महफ़िल-ए-ग़ज़ल # ०१
अब तो आ जा कि आँखें उदास बैठी हैं,
भूलकर होश-औ-गुमां बदहवास बैठी हैं।
इश्क की कशिश हीं ऎसी है कि साजन सामने हो तो भी कुछ न सूझे और दूर जाए तब भी कुछ न सूझे। इश्क की तड़प हीं ऎसी है कि साजन आँखों में हो तो दिल को सुकूं न मिले और दिल में हो तो आँखों में कुछ चुभता-सा लगे। रूह तब तक मोहब्बत के रंग में नहीं रंगता जब तक पोर-पोर में साजन की आमद न हो। लेकिन अगर दिल की रहबर "आँखें" हीं साजन के दरश को प्यासी हों तो बिन मौसम सावन न बरसे तो और क्या हो। यकीं मानिए सावन बारहा मज़े नहीं देता :
आँखों से अम्ल बरसे जो दफ़-अतन कभी,
छिल जाए गीली धरती,खुशियाँ जलें सभी।
बाबा नुसरत ने कुछ ऎसे हीं भावों को अपने मखमली आवाज़ से सराबोर किया है। "बैंडिट क्वीन" से यह पंजाबी गीत आप सबके सामने पेशे खिदमत है।
शाइर वो क्या जो न झांके खुद के अंदर में,
क्या रखा है खल्क-खुल्द, माह-औ-मेहर में?
साहिर ने प्यासा में कहा है: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" । इस सुखन के हरेक हर्फ़ से कई मायने निकलते हैं,जो ज़िंदगी को सच्चाई का आईना दिखाते हैं । एक मायना यह भी निकलता है कि "अगर बशर(इंसान) को अपनी खुदी पर यकीं न हो , अपनी हस्ती का दंभ न हो, तो चाहे उसे सारी दुनिया हीं यों न मिल जाए , इस उपलब्धि का कोई फायदा नहीं।" जब तक इंसान अपने अंदर न झांके ले और अपनी ताकत का गुमां न पाल ले, तवारीख़ गवाह है कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। जो इंसान अपने दिल की सुनता है और खुद के बनाए रास्तों पर चलता है उसे सारी दुनिया एक तमाशे जैसी लगती है और सारी दुनिया को वह कम-अक्ल से ज़्यादा कुछ नहीं। फिर सारी दुनिया उसे नसीहतें
देनी शुरू कर देती है। सच हीं है:
मेरी खु़दी से रश्क जो मेरा खु़दा करे,
नासेह न बने वो तो और क्या करे।
मिर्जा असदुल्लाह खां "गालिब" ने कहा है कि -
"मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।"
ग़ालिब की इस गज़ल को कई सारे गुलूकारों ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आईये आज हम इस गज़ल को "मोहम्मद रफ़ी" की आवाज़ में सुनते हैं और महसूस करते हैं कि इस गज़ल के एक-एक शेर में कितनी कहानियाँ छिपी हुई हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे,
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे.
उदहारण के लिए उपरोक्त शे'र में जो बोल्ड शब्द है वो है "अजनबी" अब एक और शे'र जिसमें "अजनबी" शब्द आता है वो ये हो सकता है -
हम कुछ यूँ अपनी जिंदगी से मिले,
अजनबी जैसे अजनबी से मिले...
चलिए अब कुछ आप अर्ज करें...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
अब तो आ जा कि आँखें उदास बैठी हैं,
भूलकर होश-औ-गुमां बदहवास बैठी हैं।
इश्क की कशिश हीं ऎसी है कि साजन सामने हो तो भी कुछ न सूझे और दूर जाए तब भी कुछ न सूझे। इश्क की तड़प हीं ऎसी है कि साजन आँखों में हो तो दिल को सुकूं न मिले और दिल में हो तो आँखों में कुछ चुभता-सा लगे। रूह तब तक मोहब्बत के रंग में नहीं रंगता जब तक पोर-पोर में साजन की आमद न हो। लेकिन अगर दिल की रहबर "आँखें" हीं साजन के दरश को प्यासी हों तो बिन मौसम सावन न बरसे तो और क्या हो। यकीं मानिए सावन बारहा मज़े नहीं देता :
आँखों से अम्ल बरसे जो दफ़-अतन कभी,
छिल जाए गीली धरती,खुशियाँ जलें सभी।
बाबा नुसरत ने कुछ ऎसे हीं भावों को अपने मखमली आवाज़ से सराबोर किया है। "बैंडिट क्वीन" से यह पंजाबी गीत आप सबके सामने पेशे खिदमत है।
शाइर वो क्या जो न झांके खुद के अंदर में,
क्या रखा है खल्क-खुल्द, माह-औ-मेहर में?
साहिर ने प्यासा में कहा है: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" । इस सुखन के हरेक हर्फ़ से कई मायने निकलते हैं,जो ज़िंदगी को सच्चाई का आईना दिखाते हैं । एक मायना यह भी निकलता है कि "अगर बशर(इंसान) को अपनी खुदी पर यकीं न हो , अपनी हस्ती का दंभ न हो, तो चाहे उसे सारी दुनिया हीं यों न मिल जाए , इस उपलब्धि का कोई फायदा नहीं।" जब तक इंसान अपने अंदर न झांके ले और अपनी ताकत का गुमां न पाल ले, तवारीख़ गवाह है कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। जो इंसान अपने दिल की सुनता है और खुद के बनाए रास्तों पर चलता है उसे सारी दुनिया एक तमाशे जैसी लगती है और सारी दुनिया को वह कम-अक्ल से ज़्यादा कुछ नहीं। फिर सारी दुनिया उसे नसीहतें
देनी शुरू कर देती है। सच हीं है:
मेरी खु़दी से रश्क जो मेरा खु़दा करे,
नासेह न बने वो तो और क्या करे।
मिर्जा असदुल्लाह खां "गालिब" ने कहा है कि -
"मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।"
ग़ालिब की इस गज़ल को कई सारे गुलूकारों ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आईये आज हम इस गज़ल को "मोहम्मद रफ़ी" की आवाज़ में सुनते हैं और महसूस करते हैं कि इस गज़ल के एक-एक शेर में कितनी कहानियाँ छिपी हुई हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे,
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे.
उदहारण के लिए उपरोक्त शे'र में जो बोल्ड शब्द है वो है "अजनबी" अब एक और शे'र जिसमें "अजनबी" शब्द आता है वो ये हो सकता है -
हम कुछ यूँ अपनी जिंदगी से मिले,
अजनबी जैसे अजनबी से मिले...
चलिए अब कुछ आप अर्ज करें...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
paas aati har Khushi door hi lagi
shaayar: Indeevar
बढ़िया शृंखला शुरू की आपने। उम्मीद करता हूँ कि यह स्तम्भ भी 'ओल्ड इज गोल्ड' की तरह खूब लोकप्रिय होगा। मुझे सुजॉय का विचार पसंद आया था कि इसमें जब हर तरह के गैर फिल्मी गीत हैं तो इसका नाम 'महफिल-ए-ग़ज़ल' क्यों?
आपकी इस पोस्ट में टंकण की बहुत अशुद्धियाँ है। जैसे- 'ऐसे' को आपने 'ऎसे' लिखा है। बाकी आप खुद खोज लेंगे।
1) Aisa lagta hai zindagi tum ho
Ajnabi kaise ajnabi tum ho
(Chitra Singh)
2) Ajnabi shahar ke ajnabi raaste meri tanhai par muskarate rahe, Main bahut der tak yuhin chalta raha, tum bahut der tak yaad aate rahe.(Ashok Khosla)
Pradeep Dubey
09425020970