ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 286
"ज़रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया हुआ यह गीत है। फ़िल्म 'पतिता' के संगीतकार थे शंकर जयकिशन। अमीय चक्रबर्ती के इस फ़िल्म से संबंधित तमाम जानकारियाँ हम आपको दे चुके हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २३५-वीं कड़ी में जिसमें हमने आपको इस फ़िल्म से "अंधे जहान के अंधे रास्ते" सुनवाया था।
दोस्तों, क्या आपको याद है ८० के दशक में दूरदर्शन पर एक बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम आया करता था 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' जिसमें तबस्सुम जी का नामचीन कलाकारों के साथ मुलाक़ातें दिखाई जाती थीं? याद है ना? तो साहब, १९८६ में इस गुलशन में तशरीफ़ लाए थे शंकर साहब। जी हाँ, शंकर जयकिशन वाले शंकर साहब। तो आज मैं ख़ास आपके लिए लेकर आया हूँ उस कार्यक्रम का एक अंश जिसमें तबस्सुम जी शंकर जी से पूछ रहीं हैं शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के बारे में।
तबस्सुम - अच्छा शंकर जी, जैसे शंकर जयकिशन की जोड़ी मशहूर हो गई, इसी तरह दो लेखक भी आप के साथ जुड़े हुए हैं, शैलेन्द्र जी और हसरत जी। क्या हम जान सकते हैं कि इन दोनों लेखकों का इस्तेमाल आप लोग कैसे करते थे? ऐसा कुछ था कि एक लेखक आपके साथ और एक जयकिशन जी के साथ?
शंकर - नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, बात ऐसी है कि शैलेन्द्र के टाइप के गानें जो हैं वो हम शैलेन्द्र को दिया करते थे, और हसरत के टाइप के गानें हम हसरत को दिया करते थे।
तबस्सुम - मैं दोनों के टाइप का फ़र्क जानना चाहूँ तो?
शंकर - जी हाँ! मतलब, जैसे शैलेन्द्र जो हैं, "होठों पे सच्चाई रहती है जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है", और हसरत का है "तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्म-ए-बद्दूर"।
तबस्सुम - अच्छा, यानी इन में 'रोमान्स' ज़्यादा है।
शंकर - वैसे ये दोनों ही एक दूसरे से कोई कम नही थे और मैं समझता हूँ कि इन दोनों ने जितना नाम किया और इनके गानें जितने चले, शायद ही किसी और के चले होंगे।
चले क्या साहब, आज भी चल रहे हैं और आनेवाली कई सदियों तक चलते रहेंगे गुज़रे ज़माने के ये अनमोल नग़में। और ऐसा ही एक अनमोल नग़मा आज इस महफ़िल में अब हम सुनेंगे लता जी की आवाज़ में। आइए सुनते हैं।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. एक कटाक्ष है व्यंग्य है समाज पर शैलेन्द्र का ये गीत.
२. जिनकी आवाज़ में है ये गीत उन्हें अभी हाल ही में एक प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया है.
३. मुखड़े की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"रोटी".
पिछली पहेली का परिणाम -
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
"ज़रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया हुआ यह गीत है। फ़िल्म 'पतिता' के संगीतकार थे शंकर जयकिशन। अमीय चक्रबर्ती के इस फ़िल्म से संबंधित तमाम जानकारियाँ हम आपको दे चुके हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २३५-वीं कड़ी में जिसमें हमने आपको इस फ़िल्म से "अंधे जहान के अंधे रास्ते" सुनवाया था।
दोस्तों, क्या आपको याद है ८० के दशक में दूरदर्शन पर एक बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम आया करता था 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' जिसमें तबस्सुम जी का नामचीन कलाकारों के साथ मुलाक़ातें दिखाई जाती थीं? याद है ना? तो साहब, १९८६ में इस गुलशन में तशरीफ़ लाए थे शंकर साहब। जी हाँ, शंकर जयकिशन वाले शंकर साहब। तो आज मैं ख़ास आपके लिए लेकर आया हूँ उस कार्यक्रम का एक अंश जिसमें तबस्सुम जी शंकर जी से पूछ रहीं हैं शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के बारे में।
तबस्सुम - अच्छा शंकर जी, जैसे शंकर जयकिशन की जोड़ी मशहूर हो गई, इसी तरह दो लेखक भी आप के साथ जुड़े हुए हैं, शैलेन्द्र जी और हसरत जी। क्या हम जान सकते हैं कि इन दोनों लेखकों का इस्तेमाल आप लोग कैसे करते थे? ऐसा कुछ था कि एक लेखक आपके साथ और एक जयकिशन जी के साथ?
शंकर - नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, बात ऐसी है कि शैलेन्द्र के टाइप के गानें जो हैं वो हम शैलेन्द्र को दिया करते थे, और हसरत के टाइप के गानें हम हसरत को दिया करते थे।
तबस्सुम - मैं दोनों के टाइप का फ़र्क जानना चाहूँ तो?
शंकर - जी हाँ! मतलब, जैसे शैलेन्द्र जो हैं, "होठों पे सच्चाई रहती है जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है", और हसरत का है "तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्म-ए-बद्दूर"।
तबस्सुम - अच्छा, यानी इन में 'रोमान्स' ज़्यादा है।
शंकर - वैसे ये दोनों ही एक दूसरे से कोई कम नही थे और मैं समझता हूँ कि इन दोनों ने जितना नाम किया और इनके गानें जितने चले, शायद ही किसी और के चले होंगे।
चले क्या साहब, आज भी चल रहे हैं और आनेवाली कई सदियों तक चलते रहेंगे गुज़रे ज़माने के ये अनमोल नग़में। और ऐसा ही एक अनमोल नग़मा आज इस महफ़िल में अब हम सुनेंगे लता जी की आवाज़ में। आइए सुनते हैं।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. एक कटाक्ष है व्यंग्य है समाज पर शैलेन्द्र का ये गीत.
२. जिनकी आवाज़ में है ये गीत उन्हें अभी हाल ही में एक प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया है.
३. मुखड़े की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"रोटी".
पिछली पहेली का परिणाम -
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
manna dey was dadasaheb phalke awardee for same year .
but question is not sooooo easy