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ज़िंदगी मेरे घर आना...फ़ाकिर के बोलों पर सुर मिला रहे हैं भूपिन्दर और अनुराधा..संगीत है जयदेव का

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६३

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की अंतिम नज़्म लेकर। इस नज़्म को जिन दो फ़नकारों ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है उनमें से एक के बारे में महफ़िल-ए-गज़ल पर अच्छी खासी सामग्री मौजूद है, इसलिए आज हम उनकी बात नहीं करेंगे। हम ज़िक्र करेंगे उस दूसरे फ़नकार या यूँ कहिए फ़नकारा और इस नज़्म के नगमानिगार का, जिनकी बातें अभी तक कम हीं हुई हैं। यह अलग बात है कि हम आज की महफ़िल इन दोनों के सुपूर्द करने जा रहे हैं, लेकिन पहले फ़नकार का नाम बता देना हमारा फ़र्ज़ और जान लेना आपका अधिकार बनता है। तो हाँ, इस नज़्म में जिसने अपनी आवाज़ की मिश्री घोली है, उस फ़नकार का नाम है "भूपिन्दर सिंह"। "आवाज़" पर इनकी आवाज़ न जाने कितनी बार गूँजी है। अब हम बात करते हैं उस फ़नकारा की, जिसने अपनी गायिकी की शुरूआत फिल्म "अभिमान" से की थी जया बच्चन के लिए एक श्लोक गाकर। आगे चलकर १९७६ में उन्हें फिल्म कालिचरण के लिए गाने का मौका मिला। पहला एकल उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल" के लिए "आपबीती" में गाया। फिर राजेश रोशन के लिए "देश-परदेश" में, जयदेव के लिए "लैला-मजनूं" और "दूरियाँ"(जिस फिल्म से आज की नज़्म है) में, कल्याण जी-आनंद जी के लिए "कलाकार" और "विधाता" में और उषा खन्ना के लिए "सौतन" और "साजन बिना सुहागन" में गाकर उन्होंने अपनी प्रसिद्धि में इजाफ़ा किया। आगे चलकर जब उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए "हीरो" , "मेरी जंग", "बंटवारा", "नागिन", "राम-लखन" और "तेजाब" में गाने गाए तो मानो उन्हें उनकी सही पहचान मिल गई। उन्हें "लता मंगेशकर" और "आशा भोंसले" के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा और यही उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। "मंगेशकर" बहनों के खिलाफ उनकी मुहिम उनके लिए गले का घेघ बन गई। और उसी दौरान गुलशन कुमार से उनकी नजदीकी और उनके पति अरूण पौडवाल(एस डी बर्मन के सहायक) की मौत और फिर आगे चलकर गुलशन कुमार की मौत का उनकी ज़िंदगी और उनकी गायिकी पर गहरा असर पड़ा। सारी घटनाएँ एक के बाद एक ऐसे होती गईं कि उन्हें संभलने का मौका भी न मिला। उनके इस हाल के जिम्मेवार वे खुद भी थीं। उनका यह निर्णय कि वो बस टी-सीरिज के लिए हीं गाएँगी..शुरू-शुरू में सबको रास आता रहा, लेकिन आगे चलकर इसी निर्णय ने उन्हें अच्छे संगीतकारों से दूर कर दिया। उन्होंने चाहे जैसे भी दिन देखे हों लेकिन उनकी बदौलत हिन्दी फिल्म उद्योग को कई सारे नए गायक मिले..जैसे कि सोनू निगम, कुमार शानू, उदित नारायण और अभिजीत। उन्होंने दक्षिण के भी कई सारे गायकों के साथ बेहतरीन गाने गाए हैं जिनमें से एस पी और यशुदास का नाम खासा ऊपर आता है। वह फ़नकार जो कि अनुराधा पौडवाल के नाम से जानी जाती है, भले आज कम सुनी जाती हो लेकिन उनकी आवाज़ की खनक आज भी वादियों में मौजूद है जो कभी-कभार किसी नए गाने में घुलकर हमारे पास पहुँच हीं जाती है।

अनुराधा जी के बारे में इतनी बातें करने के बाद अब वक्त है आज के नगमानिगार से रूबरू होने का। तो आज की नज़्म के रचयिता कोई और नहीं बल्कि जगजीत सिंह जी के खासमखास "सुदर्शन फ़ाकिर" जी हैं। वो क्या थे, यह उनके किसी अपने के लफ़्ज़ों में हीं जानते हैं(प्रस्तुति: वीणा विज): १८ फरवरी ‘०८ की रात के आग़ोश में उन्होंने हमेशा के लिए पनाह ले ली |वो सोच जो ज़िन्दग़ी, इश्क , दर्दो-ग़म को इक अलग नज़रिये से ग़ज़लों के माध्यम से पेश करती थी, वह सोच सदा के लिये सो गई |बेग़म अख़्तर की गाई हुई इनकी यह ग़ज़ल” इश्क में ग़ैरते जज़्बात ने रोने न दिया”–किस के दिल को नहीं छू गई? या फिर “यह दौलत भी ले लो, यह शौहरत भी ले लो|भले छीनलो मुझसे मेरी जवानी, मग़र मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन वो क़ाग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी” –जन-जन को इस क़लाम ने बचपन की यादों से सरोबार कर दिया |इनके काँलेज के साथी जगजीत सिह ने जब इनकी यह नज्म गाई, तो दोनों ही इससे मशहूर हो गए |सालों से सुनते आ रहे, गणतंत्र दिवस पर एन. सी. सी.के बैंड की धुन” हम सब भारतीय हैं” यह भी फ़ाक़िर की रचना है |इससे पूर्व जवानी में फ़ाकिर आल इंडिया रेडियो जलंधर पर ड्रामा एवम ग़ज़लों के साथ व्यस्त रहे |फिर जब एक बार मुम्बई की ओर रुख़ किया तो ये एच.एम वी के साथ ता उम्र के लिए जुड़ गए |बेग़म अख़्तर ने जब कहा कि अब मैं फ़ाक़िर को ही गाऊंगी,तो होनी को क्या कहें, वे इनकी सिर्फ़ पाँच ग़ज़लों को ही अपनी आवाज़ दे सकीं थीं कि वे इस जहान से चलता कर गईं |हृदय से बेहद जज़्बाती फ़ाकिर अपनी अनख़, अपने आत्म सम्मान को बनाए रखने के कारण कभी किसी से काम माँगने नहीं गए | वैसे उन्होंने फिल्म ‘दूरियाँ, प्रेम अगन और यलग़ार” के संवाद और गीत लिखे थे | ये काफ़ी लोकप्रिय भी हुए थे |हर हिन्दू की पसंद कैसेट’ हे राम’ भी फ़ाक़िर की रचना है |इसने तो इन्हें अमर कर दिया है |संयोग ही कहिए कि जिस शव-यान में इनकी शव-यात्रा हो रही थी , उसमें भी यही ‘हे राम’ की धुन बज रही थी |सादगी से जीवन बिताते हुए वे जाम का सहारा लेकर अपने दर्दो-ग़म को एक नया जामा पहनाते रहे | जलंधर आने पर जब भी हम इकठे बैठते तो वे अपने कलाम को छपवाने की चर्चा करते या फिर मेरी रचनाओं को पढ़कर मुझे गाईड करते थे | रिश्ते में सालेहार थी मैं उनकी ,सो कभी हँसी-मज़ाक भी हो जाता था | तेहत्तर वर्ष कि उम्र में भी वे मस्त थे |लेकिन दुनिया से अलग- थलग, इक ख़ामोशी से चेहरा ढ़ाँके हुए |फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ फ़ाकिर को बहुत बड़ा शायर मानते थे |

अब उनके बारे में कुछ उन्हीं के शब्दों में: खुद के बारे में क्या कहूं? फिरोजपुर के नजदीकी एक गांव में पैदा हुआ। पिताजी एम.बी.बी.एस. डाक्टर थे। जालंधर के दोआबा कालेज से मैंने पॉलिटिकल साइंस में १९६५ में एम.ए. किया। आल इंडिया रेडियो जालंधर में बतौर स्टाफ आर्टिस्ट नौकरी मिल गई। खूब प्रोग्राम तैयार किए। 'गीतों भरी कहानी' का कांसेप्ट मैंने शुरू किया था। लेकिन रेडियो की नौकरी में मन नहीं रमा। सब कुछ बड़ा ऊबाऊ और बोरियत भरा। १९७० में मुंबई भाग गया।' 'मुंबई में मुझे एच.एम.वी. कंपनी के एक बड़े अधिकारी ने बेगम अख्तर से मिलवाया। वे 'सी ग्रीन साउथ' होटल में ठहरी हुई थीं। मशहूर संगीतकार मदनमोहन भी उनके पास बैठे हुए थे। बेगम अख्तर ने बड़े अदब से मुझे कमरे में बिठाया। बोलीं, 'अरे तुम तो बहुत छोटे हो। मुंबई में कैसे रहोगे? यह तो बहुत बुरा शहर है। यहां के लोग राइटर को फुटपाथ पर बैठे देखकर खुश होते है।'' 'जब मैं बेगम अख्तर से मिला तो मेरी उम्र २४ साल थी, लेकिन उन्होंने मेरी हौंसला-अफजाई की। मैंने उनके लिए पहली गजल लिखी, 'कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया' बेगम साहब बेहद खुश हुई। १९७० से १९७४ तक मेरी लिखी कुल छह गजलें एच.एम.वी. कंपनी ने बेगम अख्तर की आवाज में रिकार्ड कीं। मुझे याद है कि उन्होंने मेरी शायरी में कभी कोई तरमीम नहीं की। यह मेरे लिए फक्र की बात थी। एक बात और जो मैं कभी नहीं भूलता। वह कहा करती थीं, फाकिर मेरी आवाज और तुम्हारे शेरों का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए।' फाकिर का क्या अर्थ है, पूछने पर उन्होंने कहा 'यह फारसी का लफ्ज है, जिसके मायने हिंदी में चिंतक और अंग्रेजी में थिंकर है।' 'मेरा एक गीत 'जिंदगी, जिंदगी, मेरे घर आना, आना जिंदगी। मेरे घर का इतना सा पता है..' इसे भूपेन्द्र ने गाया था। इस गीत के लिए मुझे 'बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड मिला था।'' कम हीं लोगों को यह मालूम होगा कि प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह, जाने-माने लेखक, नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया और सुदर्शन फाकिर छठे दशक में जालन्धर के डीएवी कालेज के छात्र थे। तीनों में घनिष्ठ मित्रता थी और अपने-अपने इदारों में तरक्की के शिखर छूने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। आगे चलकर तीनों हीं सेलिब्रिटीज बने। फ़ाकिर के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है..लेकिन वो सब कभी बाद में। अभी तो उनके इस शेर का लुत्फ़ उठाना ज्यादा मुनासिब जान पड़ता है:

इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा


वाह! क्या बात कही है "फ़ाकिर" ने। इश्क़ को ऐसे हीं नहीं लाईलाज कहते हैं।

इस शेर के बाद अब हम रूख करते हैं फिल्म "दूरियाँ" के इस नज़्म की ओर.....जिसे संगीत से सजाया ने जयदेव ने। यह नज़्म इश्क़ के नाजुक लम्हों को बयां करती है, उन्हें जीती है और हर सुनने वाले के दिल में उस कोमल भावना की घुसपैठ कराती है। यकीन नहीं आता तो आप खुद हीं सुनकर देख लें..फिर नहीं कहिएगा कि "कुछ कुछ" क्यों होता है:

भू: ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना- आना ज़िंदगी
ज़िंदगी मेरे घर आना- आना ज़िंदगी
अ: ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना- आना ज़िंदगी
ज़िंदगी मेरे घर आना- आना ज़िंदगी

भू: मेरे घर का सीधा सा इतना पता है
ये घर जो है चारों तरफ़ से खुला है
न दस्तक ज़रूरी, ना आवाज़ देना
मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है
हैं दीवारें गुम और छत भी नहीं है
बड़ी धूप है दोस्त
खड़ी धूप है दोस्त
तेरे आंचल का साया चुरा के जीना है जीना
जीना ज़िंदगी, ज़िंदगी

अ: मेरे घर का सीधा सा इतना पता है
मेरे घर के आगे मुहब्बत लिखा है
न _____ ज़रूरी, न आवाज़ देना
मैं सांसों की रफ़्तार से जान लूंगी
हवाओं की खुशबू से पहचान लूंगी
तेरा फूल हूँ दोस्त
तेरी भूल हूँ दोस्त
तेरे हाथों में चेहरा छुपा के जीना है जीना
जीना ज़िंदगी, ज़िंदगी

मगर अब जो आना तो धीरे से आना
यहाँ एक शहज़ादी सोई हुई है
ये परियों के सपनों में खोई हुई है
बड़ी ख़ूब है ये, तेरा रूप है ये
तेरे आँगन में तेरे दामन में
तेरी आँखों पे तेरी पलकों पे
तेरे कदमों में इसको बिठाके
जीना है, जीना है
जीना ज़िंदगी, ज़िंदगी




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "लगावट" और शेर कुछ यूं था -

कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना
वो मेरा हाथ दबाकर गुजर गया कैसे

इस शब्द की सबसे पहले पहचान की शरद जी ने। आपने यह स्वरचित शेर भी पेश किया:

ये लगावट नहीं तो फिर क्या है
क़त्ल करके मुझे वो रोने लगा।

शरद जी के बाद महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। पिछली महफ़िल में कहाँ थे आप दोनों? अब आ गए हैं तो जाईयेगा मत। नज़र-ए-करम बरकरार रखिएगा। ये रही आपकी पेशकश:

करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तेरी तरह कोई तेग़-ए-निगाह को आब तो दे (ग़ालिब)

मस्ती में लगावट से उस आंख का ये कहना
मैख्‍़वार की नीयत हूँ मुमकिन है बदल जाना (फ़िराक़ गोरखपुरी)

शामिख जी..आपकी फरमाईशों को पूरा करना तो हमारा फ़र्ज़ है। आप इतना भी शुक्रगुजार मत हो जाया करें :) आप जो भी शेर ढूँढकर लाते हैं वे कमाल के होते हैं..बस यह मालूम नहीं चलता कि शायरों को कहाँ भूल जाते हैं। हर शायर "अंजान" हीं क्यों होता है? :) ये रहे आपके शेर:

नतीजा लगावट का जाने क्या निकले
मोहब्बत में वो आजमा कर चले (अंजान)

छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद (अंजान)

और अंत में महफ़िल में नज़र आईं मंजु जी। आप एक काम करेंगी? जरा यह मालूम तो करें कि हमारे बाकी साथी कहाँ सोए हुए हैं। तब तक हम आपके स्वरचित शेर का लुत्फ़ उठाते हैं:

उनकी लगावट से साँसे चल रहीं ,
नहीं तो कब के मर गये होते।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

सही शब्द है : दस्तक
शे’र पेश है :
दस्तकों का अब किवाडों पर असर होगा ज़रूर,
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़्ररार ।
(दुष्यन्त कुमार)
दस्तक देने से पहले मैं यही खुदा से कहता हूँ
दरवाज़ा जब खुल जाए तो वही सामने हो मेरे ।
(स्वरचित)
seema gupta said…
प्यार की इक नई दस्तक दिल पे फिर सुनाई दी
चाँद सी कोई मूरत ख़्वाब में दिखाई दी
(बशीर बद्र )
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
(अटल बिहारी वाजपेयी )
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
(शहरयार )
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
(शहरयार )
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है

और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है

सोच रही हूं

उनको थामूं

ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं

या अपने कमरे में ठहरूं

चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
(परवीन शाकिर )
रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
( क़तील शिफ़ाई )
Regards
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ है "दस्तक"
Shamikh Faraz said…
एक बार आपका शुक्रगुजार हूँ जनाब विश्व दीपक तन्हा जी.
Shamikh Faraz said…
ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा
(basheer badra)
Shamikh Faraz said…
दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं
kaifi aazmi
Shamikh Faraz said…
सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥
faiz
Shamikh Faraz said…
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।
Gulzar
वाह ये महफिल तो बहुत बडिया लगी। देखते हैं आगे आगे -- बधाई
Shamikh Faraz said…
हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी,
सैकड़ों दर थे मेरी जां तेरे दर से पहले| (Ibne insha)
Shamikh Faraz said…
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये --बशीर बद्र
Shamikh Faraz said…
इस बार तन्हा जी हर शे'र के शायर का नाम लिखा है. (अब तो शिकायत दूर हो गई आपकी.)
AVADH said…
किसने दी ये दरे-दिल दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है.
'क़तील शिफाई'
अवध लाल
Manju Gupta said…
जवाब -दस्तक
(स्वरचित)
दरे दिल पर दस्तक की पहले जैसी कशिश न रही ,
क्या वे दिन थे साकी ! आज वे दिन न रहे .

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