Skip to main content

रविवार सुबह की कॉफी और हिंदी सिनेमा में मुस्लिम समाज के चित्रण पर एक चर्चा

भारतीय फिल्म जगत में समय समय पर कई प्रकार के दौर आये हैं. और इन्ही विशेष दौर से मुड़ते हुए भारतीय सिनेमा भी चल्रता रहा कभी पथरीली सड़क की तरह कम बजट वाली फ़िल्में तो कभी गृहस्थी में फसे दांपत्य जीवन को निशाना बनाया गया, लेकिन हर दौर में जो भी फ़िल्में बनीं हर एक फिल्म किसी न किसी रूप से किसी न किसी संस्कृति से जुड़ीं रहीं. जैसे बैजू बावरा (१९५२) को लें तो इस फिल्म में नायक नायिका के बीच प्रेम कहानी के साथ साथ एतिहासिक पृष्ठभूमि, गुरु शिष्य के सम्बन्ध, संगीत की महिमा का गुणगान भी किया गया है. भारतीय फिल्मों में एक ख़ास समाज या धर्म को लेकर भी फ़िल्में बनती रहीं और कामयाब भी होती रहीं. भारत बेशक हिन्दू राष्ट्र है लेकिन यहाँ और धर्मों की गिनती कम नहीं है. अपनी भाषा शैली, संस्कृति और रीति रिवाजों से मुस्लिम समाज एक अलग ही पहचान रखता है. भारतीय सिनेमा भी इस समाज से अछूता नहीं रहा और समय समय पर इस समाज पर कभी इसकी भाषा शैली, संस्कृति और कभी रीति रिवाजों को लेकर फ़िल्में बनीं और समाज को एक नयी दिशा दी. सिनेमा जब से शुरू हुआ तब से ही निर्माताओं को इस समाज ने आकर्षित किया और इसकी शुरुआत ३० के दशक में ही शुरू हो गयी ४० के दशक में शाहजहाँ १९४६ और ५० एवं ६० के दशक में अनारकली (१९५३), मुमताज़ महल (१९५७), मुग़ल ए आज़म (१९६०), चौदहवीं का चाँद (१९६०), छोटे नवाब (१९६१), मेरे महबूब (१९६३), बेनजीर (१९६४), ग़ज़ल (१९६४), पालकी (१९६७), बहु बेगम (१९६७) आदि फ़िल्में बनीं. उस दौर में जो भी इस समाज को लेकर फ़िल्में आयीं ज्यादातर एतिहासिक ही थीं. इस प्रकार की फिल्मों में ख़ास संगीत और ख़ालिश इसी समाज की भाषा प्रयोग की जाती थी. फिल्मांकन और कलाकारों के हाव भाव से ही इनको पहचान लिया जाता है.

संगीत की द्रष्टि से देखा जाए तो इनका संगीत भी दिल को छू लेने वाला बनाया जाता था. जिसके माहिर नौशाद अली साहब थे. कौन भूल सकता है "ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो लिया (अनारकली १९५३), प्यार किया तो डरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या, ये दिल की लगी कम क्या होगी (मुग़ल ए आज़म, १९६०), रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ (ग़ज़ल १९६४) हम इंतज़ार करेंगे क़यामत तक, खुदा करे के क़यामत हो और तू आये (बहु बेगम, १९६७) ये कुछ वो झलकियाँ थीं जो इस समाज के संगीत की छाप दिल ओ दिमाग पर छोडती है….

गीत : ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया - लता मंगेशकर - अनारकली -१९५३



थोडा आगे चलकर ७० और ८० के दशक में इस समाज की फिल्मों में कुछ बदलाव ज़रूर आये लेकिन भाषा शैली और संस्कृति अब भी वही रही. इस दशक ने इस समाज के परदे को हटाकर कोठो पर ला खड़ा किया. अब नवाब या सामंती स्वामी पान चबाते हुए अपना धन कोठो पर नाचने वाली तवायफों पर लुटाते नज़र आते हैं. उमराव जान (१९८२) और पाकीज़ा (१९७२) ने इस समाज की शकल ही बदलकर रख दी. लेकिन भाषा शैली और संस्कृति से इस दौर में कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी. ७० के दशक से ही समानांतर सिनेमा की शुरुआत हुयी तो इससे ये समाज भी अछूता नहीं रहा और एलान (१९७१) और सलीम लंगड़े पर मत रो (१९९०) जैसी फ़िल्में आई. सलीम लंगड़े पर मत रो (१९९०) निम्न मध्य वर्गीय युवाओं की अच्छी समीक्षा करती है. गरम हवा (१९७३) उस दौर की एक और उत्तम फिल्मों की श्रेणी में खड़ी हो सकती है जो विभाजन के वक़्त लगे ज़ख्मों को कुरेदती है.

इस दौर की दो इसी समाज पर बनी फ़िल्में जो इस पूरे समाज की फिल्मों का प्रतिनिधित्व करती है एक निकाह (१९८२) और बाज़ार (१९८२). एक तरफ निकाह (१९८२) में जहाँ मुस्लिम समाज में प्रचलित तलाक शब्द पर वार किया गया है तो वहीँ दूसरी तरफ बाज़ार (१९८२) में एक नाबालिग लड़की को एक ज्यादा उम्र के व्यक्ति के साथ शादी की कहानी है. यहाँ हम बताते चलें कि उमराव जान १९०५ में मिर्ज़ा रुसवा नामक उपन्यास पर आधारित थी. ७० के दशक में कुछ फिल्मों में एक समाज के किरदार भी डाले गए और वो किरदार भी खूब चले यहाँ तक के फिल्म को नया मोड़ देने के लिए काफी थे. मुक़द्दर का सिकंदर (१९७८) में जोहरा बाई और शोले (१९७५) में रहीम चाचा इसके अच्छे उदाहरण हो सकते हैं. अलीगढ कट शेरवानी, मुंह में पान चबाते हुए, जुबां पर अल्लामा इकबाल या मिर्ज़ा ग़ालिब कि ग़ज़ल गुनगुनाते हुए एक अलग ही अंदाज़ में चलना तो बताने की ज़रुरत नहीं थी के ये किरदार किस समाज से ताल्लुक रखता है. घर कि औरतें या तो पारंपरिक बुर्के मैं या फिर भारी बर्कम लहंगा और घाघरा पहने नज़र आती हैं. बड़ी उमर की औरतें जैसे अम्मीजान नमाज़ में मशगूल होती हैं या फिर पान चबाते हुए घमंडी तरीके की चाल में जब दरवाजे का पर्दा उठाते हुए बाहर आती हैं तो दर्शक समझ जाते हैं कि ये वक़्त ग़ज़ल का आ पहुंचा है जो मुजरे की शक्ल में होगा.

गीत : चलते चलते यूंही कोई मिल गया था - लता मंगेशकर - पाकीज़ा - १९७२


८० के दशक का अंत होते होते और ९० के दशक कि शुरुआत में इस समाज कि फिल्मों का चेहरा पूरी तरह से बदल चुका था. अब जो किरदार पहले रहीम चाचा कि शकल में डाले जाते थे अब वो तस्कर बन चुके हैं.फिल्म अंगार (१९८०) को हम उदाहरण के लिए ले सकते हैं. जहाँ एक तरफ खालिश इस समाज के प्रति समर्पित फ़िल्में बनी तो वहीँ दूसरी तरफ हिन्दू मुस्लिम के मिलाने के लिए भी इस समाज कि फिल्मों का सहारा लिया गया. याद दिला दूं ६० के दशक का वो गीत 'तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान कि औलाद है इंसान बनेगा' इसका अच्छा खाका खीचता है. इस प्रकार कि श्रेणी में ईमान धरम (१९७७), क्रांतिवीर (१९९४) आदि को ले सकते हैं. ९० से अब तक इस समाज का दूसरा रूप ही सामने आया है जिसे आतंकवाद का नाम दिया गया है. इस तर्ज़ पर भी अनगिनत फ़िल्में बनीं और बन रहीं है कुछ के नाम लें तो सरफ़रोश (१९९९), माँ तुझे सलाम , पुकार (२०००), फिजा (२०००), मिशन कश्मीर (२०००), के नाम लिए जा सकते हैं. छोटे छोटे घरों से गाँव बनता है, छोटे छोटे गाँवों से जिला और स्टेट बनकर देश बनता है. इसी प्रकार छोटे छोटे समाजों और संस्कृतियों से सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति बनी हुई है. लेकिन इतना तो तय है के समाज कोई भी हो संस्कृति कोई भी हो, भारतीय समाज अपने आप में एक सम्पूर्ण समाज और संस्कृति है जिसमे न कुछ जोड़ा जा सकता है और न कुछ निकाला जा सकता है.

गीत : तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा - मोहम्मद रफ़ी - धूल का फूल - १९५९


प्रस्तुति- मुवीन



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

Comments

mehboob kii mehndi is another good movie in this category

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट