किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है...हसन कमाल ने कुछ यूँ रंगा ये हिज्र और वस्ल का समां कि आज भी सुनें तो एक टीस सी उभर आती है
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 459/2010/159
'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है ८० के दशक के दस चुनिंदा फ़िल्मी ग़ज़लों पर आधारित लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। ये दस ग़ज़लें दस अलग अलग शायरों के कलाम हैं। अब तक हमने इसमें जिन शायरों के कलाम सुनें हैं, वो हैं हसरत जयपुरी, शहरयार, नक्श ल्यालपुरी, इंदीवर, आरिफ खान, जावेद अख़्तर, इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिक़ी और कल आपने निदा फ़ाज़ली साहब की लिखी हुई ग़ज़ल सुनी। आज इस शृंखला की नवी कड़ी में पेश है शायर और गीतकार हसन कमाल का कलाम फ़िल्म 'ऐतबार' से। आशा भोसले और भूपेन्द्र की युगल आवाज़ों में यह ग़ज़ल है। और दोस्तों, पहली बार इस ग़ज़ल के बहाने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनाई दे रहा है संगीतकार बप्पी लाहिड़ी का संगीत। युं तो बप्पी दा डिस्को किंग् का इमेज रखते हैं, और ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का स्तर गिराने वालों में उन्हे एक मुख्य अभियुक्त करार दिया जाता है, लेकिन यह बात भी सच है कि भले ही वो डिस्को और पाश्चात्य संगीत पर आधारित गानें ही ज़्यादा बनाए, लेकिन शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर भी उनकी पकड़ मज़बूत रही है। कुछ ऐसे गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म - 'आँगन की कली', गीत - "सइयां बिना घर सूना सूना", फ़िल्म - 'झूठी', गीत - "चंदा देखे चंदा तो ये चंदा शरमाए", फ़िल्म - 'मोहब्बत', गीत - "नैना ये बरसे मिलने को तरसे", फ़िल्म - 'अपने पराए', गीत - "हल्के हल्के आई चल के, बोले निंदिया रानी" और "श्याम रंग रंगा रे", फ़िल्म - 'टूटे खिलौने', गीत - "माना हो तुम बेहद हसीं", फ़िल्म - 'सत्यमेव जयते', गीत - "दिल में हो तुम आँख में तुम", फ़िल्म - 'लहू के दो रंग', गीत - "ज़िद ना करो अब तो रुको" और "माथे की बिंदिया बोले"। ऐसे और भी न जाने कितने गानें हैं बप्पी दा के जो बेहद सुरीले हैं और इस देश की ख़ुशबू लिये हुए है। आज फ़िल्म 'ऐतबार' के जिस ग़ज़ल की हम बात कर रहे हैं वह है - "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है, कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है"। हसन कमाल की यह एक बेहद मक़बूल फ़िल्मी ग़ज़ल है, और उनके लिखे फ़िल्म 'निकाह' के ग़ज़लों के भी तो क्या कहने! नौशाद साहब की दूसरी आख़िरी फ़िल्म 'तेरी पायल मेरे गीत' में हसन कमाल ने गीत लिखे थे जिन्हे लता जी ने गाया था। और फिर फ़िल्म 'सिलसिला' का वह ख़ूबसूरत गीत भी तो है "सर से सरकी सर की चुनरिया लाज भरी अखियों में"। इसमें हसन कमाल ने "सरकी" और "सर की" का कितनी सुंदरता से प्रयोग किया था।
'ऐतबार' सन् १९८५ की रोमेश शर्मा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था मुकुल आनंद ने। डिम्पल कपाडिया, राज बब्बर, सुरेश ओबेरॊय और डैनी अभिनीत इस फ़िल्म में हसन कमाल के अलावा फ़ारुख़ कैसर ने भी गीत लिखे थे। यह फ़िल्म १९५४ में ऐल्फ़्रेड हिचकॊक की थ्रिलर फ़िल्म 'डायल एम फ़ॊर मर्डर' का रीमेक है। इस हिदी वर्ज़न में थोड़ी सी फेर बदल की गई है। फ़िल्म में सुरेश ओबेरॊय एक ग़ज़ल गायक हैं और उन्ही पर फ़िल्म के दो बेहतरीन गीत - प्रस्तुत ग़ज़ल और "लौट आ गईं फिर से उजड़ी बहारें" फ़िल्माया गया है। इस ग़ज़ल की बात करें तो इसके शायर हसन कमाल ने सच में कमाल ही किया है इसमें। कुल ६ शेर हैं इस ग़ज़ल में और उसके बाद ग़ज़ल को एक आख़िरी सातवें शेर से ख़त्म किया जाता है जिसका मीटर अलग है। ज़्यादातर इस तरह का शेर ग़ज़ल के शुरुआती शेर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यहाँ ग़ज़ल के अंत में इसका प्रयोग हुआ है और वह भी फ़िल्म के शीर्षक को शेर में लाकर हसन साहब ने अपनी दक्षता का परिचय दिया है। हसन कमाल साहिर लुधियानवी के अनन्य भक्त थे और उन्हे बहुत मानते थे। हसन साहब सन् १९९९ में विविध भारती पर "मेरी यादों में साहिर लुधियानवी" शीर्षक से एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था और साहिर साहब से जुड़ी उनकी तमाम यादों पर से परदा उठाया था। आइए उसी कार्यक्रम में से कुछ अंश यहाँ पेश करते हैं। हसन कमाल बता रहे हैं साहिर लुधियानवी से उनकी पहली मुलाक़ात के बारे में। "साहिर लुधियानवी साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी, जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी का स्टुडेण्ट था, और वो यूनिवर्सिटी के एक मुशायरे में पहली बार लखनऊ आ रहे थे। ये वो ज़माना था जब साहिर लुधियानवी का वो क्रेज़ था कि लोग कहते थे कि अगर कोई साहिर लुधियानवी का नाम नहीं जानता, तो या तो वो शायरी के बारे में कुछ नहीं जानता, या फिर वो नौजवान नहीं, क्योंकि साहिर साहब उस ज़माने में नौजवानों के मेहबूबतरीन शायर हुआ करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उन्हे रिसीव करने के लिए दूसरे स्टुडेण्ट्स के साथ चारबाग़ पहुँचा, तो मेरी ख़ुशी का यह हाल था कि जैसे न जाने ये मेरी ज़िंदगी का कौन सा दिन है और किस हस्ती के दीदार होने वाले हैं कि जिसके दीदार के बग़ैर हमें यह लग रहा था कि ज़िंदगी अधूरी रहेगी। वो तशरीफ़ लाए, हम लोग उन्हे वहाँ से रिसीव करके लाए, और उन्हे एक होटल में ठहराया गया, और मेरा उनसे तारुफ़ यह कह कर करवाया गया कि 'साहिर साहब, ये हसन कमाल हैं, हमारे बहुत ही तेज़ और तर्रार क़िस्म के तालीबिल्मों में, स्टुडेण्ट्स में, और इनकी सब से बड़ी ख़ुसूसीयत यह है कि इन्हे आप की नज़्म 'परछाइयाँ', जो १९ पेजेस लम्बी नज़्म है, ज़बानी याद है'। साहिर साहब बहुत ख़ुश हुए, और शाम को जब हम उन्हे लेने गए तो वक़्त से कुछ पहले पहुँच गए थे, तो उन्होनें बात करते करते अचानक कहा कि 'भई, किसी ने मुझे बताया कि तुम्हे 'परछाइयाँ' पूरी याद है?' मैंने अर्ज़ किया कि 'जी हाँ'। कहने लगे कि 'अच्छा, सुनाओ'। और मैंने पूरी 'परछाइयाँ' नज़्म उनको एक ही नशिस्त में पढ़ कर सुना दी। और वो सुनते रहे। और जब नज़्म ख़त्म हुई तो उनका कमेण्ट यह था कि 'भई ऐसा है, कि मैं पंजाबी हूँ, और शेर बहुत बुरा पढ़ता हूँ, और आज जब तुमको अपनी नज़्म पढ़ते सुना, तो मुझे यह महसूस हो रहा है कि आज के मुशायरे में मेरे बजाए मेरी शायरी तुम ही सुनाना'।" कॊलेज स्टुडेण्ट हसन कमाल के लिए यह बहुत बड़ी बात थी कि साहिर जैसे शायर अपनी शायरी उनसे पढ़वाना चाहते थे। तो दोस्तों, आइए सुना जाए भूपेन्द्र और आशा भोसले की गाई इस जोड़े की सब से प्यारी ग़ज़ल "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है"। शायद 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को भी इस ग़ज़ल का बहुत दिनों से इंतेज़ार था।
किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है,
कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है।
वो वादियाँ वो फ़ज़ाएँ के हम मिले थे जहाँ,
मेरी वफ़ा का वहीं पर मज़ार आज भी है।
न जाने देख के क्यों उनको ये हुआ अहसास,
के मेरे दिल पे उन्हे इख़्तियार आज भी है।
वो प्यार जिसके लिए हमने छोड़ दी दुनिया,
वफ़ा की राह में घायल वो प्यार आज भी है।
यकीं नहीं है मगर आज भी ये लगता है,
मेरी तलाश में शायद बहार आज भी है।
ना पूछ कितने मोहब्बत के ज़ख़्म खाए हैं,
के जिनके सोच में दिल सौगवार आज भी है।
ज़िंदगी क्या कोई निसार करे, किससे दुनिया में कोई प्यार करे,
अपना साया भी अपना दुश्मन है, कौन अब किसका ऐतबार करे।
क्या आप जानते हैं...
कि बप्पी लाहिड़ी ने केवल १६ वर्ष की आयु में एक बंगला फ़िल्म 'दादू' में संगीत दिया था जिसमें तीनों मंगेशकर बहनों (लता, आशा, उषा) से उन्होने गाने गवाए थे।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. शायर बताएं इस बेहद खूबसूरत गज़ल के - ३ अंक.
२. खय्याम साहब के संगीत से सजी इस गज़ल को किस फनकार ने अंजाम दिया है लता के साथ - २ अंक.
३. मतले में शब्द है -"बारात", फिल्म बताएं - १ अंक.
४. निर्देशक बताएं फिल्म के - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंक पवन कुमार जी लूट गए, शरद जी, प्रतिभा जी और किशोर जी भी सही जवाब के साथ मिले. शरद जी नेट पर डी गयी हर जानकारी सही नहीं होती. रोमेंद्र जी आप लेट हो गए. मनु जी, सुमित जी, शेयाला जी, और इंदु जी आप सब को यहाँ देख अच्छा लगा, और दिलीप जी, इंदु जी की शिकायत में हम अपनी भी आवाज़ मिलते हैं. :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है ८० के दशक के दस चुनिंदा फ़िल्मी ग़ज़लों पर आधारित लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। ये दस ग़ज़लें दस अलग अलग शायरों के कलाम हैं। अब तक हमने इसमें जिन शायरों के कलाम सुनें हैं, वो हैं हसरत जयपुरी, शहरयार, नक्श ल्यालपुरी, इंदीवर, आरिफ खान, जावेद अख़्तर, इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिक़ी और कल आपने निदा फ़ाज़ली साहब की लिखी हुई ग़ज़ल सुनी। आज इस शृंखला की नवी कड़ी में पेश है शायर और गीतकार हसन कमाल का कलाम फ़िल्म 'ऐतबार' से। आशा भोसले और भूपेन्द्र की युगल आवाज़ों में यह ग़ज़ल है। और दोस्तों, पहली बार इस ग़ज़ल के बहाने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनाई दे रहा है संगीतकार बप्पी लाहिड़ी का संगीत। युं तो बप्पी दा डिस्को किंग् का इमेज रखते हैं, और ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का स्तर गिराने वालों में उन्हे एक मुख्य अभियुक्त करार दिया जाता है, लेकिन यह बात भी सच है कि भले ही वो डिस्को और पाश्चात्य संगीत पर आधारित गानें ही ज़्यादा बनाए, लेकिन शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर भी उनकी पकड़ मज़बूत रही है। कुछ ऐसे गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म - 'आँगन की कली', गीत - "सइयां बिना घर सूना सूना", फ़िल्म - 'झूठी', गीत - "चंदा देखे चंदा तो ये चंदा शरमाए", फ़िल्म - 'मोहब्बत', गीत - "नैना ये बरसे मिलने को तरसे", फ़िल्म - 'अपने पराए', गीत - "हल्के हल्के आई चल के, बोले निंदिया रानी" और "श्याम रंग रंगा रे", फ़िल्म - 'टूटे खिलौने', गीत - "माना हो तुम बेहद हसीं", फ़िल्म - 'सत्यमेव जयते', गीत - "दिल में हो तुम आँख में तुम", फ़िल्म - 'लहू के दो रंग', गीत - "ज़िद ना करो अब तो रुको" और "माथे की बिंदिया बोले"। ऐसे और भी न जाने कितने गानें हैं बप्पी दा के जो बेहद सुरीले हैं और इस देश की ख़ुशबू लिये हुए है। आज फ़िल्म 'ऐतबार' के जिस ग़ज़ल की हम बात कर रहे हैं वह है - "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है, कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है"। हसन कमाल की यह एक बेहद मक़बूल फ़िल्मी ग़ज़ल है, और उनके लिखे फ़िल्म 'निकाह' के ग़ज़लों के भी तो क्या कहने! नौशाद साहब की दूसरी आख़िरी फ़िल्म 'तेरी पायल मेरे गीत' में हसन कमाल ने गीत लिखे थे जिन्हे लता जी ने गाया था। और फिर फ़िल्म 'सिलसिला' का वह ख़ूबसूरत गीत भी तो है "सर से सरकी सर की चुनरिया लाज भरी अखियों में"। इसमें हसन कमाल ने "सरकी" और "सर की" का कितनी सुंदरता से प्रयोग किया था।
'ऐतबार' सन् १९८५ की रोमेश शर्मा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था मुकुल आनंद ने। डिम्पल कपाडिया, राज बब्बर, सुरेश ओबेरॊय और डैनी अभिनीत इस फ़िल्म में हसन कमाल के अलावा फ़ारुख़ कैसर ने भी गीत लिखे थे। यह फ़िल्म १९५४ में ऐल्फ़्रेड हिचकॊक की थ्रिलर फ़िल्म 'डायल एम फ़ॊर मर्डर' का रीमेक है। इस हिदी वर्ज़न में थोड़ी सी फेर बदल की गई है। फ़िल्म में सुरेश ओबेरॊय एक ग़ज़ल गायक हैं और उन्ही पर फ़िल्म के दो बेहतरीन गीत - प्रस्तुत ग़ज़ल और "लौट आ गईं फिर से उजड़ी बहारें" फ़िल्माया गया है। इस ग़ज़ल की बात करें तो इसके शायर हसन कमाल ने सच में कमाल ही किया है इसमें। कुल ६ शेर हैं इस ग़ज़ल में और उसके बाद ग़ज़ल को एक आख़िरी सातवें शेर से ख़त्म किया जाता है जिसका मीटर अलग है। ज़्यादातर इस तरह का शेर ग़ज़ल के शुरुआती शेर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यहाँ ग़ज़ल के अंत में इसका प्रयोग हुआ है और वह भी फ़िल्म के शीर्षक को शेर में लाकर हसन साहब ने अपनी दक्षता का परिचय दिया है। हसन कमाल साहिर लुधियानवी के अनन्य भक्त थे और उन्हे बहुत मानते थे। हसन साहब सन् १९९९ में विविध भारती पर "मेरी यादों में साहिर लुधियानवी" शीर्षक से एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था और साहिर साहब से जुड़ी उनकी तमाम यादों पर से परदा उठाया था। आइए उसी कार्यक्रम में से कुछ अंश यहाँ पेश करते हैं। हसन कमाल बता रहे हैं साहिर लुधियानवी से उनकी पहली मुलाक़ात के बारे में। "साहिर लुधियानवी साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी, जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी का स्टुडेण्ट था, और वो यूनिवर्सिटी के एक मुशायरे में पहली बार लखनऊ आ रहे थे। ये वो ज़माना था जब साहिर लुधियानवी का वो क्रेज़ था कि लोग कहते थे कि अगर कोई साहिर लुधियानवी का नाम नहीं जानता, तो या तो वो शायरी के बारे में कुछ नहीं जानता, या फिर वो नौजवान नहीं, क्योंकि साहिर साहब उस ज़माने में नौजवानों के मेहबूबतरीन शायर हुआ करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उन्हे रिसीव करने के लिए दूसरे स्टुडेण्ट्स के साथ चारबाग़ पहुँचा, तो मेरी ख़ुशी का यह हाल था कि जैसे न जाने ये मेरी ज़िंदगी का कौन सा दिन है और किस हस्ती के दीदार होने वाले हैं कि जिसके दीदार के बग़ैर हमें यह लग रहा था कि ज़िंदगी अधूरी रहेगी। वो तशरीफ़ लाए, हम लोग उन्हे वहाँ से रिसीव करके लाए, और उन्हे एक होटल में ठहराया गया, और मेरा उनसे तारुफ़ यह कह कर करवाया गया कि 'साहिर साहब, ये हसन कमाल हैं, हमारे बहुत ही तेज़ और तर्रार क़िस्म के तालीबिल्मों में, स्टुडेण्ट्स में, और इनकी सब से बड़ी ख़ुसूसीयत यह है कि इन्हे आप की नज़्म 'परछाइयाँ', जो १९ पेजेस लम्बी नज़्म है, ज़बानी याद है'। साहिर साहब बहुत ख़ुश हुए, और शाम को जब हम उन्हे लेने गए तो वक़्त से कुछ पहले पहुँच गए थे, तो उन्होनें बात करते करते अचानक कहा कि 'भई, किसी ने मुझे बताया कि तुम्हे 'परछाइयाँ' पूरी याद है?' मैंने अर्ज़ किया कि 'जी हाँ'। कहने लगे कि 'अच्छा, सुनाओ'। और मैंने पूरी 'परछाइयाँ' नज़्म उनको एक ही नशिस्त में पढ़ कर सुना दी। और वो सुनते रहे। और जब नज़्म ख़त्म हुई तो उनका कमेण्ट यह था कि 'भई ऐसा है, कि मैं पंजाबी हूँ, और शेर बहुत बुरा पढ़ता हूँ, और आज जब तुमको अपनी नज़्म पढ़ते सुना, तो मुझे यह महसूस हो रहा है कि आज के मुशायरे में मेरे बजाए मेरी शायरी तुम ही सुनाना'।" कॊलेज स्टुडेण्ट हसन कमाल के लिए यह बहुत बड़ी बात थी कि साहिर जैसे शायर अपनी शायरी उनसे पढ़वाना चाहते थे। तो दोस्तों, आइए सुना जाए भूपेन्द्र और आशा भोसले की गाई इस जोड़े की सब से प्यारी ग़ज़ल "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है"। शायद 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को भी इस ग़ज़ल का बहुत दिनों से इंतेज़ार था।
किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है,
कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है।
वो वादियाँ वो फ़ज़ाएँ के हम मिले थे जहाँ,
मेरी वफ़ा का वहीं पर मज़ार आज भी है।
न जाने देख के क्यों उनको ये हुआ अहसास,
के मेरे दिल पे उन्हे इख़्तियार आज भी है।
वो प्यार जिसके लिए हमने छोड़ दी दुनिया,
वफ़ा की राह में घायल वो प्यार आज भी है।
यकीं नहीं है मगर आज भी ये लगता है,
मेरी तलाश में शायद बहार आज भी है।
ना पूछ कितने मोहब्बत के ज़ख़्म खाए हैं,
के जिनके सोच में दिल सौगवार आज भी है।
ज़िंदगी क्या कोई निसार करे, किससे दुनिया में कोई प्यार करे,
अपना साया भी अपना दुश्मन है, कौन अब किसका ऐतबार करे।
क्या आप जानते हैं...
कि बप्पी लाहिड़ी ने केवल १६ वर्ष की आयु में एक बंगला फ़िल्म 'दादू' में संगीत दिया था जिसमें तीनों मंगेशकर बहनों (लता, आशा, उषा) से उन्होने गाने गवाए थे।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. शायर बताएं इस बेहद खूबसूरत गज़ल के - ३ अंक.
२. खय्याम साहब के संगीत से सजी इस गज़ल को किस फनकार ने अंजाम दिया है लता के साथ - २ अंक.
३. मतले में शब्द है -"बारात", फिल्म बताएं - १ अंक.
४. निर्देशक बताएं फिल्म के - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंक पवन कुमार जी लूट गए, शरद जी, प्रतिभा जी और किशोर जी भी सही जवाब के साथ मिले. शरद जी नेट पर डी गयी हर जानकारी सही नहीं होती. रोमेंद्र जी आप लेट हो गए. मनु जी, सुमित जी, शेयाला जी, और इंदु जी आप सब को यहाँ देख अच्छा लगा, और दिलीप जी, इंदु जी की शिकायत में हम अपनी भी आवाज़ मिलते हैं. :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
रात है या बरत फूलों की?
मुझे क्या मालूम? पूछने दो इन दोनों को.
यूँ फिल्म भी बड़ी प्यारी थी और इसकी गजले भी.पर जबसे संगीत के नाम पर शोर शुरू हुआ गज़लों का बाज़ार ही खत्म सा हो गया.क्या करे? आप हम ही खूब हैं.
Pratibha K.
Canada
Kish(ore)
Canada