ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 455/2010/155
"सेहरा में रात फूलों की", आज इस शृंखला में जो ग़ज़ल गूंज रही है, वह है पंचम, यानी राहुल देव बर्मन का कॊम्पोज़िशन। एक फ़िल्म आई थी १९८८ में 'रामा ओ रामा'। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन इस फ़िल्म के कम से कम तीन गानें उस समय रेडियो पर ख़ूब बजे थे। एक तो था अमित कुमार और जयश्री श्रीराम का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "रामा ओ रामा, तूने ये कैसी दुनिया बनाई"; दूसरा गीत था मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में "ऐ हसीं नाज़नीं गुलबदन महजवीं"; और तीसरी थी गज़ल इक़बाल सिद्दिक़ी की गायी हुई यह ग़ज़ल "बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा"। बिलकुल ग़ुलाम अली स्टाइल की गायकी को अपनाया गया है इस ग़ज़ल में, जिसके शायर हैं आरिफ़ ख़ान। वैसे इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों को आनंद बक्शी ने लिखा था। दोस्तों, अस्सी का यह दौर राहुल देव बर्मन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा। उस समय कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्त्यारेलाल की तरह उनका संगीत भी पिट रहा था, फ़िल्में भी पिट रही थीं। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही व्यावसायिक रूप से उनका यह दौर असफल रहा हो, लेकिन 'इजाज़त' और 'लिबास' जैसा अभूतपूर्व संगीत भी उन्होंने इसी दौर में दिया था। पंचम के ज़िंदगी के अंतिम कुछ वर्ष तो ऐसे भी हुए कि उनसे कहीं कमज़ोर स्तर की रचनाएँ देनेवाले संगीतकार लोकप्रिय हो रहे थे, और उनके पास निर्माताओं की भीड़ रहती थी जब कि राहुल देव बर्मन की यह हालत थी कि आशा भोसले को एक साक्षात्कार में यह कहना पड़ा कि उनके जैसे क़ाबिल कॊम्पोज़र की फ़िल्म जगत द्वारा की जा रही उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दौर में पंचम के कई उत्कृष्ट रचनाएँ रहीं। और फ़िल्म 'रामा ओ रामा' की यह ग़ज़ल भी उन्ही उत्कृष्ट रचनाओं में शामिल है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी ख़ूबसूरत ग़ज़ल की बारी। राग दरबारी की छाया लिए और संतूर से सुशोभित इस ग़ज़ल को सुनना आज भी एक सुखद अनुभूति ही होती है। दोस्तों, हमें यकीन है इस ग़ज़ल को आपने बरसों से नहीं सुना होगा और आज इसे यहाँ सुन कर आपकी उस ज़माने की कई यादें ताज़ा हो गई होंगी। क्यों है न?
'रामा ओ रामा' १९८८ में बनी थी और प्रदर्शित हुई थी २४ नवंबर के दिन। इसका निर्देशन किया था हुमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा ने। मिर्ज़ा ब्रदर्स कंपनी की बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर, किमि काटकर और आसिफ़ शेख़। वैसे आपको बता दें इस मिर्ज़ा ब्रदर्स बैनर में हूमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा के अलावा एक नाम शाहरुख़ मिर्ज़ा का भी आता है। इस कंपनी ने कई फ़िल्मों का निर्माण किया है समय समय पर जिनमें शामिल है 'मिसाल' (१९८५), 'रामा ओ रामा' (१९८८), 'यारा दिलदारा' (१९९१) और 'माशूक़' (१९९२)। इन सभी फ़िल्मों में एक समानता यह है कि ये फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर बहुत ज़्यादा नहीं चली, लेकिन इन सब का गीत संगीत पसंद किया गया, लेकिन फ़िल्म के ना चलने से लोगों ने इन्हे बहुत ज़्यादा दिनों तक याद नहीं रखा। ९० के शुरुआती सालों में 'यारा दिलदारा' और 'माशूक़' के गीतों ने तो ख़ूब धूम मचाई थी, 'यारा दिलदारा' का "बिन तेरे सनम" उस समय जितना लोकप्रिय हुआ था, उससे कई गुणा ज़्यादा लोकप्रिय उस वक़्त हुआ जब २००० के दशक में उसका रीमिक्स बना। यह वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण बात है। ख़ैर, आइए सुनते हैं आज की यह ग़ज़ल.
बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा,
हुस्नो-शबाब उसका क्या है सजा सजा सा
ये जिदगी सफर है, मंजिल भी है ये लेकिन,
तुझसा हसीन अगर हो, जीने का आसरा सा
मेरे लिए न जाने, क्यों बन गया क़यामत,
सूरत से लग रहा है, मासूम सा भला सा
परियों के जमघटें में कितना हसीन मंजर,
इतने हुजूम में भी लगता है जुदा सा
चाहत से कितनी हमने, एक दूसरे को देखा,
मैं भी जैसे प्यासा, वो भी था जैसे प्यासा
क्या आप जानते हैं...
कि राहुल देव बर्मन ने एक साक्षात्कार में स्वयं यह कबूल किया था कि उनकी संगीतबद्ध ८० के दशक की २३ फ़िल्में एक के बाद एक फ़्लॊप हुई हैं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. गज़ल किंग कहा जाता है इन्हें जिनकी आवाज़ में ये गज़ल है, नाम बताएं - २ अंक.
२. शायर आज के बेहद सफल गीत कार हैं यहाँ, नाम बताएं - ३ अंक.
३. फारूख शेख अभिनीत फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
४. संगीतकार कौन है इस गीत के - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन कुमार जी आप लगता है शरद जी को सही टक्कर देने वाले हैं. प्रतिभा जी और किशोर जी एकदम सही जवाब के साथ हाज़िर हुए और नवीन जी भी, काफी नए नाम आ रहे हैं, अच्छा लगा रहा है. इंदु जी फिल्म और नायिका के विषय में तो कुछ नहीं कह सकते पर गज़ल बेहद खूबसूरत है सुनने में, और पंचम के संगीत में सितार का जो इस्तेमाल हुआ है वो गजब ही है. पता नहीं आपको क्यों नहीं लगती ये गज़ल अच्छी. और मनु जी सिर्फ बहर में होने ही तो किसी गज़ल के अच्छे होने का पैमाना नहीं है, जो चीज़ सुनने के लिए बनी है, उसे सुनकर आनंद उठाईये बिना सुने ही आप मुंसिफ बन फैसला काहे करते हैं :). इस मामले में हमें अवध जी ठीक लगे, जो कानों को भाये वही अच्छा....शरद जी आपकी कमी खलेगी, वैसे अब हम रविवार शाम ही उपस्तिथ होंगें. चलते चलते स्कोर हो जाए - शरद जी ७७, अवध जी ६६, इंदु जी 29 और तेज़ी से बढ़कर ११ पर आ गए पवन कुमार जी, बाकी सब अभी १० से नीचे हैं. बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
"सेहरा में रात फूलों की", आज इस शृंखला में जो ग़ज़ल गूंज रही है, वह है पंचम, यानी राहुल देव बर्मन का कॊम्पोज़िशन। एक फ़िल्म आई थी १९८८ में 'रामा ओ रामा'। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन इस फ़िल्म के कम से कम तीन गानें उस समय रेडियो पर ख़ूब बजे थे। एक तो था अमित कुमार और जयश्री श्रीराम का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "रामा ओ रामा, तूने ये कैसी दुनिया बनाई"; दूसरा गीत था मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में "ऐ हसीं नाज़नीं गुलबदन महजवीं"; और तीसरी थी गज़ल इक़बाल सिद्दिक़ी की गायी हुई यह ग़ज़ल "बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा"। बिलकुल ग़ुलाम अली स्टाइल की गायकी को अपनाया गया है इस ग़ज़ल में, जिसके शायर हैं आरिफ़ ख़ान। वैसे इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों को आनंद बक्शी ने लिखा था। दोस्तों, अस्सी का यह दौर राहुल देव बर्मन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा। उस समय कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्त्यारेलाल की तरह उनका संगीत भी पिट रहा था, फ़िल्में भी पिट रही थीं। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही व्यावसायिक रूप से उनका यह दौर असफल रहा हो, लेकिन 'इजाज़त' और 'लिबास' जैसा अभूतपूर्व संगीत भी उन्होंने इसी दौर में दिया था। पंचम के ज़िंदगी के अंतिम कुछ वर्ष तो ऐसे भी हुए कि उनसे कहीं कमज़ोर स्तर की रचनाएँ देनेवाले संगीतकार लोकप्रिय हो रहे थे, और उनके पास निर्माताओं की भीड़ रहती थी जब कि राहुल देव बर्मन की यह हालत थी कि आशा भोसले को एक साक्षात्कार में यह कहना पड़ा कि उनके जैसे क़ाबिल कॊम्पोज़र की फ़िल्म जगत द्वारा की जा रही उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दौर में पंचम के कई उत्कृष्ट रचनाएँ रहीं। और फ़िल्म 'रामा ओ रामा' की यह ग़ज़ल भी उन्ही उत्कृष्ट रचनाओं में शामिल है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी ख़ूबसूरत ग़ज़ल की बारी। राग दरबारी की छाया लिए और संतूर से सुशोभित इस ग़ज़ल को सुनना आज भी एक सुखद अनुभूति ही होती है। दोस्तों, हमें यकीन है इस ग़ज़ल को आपने बरसों से नहीं सुना होगा और आज इसे यहाँ सुन कर आपकी उस ज़माने की कई यादें ताज़ा हो गई होंगी। क्यों है न?
'रामा ओ रामा' १९८८ में बनी थी और प्रदर्शित हुई थी २४ नवंबर के दिन। इसका निर्देशन किया था हुमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा ने। मिर्ज़ा ब्रदर्स कंपनी की बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर, किमि काटकर और आसिफ़ शेख़। वैसे आपको बता दें इस मिर्ज़ा ब्रदर्स बैनर में हूमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा के अलावा एक नाम शाहरुख़ मिर्ज़ा का भी आता है। इस कंपनी ने कई फ़िल्मों का निर्माण किया है समय समय पर जिनमें शामिल है 'मिसाल' (१९८५), 'रामा ओ रामा' (१९८८), 'यारा दिलदारा' (१९९१) और 'माशूक़' (१९९२)। इन सभी फ़िल्मों में एक समानता यह है कि ये फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर बहुत ज़्यादा नहीं चली, लेकिन इन सब का गीत संगीत पसंद किया गया, लेकिन फ़िल्म के ना चलने से लोगों ने इन्हे बहुत ज़्यादा दिनों तक याद नहीं रखा। ९० के शुरुआती सालों में 'यारा दिलदारा' और 'माशूक़' के गीतों ने तो ख़ूब धूम मचाई थी, 'यारा दिलदारा' का "बिन तेरे सनम" उस समय जितना लोकप्रिय हुआ था, उससे कई गुणा ज़्यादा लोकप्रिय उस वक़्त हुआ जब २००० के दशक में उसका रीमिक्स बना। यह वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण बात है। ख़ैर, आइए सुनते हैं आज की यह ग़ज़ल.
बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा,
हुस्नो-शबाब उसका क्या है सजा सजा सा
ये जिदगी सफर है, मंजिल भी है ये लेकिन,
तुझसा हसीन अगर हो, जीने का आसरा सा
मेरे लिए न जाने, क्यों बन गया क़यामत,
सूरत से लग रहा है, मासूम सा भला सा
परियों के जमघटें में कितना हसीन मंजर,
इतने हुजूम में भी लगता है जुदा सा
चाहत से कितनी हमने, एक दूसरे को देखा,
मैं भी जैसे प्यासा, वो भी था जैसे प्यासा
क्या आप जानते हैं...
कि राहुल देव बर्मन ने एक साक्षात्कार में स्वयं यह कबूल किया था कि उनकी संगीतबद्ध ८० के दशक की २३ फ़िल्में एक के बाद एक फ़्लॊप हुई हैं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. गज़ल किंग कहा जाता है इन्हें जिनकी आवाज़ में ये गज़ल है, नाम बताएं - २ अंक.
२. शायर आज के बेहद सफल गीत कार हैं यहाँ, नाम बताएं - ३ अंक.
३. फारूख शेख अभिनीत फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
४. संगीतकार कौन है इस गीत के - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन कुमार जी आप लगता है शरद जी को सही टक्कर देने वाले हैं. प्रतिभा जी और किशोर जी एकदम सही जवाब के साथ हाज़िर हुए और नवीन जी भी, काफी नए नाम आ रहे हैं, अच्छा लगा रहा है. इंदु जी फिल्म और नायिका के विषय में तो कुछ नहीं कह सकते पर गज़ल बेहद खूबसूरत है सुनने में, और पंचम के संगीत में सितार का जो इस्तेमाल हुआ है वो गजब ही है. पता नहीं आपको क्यों नहीं लगती ये गज़ल अच्छी. और मनु जी सिर्फ बहर में होने ही तो किसी गज़ल के अच्छे होने का पैमाना नहीं है, जो चीज़ सुनने के लिए बनी है, उसे सुनकर आनंद उठाईये बिना सुने ही आप मुंसिफ बन फैसला काहे करते हैं :). इस मामले में हमें अवध जी ठीक लगे, जो कानों को भाये वही अच्छा....शरद जी आपकी कमी खलेगी, वैसे अब हम रविवार शाम ही उपस्तिथ होंगें. चलते चलते स्कोर हो जाए - शरद जी ७७, अवध जी ६६, इंदु जी 29 और तेज़ी से बढ़कर ११ पर आ गए पवन कुमार जी, बाकी सब अभी १० से नीचे हैं. बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
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PAWAN KUMAR
तुमको देखा तो ये ख़याल आया
जिंदगी धूप तुम घना साया
अपने प्रिय गज़ल गायक????
सुजॉय नाम तो आप ही बता दो ना. इतना सा मेरा काम भी नही कर सकते?
जगजीत सिंह जी का नाम सबको बता दो भई!
संगीतकार हैं : कुलदीप सिंह
Pratibha K
Canada
Kish(ore)...
Canada
दो दिन 'travelling' के कारण हाज़िर ना हो सका.
आपने ठीक कहा संतूर के साथ ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाया.किसने बजाया था?
इस वक्त कतई याद नहीं आ रहा है कि क्या इसे पहले फिल्म के रिलीज़ होने पर सुना था. और ना ही इकबाल सिद्दीकी और आरिफ खान के नाम ने कोई दिमाग में घंटी बजायी (Rang a bell). क्या इस वजह से कि उस वक्त पंचम दा नहीं चल रहे थे और इसलिए संगीत के कम बजट में मजबूरी में कम नाम वाले लोगों को लेना पड़ा हो? खैर कुछ भी हो चीज़ अच्छी लगी.
अवध लाल