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एक परवाज़ दिखाई दी है...

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१३

नाम सोचा हीं न था, है कि नहीं
"अमाँ" कहके बुला लिया इक ने
"ए जी" कहके बुलाया दूजे ने
"अबे ओ" चार लोग कहते हैं
जो भी यूँ जिस किसी के जी आया
उसने वैसे हीं बस पुकार लिया।

तुमने इक मोड़ पर अचानक जब
मुझको "गुलज़ार" कहके दी आवाज़,
एक सीपी से खुल गया मोती,
मुझको इक मानी मिल गया जैसे!!


ये लफ़्ज़ खुद में हीं मुकम्मल हैं। यूँ तो इस लहजे में किसी का भी परिचय दिया जाए तो परिचय में चार चाँद लग जाएँगे लेकिन अगर परिचय देने वाला और परिचय पाने वाला एक हीं हो तो कुछ और कहने की गुंजाईश नहीं बचती। अपनी जादूगरी से शब्दों को एक अलग हीं मानी देने वाला इंसान जब गज़ल कहता है तो यूँ लगता है मानो गज़ल ने अपना सीना निकालकर पन्ने पर रख दिया हो। पढो तो एकबारगी लगे कि कितनी सीधी बात कही गई है और अगले हीं पल आप बातों की गहराई के मुरीद हो जाएँ। ऐसे हैं हमारे "गुलज़ार" साहब। आपने उनका यह शेर तो सुना हीं होगा और अगर सुना न हो तो पढा तो जरूर होगा:

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा,
काफिला साथ और सफर तन्हा।

तन्हाई का दर्द इससे बढिया तरीके से बयाँ हीं नहीं किया जा सकता।

जिस तरह पन्नों पर गुलज़ार साहब अपने शब्दों को पिरोते हैं उसी तरह उनके शब्दों को आवाज़ में पिरोने वाला एक शख़्स है,जिसे अगर मखमली आवाज़ का शहरयार कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। वैसे तो गु्लज़ार साहब के गानों की खासियत हीं ऐसी होती है कि उसे अगर हम-आप भी गुनगुना लें तो गाने का जायका,गाने का असर जस का तस रहता है। "तुम गए, सब गया, कोई अपनी हीं मिट्टी तले दब गया" -इस गाने का दर्द महसूस करने के लिए बस एक भावुक दिल की जरूरत है। दिल होगा तो दर्द किसी न किसी रास्ते उसमें उतर हीं जाएगा। लेकिन कुछ आवाज़ें ऐसी होती हैं जो कब्र में आखिरी कील की तरह काम करती हैं, फिर चाहे कोई इंसान कितना भी संगदिल क्यों न हो, उस आवाज़ की चोट से फूट हीं पड़ता है। ऐसी हीं आवाज़ के मालिक हैं "जगजीत सिंह" साहब। "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी के बारे में मैं पहले भी बहुत कुछ कह चुका हूँ, इसलिए इस बार सीधे हीं आज की गज़ल की ओर रूख करता हूँ। १९९९ में गुलज़ार और जगजीत सिंह पहली बार एक साथ आए थे और इनके साथ ने हमें जो एलबम दिया, उसका नाम था "मरासिम: Memories woven in melody" यानी कि "रिश्ते: सुरों में बुनी यादें" । नाम से हीं ज़ाहिर है कि गुलज़ार साहब बीती यादों का हवाला देकर अपने दिल की दास्तां सुना रहे हैं। इस एलबम और जगजीत सिंह के बारे में गुलज़ार साहब कहते हैं :

"मरासिम यानी कि रिश्ते। जगजीत सिंह के साथ मेरा रिश्ता बहुत हीं पुराना है और वह तब से है,जब उन्होंने मेरे सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब के लिए संगीत दिया था। वे इतनी आसानी से संगीत गढ लेते हैं कि कभी-कभी तो मैं अवाक रह जाता हूँ। गज़ल-गायकी की अगर बात की जाए तो इस क्षेत्र में उनका कोई सानी नहीं है। गज़ल ऐसी चीज है जिसे गाने के लिए उर्दू-शायरी का अच्छा-खासा इल्म होना चाहिए और साथ हीं साथ एक खास मिज़ाज का होना भी लाजिमी है। यूँ तो देखने में इस एलबम की सारी गज़लें बोल और संगीत के लिहाज से बहुत हीं आसान लगती हैं,लेकिन ऐसा है नहीं । इन गज़लों को यथास्थान लाने के लिए हमें पूरे छह बरस लग गए। "

वैसे कहते भी हैं कि अच्छी चीजें ना तो आसानी से बनतीं हैं और ना हीं आसानी से मिलतीं हैं। यह बात इस एलबम पर पूर्णत: लागू होती है। चलिए अब "मरासिम" से आगे बढते हैं आज की गज़ल की ओर। "एक परवाज़ दिखाई दी है,तेरी आवाज़ सुनाई दी है।" कभी न कभी, कहीं न कहीं आप इस गज़ल से गुजरे जरूर होंगे और यकीन मानिए कि आपने बस गज़ल के बोलों को सुना हीं नहीं होगा बल्कि महसूस भी किया होगा और तो और जिया भी होगा। गज़ल किसे कहते हैं(मैं रदीफ़, काफ़िया, बहर की बात नहीं कर रहा, बल्कि भाव की बात कर रहा हूँ),वह इस गज़ल को सुनकर हीं मालूम होता है। इस गज़ल के एक-एक हर्फ़ में दिल की कितनी हीं तहरीरें लिखी मालूम होती है। इसे क्या कहिएगा कि बस पाँच शेरों में हीं गुलज़ार साहब ने जहां भर की बातें लिख डाली हैं। मसलन, "फिर वहीं लौट कर जाना होगा, यार ने कैसी रिहाई दी है",इसमें भावनाओं की ऐसी जद्दोजहद है कि न डूबते हीं बने और न उबरते हीं बने। बाकी शेरों का भी यही हाल है।

मुझपर गुलज़ार साहब के शेरों का ऐसा असर हुआ है कि आज अपना कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं हो रही , इसलिए उन्हीं का कुछ पेश कर रहा हूँ:
आदतन तुमने कर दिए वादे,
आदतन हमने ऐतबार किया।


इस शेर के बाद आज की गज़ल की बारी है,मुलाहजा फ़रमाईये:

एक परवाज़ दिखाई दी है,
तेरी आवाज़ सुनाई दी है।

जिसकी आँखों में कटी थी सदियाँ,
उसने सदियों की जुदाई दी है।

सिर्फ़ एक सफहा पलटकर उसने,
सारी बातों की सफ़ाई दी है।

फिर वहीं लौटकर जाना होगा,
यार ने कैसी रिहाई दी है।

आग में क्या-क्या जला है शबभर,
कितनी खुशरंग दिखाई दी है।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो,
जिंदगी क्या है, ___ को हटा कर देखो..

आपके विकल्प हैं -
a) नकाबों, b) किताबों, c) हिजाबों, d) गुलाबों

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का सही शब्द था -"आवाज़" और वो मशहूर शेर था -

कल शब् मुझे एक शख्स की आवाज़ ने चौंका दिया,
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी...

आवाज़ का सिरा सबसे पहले पकडा तपन जी ने, पर कोई शेर अर्ज नहीं किया जिसमें आवाज़ का जिक्र हो, तो इस लिहाज से विजेता हुए मनु जी जिन्होंने आगाज़ किया इस शेर से -

ये दिल आवाज देकर जब बुलाए तो चले आना,
अगर गुजरा ज़माना याद आए तो चले आना,

उनकी आवाज़ पर नीलम जी और शन्नो जी भी आई. सुनिए ज़रा शन्नो जी ने क्या कहा -

आपकी ''आहट'' सुनते ही ''आवाज़'' पर
हम ''आहट'' को नहीं अब ''आवाज़' को लाये हैं.

सलिल जी हमेशा की तरह मूड में आये और कुछ पुराने खूबसूरत गीत गुनगुनाने लगे... तभी नीलम जी ने फ़रमाया कुछ यूँ-

हम फूल सही पत्थर भी हटायेंगें तेरी राह से सभी,
एक बार हमें आवाज़ तो लगा के देख कभी....

युहीं रंग जमाते रहिये इस महफिल में...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

neelam said…
sahi uttar hai kitaab.

kitaabon ko hataakar dekho .
neelam said…
bahut hi umda prastuti ,tanha ji .
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारें छूने दो. चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएँगे
shanno said…
इस दर्द भरी ग़ज़ल को तमाम देर सुनती रही और इसके लफ्जों में डूबी रही. बहुत ही बढ़िया छाँट-छाँट कर ग़ज़लें लाकर हमें सुनाने का शुक्रिया.
और तन्हा जी, अगर हम आप सभी काफिले के साथ चल रहे हैं तो फिर आप को हम तन्हा कैसे होने दे सकते हैं? यह गलत बात है. O.के.
चलो अब अपना भी जबाब हो जाए इसके पहले कि कोई मुझे नकलची कहे:
''किताब''
तो हमें भी कुछ कह-सुन (वकवास) लेने दीजिये अब:

खुली किताब की तरह है किसी की जिन्दगी
जिसके पन्ने किसी के पढ़ने को फडफडाते हैं
बख्त की भरी गर्द को पढ़ने की फुर्सत किसको
किताब से ही जुड़े तड़प-तड़प कर रह जाते हैं.
KESHVENDRA said…
Nida Fazli ji ki likhi is sher ki chhuti hui pankti hai-'KITABON' or unka yehi wah sher hai jisse main is mahan shayar se aj se kai varsha pehle rubru hua tha. Maine Hindustan paper me unki kisi shayari sankalan ki samiksha padhi thi jisme ye sher tha, bas tab se le ke ab tak wo mere pasandida shayaron me ek hain. Main Safdar Hashmi ki bachcho ke liye likhi kavita se do panktiyan uddhrit karna chanhunga-
KITABE KUCHH KEHNA CHAHTI HAIN
TUMHARE PAS REHNA CHAHTI HAIN.
rachana said…
बंद किताब के पन्ने न खोलना
है कई राज दफन इसके सीने में

शब्द किताब है
सादर
रचना
manu said…
चलो अच्छा है के हम लेट हो गए,,,,,
वरना आज हमारा जवाब एकदम गलत होना था,,,,,बिलकुल उलटा ,,
पर छः -छः कमेंट पहले ही हैं ,,,,,,सो हम भी कहते हैं -----( किताबों )

तू तो कह देगा के अनपढ़ भी है, जाहिल भी है
"बे-तखल्लुस" क्या कहेंगे ये किताबों वाले..?
neelam said…
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं ,
परियों के किस्से सुनाते हैं ,
सफ़दर हासमी


अबकी बिछडे तो ख़्वाबों में मिले ,
जैसे दो सूखे हुए फूल किताबों में मिले |
फराज अहमद
neelam said…
kitaab par poori ek gazal hai ,

gulzaar shaahab ki aur gaya hai jagjeetsingh ji ne hi bahut dinon se suni bhi nahi hai ,sunvaayen to badi meharbaani hogi .

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