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अपनी आँखों में बसा कर कोई इकरार करूँ...प्रेम की कोमल भावनाओं से सराबोर एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 86

हा जाता है कि प्यार अंधा होता है, या फिर प्यार इंसान को अंधा बना देता है। लेकिन उस प्यार को आप क्या कहेंगे जो एक नेत्रहीन व्यक्ति अपनी मन की आँखों से करे? वह कैसे अपने प्यार का इज़हार करे, कैसे वह अपनी महबूबा की ख़ूबसूरती का बयान करे? आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जो गीत हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वही गीत इन सवालों का जवाब भी है। यह गीत इस बात का सबूत है कि प्यार की बस एक ही शर्त है, कि वो दो सच्चे दिलवालों में होनी चाहिए, बाक़ी और कुछ भी कोई मायने नहीं रखता। अगर दिल प्यार की अनुभूती को महसूस कर सकता है तो फिर आँखों की क्या ज़रूरत है! फ़िल्म 'ठोकर' का प्रस्तुत गीत "अपनी आँखों में बसाकर कोई इक़रार करूँ" प्रमाण है इस बात का कि एक नज़रों से लाचार आदमी के लिए प्यार कितना सुंदर हो सकता है। गीत में नेत्रहीन नायक अपनी नायिका को अपनी आँखों में बसाने की बात करता है क्योंकि उसे यक़ीन है कि आँखों के ज़रिए प्यार सीधे दिल में उतर जायेगा। ७० के दशक के बीचों बीच आयी इस गीत में रफ़ी साहब की आवाज़ का जादू वैसा ही बरक़रार है जैसा कि ५० और ६० के दशक में था।

१९७४ मे आयी फ़िल्म 'ठोकर' के गीतकार थे साजन दहल्वी जिन्होने इस गीत के ज़रिए ७० के ज़माने के नौजवानों के दिलों में प्यार की एक नयी अनुभूती पैदा कर दी थी। हिंदी फ़िल्मों में इस तरह के गीतों की भरमार रही है शुरु से ही, लेकिन रफ़ी साहब की आवाज़ में 'ठोकर' का यह गीत बहुत से ऐसे गीतों से बिल्कुल जुदा है, भीड़ से हट के है। संगीतकार श्यामजी-घनश्यामजी ने इस गाने की तर्ज़ बनाई थी और क्या ख़ूब बनाई थी। एक ताज़े हवा के झोंके की तरह यह गीत आया था जिसकी ख़ुशबू उस ज़माने के प्रेमियों ने ख़ूब बटोरी, और आज भी वही महक बरक़रार है। इस गीत के गीतकार और संगीतकार तो कमचर्चित ही रह गये लेकिन वो अपने इस गीत को ज़रूर अमर कर गये हैं। फ़िल्म 'ठोकर' का निर्देशन किया था दिलीप बोस ने। फ़िल्म की कहानी यह सबक सिखाती है कि जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ नहीं है, बल्कि जीवन में सच्चा सुख किसी के प्यार से ही मिल सकता है। "मैने कब तुझसे ज़माने की ख़ुशी माँगी है, एक हल्की सी मेरे लब ने हँसी माँगी है, साथ छूटे ना कभी तेरा यह क़सम ले लूँ, हर ख़ुशी देके तुझे तेरे सनम ग़म ले लूँ"। साजन दहल्वी के इन्ही ख़ूबसूरत बोलों में ग़ोते लगाते हुए यह गीत सुनिए और इस गीतकार संगीतकार तिकड़ी को धन्यवाद दीजिए हमारे लिए एक ऐसी सुंदर रचना छोड़ जाने के लिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. शमशाद बेगम का सदाबहार गीत.
२. वहीदा रहमान की पहली हिंदी फिल्म का है ये गीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"नदी".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
रचना जी को जोरदार बधाई...आजकल हमारे धुरंधर कैसे गुमशुदा हैं :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.


Comments

rachana said…
ये सी आई डी का गाना है
बूझ मेरा क्या नाम रे नदी किनारे गाँव रे
शायद यही है मुझे तो यही लगरहा है .
सादर
रचना
manu said…
बरोबर बोले रचना जी,,,
Parag said…
रचना जी आप को बहुत बधाई , मुझे लगता हैं आप का जवाब सही है. मनु जी आप को भी बधाई.
गाना बड़ा ही लाजवाब है.

पराग
फ़िल्म है सी आई डी और गीत के बोल हैं
बूझ मेरा क्या नाम रे, नदी किनारे गाँव रे
पीपल झूमे मेरे आँगना, ठंडी ठंडी छाँव रे ।

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