की आवाज़ किसी भी गाने के लिए सफलता की गारंटी है। अगर यही है तो क्यों न बेस्ट मेल सिंगर के लिए मोहित को चुन लिया जाए।
विशाल-शेखर इस बार बस एक हीं एलबम के साथ मैदान में नज़र आए। और यह एलबम भी कुछ खासा कमाल नहीं दिखा पाई। बस एक गाना "यु आर द वन" हीं लोगों की जुबान पर चढ सका। वैसे मैं यह मानता हूँ कि यह गाना बेहद खूबसूरत बन पड़ा है और यह इसलिए भी प्रशंसा के काबिल है क्योंकि इसे लिखा खुद विशाल ने है और आवाज़ें भी इन्हीं दोनों की हैं। इस साल विशाल का नाम संगीत के लिए भले न हुआ हो लेकिन गायिकी में विशाल ने अपने झंडे जरूर गाड़े। "धन-तनन", "कुर्बां हुआ" और "नज़ारा है" कुछ उदाहरण-मात्र हैं। अब बात करते हैं अगली संगीतकार जोड़ी की और वह है "सलीम-सुलेमान".. इस साल इनकी चार फिल्में आईं- "8X10 तस्वीर", "लक़" ,"कुर्बान" और "राकेट सिंह".. इन फिल्मों में बस कुर्बान हीं है जिसके सारे गाने पसंद किए गए। यहाँ "सोनू निगम" और "श्रेया घोषाल" की आवाज़ों से सजा "शुक्रान अल्लाह" का ज़िक्र जरूरी हो जाता है, क्योंकि इस गाने से सोनू निगम पुराने फार्म में लौटते हुए नज़र आते हैं। श्रेया घोषाल इस गाने में अपने दूसरे गानों की तरह हीं सधी हुई दिखती हैं। इन सारी फिल्मों के अच्छे गानों में एक बात समान है और वह है सलीम मर्चेंट की आवाज़। "लक़" का "खुदाया वे", "कुर्बान" का "अली मौला" और "राकेट सिंह" का "पंखों को हवा" सलीम की प्रतिभा से हमें रूबरू कराते हैं। एक और संगीतकार जोड़ी है जो सलमान खान की फेवरेट मानी जाती है और वह है.. "साजिद-वाजिद"... इस साल इनकी झोली में बस एक हीं सफल फिल्म है "वांटेड"। इस फिल्म के "लव मी..लव मी" , "तोसे प्यार करते हैं" और "दिल ले के" गाने सराहे गए। और यहाँ भी वही फैक्टर हावी था..संगीतकार का खुद माईक के पीछे जाना। वाज़िद ने इस फिल्म के जिन दो गानों में अपनी आवाज़ दी वही गाने सुपरहिट हुए। तो कहा जा सकता है कि बालीवुड में यह ट्रेंड बन चुका है कि खुद के गाने को खुद हीं गाओ...और यह सफल भी हो रहा है तो कुछ और क्यों सोचा जाए।
इस साल हमें कई सारे नए संगीतकार मिले..जैसे कि "शरीब- तोषी"(राज़ 2- द मिस्ट्री कन्टीन्युज, जश्न , जेल), "सचिन-जिगर"(तेरे संग) और "सोहेल सेन"(वाट्स योर राशि)। यूँ तो इन सारे संगीतकारों में "शरीब-तोषी" सबसे ज्यादा सफल साबित हुए लेकिन मेरे हिसाब से "बेस्ट अपकमिंग आर्टिस्ट" का माद्दा सोहेल सेन में नज़र आता है। सोहेल ने "वाट्स योर राशि" में तेरह गाने दिए और तेरहों गाने लोगों को पसंद आए। ऐसा कम लोगों के हीं साथ होता है। इस फिल्म से "सू छे" ,"जाओ ना", "सौ जनम" और "आ ले चल" आज भी मेरे प्लेलिस्ट में शामिल हैं।
हिमेश रेशमिया "रेडियो" के साथ सेल्युलायड पर वापस नज़र आए। वादे के अनुसार इन्होंने तीन आवाज़ें तैयार कर ली हैं। "मन का रेडियो", "ज़िंदगी जैसे एक रेडियो", "जानेमन", "पिया जैसे लड्डु" जैसे गानों में उनकी इस बात का प्रमाण मिलता है। इस एलबम को लोगों ने बेहद पसंद किया...और फिल्म की असफलता का भी इस एलबम पर कोई असर न हुआ। भविष्य में हम हिमेश से ऐसे हीं एलबमों और गानों की आशा करते हैं| इस फिल्म के बहाने हमें "सुब्रत सिन्हा" जैसा मंझा हुआ गीतकार भी नसीब हुआ।
लीविंग लीजेंड "इल्लैया राजा" की इस साल दो फिल्में रीलिज हुईं.."चल चलें" और "पा"। "चल चलें" कोई खासा नाम न कर सकी, लेकिन "पा" में हमने उसी पुराने "इल्लैया राजा" के दर्शन किए जिनकी गीतों के हम फैन हैं। "हिचकी", "मुड़ी-मुड़ी" और "गुमसुम गुम" अपने हीं तरह के गीत हैं तो "मेरे पा" में "अमिताभ" का बच्चे की आवाज़ में गायन दिल को छू जाता है। इन गानों की सफलता में जिस इंसान का बराबर का सहयोग है, वे हैं इस फिल्म के गीतकार "स्वानंद किरकिरे"। गानों में "हिचकी", "सिसकी", "मुड़ी-मुड़ी" जैसे शब्दों का प्रयोग विरले हीं देखने को मिलता है। और अगर ऐसे अलग-से शब्द सुनने को मिल जाएँ तो श्रोता एकबारगी हीं उस गाने से जुड़ जाता है। यही कारण है कि स्वानंद किरकिरे के लिखे गाने काफी पसंद किए जाते हैं। "पा" के बाद स्वानंद किरकिरे अपने पसंदीदा संगीतकार "शांतनु मोइत्रा" के साथ "३ इडियट्स" में भी नज़र आए। "मुर्गी क्या जाने अंडे का क्या होगा", "जाने नहीं देंगे तुझे", "जैसा फिल्मों में होता है" जैसे अल्फ़ाज़ इस फिल्म के गानों को एक अलग हीं स्तर पर ले जाते हैं। "शांतनु" का संगीत सुलझा हुआ है। इस फिल्म के गाने भी धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ रहे हैं। बहुत दिनों के बाद सोनू निगम ने किसी एलबम के ४ गाने गाए हैं और चारों हीं अलग-अलग अंदाज में। "जाने नहीं देंगे तुझे" में सोनू ने अवार्ड-विनिंग सिंगिंग की है और हम भी यह उम्मीद रखते हैं कि सोनू को इस गाने के लिए पुरस्कार से नवाज़ा जाएगा।
अब हम बात करते हैं इस साल के सबसे सफल संगीतकार "प्रीतम चक्रवर्ती" की। इस साल प्रीतम ने १२ फिल्मों में संगीत दिए जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। इन फिल्मों में से "लव आज कल", "न्यूयार्क", "अजब प्रेम की गज़ब कहानी", "दिल बोले हडिप्पा", "दे दनादन", "बिल्लू" और "तुम मिले" के गानों ने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। "लव आज कल" के "आहुं आहुं" और "ये दूरियाँ" , "अजब प्रेम.." के "तेरा होने लगा हूँ", "तू जाने ना" और "प्रेम की नैय्या" और "तुम मिले" के "दिल इबादत" और "तुम मिले" चार्ट में हमेशा हीं ऊपर रहे। प्रीतम के साथ कुछ गीतकार परमानेन्टली फिक्स्ड जैसे हैं..उन गीतकारों में दो का नाम लेना लाजिमी हो जाता है..इरशाद क़ामिल और सैयद क़ादरी। इन दोनों में से इरशाद क़ामिल मुझे ज्यादा प्रिय हैं क्योंकि प्रयोग करने से वे भी नहीं घबराते। जहाँ तक गायकों की बात है तो नीरज श्रीधर प्रीतम के हर दूसरे गाने में नज़र आते हैं, लेकिन यह प्रीतम और नीरज की काबिलियत हीं है कि दुहराव का पता नहीं चलता। नीरज के बाद "राहत फतेह अली खान" भी प्रीतम के पसंदीदा हो चले हैं। "आज दिन चढ्या", "जाऊँ कहाँ" और "यु एंड आई" जैसे गाने वैसे तो राहत के स्तर से काफी नीचे के हैं, लेकिन इन गानों में उनको सुनना अच्छा हीं लगता है। "के के" भी प्रीतम को काफी प्रिय हैं। आने वाले समय में देखने वाली यह बात होगी कि प्रीतम इनके अलावा और किसी को दुहराते हैं या नहीं। प्रीतम की सफलता का प्रतिशत देखकर इस साल का आर्टिस्ट आफ़ द ईयर इनके अलावा कोई और नहीं सुझता।
इस साल दो ऐसे गाने हुए(मेरी याद में) जो यूँ तो हैं बड़े हीं प्यारे लेकिन लोगों द्वारा नज़र-अंदाज कर दिये गए। उनमें से एक गाना है फिल्म "देख भाई देख" का जिसे संगीत से सजाया है "नायब-शादाब" ने और लिखा है "राशिद फिरोज़ाबादी" ने। "राहत फतेह अली खान" के लिखे इस गाने के बोल हैं "आँखों में क्यों नमी है"। मेरे हिसाब से इस पूरे साल राहत साहब के स्तर का बस यही एक गाना था, जिसे बदकिस्मती से लोगों ने सुना हीं नहीं। दूसरा गाना है फिल्म "तेरे संग" का "मोरे सैंया"। इस गीत में संगीत और आवाज़ें हैं "सचिन-जिगर" की और गाने के बोल लिखे हैं पिछले जमाने के सदाबहार गीतकार "समीर" ने। वैसे और भी कई गाने होंगे जिन्हें उनका हक़ नसीब नहीं हुआ। लेकिन मुझे अभी बस यही दो गाने ध्यान में आ रहे हैं।
फिल्मी-गानों की समीक्षा करने के बाद अब मैं अपनी पसंद के शीर्ष पाँच गानों की फेहरिश्त पेश करने जा रहा हूँ:
१) सपनों से भरे नैना
२) कमीने
३) रहना तू
४) तू जाने ना
५) नयन तरसे
अब हम समीक्षा के अंतिम पड़ाव पर आ चुके हैं। तो बात करते हैं गैर-फिल्मी गानों की। इस साल प्रधान तौर पर दो हीं गैर-फिल्मी एलबम रीलिज हुए। एक- कैलाश, परेश, नरेश का "चांदन में" तो दूसरा मोहित चौहान का "फितूर"। "चांदन मे" में कैलाश के पहले के एलबमों जैसा दम नहीं था। फिर भी कुछ गाने लोगों को काफी रास आए। जैसे कि "चांदन में", "चेरापूँजी" और "ना बताती तू"। कैलाश, परेश, नरेश को सुनना हमेशा से हीं फायदे का सौदा रहा है, इसलिए बेस्ट नान-फिल्मी सांग का मेरा वोट "चांदन में" को हीं जाता है। साल का अंत आते-आते मोहित की आवाज़ का जादू सर चढकर बोलने लगा था और उसी समय मोहित ने "फितूर" लाकर उस जादू को कई गुना कर दिया। मोहित की आवाज़ में पहाड़ीपन है और वह उनके गानों में भी झलकता है। "फितूर" एलबम से "माई नी मेरिए" मेरा इस एलबम का सबसे प्रिय गाना है। दुआ करते हैं कि "मोहित" हर साल ऐसा हीं कमाल करते रहें और हमारे दिलों पर उनके गानों का असर कभी कम न हो।
उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारी यह समीक्षा पसंद आई होगी।
आप सबको नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
विश्व दीपक
२००९ के संगीत (हिन्दी फिल्म-संगीत) की बात करें तो यह साल गैर-पारंपरिक शब्दों, धुनों और आवाज़ों के नाम रहा। जहाँ लेखन में पियुष मिश्रा, अमिताभ भट्टाचार्य, स्वानंद किरकिरे और सुब्रत सिन्हा ने लीक से हटकर अल्फ़ाज़ दिए, वहीं अमित त्रिवेदी, पियुष मिश्रा(जी हाँ यहाँ भी) और सोहेल सेन ने संगीत की दुनिया में अच्छे खासे प्रयोग किए। अगर गायकी की बात करें तो इस साल मोहित चौहान, नीरज श्रीधर, रेखा भारद्वाज, आतिफ़ असलम, विशाल दादलानी, सलीम मर्चेंट और हिमेश रेशमिया की आवाज़ों ने धूम मचाई। ऐसा नहीं है कि इस दौरान बाकी फ़नकार हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे। सभी ने अपने हिस्से का काम बखूबी निभाया और इसलिए सब हीं प्रशंसा के पात्र हैं। हम एक-एक करके इन फ़नकारों की फ़नकारी पर नज़र डालेंगे।
इस साल की शुरूआत हीं एक ऐसी खबर से हुई थी कि जिसने न सिर्फ़ बालीवुड बल्कि हालीवुड को हिलाकर रख दिया। "बाफ़्टा" अवार्ड जीतने के बाद ए०आर०रहमान ने अपने एलबम "स्लमडाग मिलिनेअर(करोड़पति)" के जरिये दो आस्कर अवार्ड हिन्दी फिल्म-संगीत की झोली में डाल दिए। लोग कितना भी कहे कि फिल्म हिन्दुस्तानी नहीं थी लेकिन संगीत तो हमारा हीं था, इसलिए इसे अपना कहने में कोई हर्ज नहीं है। यूँ तो हम इस फिल्म के गानों की समीक्षा कर सकते हैं लेकिन चूँकि यह फिल्म २००८ में रीलिज हुई थी, इसलिए इसे छोड़ देना हीं वाजिब होगा। अब जब रहमान की बात हो हीं रही है तो क्यों न लगे हाथ "दिल्ली-६" की भी बात कर ली जाए। इस फिल्म के गानों की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। "मसकली", "दिल गिरा दफ़-अतन", "अर्जियाँ" , "रहना तू", "गेंदाफूल" जैसे गाने रोज-रोज नहीं बनते। जहाँ "नूर" में अमिताभ बच्चन को सुनकर दिल खिल उठता है, वहीं "रहना तू" में रहमान और "गेंदाफूल" में रेखा भारद्वाज की गलाकारी गायिकी के सारे बने-बनाए नियम तोड़ती हैं। प्रयोग के मामले में रहमान का कोई सानी नहीं है। "रहना तू" गाने के अंतिम दो मिनट एक ऐसे वाद्य-यंत्र को समर्पित हैं, जिसका ईजाद इसी साल हुआ है और जो हिन्दुस्तान में बस रहमान के पास हीं है। प्रसून जोशी का लेखन भी कमाल का है। "थोड़ा-सा रेशम तू हमदम, थोड़ा-सा खुरदुरा..बिना सजावट, मिलावट न ज्यादा, ना हीं कम" जैसे शब्द गीतकार की उड़ान को दर्शाते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि दिल्ली-६ का संगीत पैसा वसूल था। इस फिल्म के लाजवाब संगीत के लिए मैं ए०आर०रहमान को बेस्ट कम्पोजर के लिए नामांकित करता हूँ। इसी साल "रहमान" की "ब्लू" भी रीलिज हुई थी। इस फिल्म में रहमान ने कुछ ज्यादा हीं प्रयोग कर दिए और शायद यही कारण है कि बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म के गाने ज्यादा नहीं सुने गए। तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल कभी-कभी गाने की आत्मा को ले डूबता है इस बात का प्रमाण "फिक्राना" को सुनकर मिलता है। इलेक्ट्रोनिक वाद्य-यंत्रों के बीच में गाने के शब्द नदारद मालूम होते हैं और यही कारण है कि श्रोता गाने से खुद को नहीं जोड़ पाता। मुझे इस एलबम के "यार मिला था" और "रहनुमा" ज्यादा पसंद आए। और हाँ फिल्म में इन गानों को नहीं देखकर बुरा भी लगा। "काईली मेनोग" के कारण "चिगी विगी" देखा और सराहा गया। कुल मिलाकर इस एलबम को औसत हीं कहेंगे।
बालीवुड में अमित त्रिवेदी बहुत हीं नया नाम है। "देव डी" से पहले अमित के पास कहने को बस "आमिर" ही था, लेकिन उसी एक फिल्म ने अमित के लिए रास्ते का काम किया और फिर "देव डी" आई। फिल्म में पूरे अठारह गाने थे, जो किसी रिस्क से कम नहीं। आज के दौर में जब संगीतकार कम से कम गानों(उदाहरण: राकेट सिंह, ३ गाने) के साथ सफ़लता का स्वाद चखना चहता है और फिल्मकार भी ज्यादा गाने रखने से डरते हैं, अनुराग कश्यप जैसे लोग पुराने ढर्रों को तोड़ने में यकीन रखते हैं। यकीन मानिए इस फिल्म का कोई भी गाना दूसरे गाने से कमजोर नहीं था। जहाँ "इमोशनल अत्याचार" "यूथ एंथम" बन गया, वहीं "नयन तरसे" ने क्लासिकल मूड के शब्दों के साथ पाश्चात्य संगीत की बढिया जुगलबंदी पेश की। फिल्म में एक तरह "परदेशी" जैसे फास्ट नंबर्स थे तो वहीं "पायलिया" जैसे साफ़्ट रोमांटिक नंबर्स भी थे। अठारह गानों में अमित ने अमूमन १८ मूड्स को समेटा और इस लिहाज से इसे कम्प्लिट एलबम कहा जा सकता है। इस साल के बेस्ट एलबम का मेरा वोट इसी को जाता है। इस एलबम की खासियत यह है कि न सिर्फ़ संगीत की दृष्टि से यह खास थी, बल्कि "अमिताभ भट्टाचार्य" के शब्द भी काबिल-ए-तारीफ़ थे। इस एलबम के अलावा अमित की एक और पेशकश थी और वह थी "वेक अप सिड" का "एकतारा"। जहाँ अमित का संगीत और जावेद साहब के शब्द इसे लाजवाब बनाते हैं, वहीं कविता सेठ की आवाज़ इसे दूसरे ही लेवल पर ले जाती है। "अमिताभ भट्टाचार्य" की आवाज़ में "गूँजा-सा है कोई एकतारा" दिल को छू जाता है। जहाँ तक कविता सेठ का सवाल है तो इसी साल उनकी संगीतबद्ध की हुई "ये मेरा इंडिया" रीलिज हुई थी, जिसमें क्लासिकल बेस्ड कई सारे गाने थे। भले हीं उनकी "एकतारा" हीं नाम कमा सकी, पर मेरे लिए इतना हीं काफ़ी है और "बेस्ट फ़ीमेल सिंगर" का मेरा वोट इन्हीं को जाता है।
इस साल प्रयोगधर्मी फिल्मों की कमी नहीं रही और मेरे अनुसार "गुलाल" भी ऐसी हीं एक फिल्म थी। अनुराग कश्यप जहाँ एक तरफ़ अपने फिल्मों के विषय को लेकर चर्चा में रहें, वहीं संगीतकार और गीतकार का उनका चुनाव भी समझ से परे था। आप खुद हीं सोचिए कि एक ऐसा इंसान जिसने पहले कभी संगीत न दिया हो, उसके हाथों में संगीत के साथ-साथ, गीत और गायिकी का बांगडोर सौंपना कितनी हिम्मत का काम होगा। और अंतत: इस प्रयोग में अनुराग सफल हुए। "पियुष मिश्रा"(थियेटर वालों के लिए पियुष भाई) के शब्दों ने वह कमाल किया कि लोग मुँह खोलकर देखते हीं रह गए। कोई "जैसे दूर देश के टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन" कैसे लिखता है..लोग यही समझ नहीं पा रहे थे और यहाँ अपने पियुष भाई "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" को एक अलग और अनोखा रूप देकर निकल पड़े। "सरफरोशी की तमन्ना" का रूपांतरण भले हीं कोई गाना न हो, लेकिन उसका असर किसी संगीत से कम नहीं था। जहाँ एक ओर "आरंभ है प्रचंड" का उद्घोष लगाया गया, वहीं "शहर" के सहारे सोए लोगों की आत्मा झकझोड़ी गई। शब्दों के इस अद्वितीय चुनाव के लिए बेस्ट लीरिस्ट का मेरा वोट संयुक्त रूप से पियुष भाई और प्रसून जोशी(इनका जिक्र आगे किया जाएगा) को जाता है। पियुष मिश्रा की इसी साल एक और फिल्म आई थी और वह थी "इल्लैया राजा" के संगीत निर्देशन में "चल चलें"। "शहर अमरूद का है ये..शहर है इलाहाबाद" में भी शब्दों का वही बेमिसाल चुनाव दिखता है। हम आगे भी पियुष मिश्रा से ऐसे हीं गानों की उम्मीद रखते हैं।
शंकर-एहसान-लौय(SEL) एक ऐसी तिकड़ी है, जिसके गाने हमेशा हीं सराहे जाते रहे हैं और इस साल भी इन्होंने निराश नहीं किया। यूँ तो इस साल इन्होंने ७ फिल्मों में संगीत दिया लेकिन "लक़ बाई चांस", "वेक अप सिड" और "लंदन ड्रीम्स" हीं इनकी सफल फिल्मों में गिनी जाती हैं। इन फिल्मों के अलावा "सिकंदर" के "धूप के सिक्के" और "गुलों में रंग", "13B" का "क्रेज़ी मामा" ,"चाँदनी चौक को चाईना" का "तेरे नैना" और "शार्टकर्ट" का "कल नौ बजे" भी अच्छे गाने में शुमार किए जाते हैं, लेकिन पूरी एलबम की बात की जाए तो बस तीन हीं ध्यान में आते हैं। इन तीनों में मैं "लक़ बाई चांस" को सबसे ऊपर और "वेक अप सिड" को सबसे नीचे रखता हूँ। "लक़ बाई चांस" का "बावरे" हर लिहाज़ से एक बढिया गीत है। पिक्चराईजेश भी कमाल का है और मेरे हिसाब से बेस्ट पिक्चराज्ड सांग यही है। "राग भैरवी" पर आधारित "सपनों से भरे नैना" की जितनी भी तारीफ़ की जाए उतनी कम है। न सिर्फ़ संगीत काबिल-ए-तारीफ़ है, बल्कि जावेद अख्शतर के ब्द भी सच्चाई के बेहद करीब नज़र आते हैं और गायिकी के लिए क्या कहना...जब खुद शंकर हीं माईक के पीछे हों। इस कारण "बेस्ट सांग आफ़ द ईयर" का मेरा वोट "सपनों से भरे नैना" और "कमीने"(इसके बारे में बातें अगले पैराग्राफ़ में) को संयुक्त रूप से जाता है। इस फिल्म के बाकी गाने भी खूबसूरत बन पड़े हैं। अब अगर "लंदन ड्रीम्स" की बात की जाए तो "बरसो यारों", "टपके मस्ती" और "शोला-शोला" एक अलग तरह का हीं माहौल तैयार करते हैं जहाँ जोश हीं जोश रवाँ हो। "खानाबदोश" हर तरह से नया है। पहले तो यह शब्द हीं कईयों के लिए अजनबी है, फिर "आ जमाने आ, आजमाने आ" जैसे प्रयोग हिन्दी गानों में सुनने को नहीं मिलते..शायद यही कारण है कि मुझे यह गाना बेहद पसंद है। बस इसी प्रयोग के लिए मैं प्रसून जोशी को बेस्ट लीरिस्ट के रूप में नामांकित करता हूँ। आप अभी तक समझ हीं गए होंगे कि मैं प्रसून जोशी के प्रयोगों का कितना बड़ प्रशंसक हूँ। अंत में "वेक अप सिड"... इस फिल्म का बस टाईटल ट्रैक हीं SEL के लिए(और हमारे लिए भी) सुकूनदायक साबित हुआ।
विशाल भारद्वाज की संगीतकार के तौर पर इस साल एक हीं फिल्म आई "कमीने"। "कमीने" के "धन-तनन" ने युवाओं को झूमने पर मजबूर कर दिया। पुरानी फिल्मों में हजार बार इस्तेमाल हो चुके ट्युन का आधुनकीकरण किस तरह करते हैं वह सही मायने में विशाल ने हीं सिखाया। इस फिल्म के टाईटल ट्रैक में विशाल ने अपनी आवाज़ दी। अगर यह कहूँ कि इस गाने ने इंसानी इरादों के चिथड़े करके रख दिये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी खूबी के कारण इस गाने को मैं बेस्ट सांग के लिए नामांकित करता हूँ। गुलज़ार साहब इस तरह के गानों में माहिर माने जाते हैं। और उन्होंने इस गाने और "पहली बार मोहब्बत की है" के माध्यम से यह बात फिर से साबित की। "एड्स-जारूगकता" के लिए बनाया गया "फटाक" भी अपने उद्देश्य में सफल रहा। तो कुल मिलाकर यह एलबम हीं सफल कही जाएगी। "पहली बार मोहब्बत की है" में मोहित चौहान की रेशमी आवाज़ खुलकर सामने आती है। यूँ तो मोहित सुर्खियों में तब आए जब "मसकली" इनकी आवाज़ में खिल उठी लेकिन इस साल इन्होंने इन दो गानों के अलावा और भी कई खूबसूरत गाने गाए। कहते हैं कि मोहित की आवाज़ किसी भी गाने के लिए सफलता की गारंटी है। अगर यही है तो क्यों न बेस्ट मेल सिंगर के लिए मोहित को चुन लिया जाए।
विशाल-शेखर इस बार बस एक हीं एलबम के साथ मैदान में नज़र आए। और यह एलबम भी कुछ खासा कमाल नहीं दिखा पाई। बस एक गाना "यु आर द वन" हीं लोगों की जुबान पर चढ सका। वैसे मैं यह मानता हूँ कि यह गाना बेहद खूबसूरत बन पड़ा है और यह इसलिए भी प्रशंसा के काबिल है क्योंकि इसे लिखा खुद विशाल ने है और आवाज़ें भी इन्हीं दोनों की हैं। इस साल विशाल का नाम संगीत के लिए भले न हुआ हो लेकिन गायिकी में विशाल ने अपने झंडे जरूर गाड़े। "धन-तनन", "कुर्बां हुआ" और "नज़ारा है" कुछ उदाहरण-मात्र हैं। अब बात करते हैं अगली संगीतकार जोड़ी की और वह है "सलीम-सुलेमान".. इस साल इनकी चार फिल्में आईं- "8X10 तस्वीर", "लक़" ,"कुर्बान" और "राकेट सिंह".. इन फिल्मों में बस कुर्बान हीं है जिसके सारे गाने पसंद किए गए। यहाँ "सोनू निगम" और "श्रेया घोषाल" की आवाज़ों से सजा "शुक्रान अल्लाह" का ज़िक्र जरूरी हो जाता है, क्योंकि इस गाने से सोनू निगम पुराने फार्म में लौटते हुए नज़र आते हैं। श्रेया घोषाल इस गाने में अपने दूसरे गानों की तरह हीं सधी हुई दिखती हैं। इन सारी फिल्मों के अच्छे गानों में एक बात समान है और वह है सलीम मर्चेंट की आवाज़। "लक़" का "खुदाया वे", "कुर्बान" का "अली मौला" और "राकेट सिंह" का "पंखों को हवा" सलीम की प्रतिभा से हमें रूबरू कराते हैं। एक और संगीतकार जोड़ी है जो सलमान खान की फेवरेट मानी जाती है और वह है.. "साजिद-वाजिद"... इस साल इनकी झोली में बस एक हीं सफल फिल्म है "वांटेड"। इस फिल्म के "लव मी..लव मी" , "तोसे प्यार करते हैं" और "दिल ले के" गाने सराहे गए। और यहाँ भी वही फैक्टर हावी था..संगीतकार का खुद माईक के पीछे जाना। वाज़िद ने इस फिल्म के जिन दो गानों में अपनी आवाज़ दी वही गाने सुपरहिट हुए। तो कहा जा सकता है कि बालीवुड में यह ट्रेंड बन चुका है कि खुद के गाने को खुद हीं गाओ...और यह सफल भी हो रहा है तो कुछ और क्यों सोचा जाए।
इस साल हमें कई सारे नए संगीतकार मिले..जैसे कि "शरीब- तोषी"(राज़ 2- द मिस्ट्री कन्टीन्युज, जश्न , जेल), "सचिन-जिगर"(तेरे संग) और "सोहेल सेन"(वाट्स योर राशि)। यूँ तो इन सारे संगीतकारों में "शरीब-तोषी" सबसे ज्यादा सफल साबित हुए लेकिन मेरे हिसाब से "बेस्ट अपकमिंग आर्टिस्ट" का माद्दा सोहेल सेन में नज़र आता है। सोहेल ने "वाट्स योर राशि" में तेरह गाने दिए और तेरहों गाने लोगों को पसंद आए। ऐसा कम लोगों के हीं साथ होता है। इस फिल्म से "सू छे" ,"जाओ ना", "सौ जनम" और "आ ले चल" आज भी मेरे प्लेलिस्ट में शामिल हैं।
हिमेश रेशमिया "रेडियो" के साथ सेल्युलायड पर वापस नज़र आए। वादे के अनुसार इन्होंने तीन आवाज़ें तैयार कर ली हैं। "मन का रेडियो", "ज़िंदगी जैसे एक रेडियो", "जानेमन", "पिया जैसे लड्डु" जैसे गानों में उनकी इस बात का प्रमाण मिलता है। इस एलबम को लोगों ने बेहद पसंद किया...और फिल्म की असफलता का भी इस एलबम पर कोई असर न हुआ। भविष्य में हम हिमेश से ऐसे हीं एलबमों और गानों की आशा करते हैं| इस फिल्म के बहाने हमें "सुब्रत सिन्हा" जैसा मंझा हुआ गीतकार भी नसीब हुआ।
लीविंग लीजेंड "इल्लैया राजा" की इस साल दो फिल्में रीलिज हुईं.."चल चलें" और "पा"। "चल चलें" कोई खासा नाम न कर सकी, लेकिन "पा" में हमने उसी पुराने "इल्लैया राजा" के दर्शन किए जिनकी गीतों के हम फैन हैं। "हिचकी", "मुड़ी-मुड़ी" और "गुमसुम गुम" अपने हीं तरह के गीत हैं तो "मेरे पा" में "अमिताभ" का बच्चे की आवाज़ में गायन दिल को छू जाता है। इन गानों की सफलता में जिस इंसान का बराबर का सहयोग है, वे हैं इस फिल्म के गीतकार "स्वानंद किरकिरे"। गानों में "हिचकी", "सिसकी", "मुड़ी-मुड़ी" जैसे शब्दों का प्रयोग विरले हीं देखने को मिलता है। और अगर ऐसे अलग-से शब्द सुनने को मिल जाएँ तो श्रोता एकबारगी हीं उस गाने से जुड़ जाता है। यही कारण है कि स्वानंद किरकिरे के लिखे गाने काफी पसंद किए जाते हैं। "पा" के बाद स्वानंद किरकिरे अपने पसंदीदा संगीतकार "शांतनु मोइत्रा" के साथ "३ इडियट्स" में भी नज़र आए। "मुर्गी क्या जाने अंडे का क्या होगा", "जाने नहीं देंगे तुझे", "जैसा फिल्मों में होता है" जैसे अल्फ़ाज़ इस फिल्म के गानों को एक अलग हीं स्तर पर ले जाते हैं। "शांतनु" का संगीत सुलझा हुआ है। इस फिल्म के गाने भी धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ रहे हैं। बहुत दिनों के बाद सोनू निगम ने किसी एलबम के ४ गाने गाए हैं और चारों हीं अलग-अलग अंदाज में। "जाने नहीं देंगे तुझे" में सोनू ने अवार्ड-विनिंग सिंगिंग की है और हम भी यह उम्मीद रखते हैं कि सोनू को इस गाने के लिए पुरस्कार से नवाज़ा जाएगा।
अब हम बात करते हैं इस साल के सबसे सफल संगीतकार "प्रीतम चक्रवर्ती" की। इस साल प्रीतम ने १२ फिल्मों में संगीत दिए जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। इन फिल्मों में से "लव आज कल", "न्यूयार्क", "अजब प्रेम की गज़ब कहानी", "दिल बोले हडिप्पा", "दे दनादन", "बिल्लू" और "तुम मिले" के गानों ने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। "लव आज कल" के "आहुं आहुं" और "ये दूरियाँ" , "अजब प्रेम.." के "तेरा होने लगा हूँ", "तू जाने ना" और "प्रेम की नैय्या" और "तुम मिले" के "दिल इबादत" और "तुम मिले" चार्ट में हमेशा हीं ऊपर रहे। प्रीतम के साथ कुछ गीतकार परमानेन्टली फिक्स्ड जैसे हैं..उन गीतकारों में दो का नाम लेना लाजिमी हो जाता है..इरशाद क़ामिल और सैयद क़ादरी। इन दोनों में से इरशाद क़ामिल मुझे ज्यादा प्रिय हैं क्योंकि प्रयोग करने से वे भी नहीं घबराते। जहाँ तक गायकों की बात है तो नीरज श्रीधर प्रीतम के हर दूसरे गाने में नज़र आते हैं, लेकिन यह प्रीतम और नीरज की काबिलियत हीं है कि दुहराव का पता नहीं चलता। नीरज के बाद "राहत फतेह अली खान" भी प्रीतम के पसंदीदा हो चले हैं। "आज दिन चढ्या", "जाऊँ कहाँ" और "यु एंड आई" जैसे गाने वैसे तो राहत के स्तर से काफी नीचे के हैं, लेकिन इन गानों में उनको सुनना अच्छा हीं लगता है। "के के" भी प्रीतम को काफी प्रिय हैं। आने वाले समय में देखने वाली यह बात होगी कि प्रीतम इनके अलावा और किसी को दुहराते हैं या नहीं। प्रीतम की सफलता का प्रतिशत देखकर इस साल का आर्टिस्ट आफ़ द ईयर इनके अलावा कोई और नहीं सुझता।
इस साल दो ऐसे गाने हुए(मेरी याद में) जो यूँ तो हैं बड़े हीं प्यारे लेकिन लोगों द्वारा नज़र-अंदाज कर दिये गए। उनमें से एक गाना है फिल्म "देख भाई देख" का जिसे संगीत से सजाया है "नायब-शादाब" ने और लिखा है "राशिद फिरोज़ाबादी" ने। "राहत फतेह अली खान" के लिखे इस गाने के बोल हैं "आँखों में क्यों नमी है"। मेरे हिसाब से इस पूरे साल राहत साहब के स्तर का बस यही एक गाना था, जिसे बदकिस्मती से लोगों ने सुना हीं नहीं। दूसरा गाना है फिल्म "तेरे संग" का "मोरे सैंया"। इस गीत में संगीत और आवाज़ें हैं "सचिन-जिगर" की और गाने के बोल लिखे हैं पिछले जमाने के सदाबहार गीतकार "समीर" ने। वैसे और भी कई गाने होंगे जिन्हें उनका हक़ नसीब नहीं हुआ। लेकिन मुझे अभी बस यही दो गाने ध्यान में आ रहे हैं।
फिल्मी-गानों की समीक्षा करने के बाद अब मैं अपनी पसंद के शीर्ष पाँच गानों की फेहरिश्त पेश करने जा रहा हूँ:
१) सपनों से भरे नैना
२) कमीने
३) रहना तू
४) तू जाने ना
५) नयन तरसे
अब हम समीक्षा के अंतिम पड़ाव पर आ चुके हैं। तो बात करते हैं गैर-फिल्मी गानों की। इस साल प्रधान तौर पर दो हीं गैर-फिल्मी एलबम रीलिज हुए। एक- कैलाश, परेश, नरेश का "चांदन में" तो दूसरा मोहित चौहान का "फितूर"। "चांदन मे" में कैलाश के पहले के एलबमों जैसा दम नहीं था। फिर भी कुछ गाने लोगों को काफी रास आए। जैसे कि "चांदन में", "चेरापूँजी" और "ना बताती तू"। कैलाश, परेश, नरेश को सुनना हमेशा से हीं फायदे का सौदा रहा है, इसलिए बेस्ट नान-फिल्मी सांग का मेरा वोट "चांदन में" को हीं जाता है। साल का अंत आते-आते मोहित की आवाज़ का जादू सर चढकर बोलने लगा था और उसी समय मोहित ने "फितूर" लाकर उस जादू को कई गुना कर दिया। मोहित की आवाज़ में पहाड़ीपन है और वह उनके गानों में भी झलकता है। "फितूर" एलबम से "माई नी मेरिए" मेरा इस एलबम का सबसे प्रिय गाना है। दुआ करते हैं कि "मोहित" हर साल ऐसा हीं कमाल करते रहें और हमारे दिलों पर उनके गानों का असर कभी कम न हो।
उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारी यह समीक्षा पसंद आई होगी।
आप सबको नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
विश्व दीपक
Comments
-vishwa Deepak