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सखी री मेरा मन उलझे तन डोले....रोशन साहब का लाजवाब संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 88

दोस्तों, अगर आपको याद हो तो कुछ रोज़ पहले हमने आपको 'आम्रपाली' फ़िल्म का एक गीत सुनवाया था और साथ ही आम्रपाली की कहानी भी सुनाई थी। आम्रपाली की तरह एक और नृत्यांगना हमारे देश में हुईं हैं चित्रलेखा। आज इन्ही का ज़िक्र 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। चित्रलेखा सम्राट चंद्रगुप्त के समय की राज नर्तकी थीं। चंद्रगुप्त का एक दोस्त बीजगुप्त हुआ करता था जो चित्रलेखा को देखते ही उससे प्यार कर बैठा। वह चित्रलेखा के प्यार में इस क़दर खो गया कि उसके लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गया। चित्रलेखा भी उससे प्यार करने लगी। लेकिन बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से तय हो चुका था। यशोधरा के पिता को जब बीजगुप्त और चित्रलेखा की प्रेम कहानी का पता चला तो वो योगी कुमारगिरि के पास गये और उनसे विनती की, कि वो चित्रलेखा को बीजगुप्त से मिलने जुलने को मना करें। योगी कुमारगिरि चित्रलेखा को उसके दायित्वों और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं लेकिन चित्रलेखा योगी महाराज की बातों को हँसकर अनसुना कर देती हैं। लेकिन आगे चलकर एक दिन चित्रलेखा को अपनी ग़लतियों का अहसास हो जाता है। आईने में अपने एक सफ़ेद बाल को देख कर वो बौखला जाती है, उसे यह अहसास होता है कि सांसारिक सुख क्षणभंगुर हैं। 'जीवन क्या है?' वो अपने आप से पूछती है और राजमहल छोड़कर योगी कुमारगिरि के आश्रम चली जाती है। जब बीजगुप्त को इस बात का पता चलता है तो वो भी चित्रलेखा की तलाश में निकल पड़ते हैं। उधर कुमारगिरि जिन्होने सांसारिक जीवन को त्याग कर योग साधना को अपने जीवन का आदर्श बना लिया था, वो आख़िर चित्रलेखा की ख़ूबसूरती के प्रभाव से बच ना सके और एक रात चित्रलेखा के कमरे में आ खड़े हुए बुरे ख़यालों से। चित्रलेखा जान गयी कुमारगिरि के मन के भाव को और तुरंत आश्रम से निकल पड़ी। लेकिन अब वो कहाँ जाएगी? क्या उसे अपना प्यार वापस मिल जाएगा, या फिर वो कहीं खो जाएगी गुमनामी के अंधेरे में? इन सब का जवाब मिलता जाता है फ़िल्म के नाटकीय 'क्लाइमैक्स' में। चित्रलेखा के जीवन की दिशा को बदलने में पुरुषों का किस तरह का प्रभाव रहा है, यही विषयवस्तु है इस फ़िल्म की। श्री भगवती चरण वर्मा ने चित्रलेखा की कहानी को उपन्यास की शक्ल में प्रकाशित किया था सन् १९३४ में, और सन् १९४१ में 'फ़िल्म कार्पोरेशन औफ़ इंडिया' ने इस उपन्यास पर आधारित 'चित्रलेखा' नामक फ़िल्म बनाई थी जिसका निर्देशन किया था नवोदित निर्देशक केदार शर्मा ने। यह फ़िल्म वितरकों से घिरी रही क्योंकि एक दृश्य में चित्रलेखा बनी नायिका महताब को स्नान करते हुए दिखाया गया था। ४० के दशक की फ़िल्मों की दृष्टि से यह बहुत बड़ी बात थी। ख़ैर, आज हम यहाँ १९४१ की 'चित्रलेखा' का नहीं बल्कि १९६४ में बनी 'चित्रलेखा' का एक गीत सुनवाने जा रहे हैं।

गीत सुनने से पहले आपको यह हम बता दें कि १९६४ की 'चित्रलेखा' का निर्देशन भी केदार शर्मा ने ही किया था। फ़िल्म की मुख्य भूमिकायों में थे मीना कुमारी (चित्रलेखा), अशोक कुमार (योगी कुमारगिरि) और प्रदीप कुमार (बीजगुप्त्त. संगीतकार रोशन के स्वरबद्ध गीत इस फ़िल्म का एक प्रमुख आकर्षण रहा। लता मंगेशकर और रफ़ी साहब के गाये एकल गीत हों या फिर आशा भोंसले और उषा मंगेशकर के गाये युगल गीत, सभी के सभी गानें बेहद मकबूल हुए थे और आज भी उतने ही प्यार से सुने जाते हैं। रोशन के फ़िल्मी सफ़र का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है 'चित्रलेखा' का संगीत। शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों को किस तरह से जनसाधारण में लोकप्रिय बनाया जा सकता है रोशन ने इस फ़िल्म के गीतों के माध्यम से साबित किया है। तो आज सुनिए लताजी की आवाज़ में १९६४ की 'चित्रलेखा' का एक सदाबहार गीत "सखी री मेरा मन उलझे तन डोले"। गीतकार हैं साहिर लुधियानवी। एक उर्दू शायर होते हुए भी उन्होने जिस दक्षता के साथ इस शुद्ध हिंदी वाली पौराणिक पीरियड फ़िल्म के गाने लिखे हैं, उनकी तारीफ़ शब्दों में करना नामुमकिन है। सुनिए!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कवि गोपाल दास नीरज का लिखा एक शानदार गीत.
२. मुकेश की आवाज़ में है ये मधुर गीत.
३. मुखड़े में शब्द है - "दर्पण".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
रचना जी बहुत करीब थी आप, पर चूक गयी. शरद तैलंग हैं आज के विजेता जोरदार तालियाँ इनके लिए...मनु जी कहे इतनी दुविधा में रहते हैं आप....सूत्र तो पूरे पढ़ा कीजिये :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.


Comments

manu said…
एक तुक्का,,,,,,
क्योंकि ये गीत अपनी भाषा के कारण मुझे नीरज का ही लगता है...

दर्पण को देखा,तूने जब जब किया सिंगार,,,,
’देखती ही रहो आज दर्पण में तुम
प्यार का ये मुहूर्त निकल जाएग”
फ़िल्म ”नई उमर की नई फ़सल’
neelam said…
हमे भी यही गाना लग रहा है ,
काजल की किस्मत क्या कहिये ,नैनों में जिसे बसाया है |

one of my favourite songs .
rachana said…
likhne me der ho gai
मेरे ख्याल से ये गाना ही
देखती ही रहो तुम आज दर्पण न

मूवी
नई उम्र की नई फसल
शायद ठीक हो
सादर
रचना
abhi dekha ans to mil gaya haa yehi sahi hai sharad ji sahi hai

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