महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०८
कुछ कड़ियाँ पहले मैने मन्ना डे साहब का वास्तविक नाम देकर लोगों को संशय में डाल दिया था। पूरा का पूरा एक पैराग्राफ़ इसीपर था कि दिए गए नाम से फ़नकार को पहचानें। आज सोच रहा हूँ कि वैसा कुछ फिर से करूँ। अहा... आप तो खुश हो गए होंगे कि मैने तो इस आलेख का शीर्षक हीं "आशा ताई की गुहार" दिया है तो चाहे कोई भी नाम क्यों न दूँ फ़नकार तो आशा ताई हीं हैं। लेकिन पहेली अगर इतनी आसान हो तो पहेली काहे की। तो भाई पहेली यह है कि आज के फ़नकार एक संगीतकार हैं और उनका वास्तविक नाम है "मोहम्मद ज़हुर हासमी"। अब पहचानिए कि मैं किस संगीतकार के बारे में बात कर रहा हूँ। आपकी सहूलियत के लिए दो हिंट देता हूँ- क) इस आलेख के शीर्षक को सही से पढें। हम जिस गज़ल की आज बात कर रहे हैं..उसका नाम इस शीर्षक में है और उस गज़ल के एलबम के नाम में इन संगीतकार का नाम भी है। ख) १९७६ में बनी एक फ़िल्म में दो नायक और एक नायिका ऎसे त्रिकोण में उलझे कि एक बार मुकेश को तो एक बार लता जी को कहना पड़ा -"...दिल में ख़्याल आता है"। यह ख़्याल किसी और का नहीं..इन्हीं का था। चलिए एक अतिरिक्त हिंट भी देता हूँ.... दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए...इस गाने को आशा ताई ने गाया था..और इसके संगीतकार यही महानुभाव थे। अब आप लोग अपने दिमागी नसों पर जोर दें और हमारे आज के फ़नकार को पहचानें और उनका एहतराम करें।
मुझे मालूम है कि सारे हिंट आसान थे, इसलिए "ख़य्याम" साहब को पहचानने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी। "ख़य्याम" साहब ने हिंदी फ़िल्मी-संगीत को एक से बढकर एक नग्में दिए हैं। वहीं अगर गैर-फ़िल्मी गानों या गज़लों की बात करें तो इस क्षेत्र में भी ख़य्याम साहब का खासा नाम है। जहाँ एक ओर इन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब, दाग़ दहलवी, वली साहब, अली सरदार ज़ाफ़री, मज़रूह सुल्तानपुरी, साहिर लु्धियानवी, कैफ़ी आज़मी जैसे पुराने और मंझे हुए गीतकारों और गज़लकारों के लिए संगीत दिया है, वहीं निदा फ़ाज़ली, नख़्स लायलपुरी, अहमद वासी जैसे नए गज़लगो की गज़लों को भी अपने सुरों से सजाया है। इस तरह ख़य्याम किसी एक दौर के फ़नकार नहीं कहे जा सकते है,उनका संगीत तो सदाबहार है। अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। महफ़िल-ए-गज़ल की दूसरी कड़ी में हमने इसी एलबम के एक गज़ल को सुनाया था-"लोग मुझे पागल कहते हैं"। मुझे उम्मीद है कि आप अभी तक उस गज़ल में आशा ताई की मखमली आवाज़ को नहीं भूले होंगे। उस गज़ल में जैसा सुरूर था, मैं दावा करता हूँ कि आपको आज की गज़ल में भी वैसा हीं सुरूर सुनाई देगा....वैसा हीं दर्द महसूस होगा। यह तो सबको पता होगा कि ख़य्याम साहब और आशा ताई ने बहुत सारे फ़िल्मी गानों में साथ काम किया है। इसी साथ का असर था कि "इन आँखों की मस्ती के","ये क्या जगह है दोस्तों" जैसे गानें बनकर तैयार हुए। इस जोड़ी की एक गज़लों की एलबम भी आई थी, जिसका नाम था "आशा और ख़य्याम"। आज की गज़ल "चाहा था एक शख़्स को" इसी मकबूल एलबम से है।
"आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया"- यह हुनर भी एक "कमाल" है, यह कभी एक कशिश है तो कभी एक खलिश है। प्यार में डूबी निगाहें इस इंतज़ार का अनुभव नहीं करना चाहतीं, वहीं जिन निगाहों को प्यार नसीब नहीं, उनके लिए यह इंतज़ार भी दुर्लभ होता है और वे इस मज़े के लिए तरसती हैं। तो फिर यह इंतज़ार है ना कमाल की चीज? कभी इस इंतज़ार का सही मतलब जानना हो तो उनसे पूछिये जिनका प्यार अब उनका नहीं रहा। उन लोगों ने इस इंतज़ार के तीन रूप देखे हैं- पहला: जब प्यार नहीं था तब इंतज़ार की चाह, दूसरा: जब प्यार उनकी पनाहों में था तब अनचाहे इंतज़ार का लुत्फ़ और तीसरा: अब जब प्यार उनका नहीं रहा तब इंतज़ार का दर्द। मेरे अनुसार अगर तीसरे इंतज़ार को छोड़ दें तो बाकी दो का अपना हीं एक मज़ा है। लेकिन तीसरा इंतज़ार इन दोनों पर कई गुणा भारी पड़ता है। अगर मालूम हो कि आप जिसकी राह देख रहे हों वह नहीं आने वाला लेकिन फिर भी आप उसकी राह तकने पर मजबूर हों तो इस पीड़ा को क्या नाम देंगे...किस्मत के सिवा.....!!!
आज की गज़ल की ओर बढने से पहले मैं अपना कुछ सुनाना चाहता हूँ। मुलाहजा फरमाईयेगा:
वो दूर गया अपनों की तरह,
फिर गैर हुआ सपनों की तरह।
यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम आशा ताई की तरसती आँखों के जरिये प्रेम की अनबूझ कहानी का रसास्वादन करते हैं। आप खुद देखिये कि "कमाल" साहब ने अपने शब्दों से क्या कमाल किया है:
आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया,
चाहा था एक शख़्स को जाने किधर चला गया।
दिन की वो महफ़िलें गईं रातों के रतजगे गए,
कोई समेट कर मेरे शाम-औ-सहर चला गया।
झोंका है एक बहार का रंग-ए-ख़्याल-ए-यार भी,
हरसू बिखर बिखर गई खुशबू, जिधर चला गया।
उसके हीं दम से दिल में आज धूप भी चाँदनी भी है,
देके वो अपनी याद के शम्स-औ-क़मर चला गया।
कूँचा-ब-कूँचा दर-ब-दर कब से भटक रहा है दिल,
हमको भु्लाके राह वो अपनी डगर चला गया।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर,
भेजा वही कागज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं...
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"रंगत". शब्द कुछ मुश्किल था शायद...खैर शन्नो जी ने कोशिश की -
चमन में खुशबू तो है फूलों की पर वीराना है
बदल जाती है इनकी रंगत उनके यहाँ आने से....
वो कौन है शन्नो जी ये भी बताईये...अरे अरे मनु जी को भी कुछ याद आ गया है सुनिए -
ये खुली खुली सी जुल्फें, ये उडी उडी सी रंगत,
तेरी सुब्हा कह रही है, तेरी रात का फ़साना...
वैसे शन्नो जी अब महफ़िल की शान बनती जा रही हैं...धीरे धीरे शे'रों में भी वज़न आ जायेगा :), शैलेश जी, सलिल जी और राज जी आप सब ने भी महफिल में खूब रंग जमाया...आभार.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
कुछ कड़ियाँ पहले मैने मन्ना डे साहब का वास्तविक नाम देकर लोगों को संशय में डाल दिया था। पूरा का पूरा एक पैराग्राफ़ इसीपर था कि दिए गए नाम से फ़नकार को पहचानें। आज सोच रहा हूँ कि वैसा कुछ फिर से करूँ। अहा... आप तो खुश हो गए होंगे कि मैने तो इस आलेख का शीर्षक हीं "आशा ताई की गुहार" दिया है तो चाहे कोई भी नाम क्यों न दूँ फ़नकार तो आशा ताई हीं हैं। लेकिन पहेली अगर इतनी आसान हो तो पहेली काहे की। तो भाई पहेली यह है कि आज के फ़नकार एक संगीतकार हैं और उनका वास्तविक नाम है "मोहम्मद ज़हुर हासमी"। अब पहचानिए कि मैं किस संगीतकार के बारे में बात कर रहा हूँ। आपकी सहूलियत के लिए दो हिंट देता हूँ- क) इस आलेख के शीर्षक को सही से पढें। हम जिस गज़ल की आज बात कर रहे हैं..उसका नाम इस शीर्षक में है और उस गज़ल के एलबम के नाम में इन संगीतकार का नाम भी है। ख) १९७६ में बनी एक फ़िल्म में दो नायक और एक नायिका ऎसे त्रिकोण में उलझे कि एक बार मुकेश को तो एक बार लता जी को कहना पड़ा -"...दिल में ख़्याल आता है"। यह ख़्याल किसी और का नहीं..इन्हीं का था। चलिए एक अतिरिक्त हिंट भी देता हूँ.... दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए...इस गाने को आशा ताई ने गाया था..और इसके संगीतकार यही महानुभाव थे। अब आप लोग अपने दिमागी नसों पर जोर दें और हमारे आज के फ़नकार को पहचानें और उनका एहतराम करें।
मुझे मालूम है कि सारे हिंट आसान थे, इसलिए "ख़य्याम" साहब को पहचानने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी। "ख़य्याम" साहब ने हिंदी फ़िल्मी-संगीत को एक से बढकर एक नग्में दिए हैं। वहीं अगर गैर-फ़िल्मी गानों या गज़लों की बात करें तो इस क्षेत्र में भी ख़य्याम साहब का खासा नाम है। जहाँ एक ओर इन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब, दाग़ दहलवी, वली साहब, अली सरदार ज़ाफ़री, मज़रूह सुल्तानपुरी, साहिर लु्धियानवी, कैफ़ी आज़मी जैसे पुराने और मंझे हुए गीतकारों और गज़लकारों के लिए संगीत दिया है, वहीं निदा फ़ाज़ली, नख़्स लायलपुरी, अहमद वासी जैसे नए गज़लगो की गज़लों को भी अपने सुरों से सजाया है। इस तरह ख़य्याम किसी एक दौर के फ़नकार नहीं कहे जा सकते है,उनका संगीत तो सदाबहार है। अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। महफ़िल-ए-गज़ल की दूसरी कड़ी में हमने इसी एलबम के एक गज़ल को सुनाया था-"लोग मुझे पागल कहते हैं"। मुझे उम्मीद है कि आप अभी तक उस गज़ल में आशा ताई की मखमली आवाज़ को नहीं भूले होंगे। उस गज़ल में जैसा सुरूर था, मैं दावा करता हूँ कि आपको आज की गज़ल में भी वैसा हीं सुरूर सुनाई देगा....वैसा हीं दर्द महसूस होगा। यह तो सबको पता होगा कि ख़य्याम साहब और आशा ताई ने बहुत सारे फ़िल्मी गानों में साथ काम किया है। इसी साथ का असर था कि "इन आँखों की मस्ती के","ये क्या जगह है दोस्तों" जैसे गानें बनकर तैयार हुए। इस जोड़ी की एक गज़लों की एलबम भी आई थी, जिसका नाम था "आशा और ख़य्याम"। आज की गज़ल "चाहा था एक शख़्स को" इसी मकबूल एलबम से है।
"आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया"- यह हुनर भी एक "कमाल" है, यह कभी एक कशिश है तो कभी एक खलिश है। प्यार में डूबी निगाहें इस इंतज़ार का अनुभव नहीं करना चाहतीं, वहीं जिन निगाहों को प्यार नसीब नहीं, उनके लिए यह इंतज़ार भी दुर्लभ होता है और वे इस मज़े के लिए तरसती हैं। तो फिर यह इंतज़ार है ना कमाल की चीज? कभी इस इंतज़ार का सही मतलब जानना हो तो उनसे पूछिये जिनका प्यार अब उनका नहीं रहा। उन लोगों ने इस इंतज़ार के तीन रूप देखे हैं- पहला: जब प्यार नहीं था तब इंतज़ार की चाह, दूसरा: जब प्यार उनकी पनाहों में था तब अनचाहे इंतज़ार का लुत्फ़ और तीसरा: अब जब प्यार उनका नहीं रहा तब इंतज़ार का दर्द। मेरे अनुसार अगर तीसरे इंतज़ार को छोड़ दें तो बाकी दो का अपना हीं एक मज़ा है। लेकिन तीसरा इंतज़ार इन दोनों पर कई गुणा भारी पड़ता है। अगर मालूम हो कि आप जिसकी राह देख रहे हों वह नहीं आने वाला लेकिन फिर भी आप उसकी राह तकने पर मजबूर हों तो इस पीड़ा को क्या नाम देंगे...किस्मत के सिवा.....!!!
आज की गज़ल की ओर बढने से पहले मैं अपना कुछ सुनाना चाहता हूँ। मुलाहजा फरमाईयेगा:
वो दूर गया अपनों की तरह,
फिर गैर हुआ सपनों की तरह।
यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम आशा ताई की तरसती आँखों के जरिये प्रेम की अनबूझ कहानी का रसास्वादन करते हैं। आप खुद देखिये कि "कमाल" साहब ने अपने शब्दों से क्या कमाल किया है:
आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया,
चाहा था एक शख़्स को जाने किधर चला गया।
दिन की वो महफ़िलें गईं रातों के रतजगे गए,
कोई समेट कर मेरे शाम-औ-सहर चला गया।
झोंका है एक बहार का रंग-ए-ख़्याल-ए-यार भी,
हरसू बिखर बिखर गई खुशबू, जिधर चला गया।
उसके हीं दम से दिल में आज धूप भी चाँदनी भी है,
देके वो अपनी याद के शम्स-औ-क़मर चला गया।
कूँचा-ब-कूँचा दर-ब-दर कब से भटक रहा है दिल,
हमको भु्लाके राह वो अपनी डगर चला गया।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर,
भेजा वही कागज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं...
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"रंगत". शब्द कुछ मुश्किल था शायद...खैर शन्नो जी ने कोशिश की -
चमन में खुशबू तो है फूलों की पर वीराना है
बदल जाती है इनकी रंगत उनके यहाँ आने से....
वो कौन है शन्नो जी ये भी बताईये...अरे अरे मनु जी को भी कुछ याद आ गया है सुनिए -
ये खुली खुली सी जुल्फें, ये उडी उडी सी रंगत,
तेरी सुब्हा कह रही है, तेरी रात का फ़साना...
वैसे शन्नो जी अब महफ़िल की शान बनती जा रही हैं...धीरे धीरे शे'रों में भी वज़न आ जायेगा :), शैलेश जी, सलिल जी और राज जी आप सब ने भी महफिल में खूब रंग जमाया...आभार.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
सहर पूछे है शबे ग़म की कहानी मुझसे,
क्या कहूँ क्या क्या ज़हर रात पिया है मैंने,
एक और आया,,,
जो तेरा ज़िक्र हो महफ़िल में तेरी बात आये,
तेरे ख़याल से सजकर हसीन रात आये,
एक अपने चचा ग़ालिब का भी,,,,
जिसे नसीब हो रोजे सियाह मेरा सा
वो शख्स दिन न कहे रात को, तो क्यूंकर हो
मुझे यह जानकर बहुत ख़ुशी, तसल्ली और ताज्जुब है कि आप लोगों ने मुझे अपनी महफ़िल से एक अच्छा शायर न होने के वावजूद भी अब तक नहीं निकाला. आप मेरा शुक्रिया कबूल करें. खुदाहाफिज़.
"मोहम्मद ज़हुर हासमी" यानि खैय्याम जी का बहुत ही खूबसूरत परिचय दिया है आपने. और आशा ताई की आवाज़ में एक इंतज़ार भरी ग़ज़ल सुनवाने का शुक्रिया.
"वो दूर गया अपनों की तरह,
फिर गैर हुआ सपनों की तरह।"
किसकी बात कर रहे हैं आप???
आज आपकी महफ़िल में हम भी अपना एक शेर अर्ज कर रहे हैं :) -
कहीं सूरज आकर चुरा ना ले मेरा चाँद,
हम रात भर "रात" को थामे रहे.
लता जी की आवाज़ में क्या खूबसूरत ग़ज़ल सुनवाई आपने. बस ऐसे ही अच्छी-अच्छी ग़ज़लें ढूंढ कर सुनवाते रहिये आगे भी. मेरा मन कभी नहीं भर पाता है लता जी की आवाज़ से. (घर पर मेरा भी एक नाम है....unofficial - लता. (बताईएगा मत किसी को भी, खासतौर से मनु जी को वर्ना खिंचाई शुरू हो जायेगी. आज बता रही हूँ पहली बार आपको ही लता जी का जिक्र आने पर.......लेकिन दूर-दूर तक लता जी वाला कोई हुनर नहीं है मुझमें. What an irony!) यथा नाम, तथा गुण हर एक में नहीं होते यह बात मुझ पर साफ़ जाहिर होती है. मैं एक जीता जागता example हूँ इस दुनिया में. खैर छोडिये, मेरे गले में gaane kee आवाज़ नहीं है तो क्या हुआ, मैं 'आवाज़' के संग तो हूँ, हैं ना? बस इसी से ही ख़ुशी हासिल कर लेती हूँ.
क्या फर्क पड़ता है मुझे अगर गा नहीं पाती हूँ
इतना है काफी महफ़िल में जगह मिल जाती है.
आइये अब 'रात' की बात करें. यह अपने लिखे तीन शेर आप सबकी नज़र करती हूँ. जरा गौर फरमाइए:
रात की खामोशी में बुत बने बैठे रहे
अकेले कहाँ थे हम आंसू थे साथ मेरे.
रात भर हम महफ़िल में बैठे शायरी सुनते रहे
नाम जब अपना आया देखा महफ़िल खाली थी.
जब से महफ़िल में शुरू किया है आना
रात में आंसू इंतज़ार किया करते हैं.
खुदाहाफिज़.
::::::::))))))))))))))))))
असल में आप की है तो हिम्मत ,,क्यूंकि अभी हाल ही में आपने दोहे में हाथ साफ़ किया है,,,,
होता ये है के दोहे में शायद सभी मात्रायेओं पूरी पूरी गिनी जाती हैं,,,,
जब के शायरी में इन्हें अपने हिसाब से जरूरत के अनुसार आप गिरा भी सकती हैं,,,,, अब कहाँ गिरे या कहाँ ना गिरे ,,,ये देखना है,,,,
आप तनहा जी ने जो शेर दिया है एक बार उस की तरह उसी जमीन पर लिख कर देखिये,,,,,
भले ही कोई मतलब फिलहाल निकले या ना निकले,,,,,
जैसे मैंने पहले लिखा था,,,,इन्ही के शेर की नक़ल पर,,,,
उंगलियाँ घी में सभी और सर कढाई में,
इतना सब खा के भी वो देख मुकर जाते हैं.
ऐसे ही कुछ try कर के देखें,,,बाकी तो आप आचार्य की फेवरिट स्टुडेंट हैं ही,,,,,
दोहा कक्षा नायिका,,,,,,,
aur haan,
is waale sher me koi maatraa nahi giri huyee hai,,,,,
isi par try kijiye,,,,
chaahe gin kar yaa gungunaa kar,,,,
पर कुछ तो हम भी लिखेंगे ही भला शन्नो जी हमेशा हमसे आगे क्योँ
रात -ए मौजूं देखा किये , न जाने किन रवानियों में बहते रहे |
वो चले ,वो रुके थे ,मगर कदम न जाने क्योँ उनके बढ़ते ही गए
पता है मुझे कि आपने भी मेरी गलती का पता लगा ही लिया आखिर. मैं ही अपनी इस हालत की जिम्मेदार हूँ लेकिन रहम खाकर अब जले पर नमक न छिड़किये. मुझ गरीब पर मेहरबानी करिये. मेरा हाल दूध की जली बिल्ली जैसा हो रहा है जो गरम दूध पीने के बाद जल जाती है और फिर आगे से दूध को फूंक-फूंक कर पीती है. मैंने भी धोखे से गलती कर दी तो क्या हुआ? आगे से संभाल के जबान खुलेगी मेरी. 'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेयि'.
अरे फिर से यह क्या हो गया मुझसे! शायरी की महफ़िल में दोहे का जिक्र.....गजब हो गया! अब जरूर कोई मुझे उठाकर बाहर फेंक देगा महफ़िल के बाहर. फिर मुझे मनु जी और नीलम जी को मदद के लिए बुलाना होगा.
एक बात और मनु जी, आपका मात्राओं वाला lecture सुन लिया और आप को inform करते हुए शर्म आ रही है कि यहाँ मात्राओं के गिनने का कोई चक्कर नहीं है इसलिए हम इधर खिसक आये. अपने शेर वजनी तो कभी हो ही नहीं पायेंगें, जिसकी तन्हा जी उम्मीद लगाये बैठे हैं, और मैं भी झूठी तसल्ली नहीं देती किसी को, फिर भी लिखने से मजबूर हूँ. जो भी है सबकी खिदमत में पेश करती रहूंगी. मुझे अधिक ज्ञान ना होने पर भी गुरु जी की कृपा से पदवी मिल गयी थी वर्ना मैं किस काबिल. अब तो वहाँ मुकाबला जबर्रदस्त हो गया है. जिसमे आप, नीलम जी, पूजा जी और अजित जी जैसे महारथी लोग ही टिक पायेंगे. मुझे डर लगने लगा था. फिर भी कुछ ताक-झांक उधर भी कर लिया करूँगी, यदि गुरु जी की आज्ञा मिल सकी और वह नाराज़ ना हों तो.
एक शेर कहने का बस,,,
ताक झाँक बुरी बात है,,,,,,,( हम जैसों का काम है,,,)
ओ,के,
दिन में नित दोहा लिखें, रोज रात में शेर.
केर-बेर के संग सा, होने दें अंधेर.
और अब बात उन पंक्तियों की जो ऐसे याद आ रही हैं कि भुलाये न बने...लेकिन लिखीं किसने हैं यह पहेली तो आवाज़ उठाने, आवाज़ लगाने और आवाज़ सुनानेवाले ही बताएं-
रात कली इक खाब में आयी और गले का हार हुई.
सुबह को जब हम नींद से जागे आँख तुम्हीं से चार हुई...
जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात.
एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात.
कमबख्त ऐसी रात अपनी जिन्दगी में तो आयी नहीं...लेकिन ऐसी न सही ऐसे तो आयी बाद में और गयी पहले...
रात-रातभर, जाग-जागकर इन्तिज़ार करते हैं, हम तुमको प्यार करते हैं...
अब बात उस शेर की करें जिसको लिखनेवाले का नाम हम तो क्या आप भी जानते हैं पर उस लिखनेवाले ही इसे न लिखकर दूसरे लिख दिए...वह भी तब जब यह बेचारा वहीं हाज़िर था जहाँ से रात की बात शुरू हुई. अब भी नहीं समझे तो मिल लीजिये इससे...अबतो समझ गए न कि वह कौन है...नाम वह खुद न बताये तो हम क्यों बतायें...
ये खुली-खुली सी जुल्फें, ये उडी-उडी सी रंगत.
तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फ़साना..
और अब एक शेर सुनें मरहूम महेश स्वरुप सक्सेना 'नादां इलाहाबादी' का-
रात-दिन नादां किसी के एक से रहते नहीं.
क्यूं परीशां इस कदर है गर्दिशे-अय्याम से.
जब हमारी कक्षानायिका और उनके शागिर्द ने शे'रों की झडी लगा ही दी है तो कुछ तो हमारा भी हक बनता ही है. बतौर फ़र्ज़ अदयागी पेशे-खिदमत है हमारी गुस्ताखियाँ-
पाक दामन दिख रहे हैं, दिन में हम भी दोस्तों.
रात का मत ज़िक्र करना, क्या पता कैसे-कहाँ?
पाक दामन दिख रहे हैं दिन में वो भी दोस्तों.
रात भी शर्मा के जिनसे, दिनमें दिखती है नहीं.
सागरों-मीना 'सलिल' को दिन में छू पाते नहीं.
रात हो, बरसात हो तो कोई क्यों इनसे बचे?
और अब आखिर में एक नहीं पूरे पांच शेर उस दीवान से ( बिखरे मोती - समीर लाल, कनाडा) जिसका विमोचन अभी कुछ दिनों पहले इस खाकसार ने किया.
सिसक-सिसक कर तनहा-तनहा, कैसे काटी काली रात?
टपक-टपककर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात??
महफिल आती रही सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद.
क्या बतलायें किससे-किससे, हमने बाँटीं सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरा जब, तुझको ही था याद किया.
हर्फ-हर्फ को लफ्ज़ बनाती, हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी हैं मैंने, जिस पर हम-तुम साथ रहे.
क्यूंकर मुझको भटकाने को, आयी यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान ज़माने में.
किस-किस के संग कैसे-कैसे खेल यहाँ खिलवाती रात..
ये रात की तन्हाईयाँ, ऐसे में तेरा गम.
पत्ते कहीं खडके, हवा आयी तो चौकें हम.
और अब एक और
मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी.
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला...
और आपने हम सबसे बदला निकाल ही लिया यहाँ पर शेरों का ढेर लगा कर वाह!! वोह गानों की पंक्तियाँ अपने जमाने में खूब सुनी हैं ' जिंदगी भर नहीं भूलेगी वह बरसात की रात .....' शायद 'बरसात की रात से हैं' या फिर कोई और सज्ज़न बता सकेंगें. वैसे मनु जी का अंदाजा अकसर सही होता है. और वह 'रात इक कली ख्वाब में आई और गले का हार बनी....' लेकिन उसकी दूसरी पंक्ति लगता है आपकी करामात है. क्योंकि वह है ही नहीं उस गाने में. यह तो पक्का पता है. कहाँ-कहाँ से शेरों को ढूंढ कर भरमार लगा दी आपने. कमाल कर दिया आपने भी. आपके शेर तो हैं ही मजेदार पर 'समीर' जी और महेश जी के भी माशाअल्लाह!!
अब अलविदा कहने की इजाज़त दें. खुदाहाफिज़.
'रात कली एक ख्वाब में आई और गले का हार हुई' - फिल्म है 'बुड्ढा मिल गया'
और दूसरी वाली लाइन ' सुबह को जब हम नींद से जागे आँख तुम्ही से चार हुई..' कुछ ऐसा याद आ रहा है कि या तो यह खुसरो जी की लिखी है, या फिर शायरों के शायर मनु जी की लिखी हुई है. सलिल जी, अब नंबर देना आपके हाथ में है.
आप तो शे'र कहने में भी महारथी हैं....मजा आ गया,,,,,
पर एक कन्फ्यूजन भी के वो शे'र
ये उडी उडी सी रंगत.........
................तेरी रात का फ़साना
किसका है,,,,?
ये तो मालूम है के बड़ा ही मशहूर शेर है और इसे बचपन से पढता सुनता आया हूँ पर आज तक नहीं पता के किसका है,,,,,,
सजीव जी या तनहा जी शायद गूगल सर्च कर के बता सकें,,,
हालांकि गालिब को पढा है पर पूरा नहीं,,,,उनका तो नहीं होगा...
नीलम जी की एंट्री बहुत भायी है,,,,,,असल में यहाँ आकर मन करता है लिखने का,,,,,
हाँ,
शन्नो जी दोहे की तरह यहाँ पर म्हणत नहीं कर रहीं,,,,,क्यूं ना इन्हें यहाँ की भी कक्षा नायिका बना दिया जाए,,,???????????????????/
गुलाबी रात की हर बात गुलाबी..
गम की अंधेरी रात में खुद को न बेकरार कर
सुबह ज़रूर आयेगी, सुबह का इन्तिज़ार कर...
जनाब हमको यहां एक आम इंसान ही रहने दीजिये. मेरी तरफ से आप सबकी खिदमत में दो शेर और:
किसी खिताब की ना ही ख्वाहिश है ना काबिल हैं उसके
बस इस रात की महफ़िल में कुछ लम्हे काटने आ जाते हैं.
हम तो बस एक रात गुजारने आये थे इस महफ़िल में
मोहब्बत मिली इतनी कि हम नादान इसे घर समझ बैठे.
तो 'सलिल' जी लीजिये मैं भी एक और ताज़ा शेर serve कर रही हूँ:
सुना था महफिलें सजतीं थीं रात में किसी जमाने में
पर अब तो तलबगार किसी भी बख्त चले आते हैं.