महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१४
कुछ फ़नकार ऐसे होते हैं, जिनकी ना तो कोई कृति पुरानी होती है और ना हीं कीर्ति पर कोई दाग लगता है। वह फ़नकार चाहे मर भी जाए लेकिन फ़न की मौत नहीं होती और यकीन मानिए- एक सच्चे फ़नकार की परिभाषा भी यही है। एक ऐसे हीं फ़नकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए,ना तो दिल को संतुष्टि मिलती है और ना हीं कलम को चैन नसीब होता है। कहने को तो १९९७ में हीं उस फ़नकार ने इस ईहलोक को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था,लेकिन अब भी फ़िज़ा में उनके सुरों की खनक और आवाज़ की चमक यथास्थान मौजूद है। ना हीं वक्त उसे मिटा पाया है और ना हीं मौत उसे बेअसर कर पाई है। उसी "शहंशाह-ए-कव्वाली", जिसे २००६ में "टाईम मैगजीन" ने "एशियन हिरोज" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था, की एक गज़ल लेकर हम आज यहाँ जमा हुए हैं। वह गज़ल वास्तव में सत्तर के दशक की है,जिसे पाकिस्तान के रिकार्ड लेबल "रहमत ग्रामोफोन" के लिए रिकार्ड किया गया था और यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम नहीं कर पाया। लेकिन परेशान मत होईये, गज़लगो का नाम नहीं मिला तो क्या, हम आपके लिए वह गज़ल छोटे रूप और पूर्ण रूप दोनों में लेकर आए हैं। आ गए सकते में? दर-असल पाँच मिनट से भी बड़ी इस रिकार्डिंग में गज़ल के बस दो हीं शेर हैं,जिसे आज के फ़नकार ने राग और आलाप से इस कदर सजाया है कि सुनने वाला गज़ल में खो-सा जाता है और उसे इस बात का भी इल्म नहीं होता कि शब्द कहाँ है और संगीत कहाँ है, दुनिया कहाँ है और वह शख्स खुद कहाँ है। तो चलिए, आप पहचानिए उस फ़नकार को और हाँ उस गज़ल को भी।
१९९७ में सुपूर्द-ए-खाक हुए नुसरत फ़तेह अली खान साहब की दसवीं वर्षगांठ पर "सिक्स डिग्री रिकार्ड्स" ने "डब कव्वाली" नाम की एक गज़लों और कव्वालियों की एक एलबम रीलिज की थी। "डब" नाम सुनकर मुझे पहली मर्तबा यह लगा कि एलबम की हरेक पेशकश किसी न किसी पुरानी गज़ल या कव्वाली की डबिंग मात्र है। गहन जाँच-पड़ताल और खोज-बीन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि "डब" महज कोई "डबिंग" नहीं है, बल्कि यह संगीत की एक विधा है। "डब" एक तरह का "रेग(reggae)" संगीत है, जिसका प्रादुर्भाव "जमैका" में हुआ था। "डब" संगीत की शुरूआत "ली स्क्रैच पेरी" और "किंग टैबी" जैसे संगीत के निर्माताओं ने की थी और "अगस्तस पाब्लो" और "माइकी ड्रेड" जैसे महानुभावों ने इस संगीत का प्रचार-प्रसार किया था। इस संगीत की खासियत यह है कि इसमें "ड्रम" और "बैस वाद्ययंत्रों(जो मुख्यत: लो पिच्ड ट्युन्स के लिए उपयोग किए जाते हैं" पर जोर दिया जाता है। आप जब "डब कव्वाली" की किसी भी प्रस्तुति को सुनेंगे तो आपको ड्रम और बैस गिटार का बढिया इस्तेमाल दिखाई देगा। इस एलबम को तैयार करने में जिस इंसान का सबसे बड़ा हाथ है(नुसरत साहब के बाद), उसका नाम है "गौडी" । "गौडी" जोकि एक इटालियन/ब्रिटिश संगीत निर्माता हैं,उन्होंने इस एलबम में एक अलग हीं प्रयोग किया है। जहाँ "बैली सागू(bally sagoo)" जैसे लोग किसी भी प्रस्तुति को नया रूप देने के लिए बस पुराने गानों की मिक्सिंग कर दिया करते हैं, वहीं "गौडी" ने नुसरत साहब के पुराने गानों से बस उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया और उस आवाज़ को अपने नए "डब" संगीत के साथ फ्युजन कर एक अनोखा हीं रूप दे दिया। अब इस जुगलबंदी का असर देखिए कि हम संगीत-प्रेमियों को कई नए और ताजातरीन नगमें सुनने को मिल गए। भले हीं इन नगमों की आत्मा पुरानी है, लेकिन नए कलेवर ने पुरानी आत्मा का काया-कल्प कर दिया है। मैं ये सारी बातें आप सबके साथ इसलिए शेयर कर रहा हूँ, क्यूँकि एक तो इस तरह संगीत के अलग-अलग विधाओं की जानकारी आपको मिल जाएगी और दूसरा कि ७० के दशक की मूल गज़ल तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे नहीं मिली और इसलिए मैं इसी एलबम की गज़ल आपको सुनाने को बाध्य हूँ।
"जब तेरी धुन में जिया करते थे", इस गज़ल को बाबा नुसरत की सर्वश्रेष्ठ गज़लों में शुमार किया जाता है। गज़ल की शुरूआत और अंत में बाबा ने जो आलाप लिए हैं,उसे सुनकर किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएँ। बाबा के आलापों का असर इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि बाबा गाने में "सरगम" तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें गाने के दौरान "नोट्स के नाम" भी गाए जाते हैं। रही बात इस गज़ल की तो इस गज़ल में प्यार का इकरार एक अलग हीं अंदाज से किया गया है। वैसे प्यार है हीं ऐसी चीज जिसे समझना और निबाहना दुनिया के बाकी तौर-तरीकों से बिल्कुल जुदा है। कभी चचा ग़ालिब ने प्यार को नज़र करके कहा था:
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
चलिए बातें तो बहुत हो गईं, अब सीधे आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं:
जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे,
जब तेरी धुन में जिया करते थे।
जी हाँ, नुसरत साहब की आवाज़ में बस इतनी हीं गज़ल है। लेकिन अगर आप पूरी गज़ल का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो हम आपको ऐसे हीं नहीं जाने देंगे। लीजिए पेश है पूरी गज़ल:
जब तेरी धुन में जिया करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे।
आँख में प्यास हुआ करती थी,
दिल में तूफान उठा करते थे।
लोग आते थे गज़ल सुनने को,
हम तेरी बात किया करते थे।
सच समझते थे तेरे वादों को,
रात-दिन घर में रहा करते थे।
किसी वीराने में तुझसे मिलकर,
दिल में क्या फूल खिला करते थे।
घर की दीवार सजाने के लिए,
हम तेरा नाम लिखा करते थे।
वो भी क्या दिन थे भूलाकर तुझको,
हम तुझे याद किया करते थे।
जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे।
बुझने लगता था जो तेरा चेहरा,
दाग़ सीने में जला करते थे।
अपने आँसू भी सितारों की तरह,
तेरे ओठों पर सजा करते थे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
____ से,फूल से,या मेरी जुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए
आपके विकल्प हैं -
a) पेड़, b) बाग़, c) चाँद, d) रात
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"किताब" और सही शेर था-
धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो,
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो..
सबसे पहले सही जवाब दिया नीलम जी और उन्होंने दो शेर भी अर्ज किये -
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं ,
परियों के किस्से सुनाते हैं ,
-सफ़दर हासमी
अबकी बिछडे तो शायद ख़्वाबों में मिले ,
जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिले |
-फराज अहमद
वाह नीलम जी बधाई...किताबों के नाम पर महफिल में अच्छा खासा रंग जमा, तपन जी ने फ़रमाया -
बच्चों के नन्हे हाथों को चाँद सितारें छूने दो.
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएँगे
वाह...इस पर शन्नो जी ने ये कहकर चुटकी ली -
खुली किताब की तरह है किसी की जिन्दगी
जिसके पन्ने किसी के पढ़ने को फडफडाते हैं
केशवेन्द्र जी शायद पहली बार तशरीफ़ लाये और सफ़दर हाश्मी साहब का ये शेर याद दिला गए -
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं..
बहुत खूब....रचना जी ने कुछ यूँ कह कर आगाह किया -
बंद किताब के पन्ने न खोलना
है कई राज दफन इसके सीने में
सही कहा आपने...अब मनु जी कहाँ पीछे रहने वाले थे भाई वो भी फरमा गए -
तू तो कह देगा के अनपढ़ भी है, जाहिल भी है
"बे-तखल्लुस" क्या कहेंगे ये किताबों वाले..?
नीलम जी ने जिस ग़ज़ल का जिक्र किया उसके बोल कुछ यूँ थे -
किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक्तों की ड्योढी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं,
जिन्हें हम दिल का वीराना समझ कर छोड़ आये थे,
वहीँ उजडे हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं...
वाह गुलज़ार साहब...क्या बात कही है आपने.....ये ग़ज़ल बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिली, यदि किसी श्रोता के पास उपलब्ध हों तो ज़रूर बांटे.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
कुछ फ़नकार ऐसे होते हैं, जिनकी ना तो कोई कृति पुरानी होती है और ना हीं कीर्ति पर कोई दाग लगता है। वह फ़नकार चाहे मर भी जाए लेकिन फ़न की मौत नहीं होती और यकीन मानिए- एक सच्चे फ़नकार की परिभाषा भी यही है। एक ऐसे हीं फ़नकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए,ना तो दिल को संतुष्टि मिलती है और ना हीं कलम को चैन नसीब होता है। कहने को तो १९९७ में हीं उस फ़नकार ने इस ईहलोक को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था,लेकिन अब भी फ़िज़ा में उनके सुरों की खनक और आवाज़ की चमक यथास्थान मौजूद है। ना हीं वक्त उसे मिटा पाया है और ना हीं मौत उसे बेअसर कर पाई है। उसी "शहंशाह-ए-कव्वाली", जिसे २००६ में "टाईम मैगजीन" ने "एशियन हिरोज" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था, की एक गज़ल लेकर हम आज यहाँ जमा हुए हैं। वह गज़ल वास्तव में सत्तर के दशक की है,जिसे पाकिस्तान के रिकार्ड लेबल "रहमत ग्रामोफोन" के लिए रिकार्ड किया गया था और यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम नहीं कर पाया। लेकिन परेशान मत होईये, गज़लगो का नाम नहीं मिला तो क्या, हम आपके लिए वह गज़ल छोटे रूप और पूर्ण रूप दोनों में लेकर आए हैं। आ गए सकते में? दर-असल पाँच मिनट से भी बड़ी इस रिकार्डिंग में गज़ल के बस दो हीं शेर हैं,जिसे आज के फ़नकार ने राग और आलाप से इस कदर सजाया है कि सुनने वाला गज़ल में खो-सा जाता है और उसे इस बात का भी इल्म नहीं होता कि शब्द कहाँ है और संगीत कहाँ है, दुनिया कहाँ है और वह शख्स खुद कहाँ है। तो चलिए, आप पहचानिए उस फ़नकार को और हाँ उस गज़ल को भी।
१९९७ में सुपूर्द-ए-खाक हुए नुसरत फ़तेह अली खान साहब की दसवीं वर्षगांठ पर "सिक्स डिग्री रिकार्ड्स" ने "डब कव्वाली" नाम की एक गज़लों और कव्वालियों की एक एलबम रीलिज की थी। "डब" नाम सुनकर मुझे पहली मर्तबा यह लगा कि एलबम की हरेक पेशकश किसी न किसी पुरानी गज़ल या कव्वाली की डबिंग मात्र है। गहन जाँच-पड़ताल और खोज-बीन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि "डब" महज कोई "डबिंग" नहीं है, बल्कि यह संगीत की एक विधा है। "डब" एक तरह का "रेग(reggae)" संगीत है, जिसका प्रादुर्भाव "जमैका" में हुआ था। "डब" संगीत की शुरूआत "ली स्क्रैच पेरी" और "किंग टैबी" जैसे संगीत के निर्माताओं ने की थी और "अगस्तस पाब्लो" और "माइकी ड्रेड" जैसे महानुभावों ने इस संगीत का प्रचार-प्रसार किया था। इस संगीत की खासियत यह है कि इसमें "ड्रम" और "बैस वाद्ययंत्रों(जो मुख्यत: लो पिच्ड ट्युन्स के लिए उपयोग किए जाते हैं" पर जोर दिया जाता है। आप जब "डब कव्वाली" की किसी भी प्रस्तुति को सुनेंगे तो आपको ड्रम और बैस गिटार का बढिया इस्तेमाल दिखाई देगा। इस एलबम को तैयार करने में जिस इंसान का सबसे बड़ा हाथ है(नुसरत साहब के बाद), उसका नाम है "गौडी" । "गौडी" जोकि एक इटालियन/ब्रिटिश संगीत निर्माता हैं,उन्होंने इस एलबम में एक अलग हीं प्रयोग किया है। जहाँ "बैली सागू(bally sagoo)" जैसे लोग किसी भी प्रस्तुति को नया रूप देने के लिए बस पुराने गानों की मिक्सिंग कर दिया करते हैं, वहीं "गौडी" ने नुसरत साहब के पुराने गानों से बस उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया और उस आवाज़ को अपने नए "डब" संगीत के साथ फ्युजन कर एक अनोखा हीं रूप दे दिया। अब इस जुगलबंदी का असर देखिए कि हम संगीत-प्रेमियों को कई नए और ताजातरीन नगमें सुनने को मिल गए। भले हीं इन नगमों की आत्मा पुरानी है, लेकिन नए कलेवर ने पुरानी आत्मा का काया-कल्प कर दिया है। मैं ये सारी बातें आप सबके साथ इसलिए शेयर कर रहा हूँ, क्यूँकि एक तो इस तरह संगीत के अलग-अलग विधाओं की जानकारी आपको मिल जाएगी और दूसरा कि ७० के दशक की मूल गज़ल तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे नहीं मिली और इसलिए मैं इसी एलबम की गज़ल आपको सुनाने को बाध्य हूँ।
"जब तेरी धुन में जिया करते थे", इस गज़ल को बाबा नुसरत की सर्वश्रेष्ठ गज़लों में शुमार किया जाता है। गज़ल की शुरूआत और अंत में बाबा ने जो आलाप लिए हैं,उसे सुनकर किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएँ। बाबा के आलापों का असर इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि बाबा गाने में "सरगम" तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें गाने के दौरान "नोट्स के नाम" भी गाए जाते हैं। रही बात इस गज़ल की तो इस गज़ल में प्यार का इकरार एक अलग हीं अंदाज से किया गया है। वैसे प्यार है हीं ऐसी चीज जिसे समझना और निबाहना दुनिया के बाकी तौर-तरीकों से बिल्कुल जुदा है। कभी चचा ग़ालिब ने प्यार को नज़र करके कहा था:
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
चलिए बातें तो बहुत हो गईं, अब सीधे आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं:
जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे,
जब तेरी धुन में जिया करते थे।
जी हाँ, नुसरत साहब की आवाज़ में बस इतनी हीं गज़ल है। लेकिन अगर आप पूरी गज़ल का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो हम आपको ऐसे हीं नहीं जाने देंगे। लीजिए पेश है पूरी गज़ल:
जब तेरी धुन में जिया करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे।
आँख में प्यास हुआ करती थी,
दिल में तूफान उठा करते थे।
लोग आते थे गज़ल सुनने को,
हम तेरी बात किया करते थे।
सच समझते थे तेरे वादों को,
रात-दिन घर में रहा करते थे।
किसी वीराने में तुझसे मिलकर,
दिल में क्या फूल खिला करते थे।
घर की दीवार सजाने के लिए,
हम तेरा नाम लिखा करते थे।
वो भी क्या दिन थे भूलाकर तुझको,
हम तुझे याद किया करते थे।
जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे।
बुझने लगता था जो तेरा चेहरा,
दाग़ सीने में जला करते थे।
अपने आँसू भी सितारों की तरह,
तेरे ओठों पर सजा करते थे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
____ से,फूल से,या मेरी जुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए
आपके विकल्प हैं -
a) पेड़, b) बाग़, c) चाँद, d) रात
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"किताब" और सही शेर था-
धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो,
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो..
सबसे पहले सही जवाब दिया नीलम जी और उन्होंने दो शेर भी अर्ज किये -
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं ,
परियों के किस्से सुनाते हैं ,
-सफ़दर हासमी
अबकी बिछडे तो शायद ख़्वाबों में मिले ,
जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिले |
-फराज अहमद
वाह नीलम जी बधाई...किताबों के नाम पर महफिल में अच्छा खासा रंग जमा, तपन जी ने फ़रमाया -
बच्चों के नन्हे हाथों को चाँद सितारें छूने दो.
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएँगे
वाह...इस पर शन्नो जी ने ये कहकर चुटकी ली -
खुली किताब की तरह है किसी की जिन्दगी
जिसके पन्ने किसी के पढ़ने को फडफडाते हैं
केशवेन्द्र जी शायद पहली बार तशरीफ़ लाये और सफ़दर हाश्मी साहब का ये शेर याद दिला गए -
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं..
बहुत खूब....रचना जी ने कुछ यूँ कह कर आगाह किया -
बंद किताब के पन्ने न खोलना
है कई राज दफन इसके सीने में
सही कहा आपने...अब मनु जी कहाँ पीछे रहने वाले थे भाई वो भी फरमा गए -
तू तो कह देगा के अनपढ़ भी है, जाहिल भी है
"बे-तखल्लुस" क्या कहेंगे ये किताबों वाले..?
नीलम जी ने जिस ग़ज़ल का जिक्र किया उसके बोल कुछ यूँ थे -
किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक्तों की ड्योढी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं,
जिन्हें हम दिल का वीराना समझ कर छोड़ आये थे,
वहीँ उजडे हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं...
वाह गुलज़ार साहब...क्या बात कही है आपने.....ये ग़ज़ल बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिली, यदि किसी श्रोता के पास उपलब्ध हों तो ज़रूर बांटे.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
वजन के लिहाज से तो चारो शब्द आ रहे हैं.....
पर हमेरे लिहाज से/....
(१)........चाँद या रात..........
(२)....
नहीं बाग़ या पेड़ नहीं आना चाहिए.....
चाँद या रात....में से कोई एक.....
या शायद रात ही सबसे ज्यादा सूट करता है .....
..... मेरा jawaab है---------------"रात"
वैसे चाँद के भी चांस हैं,,,
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!
ये कविता का अंश हरकीरत हकीर जी का है,,,,,,
उनके ब्लॉग से उडाया है बिना पूछे,,,,,
मुझे बड़ा पसंद है सो यहाँ लिखा .....
आप भी पढें और लुत्फ़ उठाएं,,,
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले.
सूरज सितारे चाँद मेरे साथ में रहे,
जब तक तुम्हारे हाथ मेरे हाथ में रहे.
तुझे चाँद बनके मिला जो तेरे सहिलो पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा.
आशीष श्रीवास्तव
चाँद से फ़ूल से या मेरी नजर से सुनिये,
हर तरफ़ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिये,
ये शायद निदा फ़ाजली साहब का कलाम है।
aap ne galat likhaa hai kahin jaanboojh kar to nahi ,
चाँद से फ़ूल से या मेरी नजर से सुनिये,
हर तरफ़ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिये
मेरी नजर -nahi meri jubaan hai
hame duniyaa ki idon se kya gaalib
hamaara chaand dikh jaay ,hamari id samjho .
kahiye subhaanallah
तो पहली बात करती हूँ जबाब की और वह है : ''चाँद''
अब जब आ ही गयी हूँ तो फिर कुछ अल्फाज़ मेरे भी चाँद पर सुनना पड़ेंगे:
१.
बाल पूरी तरह से जबसे सर के गायब हुये हैं
सर नहीं अब उसे लोग अक्सर चाँद ही कहते हैं.
२.
तो अब शर्माने की क्या बात है इसमें इतना
ना जूँ का झंझट ना खुजलाने की परेशानी है.
अपनी भी तरफ से सुभान अल्लाह!
खुदा हाफिज
गौर फरमाइए:
अपने 'चाँद' से शर्माने की क्या जरूरत है इतनी
अब ना जूं की कोई दिक्कत न कंघी की झंझट है.
ab aapka maja hum kirkira kiye dete hain ,
jhooth n kahna yaaro ,shanno aayi hai ,
vig se saath kanghi usne muft hi paayi hai ,