महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०७
कुछ फ़नकार ऎसे होते हैं,जिनके बारे में लिखने चलो तो न आपको मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं और न हीं आपको अतिशयोक्ति का सहारा लेना होता है, शब्द खुद-ब-खुद हीं पन्ने पर उतरने लगते हैं। यूँ तो आलेख लिखते समय लेखक को कभी भी भावुक नहीं होना चाहिए, लेकिन आज के जो फ़नकार हैं उनकी लेखनी का मैं इस कदर दीवाना हूँ कि तन्हाई में भी मेरे इर्द-गिर्द उनके हीं शब्द घूमते रहते हैं। और इसलिए संभव है कि आज मैं जो भी कहूँ जो भी लिखूँ, वह आपको अतिशय प्रतीत हो। पिछले अंक में हमने "गज़लजीत" जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का मजा लूटा था और उस पुरकशिश आवाज़ के सम्मोहन का असर देखिए कि हम आज के अंक को भी उन्हीं की स्वरलहरियों के सुपूर्द करने पर मजबूर हैं। तो आप समझ गए कि हम किस फ़नकार की बातें कर रहे थे... जगजीत सिंह। वैसे आज के गीत को साज़ और आवाज़ से इन्हीं से सजाया है, लेकिन आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वह इस गाने के संगीतकार या गायक नहीं बल्कि इसके गीतकार हैं। बरसों पहले "काबुलीवाला" नाम की एक फिल्म आई थी, जो अपनी कहानी और अदायगी के कारण तो मकबूल हुई हीं, उसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाया था "ऎ मेरे प्यारे वतन,ऎ मेरे प्यारे बिछड़े चमन" ने। इस गीत के गीतकार "प्रेम धवन" थे। अरे नहीं... आज हम उनकी बात नहीं कर रहे। उनकी बात समय आने पर करेंगे। इस फिल्म में एक और बड़ा हीं दिलकश और मनोरम गीत था- "गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे" । आज हम इसी गीत के गीतकार की बात कर रहे हैं। शायद आप समझ गए होंगे। नहीं समझे तो एक और हिंट देता हूँ। इसी साल इनको एकेडमी अवार्ड से सुशोभित किया गया है। अब समझ गए ना...... जी हाँ हम पद्म भूषण श्री संपूरण सिंह "गुलज़ार" की बात कर रहे हैं।
मैने पहले हीं लिख दिया है कि "गुलज़ार" के बारे में लिखने चलूँगा तो भावों के उधेड़-बुन में उलझ जाऊँगा..इसलिए सीधे-सीधे गाने पर आता हूँ। २००६ में गु्लज़ार साहब (इन्हें अमूमन इसी नाम से संबोधित किया जाता है) और जगजीत सिंह जी की गैर-फिल्मी गानों की एक एलबम आई थी "कोई बात चले"। यूँ तो जगजीत सिंह गज़ल-गायकी के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस एलबम के गीतों को गज़ल कहना सही नहीं होगा, इस एलबम के गीत कभी नज़्म हैं तो कभी त्रिवेणी। त्रिवेणी को तख़्लीक़-ए-गुलज़ार भी कहते हैं क्योंकि इसकी रचना और संरचना गुलज़ार साहब के कर-कमलों से हीं हुई है। त्रिवेणी वास्तव में क्या है, क्यों न गु्लज़ार साहब से हीं पूछ लें। बकौल गु्लज़ार साहब : "शुरू शुरू में जब ये फ़ार्म बनाई थी तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा, जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल ,एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है, नज़र नहीं आती। त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है । तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है।" गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी जो मुझे बेहद पसंद है:
"कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!"
इसे क्या कहियेगा कि जो चीज हमें सबसे आसानी से हासिल हो, उसे समझना सबसे ज्यादा हीं मुश्किल हो। ज़िंदगी कुछ वैसी हीं चीज है। और इस ज़िंदगी को जो बरसों से बिना समझे हीं जिए जा रहा है,उसे क्या कहेंगे। इंसान न खुद को समझ पाया है और न खुद की ज़िंदगी को, फिर भी बेसाख़्ता हँसता है, बोलता है और हद यह कि खुद पर गुमां करता है और दूसरों को समझने का दावा भी करता है। इस जहां में जो भी जंग-औ-जु्नूं है, उसकी सलामती का बस एक हीं सबब है और वह है नासमझी की नुमाइंदगी: अपनी हस्ती की नासमझी, अपनी ज़िंदगी की नासमझी और तो और दूसरों की ज़िंदगी की नासमझी। जिस रोज यह अदना-सी चीज हमारे समझ में आ गई, उस दिन सारी तकरारें खत्म हो जाएँगीं और फिर हम कह सकेंगे कि बस कुछ रोज जीकर हीं हमने इस ज़िंदगी को जान लिया है।
मैने कभी इन्हीं भावों को एक त्रिवेणी में पिरोने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:
यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब जिंदगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥
"ज़िंदगी क्या है जानने के लिए" में गुलज़ार साहब इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है ज़िंदगी की बेबाक तस्वीर:
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।
किसने बारूद बोया बागों में॥
आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।
सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥
हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥
हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥
ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।
तुमने मुझको पिरोके रखा था॥
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
(आज आप इस शब्द में गुंथी त्रिवेणियाँ भी पेश कर सकते हैं)
पहले रग रग से मेरी खून निचोडा उसने,
अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी नीली है...
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"सर". सलिल जी क्या शुरुआत की है आपने दमदार, लगता है शब्द सुनकर जोश आ गया...
सर को कलम कर लें भले, सरकश रहें हम.
सजदा वहीं करेंगे, जहाँ आँख भी हो नम.
उलझे रहो तुम घुंघरुओं, में सुनते रहो छम.
हमको है ये मालूम,'सलिल'कम नहीं हैं गम.
वाह...चुनावी मौसम का असर लगता है मनु जी पे छा गया है तभी तो कहा -
उंगलियाँ घी में सभी और सर कढाई में ,
इतना सब खाके भी वो देख मुकर जाते हैं
पर भाई ग़ालिब के शेर याद दिला कर एहसान किया ...वाह -
हुआ जब गम से यूं बेहिस तो गम क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता.....
इस बात पर बशीर साहब का शेर भी याद आया -
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा...
बदले से आसार हैं मन लगता नहीं है अब लोगों के दरमियाँ
रंगे-महफ़िल जमी हो जहाँ गानों की, वहीँ सर छुपा के सुकूं पाते हैं.
शन्नो जी, नीलम जी और पूजा जी, महफिले सजती रहेंगी जब तक आप जैसे कद्रदान यहाँ आते रहेंगे....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
कुछ फ़नकार ऎसे होते हैं,जिनके बारे में लिखने चलो तो न आपको मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं और न हीं आपको अतिशयोक्ति का सहारा लेना होता है, शब्द खुद-ब-खुद हीं पन्ने पर उतरने लगते हैं। यूँ तो आलेख लिखते समय लेखक को कभी भी भावुक नहीं होना चाहिए, लेकिन आज के जो फ़नकार हैं उनकी लेखनी का मैं इस कदर दीवाना हूँ कि तन्हाई में भी मेरे इर्द-गिर्द उनके हीं शब्द घूमते रहते हैं। और इसलिए संभव है कि आज मैं जो भी कहूँ जो भी लिखूँ, वह आपको अतिशय प्रतीत हो। पिछले अंक में हमने "गज़लजीत" जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का मजा लूटा था और उस पुरकशिश आवाज़ के सम्मोहन का असर देखिए कि हम आज के अंक को भी उन्हीं की स्वरलहरियों के सुपूर्द करने पर मजबूर हैं। तो आप समझ गए कि हम किस फ़नकार की बातें कर रहे थे... जगजीत सिंह। वैसे आज के गीत को साज़ और आवाज़ से इन्हीं से सजाया है, लेकिन आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वह इस गाने के संगीतकार या गायक नहीं बल्कि इसके गीतकार हैं। बरसों पहले "काबुलीवाला" नाम की एक फिल्म आई थी, जो अपनी कहानी और अदायगी के कारण तो मकबूल हुई हीं, उसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाया था "ऎ मेरे प्यारे वतन,ऎ मेरे प्यारे बिछड़े चमन" ने। इस गीत के गीतकार "प्रेम धवन" थे। अरे नहीं... आज हम उनकी बात नहीं कर रहे। उनकी बात समय आने पर करेंगे। इस फिल्म में एक और बड़ा हीं दिलकश और मनोरम गीत था- "गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे" । आज हम इसी गीत के गीतकार की बात कर रहे हैं। शायद आप समझ गए होंगे। नहीं समझे तो एक और हिंट देता हूँ। इसी साल इनको एकेडमी अवार्ड से सुशोभित किया गया है। अब समझ गए ना...... जी हाँ हम पद्म भूषण श्री संपूरण सिंह "गुलज़ार" की बात कर रहे हैं।
मैने पहले हीं लिख दिया है कि "गुलज़ार" के बारे में लिखने चलूँगा तो भावों के उधेड़-बुन में उलझ जाऊँगा..इसलिए सीधे-सीधे गाने पर आता हूँ। २००६ में गु्लज़ार साहब (इन्हें अमूमन इसी नाम से संबोधित किया जाता है) और जगजीत सिंह जी की गैर-फिल्मी गानों की एक एलबम आई थी "कोई बात चले"। यूँ तो जगजीत सिंह गज़ल-गायकी के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस एलबम के गीतों को गज़ल कहना सही नहीं होगा, इस एलबम के गीत कभी नज़्म हैं तो कभी त्रिवेणी। त्रिवेणी को तख़्लीक़-ए-गुलज़ार भी कहते हैं क्योंकि इसकी रचना और संरचना गुलज़ार साहब के कर-कमलों से हीं हुई है। त्रिवेणी वास्तव में क्या है, क्यों न गु्लज़ार साहब से हीं पूछ लें। बकौल गु्लज़ार साहब : "शुरू शुरू में जब ये फ़ार्म बनाई थी तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा, जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल ,एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है, नज़र नहीं आती। त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है । तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है।" गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी जो मुझे बेहद पसंद है:
"कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!"
इसे क्या कहियेगा कि जो चीज हमें सबसे आसानी से हासिल हो, उसे समझना सबसे ज्यादा हीं मुश्किल हो। ज़िंदगी कुछ वैसी हीं चीज है। और इस ज़िंदगी को जो बरसों से बिना समझे हीं जिए जा रहा है,उसे क्या कहेंगे। इंसान न खुद को समझ पाया है और न खुद की ज़िंदगी को, फिर भी बेसाख़्ता हँसता है, बोलता है और हद यह कि खुद पर गुमां करता है और दूसरों को समझने का दावा भी करता है। इस जहां में जो भी जंग-औ-जु्नूं है, उसकी सलामती का बस एक हीं सबब है और वह है नासमझी की नुमाइंदगी: अपनी हस्ती की नासमझी, अपनी ज़िंदगी की नासमझी और तो और दूसरों की ज़िंदगी की नासमझी। जिस रोज यह अदना-सी चीज हमारे समझ में आ गई, उस दिन सारी तकरारें खत्म हो जाएँगीं और फिर हम कह सकेंगे कि बस कुछ रोज जीकर हीं हमने इस ज़िंदगी को जान लिया है।
मैने कभी इन्हीं भावों को एक त्रिवेणी में पिरोने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:
यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब जिंदगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥
"ज़िंदगी क्या है जानने के लिए" में गुलज़ार साहब इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है ज़िंदगी की बेबाक तस्वीर:
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।
किसने बारूद बोया बागों में॥
आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।
सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥
हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥
हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥
ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।
तुमने मुझको पिरोके रखा था॥
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
(आज आप इस शब्द में गुंथी त्रिवेणियाँ भी पेश कर सकते हैं)
पहले रग रग से मेरी खून निचोडा उसने,
अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी नीली है...
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -"सर". सलिल जी क्या शुरुआत की है आपने दमदार, लगता है शब्द सुनकर जोश आ गया...
सर को कलम कर लें भले, सरकश रहें हम.
सजदा वहीं करेंगे, जहाँ आँख भी हो नम.
उलझे रहो तुम घुंघरुओं, में सुनते रहो छम.
हमको है ये मालूम,'सलिल'कम नहीं हैं गम.
वाह...चुनावी मौसम का असर लगता है मनु जी पे छा गया है तभी तो कहा -
उंगलियाँ घी में सभी और सर कढाई में ,
इतना सब खाके भी वो देख मुकर जाते हैं
पर भाई ग़ालिब के शेर याद दिला कर एहसान किया ...वाह -
हुआ जब गम से यूं बेहिस तो गम क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता.....
इस बात पर बशीर साहब का शेर भी याद आया -
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा...
बदले से आसार हैं मन लगता नहीं है अब लोगों के दरमियाँ
रंगे-महफ़िल जमी हो जहाँ गानों की, वहीँ सर छुपा के सुकूं पाते हैं.
शन्नो जी, नीलम जी और पूजा जी, महफिले सजती रहेंगी जब तक आप जैसे कद्रदान यहाँ आते रहेंगे....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
जब तक यह महफिलें सजती रहेंगीं
कुछ लोग सर छिपाने को आते रहेंगें
सर कलम करने को भी तैयार हैं कुछ
और सर को कढ़ाई में भी डुबोते रहेंगें
फुर्सत से हम भी आयेंगें यहाँ अकसर
झांक महफ़िल में कुछ गुनगुनाते रहेंगें.
सवा सेर औ' सेर हैं, साथ-साथ अंधेर.
हर महीने यूनिकविता पर होता मेरे संग बवाल,,,,,
अभी यही शेर पढिये,,,,,,,तब तक हमारी गजल का पोस्ट मार्टम सोर्री (ओपरेशन),,,,सा चल रहा है,,,,
shanno ji,
dobaraa dena padegaa meri,,,,,ghazal par commeint,,,!!!!!!!!
यह गीत/ग़ज़ल तो मैं पहले भी सुना हूँ, लेकिन आपने जो लिखा उसमें बहुत मज़ा आया।
यह जो कुछ इस नाचीज़ ने लिखने की जुर्रत की है 'रंगत' पर वह सब यहाँ हाज़िर है:
कभी महफ़िल की तरफ नज़र तक न डाली थी
जब से देखा है जिंदगी में रंगत ही कुछ और है.
चमन में खुशबू तो है फूलों की पर वीराना है
बदल जाती है इसकी रंगत उनके यहाँ आने से.
होती है छम-छम घुँघरू की जब महफ़िल में
कद्रदानों के आने से रंगत ही बदल जाती है.
गुस्ताखी माफ़ हो पर.......मन इतना बिलबिला रहा था आपकी ग़ज़ल की दो लाइनों को पढ़कर कि उससे कुछ matching करके लिखने को मेरा भी मन हुआ और...... आपकी बिना इजाज़त लिए ही मैनें भी लिख दीं दो लाइनें. नतीजा सुनने का इन्तजार रहेगा.
पहले आपकी वाली:
पहले रग-रग से मेरी खून निचोड़ा उसने
फिर कहता है कि रंगत ही मेरी नीली है.
अब मेरी वाली:
जान सारी जब निकाल लेते हैं लोग
पूछते हैं तब तबियत क्यों ढीली है.
ये खुली खुली से जुल्फें , ये उडी उडी सी रंगत,
तेरी सुब्हा कह रही है , तेरी रात का फ़साना,,,
शन्नो जी ,
ज़रा तनहा जी वाले मीटर में आइये ,,,
आप आ सकती हैं,,,
पहले रग-रग से मेरी खून निचोड़ा उसने
फिर ये कहता है कि रंगत ही मेरी नीली है.
लेकिन ये जो आपका शेर है ये कहीं वोह पोस्ट-मार्टम करने के बाद वाला तो नहीं? जिसे आप ने यहाँ पेश करने की तकलीफ की है. Just trying to confirm, that's all.
आप दोनों जिसे मेरा शेर कह रहे हैं, वह दर-असल सजीव जी ने डाला है। बात यह है कि शेर देने और शाबाशी देने का काम सजीव जी करते हैं, जो गलती से मेरा काम माना जा रहा है। मैं बस आलेख लिखता हूँ, आलेख के बीच में अपना एक शेर( आज त्रिवेणी) डालता हूँ और गाने के बोल प्रस्तुत करता हूँ...बस :)
अपने हिस्से के बाहर की बधाई पच नहीं रही थी, इसलिए लिखना पड़ा। :))
-विश्व दीपक ’तन्हा’
आगे से सब लोग शुरू करेंगे शायरी
लेकर सजीव जी, तनहा जी का नाम
भूल-चूक होने से रंगत बदलेगी और
महफ़िल से भी कट सकता है नाम.
तनहा जी, आशा है कि अब आपका पेट सही होगा. वरना जरा चूरन try कर के देखिये. Sorry about any inconvenience you suffered on our account.
गुलज़ार जी की त्रिवेणियाँ और जगजीत जी की आवाज़ ....और उस पर आपका आलेख......चंद शब्दों में तारीफ नहीं कर सकती. बस आप बधाई कुबूल कीजिये :)