क्या बताएँ कितनी हसरत दिल के अफ़साने में है...ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की आवाज़ में एक और दमदार कव्वाली
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 472/2010/172
रमज़ान के पाक़ अवसर पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी ख़ुशनुमा बनाने के लिए 'आवाज़' की ख़ास पेशकश इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' के तहत। कल हमने १९४५ की मशहूर फ़िल्म 'ज़ीनत' की क़व्वाली सुनी थी। आज भी हम ४० के ही दशक की एक और ख़ूबसूरत क़व्वाली सुनेंगे, लेकिन उसका ज़िक्र करने से पहले आइए आज आपको क़व्वाली के बारे में कुछ दिलचस्प बातें बतायी जाए। मूल रूप से क़व्वाली सूफ़ी मज़हबी संगीत को कहते हैं, लेकिन समय के साथ साथ क़व्वाली सामाजिक मुद्दों पर भी बनने लगे। क़व्वाली का इतिहास ७०० साल से भी पुराना है। जब क़व्वाली की शुरुआत हुई थी, तब ये दक्षिण एशिया के दरगाहों और मज़ारों पर गाई जाती थी। लेकिन जैसा कि हमने बताया कि धीरे धीरे ये क़व्वालियाँ आम ज़िंदगी में समाने लगी और संगीत की एक बेहद लोकप्रिय धारा बन गई। क़व्वाली की जड़ों की तरफ़ अगर हम पहुँचना चाहें, तो हम पाते हैं कि आठवी सदी के परशिया, जो अब ईरान और अफ़ग़ानिस्तान है, में इस तरह के गायन शैली की शुरुआत हुई थी। ११-वीं सदी में जब परशिया से पहला प्रमुख स्थानांतरण हुआ, उस वक़्त संगीत की यह विधा, जिसे समा कहा जाता था, परशिया से निकलकर दक्षिण एशिया, तुर्की और उज़बेकिस्तान जा पहुँची। चिश्ति परिवार के सूफ़ी संतों के अमीर ख़ुसरौ दहल्वी ने परशियन और भारतीय तरीकों को एक ही ढांचे में समाहित कर क़व्वाली को वह रूप दिया जो आज की क़व्वाली का रूप है। यह बात है १३-वीं सदी की। आज 'समा' शब्द का इस्तेमाल मध्य एशिया और तुर्की में होता है और जो क़व्वाली के बहुत करीब होते हैं; जब कि भारत, पाक़िस्तान और बांगलादेश जैसे देशों में क़व्वालियों की महफ़िल को 'महफ़िल-ए-समा' कहा जाता है। अब आपको 'क़व्वाली' शब्द का अर्थ भी बता दिया जाए! अरबी में 'क़ौल' शब्द का अर्थ है 'अल्लाह की आवाज़' या ईश्वर की वाणी। 'क़व्वाल' वो होता है जो किसी 'क़ौल' का दोहराव करता है, और इसी को 'क़व्वाली' कहते हैं। तो दोस्तों, आज हमने आपको क़व्वाली की उत्पत्ति के बारे में बताया, कल क़व्वाली के किसी और पहलु पर बात करेंगे।
और अब आज की क़व्वाली का ज़िक्र किया जाए। दोस्तों, १९४७ में पहली बार नौशाद साहब और शक़ील बदायूनी की जोड़ी बनी थी ए. आर. कारदार की फ़िल्म 'दर्द' में। जहाँ एक तरफ़ इस फ़िल्म के गीतों ने अपार शोहरत हासिल की थी, वहीं दूसरी तरफ़ इसी साल कारदार साहब की ही अन्य फ़िल्म 'नाटक' कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सकी। इस फ़िल्म में भी शक़ील और नौशाद थे। एस. यू. सनी निर्देशित इस फ़िल्म में अमर और सुरैय्या की जोड़ी पर्दे पर नज़र आई थी। फ़िल्म के ना चलने से फ़िल्म के गानें भी कुछ पीछे रह गए थे। सुरैय्या, उमा देवी और ज़ोहराबाई जैसी गायिकाओं से नौशाद साहब ने इस फ़िल्म में गीत गवाए। सुरैया और सखियों का गाया लोक शैली में "काले काले आए बदरवा आओ सजन मोरे आओ", और उमा देवी का गाया "दिलवाले दिलवाले, जल जल कर ही मर जाना, तुम प्रीत ना कर पछताना" इस फ़िल्म के दो अलग अलग क़िस्म के गानें थे। इसी फ़िल्म में ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की गायी एक क़व्वाली भी थी जिसे ज़्यादा सुना नहीं गया, लेकिन अल्फ़ाज़ों के मामले में, तर्ज़ के मामले में, और गायकी के मामले में यह किसी भी चर्चित क़व्वाली से कम नहीं थी। क़व्वाली के बोल हैं "क्या बताएँ कितनी हसरत दिल के अफ़साने में है, सुबह गुलशन में हुई और शाम वीराने में है"। ४० के दशक के अग्रणी गयिकाओं में शुमार होता है ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का। फ़िल्म 'नाटक' १९४७ की फ़िल्म थी और इसी साल कुछ दूसरी फ़िल्मों में भी ज़ोहराबाई ने यादगार गीत गाए थे, जिनमें शामिल हैं "टूटा हुआ दिल गाएगा क्या गीत सुहाना, हर बात में ढूंढ़ेगा वो रोने का बहाना" (दूसरी शादी '४७), "भीगी भीगी पलकें हैं और दिल में याद तुम्हारी है" (बेला '४७), "आई मिलन की बहार रे आ जा साँवरिया" (नैया '४७), "सामने गली में मेरा घर है पता मेरा भूल ना जाना" (मिर्ज़ा साहिबाँ '४७) आदि। और आइए अब सुना जाए यह क़व्वाली और ज़रा महसूस कीजिए ४० के दशक के उस ज़माने को, उस दौर में बनने वाली फ़िल्मों को, और उस दौर के अमर फ़नकारों को।
क्या आप जानते हैं...
कि ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का २१ फ़रवरी १९९० को लगभग ६८ वर्ष की आयु में बम्बई में निधन हो गया। मृत्यु से मात्र एक माह पूर्व किसी टेलीफ़िल्म के लिए जब उनके घर पर शूटींग् की गई तो बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने दो लाइनें "अखियाँ मिलाके जिया भरमाके" गाकर सुनाईं थीं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस मशहूर कव्वाली के गीतकार बताएं - ३ अंक.
२. निर्देशक राम कुमार की इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. किस फनकार की टीम ने गाया है इस लाजवाब कव्वाली को - २ अंक.
४ संगीतकारा बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी आपका बहुत बहुत स्वागत है. पर जवाब गलत है :), हाँ अवध जी को हम २ अंक अवश्य देंगें
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
रमज़ान के पाक़ अवसर पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी ख़ुशनुमा बनाने के लिए 'आवाज़' की ख़ास पेशकश इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' के तहत। कल हमने १९४५ की मशहूर फ़िल्म 'ज़ीनत' की क़व्वाली सुनी थी। आज भी हम ४० के ही दशक की एक और ख़ूबसूरत क़व्वाली सुनेंगे, लेकिन उसका ज़िक्र करने से पहले आइए आज आपको क़व्वाली के बारे में कुछ दिलचस्प बातें बतायी जाए। मूल रूप से क़व्वाली सूफ़ी मज़हबी संगीत को कहते हैं, लेकिन समय के साथ साथ क़व्वाली सामाजिक मुद्दों पर भी बनने लगे। क़व्वाली का इतिहास ७०० साल से भी पुराना है। जब क़व्वाली की शुरुआत हुई थी, तब ये दक्षिण एशिया के दरगाहों और मज़ारों पर गाई जाती थी। लेकिन जैसा कि हमने बताया कि धीरे धीरे ये क़व्वालियाँ आम ज़िंदगी में समाने लगी और संगीत की एक बेहद लोकप्रिय धारा बन गई। क़व्वाली की जड़ों की तरफ़ अगर हम पहुँचना चाहें, तो हम पाते हैं कि आठवी सदी के परशिया, जो अब ईरान और अफ़ग़ानिस्तान है, में इस तरह के गायन शैली की शुरुआत हुई थी। ११-वीं सदी में जब परशिया से पहला प्रमुख स्थानांतरण हुआ, उस वक़्त संगीत की यह विधा, जिसे समा कहा जाता था, परशिया से निकलकर दक्षिण एशिया, तुर्की और उज़बेकिस्तान जा पहुँची। चिश्ति परिवार के सूफ़ी संतों के अमीर ख़ुसरौ दहल्वी ने परशियन और भारतीय तरीकों को एक ही ढांचे में समाहित कर क़व्वाली को वह रूप दिया जो आज की क़व्वाली का रूप है। यह बात है १३-वीं सदी की। आज 'समा' शब्द का इस्तेमाल मध्य एशिया और तुर्की में होता है और जो क़व्वाली के बहुत करीब होते हैं; जब कि भारत, पाक़िस्तान और बांगलादेश जैसे देशों में क़व्वालियों की महफ़िल को 'महफ़िल-ए-समा' कहा जाता है। अब आपको 'क़व्वाली' शब्द का अर्थ भी बता दिया जाए! अरबी में 'क़ौल' शब्द का अर्थ है 'अल्लाह की आवाज़' या ईश्वर की वाणी। 'क़व्वाल' वो होता है जो किसी 'क़ौल' का दोहराव करता है, और इसी को 'क़व्वाली' कहते हैं। तो दोस्तों, आज हमने आपको क़व्वाली की उत्पत्ति के बारे में बताया, कल क़व्वाली के किसी और पहलु पर बात करेंगे।
और अब आज की क़व्वाली का ज़िक्र किया जाए। दोस्तों, १९४७ में पहली बार नौशाद साहब और शक़ील बदायूनी की जोड़ी बनी थी ए. आर. कारदार की फ़िल्म 'दर्द' में। जहाँ एक तरफ़ इस फ़िल्म के गीतों ने अपार शोहरत हासिल की थी, वहीं दूसरी तरफ़ इसी साल कारदार साहब की ही अन्य फ़िल्म 'नाटक' कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सकी। इस फ़िल्म में भी शक़ील और नौशाद थे। एस. यू. सनी निर्देशित इस फ़िल्म में अमर और सुरैय्या की जोड़ी पर्दे पर नज़र आई थी। फ़िल्म के ना चलने से फ़िल्म के गानें भी कुछ पीछे रह गए थे। सुरैय्या, उमा देवी और ज़ोहराबाई जैसी गायिकाओं से नौशाद साहब ने इस फ़िल्म में गीत गवाए। सुरैया और सखियों का गाया लोक शैली में "काले काले आए बदरवा आओ सजन मोरे आओ", और उमा देवी का गाया "दिलवाले दिलवाले, जल जल कर ही मर जाना, तुम प्रीत ना कर पछताना" इस फ़िल्म के दो अलग अलग क़िस्म के गानें थे। इसी फ़िल्म में ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की गायी एक क़व्वाली भी थी जिसे ज़्यादा सुना नहीं गया, लेकिन अल्फ़ाज़ों के मामले में, तर्ज़ के मामले में, और गायकी के मामले में यह किसी भी चर्चित क़व्वाली से कम नहीं थी। क़व्वाली के बोल हैं "क्या बताएँ कितनी हसरत दिल के अफ़साने में है, सुबह गुलशन में हुई और शाम वीराने में है"। ४० के दशक के अग्रणी गयिकाओं में शुमार होता है ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का। फ़िल्म 'नाटक' १९४७ की फ़िल्म थी और इसी साल कुछ दूसरी फ़िल्मों में भी ज़ोहराबाई ने यादगार गीत गाए थे, जिनमें शामिल हैं "टूटा हुआ दिल गाएगा क्या गीत सुहाना, हर बात में ढूंढ़ेगा वो रोने का बहाना" (दूसरी शादी '४७), "भीगी भीगी पलकें हैं और दिल में याद तुम्हारी है" (बेला '४७), "आई मिलन की बहार रे आ जा साँवरिया" (नैया '४७), "सामने गली में मेरा घर है पता मेरा भूल ना जाना" (मिर्ज़ा साहिबाँ '४७) आदि। और आइए अब सुना जाए यह क़व्वाली और ज़रा महसूस कीजिए ४० के दशक के उस ज़माने को, उस दौर में बनने वाली फ़िल्मों को, और उस दौर के अमर फ़नकारों को।
क्या आप जानते हैं...
कि ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का २१ फ़रवरी १९९० को लगभग ६८ वर्ष की आयु में बम्बई में निधन हो गया। मृत्यु से मात्र एक माह पूर्व किसी टेलीफ़िल्म के लिए जब उनके घर पर शूटींग् की गई तो बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने दो लाइनें "अखियाँ मिलाके जिया भरमाके" गाकर सुनाईं थीं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस मशहूर कव्वाली के गीतकार बताएं - ३ अंक.
२. निर्देशक राम कुमार की इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. किस फनकार की टीम ने गाया है इस लाजवाब कव्वाली को - २ अंक.
४ संगीतकारा बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी आपका बहुत बहुत स्वागत है. पर जवाब गलत है :), हाँ अवध जी को हम २ अंक अवश्य देंगें
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Pratibha K-S.
Ottawa, Canada
जो व्यक्ति दूसरों की भलाई चाहता है, वह अपनी भलाई को सुनिश्चित कर लेता है.
-कंफ्यूशियस
Kishore S.
Canada
सफल होने के लिए आपको असफलता का स्वाद अवश्य चखना चाहिए, ताकि आपको यह पता चल सके कि अगली बार क्या नहीं करना है.
-एंथनी जे. डीएंजेलो
अवध लाल
Naveen Prasad
Uttranchal
(now working in Canada)
आज यादें फिर ताजा हो आयीं
धन्यवाद