हँसी कब ग़ायब हो गई, बेयक़ीनी कब यक़ीन में बदल गई, पता ही नहीं चला। एक ऐसे मुल्क में जहाँ ख़तरनाक ख़बरें रोज़मर्रा की हक़ीक़त बन चुकी हैं। जहां मौत तमाशा बन चुकी है वहां इक़बाल बानों की मौत ने उस आवाज़ को भी हमसे छीन लिया जो ज़ख़्म भरने का काम करती थी, जो रूह का इलाज थी। “दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं…” फ़ैज़ की ये नज़्म अगर सुननेवालों के दिलों में ज़िंदा है तो इसकी एक बड़ी वजह इक़बाल बानों की वो आवाज़ है जो इसका जिस्म बन गई। बहरहाल ये सच है कि 21 अप्रैल 2009 को इकबाल बानो अपने चाहने वालों को ख़ुदा हाफिज़ कहके हमेशा-हमेशा के लिये रुख़सत हो गईं। और इसी के साथ ठुमरी, दादरा, ख़याल और ग़ज़ल की एक बेहतरीन ख़िदमतगुज़ार एक न मिटने वाली याद बन कर रह गई।
“हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे... हम देखेंगे” यूनिवर्सिटी के ज़माने से लेकर अब तक जब कभी ये नज़्म गायी गई, बदन में सिरहन दौड़ा गई। कई बार टेप की हुई आवाज़ में इसे सुना और साथ ही सुनीं वो हज़ारों तालियाँ जो लय के साथ-साथ गीत को ऊँचा और ऊँचा उठाती रहीं। मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे कि इस नज़्म के अलावा शायद ही कभी किसी और गीत को जनता का, श्रोताओं का, दर्शकों का इतना गहरा समर्थन कभी मिला हो, हमने तो कभी नहीं देखा-सुना हालांकि सब कुछ देखने-सुनने का कोई दावा भी हम नहीं करते। अवाम की आवाज़ में हुक्मरानों के ख़िलाफ़ पंक्ति दर पंक्ति व्यंग्य की लज़्ज़त महसूस करना और ताली बजाकर उसके साथ समर्थन का रोमांच जिन श्रोताओं की यादों का हिस्सा है उन्हें इक़बाल बानो की मौत कैसे खल रही होगी इसका अंदाज़ा हम लगा सकते हैं।
पता नहीं कितनों को ये इल्म है कि इकबाल बानों की पैदाइश इसी दिल्ली में हुई। दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खान ने उन्हें शास्त्रीय संगीत और लाइट क्लास्किल म्यूज़िक में प्रशिक्षित किया। पहली बार उनकी आवाज़ को लोगों ने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली से सुना। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। अगर इजाज़त हो तो ये कहना चाहूँगा कि हमारे पास दो बेगम अख़्तर थीं, विभाजन में हमने एक पाकिस्तान को दे दी। 1952 में, 17 साल की उम्र में उनकी शादी एक ज़मींदार से कर दी गई। इक़बाल बानो की इस शर्त के साथ कि उनके शौहर उन्हें गाने से कभी नहीं रोकेंगे। ताज्जुब है कि मौसिकी के नाम पर, एक इस्लामी गणराज्य में, एक शौहर अपनहे वचन के साथ अंत तक बँधा रहा और इक़बाल बानो की आवाज़ के करिश्में दुनिया सुनती रहीं।
1957 से वो संगीत की अपनी प्रस्तुतियों के द्वारा लोकप्रियता की सीढियाँ चढ़ने लगीं। और जल्दी ही फ़ैज़ के कलाम को गाने की एक्सपर्ट कही जाने लगीं। प्रगतिशील आंदोलन के बैनर तले जब भी, कहीं भी, कोई भी आयोजन हुआ तो इक़बाल बानो की आवाज़ हमेशा उसमें शामिल रही। हर ख़ास और आम ने इस आवाज़ को सराहा, उसे दिल से चाहा। हिंद युग्म उन्हें अपना सलाम पेश करता है।
--नाज़िम नक़वी
दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं (फैज़ अहमद फैज़)
हम देखेंगे.....लाज़िम है कि हम भी देखेंगे (फैज़ अहमद फैज़)
गोरी तोरे नैना काजर बिन कारे (ठुमरी)
संगत- साबरी खान (सारंगी), ज़ाहिद खान (हारमोनियम), रमज़ान खान (तबला), अबदुल हमीद साबरी (सुरमनदल) और साईद खान (सितार)।
इक़बाल बानो को हिन्द-युग्म की श्रद्धाँजलि
हम देखेंगे का वीडियो
Comments
ek naayaab gajal gaayak kudarat humse le gaya ,shraddhanjali iqbaal
baano ji ko .
फैज़ को हमेशा ही ज़िंदा देखा है इनकी खूबसूरत आवाज में,,,,
दिलकश गायकी में,,,,
आपकी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि विभाजन ने हमसे दूसरी बेग़म अख़्तर को छीन लिया। मैंने भी इक़बाल बानो को नहीं सुना था। कल रात से सुन रहा हूँ और सुने जा रहा हूँ। पहली बार में यह असर है तो जो अर्से से महसूस करते आ रहे हैं और उन्होंने इनके विदा होने की ख़बर सुनी होगी, तो क्या असर हुआ होगा- सही में इसे आप जैसे संगीत के दीवाने ही बता सकते हैं।
कल हफ़ीज़ होशियारपुरी का कलाम सुन रहा था 'मोहब्बत करने वाले कम ना होंगे' इक़बाल की आवाज़ में। डूबो देने वाली गायकी थी इक़बाल की।
मेरी विनम्र श्रद्धाँजलि!!
आपसे सहमत हूँ. काश भारत-पाक अलग न हुए होते तो न जाने कितने फनकार और उनके कद्रदान मिल सके होते. इक्ब्क्ल बनो जी की आवाज़ में जो कशिश है उसे भूल पाना मुमकिन नहीं, सीधे दिल पर असर करती है.
मै तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ ! आखें ज़रूर नम हैं और दिल उदास हो गया एक बार और बेगम आपा को खोने के ग़म में !
साथ में उनकी गाई चंद ग़ज़लें भेज कर बहुत मेहरबानी की आपने ! एक बार फिर जी सकी उन्हें!