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ई मेल के बहाने यादों के खजाने (४), जब शरद तैलंग मिले रीटा गांगुली से

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में आप सभी का स्वागत है। हर हफ़्ते आप में से किसी ना किसी साथी की सुनहरी यादों से समृद्ध कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस ख़ास ख़ज़ाने को। हमें बहुत से दोस्तों से ईमेल मिल रहे हैं और एक एक कर हम सभी को शामिल करते चले जा रहे हैं। जिनके ईमेल अभी तक शामिल नहीं हो पाए हैं, वो उदास ना हों, हम हर एक ईमेल को शामिल करेंगे, बस थोड़ा सा इंतेज़ार करें। और जिन दोस्तों ने अभी तक हमें ईमेल नहीं किया है, उनसे गुज़ारिश है कि अपने पसंद के गानें और उन गानों से जुड़ी हुई यादों को हिंदी या अंग्रेज़ी में हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भेजें। अगर आप शायर या कवि हैं, तो अपनी स्वरचित कविताएँ और ग़ज़लें भी हमें भेज सकते हैं। किसी जगह पर घूमने गए हों कभी और कोई अविस्मरणीय अनुभव हुआ हो, वो भी हमें लिख सकते हैं। इस स्तंभ का दायरा विशाल है और आप को खुली छूट है कि आप किसी भी विषय पर अपना ईमेल हमें लिख सकते हैं। बहरहाल, आइए अब आज के ईमेल की तरफ़ बढ़ा जाए। शरद तैलंग का नाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए कोई नया नाम नहीं है। शुरु से ही उन्होंने ना केवल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' से जुड़े रहे हैं, बल्कि इसमें सक्रीय हिस्सा भी लिया। वो ना केवल एक अच्छे गायक हैं, बल्कि हिंदी फ़िल्म संगीत के बहुत अच्छे जानकारों में से हैं। तभी तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहेली प्रतियोगिताओं में वो हर बार सब से आगे रहते हैं। बहुत ही कम ऐसे मौके हुए कि जब शरद जी ने दैनंदिन पहेली का हल ना कर सके हों। आज हम शरद जी की यादों में बसे एक मुलाक़ात से रु-ब-रु होंगे। मशहूर ग़ज़ल गुलुकारा बेग़म अख़्तर जी की शिष्या रीटा गांगुली से शरद जी की एक मुलाक़ात का क़िस्सा पढ़िए शरद जी के अपने शब्दों में।


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रीटा गांगुली से एक सार्थक मुलाकात

० शरद तैलंग

संगीत जगत में स्व. बेगम अख्तर की शिष्या रीटा गांगुली ने न केवल फ़िल्मों में गीत गाए बल्कि अपनी अदाकारी भी दिखाई है। कुछ वर्षों पूर्व वे एक दिन मेरे गाँव टीकमगढ़ जा पहुंचीं। उन्हें मालूम हुआ था कि टीकमगढ़ में एक बहुत ही बुजुर्ग महिला असगरी बाई रहतीं हैं जो ध्रुपद धमार तथा पुरानी गायिकी दादरा और टप्पा की बहुत ही कुशल गायिका हैं। राजाओं के ज़माने में असगरी बाई राज दरबार की प्रमुख गायिका थीं तथा हर शुभ अवसर पर महल में उनकी महफ़िल सजती थी किन्तु राजाओं के राज्य चले जाने के बाद असगरी बाई भी एक झोपडी में अपने दिन गुजार रहीं थी। मेरे बड़े भाई स्व विक्रम देव तैलंग उनके घर अक्सर मिलने जाया करते थे। रीटा गांगुली को भी वे उनसे मिलवाने ले गए। उनकी दयनीय हालत देख कर रीटा जी ने उन्हें अपने साथ दिल्ली चलने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा जिसे असगरी बाई ने स्वीकार कर लिया। दिल्ली में असगरी बाई को कुछ संगीत समारोहों में रीटा जी ने प्रस्तुत किया तथा मुख्य रूप से ध्रुपद गायकी के सम्मेलनों में। धीरे धीरे असगरी बाई का नाम पूरे देश में ध्रुपद गायिका के रूप में फैलने लगा। उस समय ध्रुपद गायन में महिला कलाकार गिनी चुनी थी, उनके अलावा जयपुर की मधु भट्ट का नाम ही लिया जा सकता है। फिर एक दिन सुना कि असगरी बाई को मध्यप्रदेश शासन के पुरस्कार के अलावा पद्मश्री सम्मान भी प्रदान किया गया है।

बात आई गई हो गई। कोटा में कुछ समय बाद ही स्व बेग़म अख्तर की याद में एक ग़ज़ल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में रीटा गांगुली जी कोटा पधारीं। चूंकि वो मेरे गाँव में मेरे घर जा चुकीं थीं इसलिए मेरे मन में उनसे मिलने की प्रबल इच्छा थी। मैं, जिस होटल में वे रुकीं थी, वहाँ पंहुच गया। वे उस समय एक किताब पढ़ रहीं थी, मुझे देखते ही उन्होंनें वो किताब एक तरफ़ रख दी। मैनें अपना परिचय दिया तथा असगरी बाई तथा मेरे गाँव में उनकी यात्रा का सन्दर्भ दिया। वे मुझसे मिलकर बहुत खुश हुईं। थोडी देर बातचीत के बाद उन्होनें मुझसे पूछा कि क्या आप भी कुछ गाने का शौक रखते हैं? मैनें जब उनको यह बताया कि हाँ स्टेज प्रोग्राम भी करता हूँ तथा आकाशवाणी जयपुर से सुगम संगीत भी प्रसारित होते हैं, उन्होनें फ़ौरन हारमोनियम मेरे आगे खिसका दिया और कहा कि कुछ सुनाइए। मैनें अपनी एक कम्पोज़ीशन दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल 'कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए" उनको सुनाई। बीच बीच में वे भी उस धुन में हल्के से एक दो ताने लगा दिया करतीं थीं। मेरा गाना सुनकर वे बोली- बहुत अच्छी कम्पोज़ीशन है, आजकल लोग दूसरों की कम्पोज़ीशन चुरा लेते है और अपनी कहकर महफ़िलों में सुनाया करते हैं, आप किसी अच्छे स्टूडियों में इनको रिकॊर्ड करा लीजिए मैं आपको मुम्बई के एक अच्छे स्टूडियों के नाम पत्र लिख कर देती हूँ वे मेरे अच्छे परिचित हैं। फ़िर थोड़ी देर बाद वे बोली कि अजीब संयोग है आपके आने से पहले मैं दुष्यन्त कुमार की यही ग़ज़ल पढ़ रही थी और जब वो किताब जो मेरे आने पर उन्होंने रख दी थी उसको पलट कर दिखाई तो इसी ग़ज़ल का पेज़ सामने खुला हुआ था। वे बोली आज मैं भी आपकी ये कम्पोज़ीशन चुरा रही हूँ लेकिन जिस महफ़िल में भी इसे सुनाऊंगी आपका नाम लेकर ही सुनाऊंगी। मैं भी शाम को महफ़िल में उनसे मिलने का वादा करके वहाँ से रुखसत हो गया ।


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वाह! वाक़ई हैरत की बात थी कि शरद जी ने जिस ग़ज़ल को गाकर सुनाया, रीटा जी वही ग़ज़ल उस वक़्त पढ़ रहीं थीं। इस सुंदर संस्मरण के बाद आइए अब शरद जी की फ़रमाइश पर एक फ़िल्मी ग़ज़ल सुना जाए। मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी हुई ग़ज़ल है और फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का ही है। जी हाँ, उसी १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का है जिसमें संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने ग़ालिब की ग़ज़लों को बड़े ख़ूबसूरत तरीकों से स्वरबद्ध किया था। सुरैय्या और तलत महमूद की आवाज़ों में ये ग़ज़लें फ़िल्मी ग़ज़लों में ख़ास जगह रखती हैं। सुनते हैं इन दो महान आवाज़ों में "दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है"। लेकिन उससे पहले सुरैय्या जी की यादों के ख़ज़ाने जो उन्होंने बाँटे विविध भारती पर ख़ास इसी फ़िल्म के बारे में - "ज़िंदगी में कुछ मौके ऐसे आते हैं जिन पे इंसान सदा नाज़ करता है। मेरी ज़िंदगी में भी एक ऐसा मौका आया था जब 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला, और उस फ़िल्म का एक ख़ास शो राष्ट्रपति भवन में हुआ था, जहाँ हमने पण्डित नेहरु जी के साथ बैठ कर यह फ़िल्म देखी थी। पण्डित नेहरु हर सीन में मेरी तारीफ़ करते और मैं फूली ना समाती।" और दोस्तों, फूले तो हम भी नहीं समाते ऐसे प्यारे प्यारे सदाबहार लाजवाब गीतों को सुन कर। पेश-ए-ख़िदमत है शरद तैलंग जी के अनुरोध पर 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की यह युगल ग़ज़ल।

गीत - दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है


तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ख़ास साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। यह साप्ताहिक सिलसिला आपको कैसी लग रही है और इसे और भी बेहतर और आकर्षक कैसे बनाया जा सकता है, आप अपने विचार और सुझाव हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर लिख सकते हैं। तो आज के लिए बस इतना ही, अगले हफ़्ते किसी और साथी के ईमेल और उनकी यादों के साथ हम फिर हाज़िर होंगे, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक में आप से कल शाम फिर मुलाक़ात होगी, तब तक के लिए हमें दीजिए इजाज़त, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी

Comments

indu puri said…
सुजॉय-सजीव जी!
अभी आप सामने होते तो जानते हैं मैं क्या करती?? पकड़ कर गले से लगा लेती आप दोनों को.
कितना समर्पन है संगीत के लिए आप दोनों में!
रोज 'भगवान' से मिलते हो?
मैंने तो महसूस किया है जो आत्मविस्मृत की स्थिति तक पहुंचा दे वो अलौकिक हुआ न ?
खूब महसूस किया होगा तब तो आप दोनों ने.
शरद भाई को आपके ब्लोग पर सुना जरूर था,पर इतना नहीकि दिमाग में बस जाता.आज फिर याद दिलाया वे गाते हैं मालुम था पर इतना.....और ऐसा भी ??इमानदारी से कहती हूं नही मालूम था .अब मुझे उनके गाये जितने भी गाने है सब सुनने हैं और वो मुझे आप दोनों उपलब्ध करायेंगे.कैसे ये मैं नही जानती?
मैं तो अपना टेंशन हमेशा दूसरों को (वैसे तो मेरे कृष्ण कन्हैया को ही) पकड़ा कर सो जाती हूं मस्त नींद में.
क्या करूँ ??
सचमुच ऐसीच हूं मैं.
मेरी फरमाइश शरद भैया तक पहुंचा देना.
mahendra verma said…
मैं ‘आवाज़‘ का नियमित श्रोता और पाठक हूं। फिल्मी और सुगम संगीत के संबंध में इतनी सुंदर जानकारी पढ़-सुन कर दिल को अजीब सा सुकून मिलता है। इस शृंखला में पुराने ग़ैर फ़िल्मी गीतों को भी शामिल कीजिए न। संगीत और साहित्य की इस नई विधा के सृजन के लिए आप और आपकी टीम बधाई के पात्र हैं।

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