महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०९
मिट्टी दा बावा नईयो बोलदा वे नईयो चालदा....इस नज़्म ने न जाने कितनों को रूलाया है,कितनों को हीं किसी खोए अपने की याद में डूबो दिया है। अपने जिगर के टुकड़े को खोने का क्या दर्द होता है, वह इस नज़्म में बखूबी झलकता है। तभी तो "गायिका" मिट्टी का एक खिलौना बनाती है ताकि उसमें अपने खोए बेटे को देख सके, लेकिन मिट्टी तो मिट्टी ठहरी, उसमें कोई जान फूँके तभी तो इंसान बने। यह गाना बस ख़्यालों में हीं नहीं है, बल्कि यथार्थ में उस गायिका की निजी ज़िंदगी से जु्ड़ा है। ८ जुलाई १९९० को अपने बेटे "विवेक" को एक दु्र्घटना में खोने के बाद वह गायिका कभी भी वापस गा नहीं सकी। संगीत से उसने हमेशा के लिए तौबा कर लिया और खुद में हीं सिमट कर रह गई। उस गायिका या कहिए उस फ़नकारा ने अब अध्यात्म की ओर रूख कर लिया है,ताकि ईश्वर से अपने बेटे की गलतियों का ब्योरा ले सके। भले हीं आज वह नहीं गातीं, लेकिन फ़िज़ाओं में अभी भी उनकी आवाज़ की खनक मौजूद है और हम सबको यह अफ़सोस है कि उनके बाद "जगजीत सिंह" जी की गायकी का कोई मुकम्मल जोड़ीदार नहीं रहा। जी आप सब सही समझ रहे हैं, हम "जगजीत सिंह" की धर्मपत्नी और मशहूर गज़ल गायिका "चित्रा सिंह" की बात कर रहे हैं।
चित्रा सिंह, जिनका वास्तविक नाम "चित्रा दत्ता" है, मूलत: एक बंगाली परिवार से आती हैं। घर में संगीत का माहौल था इसलिए ये भी संगीत की तरफ़ चल निकलीं। १९६० में "द अनफौरगेटेबल्स" एलबम की रिकार्डिंग के दौरान जगजीत सिंह के संपर्क में आईं और वह संपर्क शादी में परिणत हो गया। जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने एक साथ न जाने कितनी हीं गज़लें गाई हैं; जगजीत सिंह का संगीत और दो सदाबहार आवाज़...इससे ज्यादा कोई क्या चाह सकता है। इनकी गज़लें बस हिंदी तक हीं सीमित नहीं रही..इन्होंने पंजाबी और बंगाली में भी बेहतरीन नज़्में और गज़लें दी हैं। यह तो हुई दोनों के साथ की बात...अब चलते हैं चित्रा सिंह के सोलो गानों की ओर। "ये तेरा घर, ये मेरा घर","तुम आओ तो सही","वो नहीं मिलता मुझे","सारे बदन का खून","दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है","दिल हीं तो है","हर एक बात पर कहते हो",ये सारी कुछ ऎसी नज़्में और गज़लें हैं, जो बरबस हीं चित्रा जी की मखमली आवाज़ का दीवाना बना देती हैं। इनकी आवाज़ में है हीं ऎसा जादू कि कोई एक बार सुन ले तो फिर इनका फ़ैन हो जाए। इससे पहले कि इस जादू का असर कम हो, हम आपको आज की गज़ल से मुखातिब कराते हैं।
आज की गज़ल चित्रा जी के संगीत सफ़र के अंतिम दिनों की गज़ल है। १९९० में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की साथ में एक एलबम आई थी.. "समवन समवेयर(someone somewhere)"| इस एलबम में शामिल सारी गज़लें एक से बढकर एक थीं। यूँ तो हर गज़ल का मजमून मु्ख्तलिफ़ होता है, लेकिन यह नामुमकिन नहीं कि हरेक गज़ल में कोई न कोई चीज एक जैसी हो। आप खुद मानेंगे कि दुनिया में प्यार एक ऎसी हीं चीज है, जो ना चाहते हुए भी सब कुछ में शामिल है। "फ़ासला तो है मगर कोई फ़ासला नहीं" -यह गज़ल भी इसी प्यार के कोमल भावों से ओत-प्रोत है। "शमिम करबानी" साहब ने हर प्रेमी की दिली ख़्वाहिश कागज़ पर उतार दी है। कहते हैं कि अगर आपके पास प्यार है तो आपको और कुछ नहीं चाहिए। शायद यही विश्वास है जो किसी प्रेमी को दुनिया से बगावत करा देता है। मंझधार में फ़ँसा आशिक बस अपने इश्क और अपने खुदा को पुकारता है, नाखुदा की तरफ़ देखता भी नहीं। और वैसे भी जिसकी पु्कार इश्क ने सुन ली उसे औरों की क्या जरूरत...फिर चाहे वह "और" कोई खुदा हीं क्यों न हो!!!
तो अगर आपका इश्क चुप है, आपका हबीब खामोश है तो पहले उसे मनाईये, खुदा का क्या है,इश्क उसे मना हीं लेगा:
तुम बोलो कुछ तो बात बने,
जीने लायक हालात बने।
ये तो हुए मेरे जज़्बात, अब हम "शमिम" साहब के जज़्बातों में डूबकी लगाते हैं और जगजीत-चित्रा के मौज़ों का मज़ा लेते हैं:
फ़ासला तो है मगर कोई फ़ासला नहीं,
मुझसे तुम जुदा सही, दिल से तो जुदा नहीं।
आसमां की फ़िक्र क्या, आसमां खफ़ा सही,
आप ये बताईये, आप तो खफ़ा नहीं।
कश्तियाँ नहीं तो क्या, हौसले तो पास हैं,
कह दो नाखुदाओं से, तुम कोई खुदा नहीं।
लीजिए बुला लिया आपको ख़्याल में,
अब तो देखिये हमें, कोई देखता नहीं।
आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ____ को तुम,
थोडी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे...
आपके विकल्प हैं -
a) दिल , b) मन , c) खुद, d) सब
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल में जम कर शायरी हुई, "रात" शब्द ने लगता है सभी को रूमानी बना दिया, कुछ झलकियाँ पेश है -
मनु जी ने फरमाया -
सहर पूछे है शबे ग़म की कहानी मुझसे,
क्या कहूँ क्या क्या ज़हर रात पिया है मैंने,
तो पहली बार पूजा जी भी हरकत में आई इस शेर के साथ -
कहीं सूरज आकर चुरा ना ले मेरा चाँद,
हम रात भर "रात" को थामे रहे.
शन्नो जी ने बातों ही बातों में कई राज़ खोल डाले तो नीलम जी भी कहाँ पीछे रहने वाली थी -
रात -ए मौजूं देखा किये, न जाने किन रवानियों में बहते रहे |
वो चले, वो रुके थे, मगर कदम न जाने क्योँ उनके बढ़ते ही गए
सलिल साहब ने तो कई रातों का जिक्र कर डाला कुछ फ़िल्मी गीतों के मुखड़े भी गुनगुना डाले, तब उन्हें याद आये ये शेर-
ये खुली-खुली सी जुल्फें, ये उडी-उडी सी रंगत.
तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फ़साना..
सलिल जी पूरे मूड में दिखे, अपनी जवानी के दिनों को याद कर कहा -
पाक दामन दिख रहे हैं, दिन में हम भी दोस्तों.
रात का मत ज़िक्र करना, क्या पता कैसे-कहाँ?
सलिल जी जम कर रंग जमाया तो उनकी शिष्य शन्नो जी ने भी महफ़िल की आखिरी शमा कुछ यूँ कह कर बुझा दी -
किसी खिताब की ना ही ख्वाहिश है ना काबिल हैं उसके
बस इस रात की महफ़िल में कुछ लम्हे काटने आ जाते हैं.
तो युहीं आते रहें...हम तो बस यही चाहेंगे, एक गुजारिश है बस कि जो ग़ज़ल हम आपके लिए लेकर आते हैं उसके बारे में भी कुछ फ़रमाया कीजिये.....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
मिट्टी दा बावा नईयो बोलदा वे नईयो चालदा....इस नज़्म ने न जाने कितनों को रूलाया है,कितनों को हीं किसी खोए अपने की याद में डूबो दिया है। अपने जिगर के टुकड़े को खोने का क्या दर्द होता है, वह इस नज़्म में बखूबी झलकता है। तभी तो "गायिका" मिट्टी का एक खिलौना बनाती है ताकि उसमें अपने खोए बेटे को देख सके, लेकिन मिट्टी तो मिट्टी ठहरी, उसमें कोई जान फूँके तभी तो इंसान बने। यह गाना बस ख़्यालों में हीं नहीं है, बल्कि यथार्थ में उस गायिका की निजी ज़िंदगी से जु्ड़ा है। ८ जुलाई १९९० को अपने बेटे "विवेक" को एक दु्र्घटना में खोने के बाद वह गायिका कभी भी वापस गा नहीं सकी। संगीत से उसने हमेशा के लिए तौबा कर लिया और खुद में हीं सिमट कर रह गई। उस गायिका या कहिए उस फ़नकारा ने अब अध्यात्म की ओर रूख कर लिया है,ताकि ईश्वर से अपने बेटे की गलतियों का ब्योरा ले सके। भले हीं आज वह नहीं गातीं, लेकिन फ़िज़ाओं में अभी भी उनकी आवाज़ की खनक मौजूद है और हम सबको यह अफ़सोस है कि उनके बाद "जगजीत सिंह" जी की गायकी का कोई मुकम्मल जोड़ीदार नहीं रहा। जी आप सब सही समझ रहे हैं, हम "जगजीत सिंह" की धर्मपत्नी और मशहूर गज़ल गायिका "चित्रा सिंह" की बात कर रहे हैं।
चित्रा सिंह, जिनका वास्तविक नाम "चित्रा दत्ता" है, मूलत: एक बंगाली परिवार से आती हैं। घर में संगीत का माहौल था इसलिए ये भी संगीत की तरफ़ चल निकलीं। १९६० में "द अनफौरगेटेबल्स" एलबम की रिकार्डिंग के दौरान जगजीत सिंह के संपर्क में आईं और वह संपर्क शादी में परिणत हो गया। जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने एक साथ न जाने कितनी हीं गज़लें गाई हैं; जगजीत सिंह का संगीत और दो सदाबहार आवाज़...इससे ज्यादा कोई क्या चाह सकता है। इनकी गज़लें बस हिंदी तक हीं सीमित नहीं रही..इन्होंने पंजाबी और बंगाली में भी बेहतरीन नज़्में और गज़लें दी हैं। यह तो हुई दोनों के साथ की बात...अब चलते हैं चित्रा सिंह के सोलो गानों की ओर। "ये तेरा घर, ये मेरा घर","तुम आओ तो सही","वो नहीं मिलता मुझे","सारे बदन का खून","दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है","दिल हीं तो है","हर एक बात पर कहते हो",ये सारी कुछ ऎसी नज़्में और गज़लें हैं, जो बरबस हीं चित्रा जी की मखमली आवाज़ का दीवाना बना देती हैं। इनकी आवाज़ में है हीं ऎसा जादू कि कोई एक बार सुन ले तो फिर इनका फ़ैन हो जाए। इससे पहले कि इस जादू का असर कम हो, हम आपको आज की गज़ल से मुखातिब कराते हैं।
आज की गज़ल चित्रा जी के संगीत सफ़र के अंतिम दिनों की गज़ल है। १९९० में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की साथ में एक एलबम आई थी.. "समवन समवेयर(someone somewhere)"| इस एलबम में शामिल सारी गज़लें एक से बढकर एक थीं। यूँ तो हर गज़ल का मजमून मु्ख्तलिफ़ होता है, लेकिन यह नामुमकिन नहीं कि हरेक गज़ल में कोई न कोई चीज एक जैसी हो। आप खुद मानेंगे कि दुनिया में प्यार एक ऎसी हीं चीज है, जो ना चाहते हुए भी सब कुछ में शामिल है। "फ़ासला तो है मगर कोई फ़ासला नहीं" -यह गज़ल भी इसी प्यार के कोमल भावों से ओत-प्रोत है। "शमिम करबानी" साहब ने हर प्रेमी की दिली ख़्वाहिश कागज़ पर उतार दी है। कहते हैं कि अगर आपके पास प्यार है तो आपको और कुछ नहीं चाहिए। शायद यही विश्वास है जो किसी प्रेमी को दुनिया से बगावत करा देता है। मंझधार में फ़ँसा आशिक बस अपने इश्क और अपने खुदा को पुकारता है, नाखुदा की तरफ़ देखता भी नहीं। और वैसे भी जिसकी पु्कार इश्क ने सुन ली उसे औरों की क्या जरूरत...फिर चाहे वह "और" कोई खुदा हीं क्यों न हो!!!
तो अगर आपका इश्क चुप है, आपका हबीब खामोश है तो पहले उसे मनाईये, खुदा का क्या है,इश्क उसे मना हीं लेगा:
तुम बोलो कुछ तो बात बने,
जीने लायक हालात बने।
ये तो हुए मेरे जज़्बात, अब हम "शमिम" साहब के जज़्बातों में डूबकी लगाते हैं और जगजीत-चित्रा के मौज़ों का मज़ा लेते हैं:
फ़ासला तो है मगर कोई फ़ासला नहीं,
मुझसे तुम जुदा सही, दिल से तो जुदा नहीं।
आसमां की फ़िक्र क्या, आसमां खफ़ा सही,
आप ये बताईये, आप तो खफ़ा नहीं।
कश्तियाँ नहीं तो क्या, हौसले तो पास हैं,
कह दो नाखुदाओं से, तुम कोई खुदा नहीं।
लीजिए बुला लिया आपको ख़्याल में,
अब तो देखिये हमें, कोई देखता नहीं।
आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ____ को तुम,
थोडी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे...
आपके विकल्प हैं -
a) दिल , b) मन , c) खुद, d) सब
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल में जम कर शायरी हुई, "रात" शब्द ने लगता है सभी को रूमानी बना दिया, कुछ झलकियाँ पेश है -
मनु जी ने फरमाया -
सहर पूछे है शबे ग़म की कहानी मुझसे,
क्या कहूँ क्या क्या ज़हर रात पिया है मैंने,
तो पहली बार पूजा जी भी हरकत में आई इस शेर के साथ -
कहीं सूरज आकर चुरा ना ले मेरा चाँद,
हम रात भर "रात" को थामे रहे.
शन्नो जी ने बातों ही बातों में कई राज़ खोल डाले तो नीलम जी भी कहाँ पीछे रहने वाली थी -
रात -ए मौजूं देखा किये, न जाने किन रवानियों में बहते रहे |
वो चले, वो रुके थे, मगर कदम न जाने क्योँ उनके बढ़ते ही गए
सलिल साहब ने तो कई रातों का जिक्र कर डाला कुछ फ़िल्मी गीतों के मुखड़े भी गुनगुना डाले, तब उन्हें याद आये ये शेर-
ये खुली-खुली सी जुल्फें, ये उडी-उडी सी रंगत.
तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फ़साना..
सलिल जी पूरे मूड में दिखे, अपनी जवानी के दिनों को याद कर कहा -
पाक दामन दिख रहे हैं, दिन में हम भी दोस्तों.
रात का मत ज़िक्र करना, क्या पता कैसे-कहाँ?
सलिल जी जम कर रंग जमाया तो उनकी शिष्य शन्नो जी ने भी महफ़िल की आखिरी शमा कुछ यूँ कह कर बुझा दी -
किसी खिताब की ना ही ख्वाहिश है ना काबिल हैं उसके
बस इस रात की महफ़िल में कुछ लम्हे काटने आ जाते हैं.
तो युहीं आते रहें...हम तो बस यही चाहेंगे, एक गुजारिश है बस कि जो ग़ज़ल हम आपके लिए लेकर आते हैं उसके बारे में भी कुछ फ़रमाया कीजिये.....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
मिट्टी दा बावा....... वाला गाना हम भी सुनना चाहेंगे , आज की ग़ज़ल भी बहुत सुन्दर है. दर्द और प्यार में डूबी गज़लें भी कितना सुकून देती हैं .
तन्हा जी, अबकी आपने एल्बम के गानों की लिस्ट नहीं दी....आपकी लिस्ट से हमें गाने चुनकर अपनी फरमाइश भेजने का अवसर मिलता है, प्लीज़ अगली बार आप एल्बम के अन्य गाने भी बताइए ताकि हम अपनी पसंद के गानों को चुन कर आपसे उन्हें भी ले आने के लिए कह सकें .
अब आज के शेर को तो आपने पहेली में ही तब्दील कर दिया है.....सभी ऑप्शन सही लग रहे हैं :) , " मन " उत्तर सही है क्या?
इतनी प्यारी दिल को छू जाने वाली दर्द भरी ग़ज़ल हमें सुनाने का बहुत शुक्रिया. आपके ग़ज़ल और गानें हम बराबर सुनते हैं लेकिन हम अपने शेरो-शायरी की बातों में सबके साथ इतना खो जाते थे कि आपके सुनवाये गये गानों और गजलों का जिक्र करना ही भूल जाते थे. आगे से ऐसा नहीं होगा. मुझे इस बात का अहसास कराने का भी शुक्रिया. इतने सारे बेहतरीन गाने व गजलें सुनती हूँ कि किसी एक-आध की तारीफ़ करना दूसरों के साथ नाइंसाफी होगी. हाँ यह बात और है कि तोला-माशा का फर्क हो सकता है. जगजीत सिंह व चित्रा जी की गाई ग़ज़लें तो मुझे बेहद पसंद हैं. आगे भी आप सुनवाते रहिये और हम सुनते रहेंगे.
और आज आपके दिये शेर में खाली जगह में भरने के लिये मेरे मन में 'मन' व 'खुद' के बीच कशमकश चल रही है. लेकिन एक को ही चुन सकती हूँ. तो फिर.......उम्म्म्म... चलिए 'खुद' है मेरी तरफ से.
खुदी को कर बुलंद इतना
की हर तकदीर से pahale
khuda bnde से खुद poochhe
बता teree raza क्या है?
खुद को खुद पर हो yakeen तो
दुनिया से lad jaaiye.
mnzilon की fikr क्यों हो,
pair-neeche paaiye..
कह दो नाखुदाओं से, तुम कोई खुदा नहीं।
wallah kya baat hai ,college ke dino me jagjit ji ko itna suna itna suna ki casette ki real hi ghis jaati thi ath: uttar to "khud "
hi hai .
khud ke liye jiye to kya jiye ai dil tu ji jamaane ke liye .sanjeev kumaar par picturized hai .gana sujoy ji ke paas awashy hi hoga .
(aache n ki dada sei gaan ta aapnaar paas-sujoy ji ke liye sirf)
khud par aur kuch nahi hai ,filhaal to
आजाद फितरते-insaan , अंदाज़ क्यूं गुलामाना ,
याद आया संजीव कुमार पर ये गीत,,,
शायद ये भी था,,,,
नाकामियों से घबरा कर क्यूं अपनी आस खोते हो,
मैं हमसफ़र तुम्हारा हूँ, तुम क्यूं उदास होते हो,,,
कितना पुराना चित्राहार आपने याद दिला दिया,,,,
agar khud ko bhulen to kuch bhi naa bhulen...
k chahat me unki khuda ko bhula den..
ans..(khud)