ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 40
कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. दिमाग़ कहता है कि वो बेवफा है, लेकिन दिल है कि उनसे वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है. शायद इसलिए कि दिल यह नहीं चाहता कि उसका प्यार बदनाम हो, बे-आबरू हो. "वो मेरे यादों से जाते नहीं हैं, नींद भी अब एक पल को आती नहीं है, गम की बातों में बस डूबा है दिल, बात कोई और दिल को भाती नहीं है". दर्द में कोई मौसम प्यारा नहीं होता, दिल हो प्यासा तो पानी से गुज़ारा नहीं होता, कोई देखे तो हमारी बेबसी, हम सभी के हो जाते हैं, पर कोई हमारा नहीं होता. मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है, यह उन्ही की दी हुई चीज़ है. दिल तो वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है लेकिन वो वफ़ा भी अगर रिश्ते को बचा ना सके तो फिर दिल क्या करे! कुछ ऐसी ही बात कही गयी है हमारे आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' के गीत में. और इतनी खूबसूरत अंदाज़ में कहा गया है कि गीत एक सदाबहार नग्मा बनकर रह गया है. रजा मेहंदी अली खान, मदन मोहन, लता मंगेशकर, और एक फिल्मी ग़ज़ल, और क्या चाहिए दोस्तों, कमाल तो होना ही था!
1962 की फिल्म "अनपढ़" में ऐसे ही दो ग़ज़लें लताजी की थी जिन्हे पर्दे पर माला सिन्हा ने गाया था. "आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे" और "है इसी में प्यार की आबरू, वो जफ़ा करे मैं वफ़ा करूँ". इससे पहले कि आप ग़ज़ल सुने, ज़रा पढिये तो सही कि नौशाद साहब ने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में इन दो ग़ज़लों के बारे में क्या कहा था - "मैने एक बार 'रेडियो' सुन रहा था, उसमें बहुत ही दिलकश ग़ज़ल आ रही थी, फिल्म थी अनपढ़, ग़ज़ल के बोल थे "है इसी में प्यार की आबरू". मैने 'म्यूज़िक डाइरेक्टर' का नाम पता किया, मरहूम मदन मोहन साहब. मैने उनसे 'अपायंटमेंट' लिया और उनके घर पहुँच गया. मैने उनसे कहा कि मैं यह कहने आया हूँ कि आपकी अनपढ़ फिल्म की यह दो ग़ज़लें मुझे बहुत पसंद आयी, आपकी यह दो ग़ज़लें एक तरफ और मेरे सारे गाने एक तरफ. यह सुनकर मदन मोहन मेरे गले लगकर रोने लगे, कहा कि आप मुझसे काफ़ी 'सीनियर' हैं, मैं तो आपका 'जूनियर' हूँ. मैने कहा कि 'नहीं, जो सच है वो सच है, और मैं यह सबके सामने भी कहूँगा'. कुछ दिनों बाद एक 'ग्रामोफोन कंपनी' के जलसे में 'प्रेस' और पूरी 'पब्लिक' के सामने मैने यही बात कही." देखा दोस्तों आपने कि उस ज़माने में एक फनकार दूसरे फनकार की किस तरह से क़द्र किया करते थे! यही तो है सच्चे फनकार की निशानी. तो अब सुनिए "है इसी में प्यार की आबरू".
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. खय्याम साहब ने इस फिल्म में शर्मा जी के नाम से संगीत दिया था.
२. रफी लता का क्लासिक दोगाना, गीतकार हैं कैफी आज़मी.
३. मुखड़े में शब्द है - "खेल"
पिछली पहेली का परिणाम -
हमें लगा नौशाद साहब का नाम आने से सुविधा हो जायेगी. पर सब अंदाजे ही लगाते रहे. फिर भी नीरज जी ने दूसरी कोशिश में कैच लपक ही लिया. बहुत बढ़िया. दिलीप जी जानकारी को आगे बढ़ाने के लिए धन्येवाद. आपकी आवाज़ में अगर इस गीत की कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध हों तो भेजें.
कुछ याद आया...?
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. दिमाग़ कहता है कि वो बेवफा है, लेकिन दिल है कि उनसे वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है. शायद इसलिए कि दिल यह नहीं चाहता कि उसका प्यार बदनाम हो, बे-आबरू हो. "वो मेरे यादों से जाते नहीं हैं, नींद भी अब एक पल को आती नहीं है, गम की बातों में बस डूबा है दिल, बात कोई और दिल को भाती नहीं है". दर्द में कोई मौसम प्यारा नहीं होता, दिल हो प्यासा तो पानी से गुज़ारा नहीं होता, कोई देखे तो हमारी बेबसी, हम सभी के हो जाते हैं, पर कोई हमारा नहीं होता. मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है, यह उन्ही की दी हुई चीज़ है. दिल तो वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है लेकिन वो वफ़ा भी अगर रिश्ते को बचा ना सके तो फिर दिल क्या करे! कुछ ऐसी ही बात कही गयी है हमारे आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' के गीत में. और इतनी खूबसूरत अंदाज़ में कहा गया है कि गीत एक सदाबहार नग्मा बनकर रह गया है. रजा मेहंदी अली खान, मदन मोहन, लता मंगेशकर, और एक फिल्मी ग़ज़ल, और क्या चाहिए दोस्तों, कमाल तो होना ही था!
1962 की फिल्म "अनपढ़" में ऐसे ही दो ग़ज़लें लताजी की थी जिन्हे पर्दे पर माला सिन्हा ने गाया था. "आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे" और "है इसी में प्यार की आबरू, वो जफ़ा करे मैं वफ़ा करूँ". इससे पहले कि आप ग़ज़ल सुने, ज़रा पढिये तो सही कि नौशाद साहब ने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में इन दो ग़ज़लों के बारे में क्या कहा था - "मैने एक बार 'रेडियो' सुन रहा था, उसमें बहुत ही दिलकश ग़ज़ल आ रही थी, फिल्म थी अनपढ़, ग़ज़ल के बोल थे "है इसी में प्यार की आबरू". मैने 'म्यूज़िक डाइरेक्टर' का नाम पता किया, मरहूम मदन मोहन साहब. मैने उनसे 'अपायंटमेंट' लिया और उनके घर पहुँच गया. मैने उनसे कहा कि मैं यह कहने आया हूँ कि आपकी अनपढ़ फिल्म की यह दो ग़ज़लें मुझे बहुत पसंद आयी, आपकी यह दो ग़ज़लें एक तरफ और मेरे सारे गाने एक तरफ. यह सुनकर मदन मोहन मेरे गले लगकर रोने लगे, कहा कि आप मुझसे काफ़ी 'सीनियर' हैं, मैं तो आपका 'जूनियर' हूँ. मैने कहा कि 'नहीं, जो सच है वो सच है, और मैं यह सबके सामने भी कहूँगा'. कुछ दिनों बाद एक 'ग्रामोफोन कंपनी' के जलसे में 'प्रेस' और पूरी 'पब्लिक' के सामने मैने यही बात कही." देखा दोस्तों आपने कि उस ज़माने में एक फनकार दूसरे फनकार की किस तरह से क़द्र किया करते थे! यही तो है सच्चे फनकार की निशानी. तो अब सुनिए "है इसी में प्यार की आबरू".
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. खय्याम साहब ने इस फिल्म में शर्मा जी के नाम से संगीत दिया था.
२. रफी लता का क्लासिक दोगाना, गीतकार हैं कैफी आज़मी.
३. मुखड़े में शब्द है - "खेल"
पिछली पहेली का परिणाम -
हमें लगा नौशाद साहब का नाम आने से सुविधा हो जायेगी. पर सब अंदाजे ही लगाते रहे. फिर भी नीरज जी ने दूसरी कोशिश में कैच लपक ही लिया. बहुत बढ़िया. दिलीप जी जानकारी को आगे बढ़ाने के लिए धन्येवाद. आपकी आवाज़ में अगर इस गीत की कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध हों तो भेजें.
कुछ याद आया...?
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
shaandaar geet,,,,