आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई .. अली सरदार जाफ़री के दिल का गुबार फूटा जगजीत सिंह के सामने
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९५
"शायर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।"
शायर की परिभाषा देती हुई ये पंक्तियाँ उन शायर की हैं, जिनकी पिछले १ अगस्त को पुण्यतिथि थी। जी हाँ, इस १ अगस्त को उनको सुपूर्द-ए-खाक हुए पूरे १० साल हो गए। २९ नवंबर १९१३ को जन्मे "सरदार" ७७ साल की उम्र में इस जहां-ए-फ़ानी से रूखसत हुए। मैं ये तो नहीं कह सकता कि आज की महफ़िल सजाने से पहले मुझे इस बात की जानकारी थी, लेकिन कहते हैं ना कि कुछ बातें बिन जाने हीं सही हो जाती हैं। तो ये देखिए. हमें यह सौभाग्य हासिल हो गया कि हम अपनी महफ़िल के माध्यम से इस महान शायर को श्रद्धंजलि अर्पित कर सकें।
सरदार यानि कि अली सरदार जाफ़री.. हमने इनका ज़िक्र पिछली कई सारी महफ़िलों में किया है। दर-असल हमारी पिछली ४-५ महफ़िलें इन्हीं के बदौलत मुमकिन हो पाईं थीं। नहीं समझे? आपको याद होगा कि हमने "मजाज़ लखनवी", "फ़िराक़ गोरखपुरी", "जोश मलीहाबादी", "मखदूम मोहिउद्दीन" और "जिगर मुरादाबादी" पर महफ़िलें सजाई थीं, तो इन सारे शायरों पर लिखने की प्रेरणा और इनके बारे में जानकारी हमें सरदार के हीं धारावाहिक "कहकशां" से हासिल हुई थीं। इन शायरों पर बड़े-बड़े आलेख लिख देने के बाद हमने सोचा कि क्यों न अब उनको नमन किया जाए, जो औरों को नमन करने में मशरूफ़ हैं। आज की महफ़िल उसी सोच की देन है।
हमारी कुछ महफ़िलों के लिए जिस तरह सरदार अहम हिस्सा साबित हुए हैं, उसी तरह एक और रचनाकार हैं, जिनके बिना हमारी कुछ महफ़िलों की कल्पना नहीं की जा सकती। उन लेखक, उन रचनाकार का नाम है "प्रकाश पंडित"। इन्होंने "अमूक शायर" (यहाँ पर आप किसी भी बड़े शायर का नाम बैठा लीजिए) और उनकी शायरी" नाम से कई सारी पुस्तकों का संकलन किया है। हमारे हिसाब से यह बड़ी हीं मेहनत और लगन का काम है। इसलिए हम उनको सलाम करते हुए उनसे "सरदार" के कुछ किस्से सुनते हैं:
सरदार अपनी प्रकाशित कृतियों के कारण जाने जाते हैं। ये कृतियाँ हैं: ‘परवाज़’ (१९४४), ‘जम्हूर’ (१९४६), ‘नई दुनिया को सलाम’ (१९४७), ‘ख़ूब की लकीर’ (१९४९), ‘अम्मन का सितारा’ (१९५०), ‘एशिया जाग उठा’ (१९५०), ‘पत्थर की दीवार’ (१९५३), ‘एक ख़्वाब और (१९६५) पैराहने शरर (१९६६), ‘लहु पुकारता है’ (१९७८)
अपने जीवनकाल में उन्हें कई सारे सम्मान हासिल हुए, जिनमें प्रमुख हैं: ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार , इक़बाल सम्मान, पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार
अली सरदार ज़ाफ़री की शायरी क्या थी? वे कैसा लिखते थे.. इतना कुछ कह देने के बाद प्रमाण देना तो जरूरी है। यह प्रमाण खुद सरदार अपनी पुस्तक "पत्थर की दीवार" की भूमिका में देते हैं:
मैं हूँ सदियों का तफ़क्कुर, मैं हूं क़र्नों का ख़्याल,
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से मैं अबद से हमकिनार।
यानि कि मैं सदियों का मनन हूँ, मैं सदियों का ख़्याल हूँ। मैं आदिकाल को अपने आगोश में लिए हुए हूँ और मैं अन्तकाल के गले मिला हुआ भी हूँ। इस तरह से सरदार ने अपना काव्यात्मक परिचय दिया है।
चलिए इन परिचयों और जानकारियों के बाद आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। अब चूँकि हमने पिछली महफ़िल में जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल सुनाई थी, इसलिए कायदे से आज किसी और गुलुकार की ग़ज़ल होनी चाहिए थी। लेकिन चूँकि सरदार को बहुत कम हीं फ़नकारों ने गाया है, इसलिए हमें फिर से जगजीत सिंह जी को हीं न्योता देना पड़ा। तो आज की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल करने हमारी महफ़िल में फिर से हाज़िर हैं ग़ज़लजीत जगजीत सिंह जी। इस ग़ज़ल को हमने उनके एल्बम "रवायत" से लिया है। तो लुत्फ़ उठाई उनकी दर्दभरी मखमली आवाज़ का:
आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुस्वाई
ये फूल से चेहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेग़ाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई राही भी तमाशाई
मैं और मेरी तन्हाई
अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे
क़ातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे
रोती है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई
मैं और मेरी तन्हाई
आकाश के माथे पर तारों का चराग़ां है
पहलू में मगर मेरे ज़ख़्मों का गुलिस्तां है
आँखों से लहू टपका ____ में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "शबाब" और शेर कुछ यूँ था-
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
मेरे ख़त का जवाब आया है
उसमें पिछला हिसाब आया है
अब चमन को भी जरूरत उनकी
ऐसा उन पर शवाब आया है। (शरद जी)
यकसां है मेरे हुज़ूर और चाँद का वजूद
दिमाग-औ-दिल पे छाया हुआ रुआब सी है वो
तल्खी- ऐ- शबाब यार की किस लफ्ज़ में कहूं
शराब मैं भीगा हुआ एक गुलाब सी है वो (अवनींद्र जी) वाह! क्या बात है! माशा-अल्लाह!
शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब
उसमे फिर मिलायी जाए थोड़ी सी शराब ,
होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है (गोपाल दास "नीरज")
बहार बन मौसम आया है ,कलियों पे शबाब आया है
चमन की गलियों में गाते ,हुजूम भंवरों का आया है. (शन्नो जी)
उनके आने पर मौसम में शवाब आया ,
उनके जाने पर वियोग का खुमार छाया (मंजु जी)
पिछली दफ़ा मित्रों की उपस्थिति कम थी। कहीं आप-सब मित्र मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान गए। अगर ऐसी बात है तो लीजिए मैं कान पकड़ता हूँ। चलिए गाल भी आगे कर दिया.... लगा दीजिए एक-दो थप्पड़। मेरी गलतियों की सज़ा मुझे देकर अपने अंदर की सारी भंड़ास निकाल लीजिए, लेकिन अपनी इस महफ़िल से दूर मत जाईये। नहीं जाएँगे ना? तो उम्मीद है कि आप आज की इस महफ़िल से नदारद नहीं होंगे। हाँ तो पिछली महफ़िल की कुछ बातें करते हैं। अपनी भूल मानते हुए आशीष जी महफ़िल में सबसे पहले दाखिल हुए। आपने बड़े हीं प्यार से अपना पक्ष रखा। यकीन मानिए, मुझे आपसे ज्यादा बाकी प्रियजनों से शिकायत थी। आप कतई भी बुरा न मानें। वैसे आपने तो सबसे पहली टिप्पणी डालकर महफ़िल की शुरू की थी और की है। इसलिए आप तो बधाई के पात्र हैं। ये अलग बात है कि शरद जी ने आपसे पहले शेर सुनाकर शान-ए-महफ़िल की गद्दी हथिया ली :) अवनींद्र जी, आपने अपनी गलती मानी, यही बहुत है मेरे लिए। और आपने जो शेर डाला... उसके बारे में क्या कहूँ। दिल खुश हो गया.. शन्नो जी, आपको मेरा झटका देना अच्छा लगा, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप सिकुड़-सिकुड़ कर महफ़िल में आओ और अनमने ढंग से कुछ कह कर निकल जाओ। महफ़िल को आपके बेबाकपन की जरूरत है.. बिल्कुल नीलम जी जैसा। इस बार से आपका यह सहमा-सा बर्ताव नहीं चलेगा। समझीं ना? :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
"शायर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।"
शायर की परिभाषा देती हुई ये पंक्तियाँ उन शायर की हैं, जिनकी पिछले १ अगस्त को पुण्यतिथि थी। जी हाँ, इस १ अगस्त को उनको सुपूर्द-ए-खाक हुए पूरे १० साल हो गए। २९ नवंबर १९१३ को जन्मे "सरदार" ७७ साल की उम्र में इस जहां-ए-फ़ानी से रूखसत हुए। मैं ये तो नहीं कह सकता कि आज की महफ़िल सजाने से पहले मुझे इस बात की जानकारी थी, लेकिन कहते हैं ना कि कुछ बातें बिन जाने हीं सही हो जाती हैं। तो ये देखिए. हमें यह सौभाग्य हासिल हो गया कि हम अपनी महफ़िल के माध्यम से इस महान शायर को श्रद्धंजलि अर्पित कर सकें।
सरदार यानि कि अली सरदार जाफ़री.. हमने इनका ज़िक्र पिछली कई सारी महफ़िलों में किया है। दर-असल हमारी पिछली ४-५ महफ़िलें इन्हीं के बदौलत मुमकिन हो पाईं थीं। नहीं समझे? आपको याद होगा कि हमने "मजाज़ लखनवी", "फ़िराक़ गोरखपुरी", "जोश मलीहाबादी", "मखदूम मोहिउद्दीन" और "जिगर मुरादाबादी" पर महफ़िलें सजाई थीं, तो इन सारे शायरों पर लिखने की प्रेरणा और इनके बारे में जानकारी हमें सरदार के हीं धारावाहिक "कहकशां" से हासिल हुई थीं। इन शायरों पर बड़े-बड़े आलेख लिख देने के बाद हमने सोचा कि क्यों न अब उनको नमन किया जाए, जो औरों को नमन करने में मशरूफ़ हैं। आज की महफ़िल उसी सोच की देन है।
हमारी कुछ महफ़िलों के लिए जिस तरह सरदार अहम हिस्सा साबित हुए हैं, उसी तरह एक और रचनाकार हैं, जिनके बिना हमारी कुछ महफ़िलों की कल्पना नहीं की जा सकती। उन लेखक, उन रचनाकार का नाम है "प्रकाश पंडित"। इन्होंने "अमूक शायर" (यहाँ पर आप किसी भी बड़े शायर का नाम बैठा लीजिए) और उनकी शायरी" नाम से कई सारी पुस्तकों का संकलन किया है। हमारे हिसाब से यह बड़ी हीं मेहनत और लगन का काम है। इसलिए हम उनको सलाम करते हुए उनसे "सरदार" के कुछ किस्से सुनते हैं:
आधुनिक उर्दू शायरी का यह साहसी शायर शान्ति और भाईचारे के प्रचार और परतंत्रता, युद्ध और साम्राजी हथकंडों पर कुठाराघात करने के अपराध में परतंत्र भारत में भी कई बार जेल जा चुका है और स्वतंत्र भारत में भी। यह शायर बलरामपुर ज़िला गोंडा (अवध) में पैदा हुआ। घर का वातावरण उत्तर-प्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों की तरह ख़ालिस मज़हबी था, और चूकिं ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मर्सियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को, अतएव अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और इस नाते अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी-सी आयु में ही उसने मर्सिये (शोक-काव्य) कहने शुरू कर दिये और १९३३ ई. तक बराबर मर्सिये कहता रहा। उसका उन दिनों का एक शेर देखिये :
अर्श तक ओस के क़तरों की चमक जाने लगी।
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी।।
लेकिन बलरामपुर से हाई स्कूल की परीक्षा पास करके जब वह उच्च शिक्षा के लिए मुस्लिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ पहुँचा तो वहाँ उसे अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्वी, मजाज, जां निसार ‘अख्तर’ और ख्वाजा अहमद अब्बास ऐसे लेखक साथी मिले और वह विद्यार्थियों के आन्दोलनों में भाग लेने लगा। फिर विद्यार्थी की एक हड़ताल (वायसराय की एग्जै़क्टिव कौंसल के सदस्यों के विरुद्ध जो अलीगढ़ आया करते थे) कराने के सम्बन्ध में युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया तो उस की शायरी का रुख़ आप-ही-आप मर्सियों से राजनैतिक नज़्मों की ओर मुड़ गया। ऐंग्लो-एरेबिक कालेज देहली से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद जब वह बम्बई पहुँचा और कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य बना और फिर उसे बार-बार जेल-यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो उसकी शायरी ने ऐसे पर-पुर्ज़े निकाले और उसकी ख्याति का वह युग प्रारंभ हुआ कि प्रतिक्रियावादियों को कौन कहे स्वयं प्रगतिशील लेखक भी दंग रह गये।
उसके समस्त कविता-संग्रहों परवाज़ नई दुनिया को सलाम’, ‘खून की लकीर’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘पत्थर की दीवार’ का अध्ययन करने से जो चीज़ बड़े स्पष्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिसमें हमें सरदार की कलात्मक महानता का पता चलता है, वह यह है कि उसे मानवता के भव्य भविष्य का पूरा-पूरा भरोसा है। यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा, थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसकी शायरी हमारे मन में नई-नई उमंगें जगाती है और हम शायर की सूझ-बूझ और उसके आशावाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
जाफ़री की शायरी की आयु लगभग वही है जो भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की। सरदार जाफ़री ने प्रत्येक अवसर पर न केवल अपनी मानव-मित्रता की मशाल जलाई बल्कि मानव-शत्रुओं के विरुद्ध अपनी पवित्र घृणा भी प्रकट की। उसने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उन धड़कनों के साथ-साथ उसका अपना दिल भी धड़कता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कुछ आलोचकों की राय यह भी है कि अधिकतर सामायिक विषयों पर शेर कहने के कारण सरदार जाफ़री की शायरी भी सामयिक है और नई परिस्थितियां उत्पन्न होते ही उसका महत्व कम हो जाएगा। एक हद तक मैं भी उन साहित्यकारों से सहमत हूं लेकिन सरदार जाफ़री के इस कथन को एकदम झुठलाने का भी मैं साहस नहीं कर पाता जिसमें वह स्वयं अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए कहता है कि "हर शायर की शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।"
जाफ़री के आलोचक भी कम नहीं रहे। प्रगतिशील शक्तियों से अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करने और अपनी कलात्मक ज़िम्मेदारी का पूरी तरह अनुभव कर लेने के बाद जब सरदार ने शायरी के मैदान में क़दम रखा और जो कुछ उसे कहना था बड़े स्पष्ट स्वर में कहने लगा तो शायरी की रूढ़िगत परम्पराओं के उपासकों का बौखला उठना ठीक उसी प्रकार आवश्यक था जिस प्रकार की १९वीं शताब्दी के प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ को अठारहवीं शताब्दी के उर्दू के सर्वप्रथम जन-कवि ‘नज़ीर’ अकबराबादी के यहां बाज़ारूपन और अश्लीलता नज़र आई थी। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी के प्रख्यात आलोचक डाक्टर फ़ेलन ने नज़ीर के बारे में कहा कि " ’नज़ीर’ ही उर्दू का वह एकमात्र शायर है (अपने काल का) जिसकी शायरी योरुप वालों के काव्य-स्तर के अनुसार सच्ची शायरी है।" उसी तरह २०वीं और २१वीं शताब्दी के आलोचकों को यह यकीन होने लगा है कि जिन विचारों को सरदार नज़्म करता है वे सीधे हमारे मस्तिष्क को छूते हैं और हमारे भीतर स्थायी चुभन और तड़प, वेग और प्रेरणा उत्पन्न करते हैं।
सरदार अपनी प्रकाशित कृतियों के कारण जाने जाते हैं। ये कृतियाँ हैं: ‘परवाज़’ (१९४४), ‘जम्हूर’ (१९४६), ‘नई दुनिया को सलाम’ (१९४७), ‘ख़ूब की लकीर’ (१९४९), ‘अम्मन का सितारा’ (१९५०), ‘एशिया जाग उठा’ (१९५०), ‘पत्थर की दीवार’ (१९५३), ‘एक ख़्वाब और (१९६५) पैराहने शरर (१९६६), ‘लहु पुकारता है’ (१९७८)
अपने जीवनकाल में उन्हें कई सारे सम्मान हासिल हुए, जिनमें प्रमुख हैं: ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार , इक़बाल सम्मान, पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार
अली सरदार ज़ाफ़री की शायरी क्या थी? वे कैसा लिखते थे.. इतना कुछ कह देने के बाद प्रमाण देना तो जरूरी है। यह प्रमाण खुद सरदार अपनी पुस्तक "पत्थर की दीवार" की भूमिका में देते हैं:
मैं हूँ सदियों का तफ़क्कुर, मैं हूं क़र्नों का ख़्याल,
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से मैं अबद से हमकिनार।
यानि कि मैं सदियों का मनन हूँ, मैं सदियों का ख़्याल हूँ। मैं आदिकाल को अपने आगोश में लिए हुए हूँ और मैं अन्तकाल के गले मिला हुआ भी हूँ। इस तरह से सरदार ने अपना काव्यात्मक परिचय दिया है।
चलिए इन परिचयों और जानकारियों के बाद आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। अब चूँकि हमने पिछली महफ़िल में जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल सुनाई थी, इसलिए कायदे से आज किसी और गुलुकार की ग़ज़ल होनी चाहिए थी। लेकिन चूँकि सरदार को बहुत कम हीं फ़नकारों ने गाया है, इसलिए हमें फिर से जगजीत सिंह जी को हीं न्योता देना पड़ा। तो आज की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल करने हमारी महफ़िल में फिर से हाज़िर हैं ग़ज़लजीत जगजीत सिंह जी। इस ग़ज़ल को हमने उनके एल्बम "रवायत" से लिया है। तो लुत्फ़ उठाई उनकी दर्दभरी मखमली आवाज़ का:
आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुस्वाई
ये फूल से चेहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेग़ाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई राही भी तमाशाई
मैं और मेरी तन्हाई
अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे
क़ातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे
रोती है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई
मैं और मेरी तन्हाई
आकाश के माथे पर तारों का चराग़ां है
पहलू में मगर मेरे ज़ख़्मों का गुलिस्तां है
आँखों से लहू टपका ____ में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "शबाब" और शेर कुछ यूँ था-
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
मेरे ख़त का जवाब आया है
उसमें पिछला हिसाब आया है
अब चमन को भी जरूरत उनकी
ऐसा उन पर शवाब आया है। (शरद जी)
यकसां है मेरे हुज़ूर और चाँद का वजूद
दिमाग-औ-दिल पे छाया हुआ रुआब सी है वो
तल्खी- ऐ- शबाब यार की किस लफ्ज़ में कहूं
शराब मैं भीगा हुआ एक गुलाब सी है वो (अवनींद्र जी) वाह! क्या बात है! माशा-अल्लाह!
शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब
उसमे फिर मिलायी जाए थोड़ी सी शराब ,
होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है (गोपाल दास "नीरज")
बहार बन मौसम आया है ,कलियों पे शबाब आया है
चमन की गलियों में गाते ,हुजूम भंवरों का आया है. (शन्नो जी)
उनके आने पर मौसम में शवाब आया ,
उनके जाने पर वियोग का खुमार छाया (मंजु जी)
पिछली दफ़ा मित्रों की उपस्थिति कम थी। कहीं आप-सब मित्र मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान गए। अगर ऐसी बात है तो लीजिए मैं कान पकड़ता हूँ। चलिए गाल भी आगे कर दिया.... लगा दीजिए एक-दो थप्पड़। मेरी गलतियों की सज़ा मुझे देकर अपने अंदर की सारी भंड़ास निकाल लीजिए, लेकिन अपनी इस महफ़िल से दूर मत जाईये। नहीं जाएँगे ना? तो उम्मीद है कि आप आज की इस महफ़िल से नदारद नहीं होंगे। हाँ तो पिछली महफ़िल की कुछ बातें करते हैं। अपनी भूल मानते हुए आशीष जी महफ़िल में सबसे पहले दाखिल हुए। आपने बड़े हीं प्यार से अपना पक्ष रखा। यकीन मानिए, मुझे आपसे ज्यादा बाकी प्रियजनों से शिकायत थी। आप कतई भी बुरा न मानें। वैसे आपने तो सबसे पहली टिप्पणी डालकर महफ़िल की शुरू की थी और की है। इसलिए आप तो बधाई के पात्र हैं। ये अलग बात है कि शरद जी ने आपसे पहले शेर सुनाकर शान-ए-महफ़िल की गद्दी हथिया ली :) अवनींद्र जी, आपने अपनी गलती मानी, यही बहुत है मेरे लिए। और आपने जो शेर डाला... उसके बारे में क्या कहूँ। दिल खुश हो गया.. शन्नो जी, आपको मेरा झटका देना अच्छा लगा, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप सिकुड़-सिकुड़ कर महफ़िल में आओ और अनमने ढंग से कुछ कह कर निकल जाओ। महफ़िल को आपके बेबाकपन की जरूरत है.. बिल्कुल नीलम जी जैसा। इस बार से आपका यह सहमा-सा बर्ताव नहीं चलेगा। समझीं ना? :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
है दामन और शेर क्या पूरा जंगल हाज़िर है
उसकी गेसुओं से धरकती बूंदे
लीप जाए मेरा मन तो जी लूं
मेरे अश्रु भरे मन की खातिर
वो फैला दे दामन तो जी लूं
उस बिन जीवन वन सा लगता है
वो कर दे वन को आँगन तो जी लूं
उसकी नागिन सी जुल्फों का
मैं बन जाऊ चन्दन तो जी लूं
बरसो से तपती मन की धरा पे
वो बन जाये सावन तो जी लूं
बिलखते अन्तेर्मन की पीड़ा का
वो बन जाये संयम तो जी लूं
मेरी बूढी बोझल सी आशा का
वो बन जाये यौवन तो जी लूं
वेदना की थाती से लिख दी जवानी
उसको हो जाये ये अर्पण तो जी लूं (स्वरचित )
जब ये न थाम पाए थामोगे हाथ कैसे ?
(स्वरचित)
कोई कलमा मुहब्बत का दोहराते फ़रिश्ते हैं (जावेद अख्तर )
छोड़ कर तेरे प्यार का दामन ये बता दे कि हम किधर जाएँ
हमको डर है कि तेरी बाहों में हम ख़ुशी से न मर जाएँ [[मालूम ( नहीं ) जानती ]]
दर्द से मेरा दमन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफाई )
दामन में आंसू थे, या रुस्वाईयां थी
ये किस्मत थी या वो बे- वफ़ाइयाँ थी
( खुद ने लिखी है ,अच्छी नहीं है ना ,हमे भी पता है )
दामन था उनका ,पर फासला तो था
आमद तो थी उनकी ,पर रास्ता न था
(एक दम ताजा -ताजा- तरीन- तरीन )(नीलम मिश्रा )
दीपक जी छेत्रफल के हिसाब से तो जंगल हमारा बड़ा है ना (हुई ,हुई हुई हुई हुई हुई हुई हुई ???????????????ऐसे हँसिये सब लोग
शेर अर्ज है -
फूलों से बढियां कांटे हैं ,
जो दामन थाम लेते हैं .
फूल खिले है गुलशन गुलशन,
लेकिन अपना अपना दामन
शायर का नाम याद नही
आँसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा
हाथ तो मैने उटाये थे दुआ किसकी थी?
शायर का नाम mujaffar है शायद
रात के दामन में शमा जब जलती है
हवा आके उससे लिपट के मचलती है
परवाने आकर के खाक हुआ करते हैं
बेबस सी शमा की इसमें ना गलती है.
( स्वरचित )
तो चलती हूँ अब...सबको खुदा हाफिज़...
हमको डर है के तेरी बाहों में हम सिमट कर ना आज मर जाएँ.
रजा मेहदी अली खान
kaise hain aap aur humaara lucknow kaisa hai .
(deepak ji sorry )
आपने बिलकुल ठीक कहा. उर्दू लिपि से अनजान मगर उर्दू शायरी के शौक़ीन अनगिनत हिंदी पाठकों को मशहूर शोरा के कलाम से प्रकाश पंडित ने परिचित कराया.आज से ५० साल पहले यह उन्हीं की पहल थी कि प्रकाश पॉकेट बुक्स ने शायरों की सीरीज़ जारी की.
और संभवतः यह हिदी में सर्व प्रथम प्रकाशित पॉकेट बुक्स थीं. प्रत्येक पॉकेट बुक का मूल्य था - १ रुपया. फिर बाद में बंगला साहित्य का हिंदी अनुवाद - गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और शरद चंद्र साहित्य प्रकाशित हुआ.
अपने उन पुराने दिनों की यादगार दुबारा ताज़ा करने हेतु मैं शायरों की इन पुरानी पॉकेट बुक्स को ढूंढ रहा हूँ. अगर आपके पास कोई सूचना हो तो कृपया देने का कष्ट करें.
धन्यवाद
अवध लाल
सभी मित्रों के शेर की तारीफ ही तारीफ...
( हमारा बीच में टपकना बुरा तो नहीं लगा..बस यूँ ही सोचा कि अपना भी ध्यान दिला दूँ...बुरा लगा हो तो फिर माफ़ी....ठीक है ना..क्या समझीं..?
चलती हूँ...खुदा हाफिज...
आप फिर कुछ गलत समझ रही हैं .
१)अवध जी को शुक्रिया कहने का कारण हमारे शेर के शायर का नाम बताने के लिए था
२)दीपक जी ,विश्व दीपक तनहा जी ही हैं v.d के नाम से जाने जाते हैं .
३)मेरे ऊपर आपको न याद करने का सरासर गलत इल्जाम, facebook पर सुबह सुबह नमस्कार कर चुके हैं हम आपको ,
फिर भी कोई खता हुई हो तो मुआफ कीजिये (हम और आप तो पुरानी सहेली हैं )
आपको मुबारक हों ज़माने की सारी खुशियाँ
हर गम जिंदगी का हमारे दामन में भर दो .
( स्वरचित )
वो कब्र पर बैठे बेहाल हो रहे थे
रोकर सुर्ख उनके गाल हो रहे थे
जिसके दामन में थीं बहारें भरी
वो आँसुओं से कंगाल हो रहे थे.
ये स्वयं रचित ही है...समझे न..?