Skip to main content

आहें ना भरी शिकवे ना किए और ना ही ज़ुबाँ से काम लिया....इफ्तार की शामों में रंग भरती एक शानदार कव्वाली

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 471/2010/171

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का फिर एक बार स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। दोस्तों, माह-ए-रमज़ान चल रहा है। रमज़ान के इन पाक़ दिनों में इस्लाम धर्म के लोग रोज़ा रखते हैं, सूर्योदय से सूर्यास्त तक अन्न जल ग्रहण नहीं करते, और फिर शाम ढलने पर रोज़े की नमाज़ के बाद इफ़्तार आयोजित किया जाता हैं, जिसमें आस-पड़ोस, और रिश्तेदारों को दावत देकर सामूहिक भोजन कराया जाता है। तो दोस्तों, हमने सोचा कि इन इफ़्तार की शामों को थोड़ा सा और रंगीन किया जाए फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कुछ बेमिसाल क़व्वालियों की महफ़िल सजाकर। इसलिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से लेकर अगले दस अंकों में सुनिए ऐसी ही कुछ नायाब फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी हमारी नई लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। इन क़व्वालियों को सुनते हुए आप महसूस कर पाएँगे कि किस तरह से ४० के दशक से लेकर ८० के दशक तक फ़िल्मी क़व्वालियों का चलन बदलता रहा है। इस शृंखला में क़व्वालियों को सुनवाते हुए हम आपको क़व्वालियों के बारे में भी बताएँगे, किस तरह से इसकी शुरुआत हुई, किस किस तरह से ये गाया जाता है, वगैरह। बहरहाल आज जिस क़व्वाली को हमने चुना है उसे फ़िल्म जगत की पहली लोकप्रिय क़व्वाली होने का गौरव प्राप्त है। और यही नहीं यह पहली ऐसी क़व्वाली भी है जिसे केवल महिला गायिकाओं ने गाया है। १९४५ की फ़िल्म 'ज़ीनत' की यह क़व्वाली है "आहें ना भरी शिकवे ना किए और ना ही ज़ुबाँ से काम लिया", जिसे गाया था नूरजहाँ, ज़ोहराबाई, कल्याणीबाई और साथियों ने। इस फ़िल्म में दो संगीतकार थे - मीर साहब और हाफ़िज़ ख़ान (ख़ान मस्ताना)। युं तो नूरजहाँ के गाए कई एकल गीत इस फ़िल्म में मशहूर हुए थे जैसे कि "आंधियाँ ग़म की युं चली", "बुलबुलो मत रो यहाँ" आदि, पर यह क़व्वाली सब से ज़्यादा चर्चित रही और इसने वह धूम मचाई कि इसके बाद फ़िल्मों में क़व्वालियों का चलन बढ़ा और इसी धुन को कम ज़्यादा बदलाव कर फ़िल्मी संगीतकार बार बार क़व्वालियाँ बनाते रहे। बस अफ़सोस की बात यह है कि 'ज़ीनत' के बाद हाफ़िज़ ख़ान को बहुत ज़्यादा सफलता और किसी फ़िल्म में ना मिल सका।

फ़िल्म 'ज़ीनत' की यह क़व्वाली फ़िल्मायी गयी थी शशिकला, श्यामा और शालिनी पर। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में जब शशिकला जी तशरीफ़ लाई थीं, उन्होंने इस क़व्वाली का ज़िक्र किया था, आइए उसी अंश को यहाँ आज पेश किया जाए!

कमल शर्मा: आप ने 'ज़ीनत' का ज़िक्र किया, १९४५ में यह फ़िल्म आई थी, इसमें एक मशहूर क़व्वाली जो है....

शशिकला: जी हाँ, आप कोई यक़ीन नहीं करेंगे, अगर वह पिक्चर आज भी लगे तो सिर्फ़ उस क़व्वाली को देखने और सुनने के लिए लोग वहाँ पे बैठते थे, थिएटर्स में। और उन दिनों जो है क़व्वाली आदमी लोग गाया करते थे, मगर सारी लेडीज़ लोगों ने गाया है, हम लोगों ने उसमें काम किया है।

कमल शर्मा: शशि जी, आप ने नूरजहाँ जी के साथ काम किया है। जैसा उनका अभिनय था, उससे भी ज़्यादा अच्छा वो गाती थीं। आप ने उनको कैसा पाया?

शशिकला: मैं बतायूँ आपको, उन दोनों को मैं भाई साहब और आपा जी कह कर ही बुलाती थी। भाई साहब और आपा जी, इसके सिवा बात नहीं होती थी।

कमल शर्मा: क्या बात है!

शशिकला: और ख़ूबसूरत तो थीं वो, और शौक़त भाई साहब भी उतने ही ख़ूबसूरत थे। मैं कराची गई थी और आपा जी को मिल नहीं सकी। शौक़त भाई साहब से मेरी मुलाक़ात हुई, बहुत रोये वो, बहुत रोये वो, क्योंकि उस वक़्त उनका सेपरेशन हो गया था। और जब कभी मैं वहाँ से गुज़रती हूँ जहाँ वो रहते थे, अपने भी वो दिन याद आ जाते हैं। अगर वो आज होतीं तो मेरी ज़िंदगी कुछ ना कुछ हो जाती। मगर उसके लिए अब मुझे अफ़सोस नहीं है। मदर टेरेसा के पास आने के बाद मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं है।

कमल शर्मा: तो 'ज़ीनत' की वही क़व्वाली सुनी जाए!

शशिकला: ज़रूर, ज़रूर!

तो चलिए दोस्तों, 'मजलिस-ए-क़व्वाली' की पहली क़व्वाली कर रहे हैं आपकी नज़र...



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'चौदहवीं का चाँद' में रवि के संगीत से सजी क़व्वाली "शर्मा के युं फिर पर्दानशीं आँचल को सँवारा करते हैं" की धुन फ़िल्म 'ज़ीनत' के इसी क़व्वाली की धुन से प्रेरीत थी।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस कव्वाली की गायिका बताएं - ३ अंक.
२. ए आर कारदार की इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. धुन थी नौशाद साहब की, गीतकार बताएं - २ अंक.
४ मुखड़े में शब्द है "सुबह", कव्वाली के बोल बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतिभा जी, किशोर जी, नवीन जी और अवध जी को सही जवाबों की बधाई. प्रतिभा जी आपने आपने बारे आपने थोडा बहुत बताया, कुछ अधिक बताना चाहें तो oig@gmail.com पर जरूर लिखें. स्वप्निल जी आपने एकदम सही कहा, "कोई बात चले" में केवल दो ही त्रिवेनियाँ है. भूल सुधारने के लिए धन्यवाद.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

singhSDM said…
Now i ll be continue , returned from singapore....

ans is ----LATA JI
*****
PAWAN KUMAR
AVADH said…
गीतकार: शकील बदायूँवी
अवध लाल

Popular posts from this blog

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

खमाज थाट के राग : SWARGOSHTHI – 216 : KHAMAJ THAAT

स्वरगोष्ठी – 216 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 3 : खमाज थाट   ‘कोयलिया कूक सुनावे...’ और ‘तुम्हारे बिन जी ना लगे...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की तीसरी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया था। वर्तमान समय मे...